इतिहास पुरुष / रूपसिह चंदेल

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देखकर सहसा आंखों को विश्वास नहीं हुआ। वर्षों बाद हम मिल रहे थे। बीस वर्ष का अंतराल कम नहीं होता---- किसी व्यक्ति के जीवन के महत्वपूर्ण वर्ष---- उसके उत्कर्ष-अपकर्ष के पर्याप्त अवसरों से भरपूर.

रात के गहन अंधकार में ढिबरी की टिमटिमाती रोशनी में अकस्मात अपने सामने मुझे पा वह पहचान ही नहीं सका. अतीत को आंखों में समेट वह कितने ही क्षण तक देखता रहा, फिर धीरे से बोला, "पुनीत तुम!"

मैंने उसे बांहों में समेट लिया. वह प्रतिक्रिया विहीन प्रस्तर मूर्ति बना रहा अव्यक्त. उसे छोड़ मैंने पूछा,"यह क्या हाल बना रखा है अरबिन."

उसने क्षणांश के लिए मेरी ओर देखा, फिर बोला, "बैठो----."

रजाई एक ओर सरकाकर उसने चारपाई पर बैठने के लिए जगह बना दी. बैठते ही मैंने देखा पांच जोड़ी आंखें मेरे चेहरे पर गड़ी हैं. कड़कती ठंड में कच्ची फर्श पर चटाई पर वे पांचों बैठे थे, दो छोटे--- शायद तीसरी-चौथी और तीन बड़े---- सातवीं-आठवीं के विद्यार्थी लग रहे थे वे। मैं कुछ पूछूं इससे पहले ही वह बोला, "अब आज तुम लोग जाओ--- जितना बताया है--- कल याद करके आना."

पांचों ने अपने बस्ते-पाटी संभाले और ठिठुरते हुए दरवाजे से बाहर हो गये। वह अंधेरे में उन्हें जाता देखता रहा। "ये बच्चे----?"

मेरी बात उसने बीच में ही काट दी, ” कब आए तुम----- सुना है आजकल दिल्ली मेम हो----।"

"ठीक ही सुना है----।"

"दिल्ली तो इतनी दूर नहीं है यहां से ---- कि तुम गांव को ही भूल जाओ..." उसके स्वर में शिकायत थी। "भूलातो नहीं...."

वह मेरे चेहरे के भाव पढ़ने लगा। मैं सोचने लगा शायद वह पुरानी बचपन की आदत के मुताबिक कोई कड़वी बात कहेगा। लेकिन अपेक्षा के विपरीत उसने पूछा, "चाय पियोगे?"

"असुविधा न हो तो------।"

"असुविधा कैसी----? इन बच्चों के घर से सब कुछ आ जाता है---- दूध-गुड़ और चाय की पत्ती मैं खरीद लेता हूं-- --- तुम जानते हो ---- राशन में चीनी न तब मिलती थी जब तुम यहां रहते थे--- और न अब मिलती है---- गांव आने से पहले ही बिक जाती है आज भी----।" एक हल्की-सी मुस्कान के बाद वह आगे बोला, "मिट्टी का तेल कभी-कभी मिल जाता है---- लेकिन मुझे उसके लिए भी तंग नहीं होना पड़ता ---- ये बच्चे ही ले आते हैं अपने पढ़ने के लिए----- मेरा भी काम चल जाता है----।" वह स्टोव सुलगाने लगा था।

"कुछ भी नहीं बदला यहां---- हम चांद पर पहुंचने का दावा करते हैं ---- लेकिन हमारे गांव जहां के तहां हैं---- आज से बीस-पच्चीस साल पहले भी हम कच्ची फर्श पर बिछे फट्टों पर बैठकर पढ़ते थे---- धुआंती ढिबरियों में आंखें फोड़ते थे और आज भी यहां बच्चों को----।"

उसने मेरी बात बीच में ही लपक ली, "लेकिन बहुत दुछ बदल भी गया है गांव में पुनीत---- सुविधाओं के नाम पर भले ही गांव शून्य हैं लेकिन इस सबके बावजूद आज के गांव का चरित्र बहुत कुछ बदल गया है।--।" स्टोव पर चाय का पानी चढ़ाता हुआ वह बोला, "शहरों के वातानुकूलित दफ्तरों एवं भव्य भवनों में बैठकर हमारे राजनेता और अफसर जो तस्वीर पेश करते हैं, वह गांवों की सच्चाई से अलग और काल्पनिक होती है---- यहां एक ओर अशिक्षा और गरीबी बढ़ रही है तो दूसरी ओर रजनैतिक अखाड़ेबाजी --- इस अखाड़ेबाजी के क्षेत्र में अवश्य प्रगति हुई है यहां --- -- कल तक मजदूर अपने बच्चों को पढ़ाना पसन्द करते थे आज वे ही उनसे मजदूरी करवाना बेहतर समझते हैं---- जिससे परिवार को दॊ रोटी मिल सकें।"

चाय का गिलास मुझे थमाते हुए कुछ सुनने की आशा से वह मेरी ओर देखने लगा। मैं चुप ही रहा। चारपाई पर पायताने बैठता हुआ वही बोला, "यहां हर गांव में दो-चार घर ऎसे लोगों के मिल जाएंगे जो सामन्ती परम्परा की तरह आज भी गरीबों का शोषण कर अपनी बखरियां भर रहे हैं---- उन्होंने अपने हाथ शहर तक फैला रखे हैं, जहां से उनकी सुरक्षा की गारंटी और मनमानी करते जाने की छूट का संरक्षण मिलता रहता है। वे किसी-न-किसी नेता की थाली के चम्मच होते हैं ---- और जो उनका विरोध करने का साहस जुटाता है उसका वही हाल होता है, जो मेरे साथ हुआ था।

"तुम्हारे साथ---?"

एक विद्रूप मुस्कान के साथ वह बोला, "समय क्या हुआ है?" फिर मेरी घड़ी की तरफ देखकर बोला, "नौ बजे हैं---- घर जाने की जल्दी तो नहीं।" "नहीं"

फिर पैर ऊपर कर बैठ जाओ---- रजाई डाल लो---- ठण्ड बढ़ रही है---- इत्मीनान से चाय पी लो---- फिर बात करेगें।" उसने रजाई मेरी ओर कर दी और उठकरदरवाजा बन्द करने लगा।

०००

हाई स्कूल की बोर्ड की परीक्षा में पूरे प्रदेश में उसे दूसरा स्थान मिला था। उसके पिता के हर्ष का पारावार न रहा था उस दिन। अखबार लिए गांव भर में घूम-घूमकर वे लोगों को बताते रहे थे कि उनके अरबिन ने सारे प्रदेश में गांव का नाम ऊंचा कर दिया है। अपने सीमित साधनों से उन्होंने उसे आगे पढ़ाने का----ऊंची शिक्षा दिलाने का संकल्प कर लिया था। वे उसे वैज्ञानिक ---डॉक्टर---- या इंजीनियर बनाना चाह्ते थे। अरविन्द से घर के काम करवाने उन्होनें बन्द कर दिए थे। उसे अधिक-से अधिक समय देना चाहते थे वे पढ़ाई के लिए। हाई स्कूल तक तो वह चार मील पैदल चलकर कॉलेज आता-जाता रहा था, लेकिन अब वे सोचने लगे थे कि पैदल आने-जाने में जो समय नष्ट होता है उसका उपयोग अरविन्द को पढ़ाई के लिए करना चाहिए और इसीलिए उन्होंने इधर-उधर से जुगाड़ करके एक पुरानी साइकिल भी खरीद दी थी।

विज्ञान विषय लेने के कारण पढ़ाई के कुछ आवश्यक खार्चे भी अरविन्द के बढ़ गये थे, जिससे उसके पिता पांच बीघे खेती और अपनी पैंतीस रुपये मासिक पेंशन के बल पर--- जो उन्हें पुलिस की नौकरी से अवकाश प्राप्त करने के बाद मिलने लगी थी---- अरविन्द को पढ़ाने में कठिनाई अनुभव अवश्य कर रहे थे, लेकिन बेटे को कुछ बनाने की कल्पना को साकार करने के लिए वे कुछ भी करने को तैयार थे. उसे अधिक-से अधिक सुविधा उपलब्ध करवाने---अच्छा खिलाने -पिलाने और पहनाने की ओर ही उनकी सारी चिन्ता केन्द्रित होकर रह गयी थी. अरविन्द विरोध करता, लेकिन उनकी जिद के सामने उसे झुकना पड़ता. पायजामा-कमीज और हवाई चप्पलों में उसका कॉलेज जाना उन्हें बुरा लगने लगा था.

अब तो तुम्हें शूटेड-बूटेड रहना ही चाहिए--- नहीं तो लोग क्या कहेगें---- पूरे प्रांत में गांव-घर का नाम रोशन करने वाले लड़के को उमराव सिंह ढंग के कपड़े नहीं पहना सकते।" उनकी दलील के सामने अरविन्द को चुप रह जाना पड़्ता। और इसका परिणाम यह हुआ कि अरविन्द से छुपाकर उन्होंने दो बीघे खेत पंडित मुरलीधर को रेहन रख दी----- वे खेत ही खानदानी दुश्मनी का करण बन गये। उसके पिता के चचेरे भाई गोकुल और पंडित मुरलीधर की दुश्मनी वर्षों पुरानी थी। खेत रेहन प्रकरण से गोकुल ने उसके पिता को भी अपना दुश्मन समझ लिया और किसी-न किसी रूप में वह उनके कामों में अड़चनें डालने लगे। गोकुल यहां तक कोशिश करने लगे कि अरविन्द की पढ़ाई छुट जाय या वह परीक्षा में शामिल न हो पाये। अपने प्रमुख दुश्मन मुरलीधर को तो वे भूल गये और उसके परिवार के पीछे हाध धोकर पड़ गये। उसके परिवार की स्थिति जितनी ही सामान्य थी, गोकुल की स्थिति उतनी ही सुदृढ़ । गांव में दो ही समृद्ध परिवार थे--- पंडित मुरलीधर और गोकुल सिंह, और इन दोनों के मध्य सीधे-सरल उमराव सिंह घुन की तरह पिसने लगे थे।

गोकुल सिंह को अरविन्द की प्रगति से चिढ़ होने लगी थी। अरविन्द भी किसी संभावित खतरे से बचने के लिए अकेले कॉलेज न जाकर गांव के दूसरे लड़कों के साथ जाने लगा था। लेकिन उस दिन वह अकेला ही था। शाम जब वह कॉलेज से लौट रहा था, एक अरहर के खेत से दो अनजान चेहरे बाहर निकले और उसकी ओर लपके। दोनों के हाथ में लाठियां थीं और उनका लक्ष्य था अरविन्द। अरविन्द पहले ही सतर्क हो चुका था। साइकिल की कैंची काट उसने प्रहार बचाने की कोशिश की। वह बचा भी ले गया, लेकिन तब भी एक की लाठी उसके कैरियर से टकरा ही गयी थी।

उसने बचने का कोई उपाय न देख सामने परती पड़े जारी भरे खेत में साइकिल दौड़ा दी थी। संयोग ही था कि दोनों अनजान चेहरे नंगे पैर थे। जब तक वे जारी भरे खेतों में उसका पीछा करने का सहस जुटाते अरविन्द काफी दूर निकल गया था। उस दिन के बाद उसके पिता स्वयं उसको छोड़ने और लेने कॉलेज जाने लगे थे।

किसी तरह इंटर की परीक्षा दे लेने तक की समस्या थी। उसके बाद तो शहर जाकर पढ़ना था। इस तरह की आकस्मिक स्थितियों से अप्रभावित रहकर अरविन्द अपने अध्ययन में निमग्न रहा था और जब इंटर का परीक्षा-परिणाम आया --- उसने फिर पूरे प्रदेश में दूसरा स्थान प्राप्त किया था। पिता इस बार भी हर्ष-विभोर थे, लेकिन उन्होंने अपने हर्ष को अपने तक ही सीमित रखा था। आत्मलीन से वे उसकी आगे की पढ़ाई के विषय में---- शहर के खर्च--- और तेजी से बड़ी होती छोटी बहन के बारे में ही सोचते रहे थे। अरविन्द कि बहन उससे मात्र दो वर्ष छोटी थी--- उसके विवाह की चिन्ता भी पिता को सताने लगी थी ---- लेकिन उन्होंने निर्णय कर लिया था कि उसको किसी योग्य बनाकर ही वे बेटी की शादी करेगें---- चार-पांच साल की ही तो बात है---- और चार-पांच साल में वह इस योग्य हो ही जायेगा कि उसकी कमाई से न केवल बेटी की वे शादी कर सकेगें---- उनके सारे दलिद्दर भी दूर हो जाएंगे. उसके पिता उन दिनों इन्हीं कल्पनाओं में खोये रहते थे.

तभी एक दिन वह सब घटित हुआ।

जून का तीसरा सप्ताह शुरू हो गया था, लेकिन किन्हीं कारणॊं से खलिहान का काम पूरी तरह से सिमट न पाया था। तीन-चार किसान और थे उसके पिता की ही तरह जिनका काम भी शेष था। खलिहान का काम जब तक पूरी तरह निबट नहीं जाता था उसके पिता रात में खलिहान में ही सोते थे। उस दिन भी वे वहीं सोये हुए थे। खलिहान के एक ओर रफीक अहमद का अमरूदों का बाग है और दूसरी ओर सड़क । दोनों के बीच चांदनी में लिपटा खलिहान सोया पड़ा था। आधी रात के बाद की हवा पाकर उसके पिता सहित चारों किसान गहरी नींद में थे। तभी चार बल्लम-फरसाधारी लोग बाग से नीचे उतरे थे। चारॊं के सधे कदम उसके पिता की ओर बढ़ने रहे थे.

उनके पास पहुंच उन्हें पहचानने के लिए चारों ने कुछ क्षण तक उन्हें देखा, फिर एक दूसरे की ओर देख कुछ निश्चय किया---- और क्षणमात्र में ही पिता के रक्त के प्यासे चारों ने उन पर अपने हथियारों से प्रहार करना शुरू कर दिया। पिता कुछ चीखे होंगे---- छटपटाये होंगे---- दूसरे किसान भय से कांपते ---- चीखते गांव की ओर भागे थे और जब तक गांव वाले वहां पहुंचाते---- पिता का शरीर टुकड़ों में बंटा चारपाई पर पड़ा मिला था उन्हें.

सारे गांव के मुंह में एक ही बात थी---- "गोकुल सिंह ने ही याहै यह सब---- इस बात के स्पष्ट प्रमाण थे--- देखने वाले किसानों ने स्वयं गोकुल सिंह को वहां देखा था; लेकिन पुलिस या अदालत में कहने को कोई तैयार न था। कहने का साहस न था किसी में ---- होता भी कैसे---- गोकुल ने पुलिस को खिला-पिलाकर अपनी सुरक्षाका दुर्ग मजबूत जो कर लिया था।

वह अकेला पड़ गया था---बेहद अकेला। तब न आये थे पंडित मुरलीधर और न ही दूसरे हमदर्द। उसके पिता की हत्या एक सुनियोजित षड्यन्त्र थी---- इससे अच्छी बाधा और क्या उत्पन्न की जा सकती थी उसकी प्रगति को अवरुद्ध करने के लिए। षड्यन्त्रकारी सफल रहे थे। वह उनके विरुद्ध कुछ कर सकने की योजनाएं ही बनाता रहा था---- अनुभव-धन और दिशा-निर्देश के अभाव में कुछ न कर सका था। वह चाहे कुछ करता भी--- लेकिन मां ने कुछ न करने दिया था।

पिता को खोकर और उनके हत्यारों को छाती फुला घूमते देखकर उसका रक्त खौल-खौल उठता। उसके जीवन में एक शून्यता व्यापने लगी थी---- मन उचटने लगा था और वह विकल रहने लगा था। उसका मन चीत्कार कर उठता----’शांत बैठना कायरता है---कुछ करो---- अभी जब सुख-शांति नहीं तब भविष्य की क्या चिन्ता करना." मानसिक उद्वेलन तीव्र हो उठता--- लेकिन तभी उसे बहन का स्मरण हो आता--- और इसी तरह एक-एक कर तीन साल बीत गए---- आगे पढ़ने की कल्पना पिता की हत्या के साथ ही दफ्न हो गयी थी---- बहन की चिन्ता मुख्य थी---- जिससे वह किसी तरह तीसरे वर्ष मुक्त हो गया था----- चार बीघे खेत बेचकर.

शेष एक बीघा में क्या हो सकता था। वह नौकरी की तलाश में इधर-उधर भटकने लगा। मां बीमार रहने लगी; जिनका इलाज तक करा सकने में वह असमर्थ था। वह शहर की सड़कों की खाक छानता रहा महीनों---- वर्षों अपनी सर्टीफिकेट्स संभाले, जिनमें दर्ज थी उसकी पोजीशन-----प्रदेश में प्राप्त दूसरा स्थान---- लेकिन वे प्रमाण-पत्र उसे नौकरी दिला सकने में व्यर्थ सिद्ध हुए थे। महीनों इधर-उधर भटककर वह गांव आता--- मां की जर्जर स्थिति देखता---- और अंदर-ही अंदर घुटता रहता। अंततः थक-हारकर उसने मां को बहन के यहां भेज दिया और फिर नौकरी की तलाश में शहर चला गया। कुछ महीने एक मिल में क्लर्की भी की---- लेकिन अस्थाई पद छुट गया---- वह फिर भटका और जब कहीं कुछ न मिला तब गांव लौट आया।

गांव लौटने पर पता चला कि मां की मृत्यु हो चुकी है और उसके पिता के हत्यारे गोकुल सिंह को हैजे ने निगल लिया है। शहर के जीवन से भी वह अब तक ऊब चुका था---- उसने गांव में ही रहने का निर्णय किया। तब से वह अपने लम्बे-चौड़े भांय-भांय करते मकान में अकेला पड़ा है। कभी उसने स्वयं कुछ बन जाने की कल्पना की थी ---- वह कुछ भी न बन सका---- लेकिन अब वह यह चाहता है कि गांव का कोई बच्चा ऎसा हो---- जो गांव का--- अपने घर का नाम रोशन कर सके---- इसीलिए वह बच्चों को समेटकर पढा़ने लगा है. उसकी आवश्यकताएं न्यूनतम हैं---काम भी कुछ नहीं है--- पढ़ना और पढ़ाना। उन बच्चों के घर वालों से प्राप्त वस्तुओं से उसकी सीमित आवश्यकताओं की पूर्ति हो जाति है। उसे विश्वास है कि वह उन्हें वैज्ञानिक ---डॉक्टर या इंजीनियर योग्य अवश्य तैयार कर सकेगा. "लेकिन क्या तब गोकुल सिंह जैसे लोग न होंगे?" मेरे प्रश्न पर वह एकटक मुझे क्षणभर तक देखता रहा, फिर बोला, "होंगे--- जरूर होंगे---- तब एक गोकुल सिंह थे--- अब दसियों हैं---- लेकिन उनसे भी निबटा जायेगा." उसके स्वर में आस्था, विश्वास और दृढ़ता थी। आंखों में कौंध और घुमड़ता स्वर्ण्मयी भिविष्य था..... मुझे लगा वह कोई इतिहास पुरुष है---- कौटिल्य की भांति अपने संकल्प के प्रति समर्पित-सन्नद्ध---- उससे कुछ और पूछने का साहस मुझमें नहीं हुआ। मैं उठ खड़ा हुआ।

जब मैं लौटा आधी रात बीत चुकी थी. नवमीं का चांद पूर्वी क्षितिज से झांकने लगा था. वह मुझे सड़क तक छोड़ने आया. सड़क ठण्ड में सिकुड़ी एकदम सुनसान थी.