इति गोंगेश पाल वृत्तांत / कुणाल सिंह
बिना शपथ लिए यह एक सच्चाई का संकेत है जो झूठा भी हो तो कोई हर्ज नहीं। - कुमार अंबुज
मेरा नाम रमाकांत तालुकदार है। रमाकांत नहीं, शशिकांत। नहीं नहीं, क्या अंट शंट बक रहा हूँ- शशिकांत तो मेरे पिता का नाम है। मेरा मणिकांत ठीक रहेगा। मणिकांत कि लक्ष्मीकांत? क्या सब गड़बड़झाला है। कहानी की शुरुआत में ही यह कैसा गोलमोल रे बाबा। अजी मुझे छोड़िए, यह जिसकी कहानी है ठीक उसी पर आते हैं। और क्या? तो कहानी है गोंगेश पाल की। गोंगेश पाल कि गड्.गेश पाल? या कि गंगेश पाल? महाशय यह सब एक ही बात है - यहाँ हम उसे गोंगेश पाल कहना ही तय करते हैं। ठीक तो?
यह क्या ही अजीब बात है कि एक व्यक्ति को जीवन भर एक ही नाम से काम चलाना पड़ता है। जीवन भर ही क्यों, मरने के बाद भी तो हम उसे इसी नाम से याद करते हैं। बताइए कि दो अच्छर के नाम में उसकी पूरी छवि समा सकती है भला। एक जमाने पहले मिला था गोंगेश पाल से। उसी जमाने के अपने एक दोस्त (फिलहाल उसका नाम याद नहीं) से मिला कुछ दिनों पहले पुरी यात्रा के दौरान। पुराने दिनों को याद करते हुए बातें चल निकलीं। गोंगेश पाल की बात जब होने लगी तो वह बताने लगा कि जिस व्यक्ति को मैं गोंगेश पाल कह रहा हूँ, उसका नाम तो हरिदास पाल था। मैं अड़ गया कि हरिदास पाल वाली बात मनगढ़ंत है। मुझे ठीक ठीक याद है कि उसका नाम गोंगेश पाल ही था। अंत में हम किसी ऐसे निष्कर्ष पर नहीं पहुँचे कि मन को शांति मिलती। बताइए तो यह क्या लीला व्यापार है! अच्छा, गोंगेश पाल का नाम यदि हरिदास पाल ही होता तो कहानी में क्या बदलाव आ जाता? कहानी तो कहानी है। हरिदास पाल का यही हश्र होना होता जो उसके गोंगेश पाल रहते होता। बहरहाल आगे बढ़ते हैं।
जिन दिनों घर दुकान की दीवारों पर विज्ञापन लिखने का नया नया रिवाज चला था, उन दिनों भी यह कहानी लिख लेता तो गोंगेश पाल को क्या पता बचाया जा सकता था! मुझे याद है जब हमने मौलाली चौरस्ता से गुजरते हुए अपने जीवन में पहली बार दीवार पर चकमक रंगे एक ताजे विज्ञापन को देखा था - हम दो हमारे दो। कैसा तो लाल पीला चटख रंग था उसका! हम कई दिनों तक उसे भूल नहीं पाए थे। और झूठ नहीं बोलूँगा - मेरे मन में तब कोई खटका नहीं हुआ था, बल्कि अच्छा ही लगा था। हमारे देखने के लिए दुनिया में एक नया दृश्य बढ़ गया था। बाद के देखे हुए कुछ और भी विज्ञापन याद आते हैं - सल्फेट यूरिया, बांबे डाइंग, लाइफ ब्वाय साबुन आदि। लाइफ ब्वाय है जहाँ, तंदुरुस्ती है वहाँ! कहना नहीं होगा बगैर लाइफ ब्वाय के भी गोंगेश पाल तब तक तंदुरस्त व दुरुस्त था।
गोंगेश पाल की यह कहानी बहुत पहले ही लिख लेना चाहता था। एकाध बार ट्राई भी किया, बात बनी नहीं। दुनिया रोज बनती है और गोंगेश पाल की यह कहानी उसी अनुपात में रोज बिगड़ने लगी। आप ही बताइए - जब गोंगेश पाल से मैं मिला था और उसके विस्मयकारी चरित्र पर लिखने की सोच रहा था तब टाइपरायटर का जमाना था। मन में एक साध थी कि एक टाइपरायटर खरीदूँ और गोंगेश पाल की कहानी लिखता चला जाऊँ - डायरेक्ट। दिमाग में कुछ दौड़ा और टाइपरायटर की खटाखट पर सीधे कागज पर उतरता चला गया। कलम वलम की जरूरत कहाँ? ...अच्छा कलम की ही बात लीजिए। तब तक बाल पेन का फैशन जोरों पर था, फाउंटेन पेन का प्रचलन मृत प्राय। अब साला जेल इंक पेन से नीचे कुछ मिजाज पर ही नहीं चढ़ता... कहाँ टाइपरायटर और कहाँ कंप्यूटर। अब आप से क्या छिपाऊँ, उस वक्त चाँदनी मार्केट से सेकेंड हैंड टाइपरायटर भी नहीं खरीद सका था और आज कंप्यूटर पर इस कहानी को कंपोज कर रहा हूँ - डायरेक्ट। है न मजेदार बात! वो क्या कहते हैं एकदम बिंदास। अच्छा, एक बड़ी अजीब बात और है कि कंप्यूटर के होते कहानी कंपोज करते हुए बड़ी काहिली सी महसूस हो रही है। मन में लगातार यह कि क्या पता दुनिया में आगे क्या नया होने वाला हो? कोई आविष्कार ऐसा कि सोचो और कंपोजिंग का झमेला भी नहीं, कहानी हाथ में आ जाए - डायरेक्ट। एकदम जादू जैसी चीज।
जादू से याद आया - अपना गोंगेश पाल भी एक जादूगर ही था। पी.सी. सरकार जैसा प्रसिद्ध जादूगर होता तो आप सब भी जानते उसे। छोटा मोटा जादूगर कह लें। इसलिए मेहरबान कदरदान, मैं अच्छी तरह जानता हूँ कि उस छोटे मोटे जादूगर पर मुझ जैसा कोई छोटा मोटा लेखक ही लिखेगा और कोई छोटी मोटी पत्रिका का संपादक ही उसे छापेगा। सो जयंती मंगला का पाठ करके कहानी की शुरुआत की जाए लेकिन उससे पहले लेते हैं एक छोटा सा ब्रेक -
हैव अ ब्रेक... हैव अ किटकैट...
हुई शाम उनका ख्याल आ गया...
- क्या आपके वैवाहिक जीवन में भूचाल आ गया?
आज ही लीजिए हिमालय से चुन चुन कर लाई गई जड़ी बूटियों से निर्मित-रत्नकेशरी शक्तिवर्द्धक चूर्ण। सौ फीसदी हर्बल - देखो परखो तो जानो...
हुई शाम उनका ख्याल आ गया...
ब्रेक के बाद आपकी वापसी का स्वागत है -
चाँदनी मार्केट के भीतरी भागों में दिनोंदिन उजड़ते जाते महानगर में अब भी बच रह गईं - आबाद बस्तियाँ हैं। सत्तर फीसदी मुसलमानों की रहनवारियाँ हैं। साधारणतया मोटर पार्ट्स और टीवी, रेडियो, सीडी, डीवीडी, कंप्यूटर, मोबाइल - आदि की मरम्मत की दुकानें हैं। इन सबके छोटे छोटे चिप्स और खुले पुर्जों से बजबजाया रहता है सारा फुटपाथ। कलकत्ते से छपने वाले ज्यादातर अखबारों के प्रेस भी इसी अंचल में हैं। पुराने मकान हैं और उनमें रहने वाले किरायेदार न जाने कब से ऐसे रहते आए हैं। कोई हिसाब किताब है क्या? उनके पुरखों का जीवन भी इसी तरह बीता होगा जैसे कमोबेश उनका बीत रहा है। आगे मिर्जा गालिब स्ट्रीट की तरफ निकलने वाली गली के मुहाने पर ही जो चार मंजिली इमारत है उसकी दूसरी मंजिल की तीसरी खोली में अपने पिता के गुजरने के बाद गोंगेश पाल अकेले रहा करता है। मेरा मतलब है रहा करता था। लोग बताते हैं कि बचपन से ही गोंगेश कुछ अजीबोगरीब हरकतें करता था। एक बार दूसरी मंजिल से हाथ फड़फड़ाता हुआ कूद गया था। न जाने कहाँ से उसके दिमाग में आ गया था कि आदमी भी पक्षियों की तरह उड़ सकता है। उसे लगा होगा कि आदमी के हाथ किसी जमाने में उसके डैने रहे हों और डैनों के रूप में ज्यादा इस्तेमाल न होने के कारण इसके पर झड़ गए हों आदि। दो साल का था तब ही माँ गुजर गई। गली के मोड़ पर कबाड़ की दुकान चलाया करता था उसका बाप। शुरू की कुछ जमातें पढ़ने के बाद एक दिन गोंगेश अपने पिता से बोला - 'अब्बा, अब मुझे नही पढ़ना। मुझे कमाना है।' पड़ोस के मुसलिम लड़कों की देखादेखी वह भी अपने बंगाली बाप को अब्बा कहता था। अब्बा ने समझाया, 'कम से कम माध्यमिक पास कर जा। कोई जुगत बिठा कर किसी प्रेस में नौकरी दिलवा दूँगा। नहीं तो मेरी ही तरह कबाड़ी बना रहेगा जिंदगी भर।' पर गोंगेश एक न माना। वह कमाना चाहता था - अभी का अभी। बाप ने दो चाँटे रसीद किए और अपने साथ दुकान पर बिठाना शुरू कर दिया। धंधा पानी का हालचाल बताता और छोटा मोटा सौदा उसे ही तय करने देता। पुराने अखबार, कागज पत्तार, बहीखाता से लगा कर टूटे बर्तन और शीछो जार तक की वे खरीद करते थे - नगद। गोंगेश व्यावसायिक बुद्धि का निकाला और थोड़े ही दिनों में ऐसी ऐसी जगहों पर डंडी मार कर दिखला देता, जहाँ उसके बाप को गोंगेश के पिट जाने की पूरी समझ होती। यह भी होता रहता तो ठीक था। लेकिन कुछ दिनों के बाद अब्बा ने उसे कुछ अनमना रहते महसूस किया। उसके मन में हमेशा से कुछ और ही चलता रहता। कुछ तो उसके स्वभाव में था और रही सही कसर पूरी कर दी उस पंजिका ने जो एक सौदे के दौरान उसके हाथ अचानक ही लग गई थी। पंजिका क्या पूरी एक पोथी ही कहिए, जिसमें बंगाल के काला जादू को सिद्ध करने के तंत्र मंत्र सुझाए गए थे। बस फिर क्या था, उसके आवारा मन ने शह दिया। रोजाना दुकान के काम निबटा लेने के बाद गोंगेश पूरी लगन से उस पंजिका के अध्ययन में जुट जाता। धीरे धीरे वह कालेज स्ट्रीट से खोज खोज कर ऐसी पंजिकाओं, पोथियों और शास्त्रों को जुटाने लगा जो तंत्र मंत्र और इंद्रजाल से संबंधित हुआ करते थे।
गोंगेश ने एक पुरानी लाल डायरी में काम की बातें नोट कर लेनी शुरू कर दीं। उसने तय किया कि दिन के वक्त खाली समय में वह इसे पढ़ा करेगा। अब वह जान गया था कि तांत्रिक और जादूगर दूसरे प्राणियों से अलग जीव होते हैं। दिनांक 16.12.1964 वाले पृष्ठ पर (डायरी बहुत पुरानी थी, सो दिए गए दिनांक का कथा काल से कोई वास्ता नहीं) उसने लिखा है -
हजार सालों की तपस्या कर ऋषियों ने कहा है - पृथिवी पर जीने मरने वाले समस्त चराचरों में मनुष्य सर्वश्रेष्ठ है। मनुष्यों में भी श्रेष्ठ जाति जादूगरों की है - साधक और तांत्रिकों की। देखिए कि आम आदमी का वास्ता रोटी, कपड़ा और मकान से होता है। उसकी चिंता में देवता प्रकोप, ब्याह श्राद्ध, पत्नी की गुजारिशें, नौकरी के छूटने की चिंता आदि का प्रमुख स्थान है। किंतु जादूगर की चिंता में वह सभी चीजें होती हैं, जिन्हें आम आदमी भूल चुका है। पेड़ क्यों रो रहे हैं, घड़ी थकती नहीं क्या, रास्ते पर किसी के द्वारा भुलाया जा चुका एक जूता भी अपना रक्त माँगता है - आदि सब बातें एक जादूगर को ही सोचनी होती हैं। सूतरांग, आसपास की चीजों पर निगाह डालिए - कुछ न कुछ लावारिश और संदिग्ध आपको मिल जाएगा। और कुछ नहीं तो बेकार लुढ़क रही सोडे की बोतल या हवा में इधर उधर उड़ता एक पुराना पोस्टकार्ड। जादूगर का वास्ता इसी बोतल और पोस्टकार्ड से मिलेगा।'
- श्री रंजन मल्लिक कृत इंद्रजाल रहस्य, भाग-2, पृष्ठ 37
ये वे दिन थे जब गोंगेश पाल धीरे धीरे समाज की गिरफ्त से बाहर आ रहा था - जैसे फटी हुई चादर से हवा चुपचाप सरकती हुई निकल लेती है। गोंगेश जानता था कि जादूगर का कोई समाज नहीं होता। समाज के लिए जादूगर, बढ़ई या लुहार जैसा उपयोगी जीव नहीं होता। कोई पढ़ाई लिखाई इसलिए करता है कि डाक्टर इंजीनियर बनेगा। रुपया पैसा तो जादूगरी की लाइन में भी है किंतु बचपन से ही कोई इस तरह नहीं सोचता कि बड़ा होकर जादूगर बनेगा। समाज इसकी इजाजत नहीं देता। जादूगर एक अलग दुनिया में जीता है। वह विश्वकर्मा होता है। उसे देख कर पृथ्वी रोती है और वह अपने लिए एक नई पृथ्वी बनाता है। इस तरह गोंगेश जब गुटका पंजिका पढ़ रहा होता है तब पृथ्वी के प्रति पहली निष्ठुरता का पाठ पढ़ रहा होता है। पृथ्वी रोती है - रे दैया!
पहले पहल लोगों ने समझा, बाप के गुजरने के बाद गोंगेश की मति मारी गई है। वह रास्ता चलते अचानक रुक जाता और जमीन पर पड़े टीवी, रेडियो के किसी पुर्जे को उठा कर इस तरह देखने लगता जैसे अलीबाबा का चिराग हो। कुछ देर बाद जेब में रख कर आगे बढ़ जाता। वह दिन रात इसी तरह भटकता रहता। सबसे ज्यादा पार्क स्ट्रीट के आसपास उसे देखा जाता। दुकानों के बड़े बड़े शोरूम में खड़ी सजीधजी, रंगीन कपड़ों और महँगे जेवरों से लदी गुड़ियों को निहारता, आते जाते लोगों को गौर से देख कर पहिचानने की कोशिश करता, उनके हावभाव आदि के बारे में डायरी में नोट लिखता। 14.4.1964 के पृष्ठ पर लिखा एक मजेदार नोट देखिए -
शीर्षक - सड़कों की तितली
रसेल स्ट्रीट में उसे पहली बार देखा। फिर एक थियेटर रोड में किसी महँगी दुकान से निकलते और एक दिन लैंस डाउन में बस के लिए खड़ी भीड़ में। हो सकता है कि तीनों अलग अलग हों और मुझे भ्रम हुआ हो। मेरी बढ़ी हुई दाढ़ी और इस चिपचिपी गर्मी में भी ओवरकोट पहने रहने से उसे मैं एक अलग आदमी दिख रहा होऊँ - इसलिए पहली ही मुलाकात में उसने मुझे गौर से देखा। या हो सकता है कि वह कोई सेल्सगर्ल हो और आते जाते लोगों को इस तरह ध्यानपूर्वक देख कर उनकी औकात का अंदाजा लेती हो। इस तरह पहली नजर में हर कोई उसे ग्राहक दिखता हो। उसने मुझे टोका नहीं। इसका अर्थ यह कि उसने ताड़ लिया होगा कि मेरी जेब में फूटी कौड़ी नहीं है। आजकल के युग में रुपए पैसे की क्या माया है रे बाबा (आगे की दो पंक्तियाँ स्पष्ट नहीं) ...कितनी एक मजेदार बात की खोज मैंने की है कि जैसे जैसे वह आगे बढ़ती जाती है, मैं उसकी पहुँच से बाहर होता जाता हूँ। पीछे छूट गए आदमी को क्या एक बार मुड़ कर देख लेने से ही बराबर का दर्जा दिया जा सकता है?
इति - गोंगेश पाल।
( नोटः यह अंश व्याकरण और वर्तनी संबंधी भूलें सुधारने के बाद - लेखक )
इस तरह धीरे धीरे गोंगेश पाल इस भरीपूरी दुनिया में पीछे छूटता गया। दिन भर महानगर की सड़कों की खाक छानता फिरता और शाम होते ही हाडू घोष की भट्ठी पर जा बैठता। प्रसंगवश गोंगेश से मेरी पहली मुलाकात यहीं हुई थी। यह प्रायः रोज का नियम था कि आधा बोतल बंग्ला (देशी शराब) चढ़ाने के बाद बुड़ बुड़ की आवाज करते हुए गोंगेश अपनी लाल डायरी के किसी पन्ने को पढ़ कर हाडू को सुनाता। हाडू घोष को उसकी बातें बड़ी अच्छी लगतीं। कोई महात्मा विचारक की तरह बोलता है गोंगेश - एक बार उसने मुझसे कहा था।
'सुनता है रे हाडू, पृथिवी तो सूर्य के चारों ओर गोल गोल घूमती है। ठीक टाइम पर दिन रात घटित होता है कि नहीं? अजीब चक्रांत है साला। स्त्री पुरुष के रात्रिवास से ही सृष्टि चलती है रे हाडू। यह सब तो ईष्ट देव का बनाया नियम कानून है। कोई घूस नहीं चलेगा। लाल बाजार थाना समझ रखा है क्या? इस तरह के एक ही सत्य से खिलवाड़ करके क्या कोई बच सका है रे पृथिवी पर? इतिहास में अकबर पहले हुआ था कि सिराजुद्दौला? जवाब जान सुन कर उल्टा देने से जान सको खतरा है हाडू। और क्या? साला आदमी की क्या औकात! क्या रात में भी धूप खिला सका है कोई बैनचो?'
हाडू हँसता है। मैं हँसता हूँ। बाहर खड़ी सजी सँवरी लड़कियाँ हँसती हैं - खानगियाँ हैं सब। हाडू की बीवी भी पहले खानगी थी। खुद मैं कितनी बार उसके साथ 'बैठा' हूँ, याद नहीं। तब हाडू पुरुलिया से भाग कर नया नया आया था। पास में कुछ पूँजी थी सो तिरपाल डाल कर भट्ठी लगाई। दो पैसे के लोभ में यहीं के कुछ दलालों ने उसकी मदद की। पुलिस से जान पहिचान कराई। दो बरस पहले उसने दीवार को पक्का किया। सोनागाछी में आज की तारीख में सबसे बड़ी भट्ठी का मालिक है हाडू। रामबाग के बँधे गाहक भी यहीं अपना मुँह तर करने आते हैं। खैर, वक्त हो चला है। अब लेते हैं एक छोटा सा ब्रेक। ...आप सोचते होंगे इस तरह बार बार ब्रेक लेने की क्या दरकार! जनाब, मेरा मानना है कि कहानी को युग सापेक्ष होनी चाहिए और यदि कहानी गोंगेश पाल की हो तब तो ब्रेक की अनिवार्यता हो जाती है। यह आगे चल कर स्पष्ट होगा। बहरहाल...।
देवियो और सज्जनो पन्ने मत पलटिएगा हम अभी हाजिर होते हैं - एक छोटे से ब्रेक के बाद
साइला रे... साइला क्या बोला फिर बोल रे...
हाय आई एम शाहरुख खान एंड यू आर रीडिंग द स्टोरी आफ गोंगेश पाल।
एंज्वाय... घ्रिंड.. घ्रांड.. धूम... अपुन बोला तू मेरी लैला...
कहानी के अगले भाग के प्रायोजक हैं -
धर्मा सीमेंट-जनतांत्रिक गठजोड़ का प्रतीक
और विटामिन ई से युक्त अनूपा हेयर आयल - अब आपके बाल नाच उठेंगे।
ब्रेक के बाद की कहानी इस तरह -
अब तक यह तय होना बाकी नहीं रहा कि गोंगेश पाल ने जिस तरह की जिंदगी अख्तियार की थी वह एक नौकरीपेशा आम आदमी की हरगिज नहीं हो सकती। शीघ्र ही यह भी स्पष्ट होने से बाकी न रहा कि इस लाइन में बने रहने के लिए दुनिया में रोज घटित होने वाले परिवर्तनों का गहनतापूर्वक अध्ययन करना अनिवार्य हो गया है। गौर कीजिए कि दुनिया देखते देखते कितनी बदल चुकी है। चीजें किस कदर घुसी आ रही हैं कि कोई खाली जगह ही नहीं बचेगी कहीं। आखिर कितना कुछ जाना जा सकता है कि हर आदमी की अपनी सीमा होती है। गोंगेश के पास एक आसान रास्ता यह था कि दुकानों में, घरों में या सड़कों पर जो भी नई चीज देखे, उसके बारे में अपने जाने ठीक से पता लगाए। लोग क्या खा पी रहे हैं, क्या पहन ओढ़ रहे हैं या क्या बोल सुन रहे हैं आदि को तो ठीक से नहीं जानने से उसका काम चलेगा नहीं। आँख मूँद कर दो डग भी चला जा सकता है क्या? आखिर उसे इसी दुनिया में और इन्हीं दुनियावी लोगों से अपना काम चलाना है। फिर एक जादूगर और आस पास की चीजों का तो मामा भगिनी का रिश्ता होता है। अब कोई जादूगर आजकल के युग में खड़ाऊँ गायब करके तो खेल दिखाएगा नहीं। खड़ाऊँ जैसी चीजें तो अपने आप गायब होती जा रही हैं। उसे इन लोगों के बीच बाटा का जूता गायब करके दिखलाना होगा। तभी तो वह श्रेष्ठ जादूगर है। फिर बाटा का जूता गायब करने के लिए बाटा कंपनी के जूतों से जान पहिचान तो होनी ही चाहिए। उसे उनकी प्रकृति से वाकिफ होना पड़ता है। और क्या? दिनांक 31.1.1964 के पृष्ठ पर उसने लिखा है -
सबसे बड़ा जादू है लोगों के देखते रहते चीजों को गायब कर देना। यह साक्षात जादू है। शक की कोई गुंजाइश नहीं। दुनिया में कोई कोई जादूगर दृष्टि भ्रम से ऐसा कर दिखाते हैं (चीजें वहीं हैं पर दिखती नहीं - गोंगेश पाल) लेकिन सच्चा जादूगर चीजों को वाकई गायब करता है। यह कोई दूध भात की तरह आसान काम नहीं। दुनिया में हर चीज की अपनी दैवी शक्ति होती है। उसी के बल पर चीजें दुनिया में जमी रहने के लिए सदा संघर्ष करती रहती हैं। विद्या विशारद जादूगर को चीजों की उस शक्ति से भिड़ना पड़ता है। गुरुकृपा प्राप्त मंत्रसिद्ध जादूगर इस लड़ाई में जब जीत जाता है तो बाध्य होकर चीजों को गायब होना पड़ता है। लेकिन खबरदार, यह आग से खेलने जैसी बात है। यदि इस लड़ाई में चीजों की महाविजय हुई तो तत्क्षण ही जादूगर की विद्या बुद्धि का सर्वनाश तो होगा ही, यह कभी कभी प्राणलेवा भी सिद्ध हो जाता है।
- प्राचीन बंगाल का तिलिस्म , अन्नदाशंकर भौमिक , पृष्ठ 76
इसी से मिलता जुलता एक और नोट लिखा है- 25.8.1964 के पृष्ठ पर
विज्ञान की बात है कि पृथिवी गुरुत्वाकर्षण बल से परिमंडल को संचालित करती है। पृथिवी के ज्ञात अज्ञात समस्त जीव जंतु कीट पतंग ही नहीं, निर्जीव वस्तुओं का भी अपना भाषा सिद्धांत होता है क्या? पृथिवी का कोई भी सजीव किंवा निर्जीव चिह्न परिस्थिति संज्ञान से खाली नहीं। रसोईघर में रखी एक माचिस की डिबिया दूसरे कमरे में मेज पर रखी कलम को कूट ध्वनि तरंग द्वारा संबोधित करती है, जिसे मानव नहीं समझ सकता। यदि डिबिया पर कोई विपत्ति आए तो तत्क्षण ही कलम या दवाई की शीशी प्रतिकार कर सकती है। जादूगर को यह सब जानना चाहिए। सूतरांग, जादू के प्रदर्शन में निर्जीव वस्तुओं की मन भावना की भी चिंता कीजिए। आपकी किसी हरकत से किसी वस्तु को ठेस लगती है तो दूसरी वस्तुएँ खेल गड़बड़ा सकती हैं।
- श्री रंजन मल्लिक कृत इंद्रजाल रहस्य , भाग 2 , पृष्ठ 87
चीजों को गायब करने की बात से एक मजेदार वाकया याद आ रहा है। एक दिन हाडू घोष की भट्ठी पर बैठा माल पी रहा था कि दौड़ते हुए बंटा आया और एकाएक दरी पर थसड़ कर बैठ गया। वह बुरी तरह हाँफ रहा था और पेट पर हाथ रख कर हँसे जा रहा था। खाकी हाफ पैंट और हिमानी पाउडर की छाप वाला फोकट की सफेद झक्क गंजी पहने बंटा को देख कर भट्ठी में मौजूद लोगों ने अनुमान लगाया कि जरूर कोई मजेदार घटना देख कर आया है। कुछ लोग बिना कुछ जाने सुने पहले से ही इस बात की उम्मीद पर हँसने लगे कि अभी वह बताएगा मामला क्या है। कुछ अधैर्यवान लोग लगातार पूछने लगे कि बोल बे बंटा बात क्या है। कुछ तो बोल स्साले।
थोड़ी देर बाद बंटा स्थिर हुआ। बोला - 'अरे मत पूछो पल्टू दा, क्या दारुण दृश्य देख कर आया हूँ। बहुत मजा बहुत मजा।'
नशे में छितराए, हाती बागान के प्राणमथ बाबू को और धैर्य नहीं। अपनी आशुतोष मुकर्जी मार्का मूँछों को माल से तर करते हुए चिंघारे - 'अरे खानगी की औलाद, बताता है कि तेरी माँ को...'
बंटा - 'विक्टोरिया मैदान में गोंगेश को देखा, मालूम?'
हाडू घोष - 'हाँ, फिर?'
बंटा - 'जादू दिखा रहा था और... जानते हो, उसके आसपास जादू देखने के लिए एक प्राणी भी उपस्थित नहीं था।'
पल्टू - 'क्या रे, हवा में जादू दिखा रहा था गोंगेश?'
हाडू घोष - 'जब कोई था ही नहीं तो जादू किसको दिखा रहा था?'
बंटा - 'वही तो गुरु, मेरे साथ आनंदी का बेटा भी था। उसने पू्छा कि गोंगेश दा क्या कर रहे हो? तो गोंगेश बोला, जादू दिखा रहा हूँ। मैंने पू्छा दिखा किसको रहे हो? यहाँ तो कोई भी नहीं। तो मालूम उसने क्या जवाब दिया?'
(सब उत्सुक)
बंटा - 'उसने कहा कि जो लोग जादू देख रहे थे, उन्हें मंत्र फूँक कर गायब कर दिया है।'
हँसी के सामूहिक ठट्ठे से एकाबारगी लगा, भट्ठी की छत ही गिर जाएगी। पहले पहल मुझे दुख हुआ जब सब आपस में कहने लगे कि गोंगेश नकलची है। झूठमूठ जादू जादू करता है। उसे आता जाता कुछ नहीं। कोई कह रहा था कि ठग है, पकड़ कर पीटना चाहिए। कोई कहता था कि पागल हो गया है आदि। बाद में मुझे भी लगा कि लोगों की बातों में दम है। यदि वाकई गोंगेश जादूगर तांत्रिक आदि होता तो समाज में अपनी विद्या का प्रदर्शन क्यों नहीं करता। कितने तो जादूगर हैं जो अपना खेल दिखा कर हजारों कमा रहे हैं। छुटभैये सब नुक्कड़ पर या लोकल ट्रेनों में एकाध मैजिक दिखा कर फुटकर कमा कर पेट पाल लेते हैं अपना। लेकिन अपने गोंगेश को तो आज तक किसी ने कोई खेल दिखाते नहीं देखा। पूछने पर उल्टा कहता है कि अभी पक्का जादूगर नहीं बना इसलिए दिखाता नहीं। आधी विद्या के प्रदर्शन से सर्वनाश हो जाता है आदि। यह तो वही अनादि अनंत वाला किस्सा हुआ जी! अरे कोई तो शुरुआत हो, कहीं तो तुम पकड़ में आओ। प्राणमथ बाबू ठीक ही कहते हैं कि पंजिका पोथी पढ़ कर ही जादूगर बनना होता तो अब तक हजारों लोग जादूगर बन गए रहते। अजी व्यापक साधना की जरूरत होती है इसके लिए - खेला बात नहीं है कोई। पहले के ऋषि मुनि नहीं करते थे तपस्या आदि! तभी तो निमता के त्रिजटा बाबा हुगली नदी पर यों चल कर दिखा दिए थे कि क्या कोई जमीन पर चलता हो! और कुछ नहीं जी, सौ में एक बात यह कि जितना जतन कर लो पेट में बच्चा और विद्या छुपाए नहीं छुपती।
हाँ तो मेहरबान कदरदान, आप सबको विदित हो कि हाडू घोष की भट्ठी पर गोंगेश को लेकर घटित हुई मजाक की यह बात तब की है जब घर दुकानों की दीवारों पर विज्ञापन लिखने का नया रिवाज चला था। गोंगेश पाल को लेकर कविता या कहानी जैसा कुछ लिखने का विचार पहले पहल लगभग इन्हीं दिनों आया था दिमाग में। तब से हुगली में कितना पानी बह निकला - हिसाब है कोई? नक्सलियों को पूरी तरह खत्म किया जा चुका था। सत्ता में सीपीआई (एम) विराजमान हो चुकी थी। लोगों का जीवन चैन शांति से कट रहा था। नए लड़के पढ़ाई लिखाई कर विदेश जाने लगे - दिल्ली, बंबई, अमेरिका, दुबई। अब कोई जरूरत नहीं रही लेनिन माओ को पढ़ने की। दुनिया की धारा दूसरी तरफ हो गई। पैसा कमाओ घर बसाओ। विचारधारा वालों को लाल बाजार पुलिस ठोक देगी सरे राह। दुनिया क्या से क्या हो गई। एक एक करके सारे चटकल बंद हो गए। कोलकाता की सड़कों पर बिहारी, उड़िया और गरीब बंगालियों का एक नौकर बाजार बन गया। घर बैठे एक फोन घुमाइए और हर काम में पारंगत नौकर पाइए - वाजिब और मुनासिब दाम पर। हमारे यहाँ महिलाओं के मन बहलाव के लिए हष्ट पुष्ट लड़कों की भी सप्लाई की जाती है। कैटलाग फैसिलिटी और प्राइवेसी की पूरी गारंटी। ...यह ठीक है कि मेटियाबुर्ज, गोड़िया, तारातल्ला, बेहाला, ठाकुरपुकुर आदि कई जगहों पर कोलकाता का चेहरा कमोबेश पहले जैसा ही रहा। लेकिन चेहरे के इर्दगिर्द की हवा कितनी बदल गई है! हर नुक्कड़ पर फास्ट फूड सेंटर, साइबर कैफे, तीन महीने के कोर्स में खाना बनाना सिखाने वाले सेंटर, धाराप्रवाह अंग्रेजी बोलना सिखाने वाले सेंटर। ब्यूटीपार्लर तो मस्ट है रे गुरु! एकदम होना ही माँगता- क्या! चारों तरफ सनसनी, छिछोरापन और तामझाम का जमाना। पेप्सी, शाहरुख, कंडोम और मोबाइल। सबसे बड़ी सुरक्षा विह्सपर सुरक्षा। मार्निंग वाक, जॉगिंग, योगा, जिम। स्लिम एंड सेक्सी फिगर। काँटा लगा हाय लगा...। दुनिया की मति गति का कोई ठिकाना नहीं। कभी आगे कभी पीछे। जोड़ासाकू की बड़ी घड़ी के पेंडुलम की तरह।
टक अटलबिहारी वाजपेयी - टक मंदिर बन कर रहेगा - टक मुंबई चेन्नई की तरह कलकत्ता भी कोलकाता - टक डेवोनियर, फैंटेसी - टक मल्टीप्लेक्स, राहुल बोस - टक क्योंकि सास भी कभी बहू थी - टक मो. अजहरुद्दीन - टक एसएफआई, लाल सलाम - टक प्रेसिडेंसी कालेज - टक अग्निकन्या ममता बनर्जी - टक हिंदू मुस्लिम भाई भाई - टक नरेंद्र मोदी - टक आती क्या खंडाला - टक कौन बनेगा करोड़पति - टक कर लो दुनिया मुट्ठी में - टक - टक - टक - बारह बज कर पाँच मिनट।
जोड़ासाकू की बड़ी घड़ी ने बजाया बारह बज कर पाँच मिनट। समय हो चला है एक छोटे से ब्रेक का।
कहानी के बीच एक छोटा सा ब्रेक -
क्या मौत भी सच्चे प्यार को जुदा नहीं कर सकती? क्या हर जन्म में उस प्यार की आवाज आती है?
देखिए - सौ बार जन्म लेंगे
सोमवार से शुक्रवार रात 8:30 बजे - सिर्फ स्टार प्लस पर।
आस्ट्रेलिया के खिलाफ मेलबोर्न में चल रहे पाँचवे और अंतिम एकदिवसीय मैच में भारत का स्कोर हुआ बाइस ओवर में 172 रन, तीन विकेट के नुकसान पर। अंतिम आउट होने वाले वीवीएस लक्ष्मण ने 70 रनों का निजी स्कोर खड़ा कर लड़खड़ाती भारतीय बल्लेबाजी को सहारा दिया। क्रीज पर अभी राहुल द्रविड़ (37) और मो. कैफ (15) टिके हुए हैं। आगे की जानकारी 'हल्दीराम भुजिया क्रिकेट अपडेट' के अगले एपीसोड में।
'हल्दीराम भुजिया क्रिकेट अपडेट' के सह प्रायोजक पेप्सी, ये प्यास है बड़ी! और लक्स कोजी, ये अंदर की बात है।
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मौलाली चौरस्ता से गुजरते हुए जब जीवन में पहली बार किसी विज्ञापन को देखा था तब इत्तेफाकन गोंगेश मेरे साथ था। उसके पूछने पर 'हम दो हमारे दो' में निहितार्थ की व्याख्या मैंने ही की थी। जहाँ तक मुझे याद है, तब वह मुस्कुराया था। पू्छा - 'और जो खुद ही दो न हो?' मुझे हँसी आई। वह शादी क्यों नहीं कर लेता जैसे किसी सवाल से वहाँ उसको बहलाया जा सकता था। लेकिन तब मुझे मालूम न था, वह भीतर ही भीतर क्या खिचड़ी पका रहा था। उसने मन ही मन कहा होगा - बैनचो अब इनकी इजाजत लेनी होगी बच्चे पैदा करने वास्ते। लेकिन ये हैं कौन सब जो इस तरह लोगों को उपदेश दे रहे हैं? अगर वह पूछता तो मैं अपनी इस जानकारी को जरूर प्रदर्शित करता कि यह भारत सरकार द्वारा जनहित में जारी संदेश है। लेकिन कहता कैसे क्योंकि तब के जमाने में यह शब्दावली भी तो विकसित नहीं हुई थी। हो सकता है तब मैं इसी अर्थ के लिए किन्हीं दूसरे जुमलों का इस्तेमाल करता। या क्या पता कि तब उस विज्ञापन का तंत्र ठीक से मेरी समझ में आता भी कि नहीं। कुल गरज यह कि तब मुझे किसी खतरे का आभास नहीं हुआ था। गोंगेश का चेहरा अमूमन विकारहीन होता था। देख कर यह पता लगाना बहुत कठिन होता कि उसके भीतर क्या चल रहा है। मुझे हमेशा से वह उदास दिखा। या क्या पता उसके चेहरे की बनावट ही ऐसी हो।
गोंगेश किसी महात्मा, विचारक की तरह बोलता है - एक बार हाडू ने कहा था। उसकी बीवी क्या पता क्यों गोंगेश से चिढ़ती थी। बोली - 'उसके साथ बात करना अपने समय को नष्ट करने जैसा है।'
मुझे यह सुन कर कोफ्त हुई। खानगी का समय कितना मूल्यवान होता है, यह कौन नहीं जानता! साली घंटे का तीस लेती थी। ब्याह कर लेने से ही खानगियाँ पूरी तरह बदल जाती हैं क्या?
लेकिन उसके तर्क ठीक लगते हैं - प्रत्यक्ष रूप से मैंने कहा। मैं जानता था 'तर्क' का मानी हाडू की बीवी नहीं जानती। जानता यह भी था कि गोंगेश के तर्क हुगली नदी के बुलबुले की तरह होते हैं। या ज्यादा हुआ तो अंडे के खोल की तरह कह लें - जैसे इकतारा बजा कर गाने वाले बाउलों के होते हैं। एक वहशी उन्माद ही उन अनपढ़ तर्कों के बिखरे सिरे जोड़ सकता है। मैंने देखा हाडू की बीवी भीतर जाने लगी। जाते हुए उसने कैसे तो मुझे देखा और उसकी देह कैसे तो लचक उठी - यह मुझे अच्छी तरह मालूम है। धंधा छोड़ने के बरसों बाद भी रोजमर्रा की आदतों के महीन सिरे पर पुरानी खानगियाँ एकबारगी पहचानी जा सकती हैं।
हाडू की बीवी के जाने के बाद मैं भी चल पड़ा बाहर की हवा खाने। एक बासी गाना अधबुझे चूल्हे के धुएँ की तरह उड़ता हुआ बह रहा था। चारों तरफ खानगियों के हँसने महकने और सीटी मारने का शोरगुल। यह शोरगुल पूरे सोनागाछी इलाके में एक सा बना रहता है। आँखें बंद करने से हठात पता नहीं चलेगा किस गली के सामने खड़े हैं। आगे जाकर बी के पाल एवेन्यू क्रासिंग तक पहुँचते पहुँचते शोरगुल की प्रकृति बदल जाती है - सड़क की गति और उस पर चलने वाले आदमियों के कदमों की भाषा भी।
इंडियन एक्सप्रेस की बिल्डिंग के बाजू चाय की गुमटी के पास गोंगेश मिल जाता है। 'क्यों रे, आजकल नहीं आता हाडू के यहाँ।' मैं पूछता हूँ। जवाब देने के बदले वह मेरे साथ हो लेता है। फिर कहाँ न कहाँ भटकते हुए हम मौलाली चौरस्ता के सामने दीवार पर लिखे उस विज्ञापन के सामने जा खड़े होते हैं। सचमुच उस वक्त मैं यह भाँप न पाया कि गोंगेश की मति गति किधर है!
रीगल सिनेगा के सामने पोस्टर देखते हुए वह पूछता है - 'क्यों दादा, क्या मैं भी अपना विज्ञापन लिखवा सकता हूँ?'
पोस्टर बड़ा ही अर्थवान था। एक अधेड़ औरत एक तरफ खड़ी है और ठीक उसके सामने उसके घुटने तक एक पर एक रखी मोटी मोटी किताबों के ऊपर चढ़ कर एक पंद्रह सोलह साल का लड़का खड़ा है। दोनों मुँह से मुँह सटाए किस कर रहे हैं - फ्रेंच किस। लड़के का दायाँ हाथ औरत के ब्लाउज के भीतर है जिस पर काला रंग पोत दिया गया है। पोस्टर में सबसे नीचे पीले बड़े अक्षरों में शीर्षक दिया गया है - मस्ती बड़ी सस्ती। नीचे एक बेस लाइन भी है - ही इज सिक्स्टीन, आई ऐम फोर्टी प्लस। आई ऐम हिज ट्यूटर।
'क्यों दादा, आपने कुछ बताया नहीं! क्या मेरा भी...'
'तेरा दिमाग फिर गया है। और क्या? माथा ठंडा करके ठीक से सोच।'
'क्यों नहीं भला? मैं एक जादूगर हूँ। मेरा भी पोस्टर छप सकता है। जैसे ओलंपिक सर्कस वाले छपवाते हैं।'
'उसके लिए चाहिए पूँजी - कैपिटल। कहाँ से लाओगे?'
'वो सब बंदोबस्त हो जाएगा दादा। मुझे एक आदमी मिला था चार दिन पहले। वो थियेटर रोड एजेसी बोस रोड क्रांसिंग पर। बता रहा था कि ठीक से पब्लिसिटी होने से ही धंधा निकल पड़ेगा। उसने मेरा नाम पता आदि नोट किया और फिर मिलेगा बताया।
'कोई फ्राड होगा। आजकल की दुनिया में ऐसे लोगों की कमी है क्या?'
'कोई गोलमाल नहीं। फिफ्टी फिफ्टी की भागीदारी होगी दादा। लिखा पढ़ी पहले। मुझे सिर्फ उसका साथ देना है। वह जहाँ कहे, वहीं जाकर जादू का प्रदर्शन करना है। और कहीं करने से मेरा मूल्य घट जाएगा - बोलता था। भीड़ वह जुटाएगा। टिकट लगाएगा। पब्लिसिटी करेगा - यह भी कहा उसने। दिमाग उसका, काम मेरा - फिफ्टी फिफ्टी।'
खाओ ब्रिटेनिया फिफ्टी फिफ्टी - वेरी वेरी टेस्टी टेस्टी। गोंगेश ठीक कहता है। वह आदमी सचमुच मिला था उसे। पचपन छप्पन का होगा। खिजाब से बाल काला किए। ढीली ढाली रंगीन कमीज और खूब टाइट जीन्स पहने। कपड़े उस पर जरा भी नहीं फब रहे थे। बोलता था तो मुँह से थूक की बिंदियाँ झड़ती थीं।
'यू आर इंटेलिजेंट, ऐज वेल ऐज नीडी। आई ऐम इंटेलिजेंट, ऐज वेल ऐज ग्रीडी। मेक अ बांड टूगेदर। मालामाल कर दूँगा तुम्हें। तुम्हारा अपना दफ्तर होगा - फर्स्ट क्लास एसी चेंबर में बैठना। पूरा आफिस पेपरलेस - सेंट परसेंट कंप्यूटराइज्ड। फोन फैक्स की सुविधा। दुनिया जहान से संपर्क। आज लंदन कल टोक्यो में विजिट।
'अंग्रेजी जानते हो? कोई बात नहीं। एक दो वाक्य बांग्ला में बोलने के बाद डैम गुड, फक इट, ओ शिट, गो टू हेल आदि बोलते रहना। बाकी मैं सँभाल लूँगा। आखिर मैं किस लिए हूँ।
'अरे तुम कुछ नहीं जानते गोंगेश - दुनिया बदल रही है। नब्ज पकड़ो दुनिया की। हर युग में लोग किसी चमत्कार की प्रतीक्षा करते हैं। चमत्कार माने जादू। आफिस के बाद लोगों को चाहिए इंटरटेनमेंट। लोग पैसे देकर देखेंगे तुम्हारा जादू। नेताजी इंडोर स्टेडियम में खूब भव्य शो आयोजित करवाऊँगा - स्पांसरशिप के पैसे से। फिर साल्टलेक स्टेडियम, निको पार्क और पीयरलेस इन्न में भी। हर शो के पहले रवींद्र संगीत होगा। लोगों को कैसे नचाना चाहिए, यह मैं अच्छी तरह से जानता हूँ गोंगेश।
'शक की कोई गुंजाइश नहीं। आमदनी आधा आधा लिखा पढ़ी पहले - समझे गोंगेश।'
गोंगेश का माथा घूम रहा था। यह सब तो होगा - ठीक है। लेकिन उस डर का क्या करें जो चौबीसों घंटे उसके साथ लगा रहता है। - कहीं यदि वह जादू दिखाने में असफल हुआ तो? पहले का कोई प्रैक्टिस भी तो नहीं। पब्लिक के सामने पोल खुल गई तो जूते पड़ेंगे। हो हल्ला होगा, अखबार में नाम आ जाएगा। पब्लिक को उल्लू बनाने के जुर्म में लाल बाजार भी जा सकता है। एक बार थाने जाने पर पुलिस आदमी के पिछाड़ का क्या हाल करती है, जानता नहीं क्या! जिंदगी भर लंगड़ाते बीतेगा।
यह वह समय था मित्रो जब गोंगेश को किसी पुख्ता नतीजे पर पहुँचना था। दुनिया एक नई मंजिल के लिए सफर की तैयारियाँ कर चुकी थी। यह पूरी तरह गोंगेश पर था कि वह इस सफर में दुनिया के साथ चलता है या पिछड़ जाना पसंद करता है। इसमें कोई संदेह नहीं कि जरा भी हिम्मत दिखलाता तो करोड़पति हो सकता था गोंगेश। लेकिन फिर वही...। उस डर का क्या करे गोंगेश... गड.गेश... या कि गंगेश!!
अच्छा, गोंगेश का नाम यदि हरिदास पाल रहता तो सचमुच कहानी क्या वही रहती जो अब है! कितने तो लोग अंकशास्त्रियों से राय मशवरा कर अपने नाम के हिज्जे बदल लेते हैं और क्या से क्या हो जाते हैं। सफलता उनके कदम चूमने लगती है। गोंगेश के केस में तो पूरा नाम ही बदल जाता है। फिर? ...देखा जाए तो गोंगेश नाम में भी कोई बुराई नहीं थी। दुनिया में कितने तो गोंगेश हैं जिन्होंने तब जरा सी हिम्मत दिखलाई और उनका वारा न्यारा हो गया। टीवी पर आने लगे यह कहते हुए कि आप भी बन सकते हैं करोड़पति या कि बनिए मेरी तरह अंदर से स्ट्रांग आदि।
लेकिन मेहरबान कदरदान, जिस गोंगेश पाल की यह कहानी है उसका कुछ न बना। अलबत्ता वह जहाँ पहले था, वहाँ भी न रहा। एक दिन न जाने क्यों दूसरी मंजिल से कूद कर उसने अपनी जान दे दी। क्या पता वह अपने जादू की परीक्षा कर रहा हो! वह सोच रहा हो कि कूदते हुए हवा में मंत्र फेंकेगा और उसे कुछ न होगा। याद है? एक बार बचपन में वही गोंगेश उतनी ही ऊँचाई से कूद पड़ा था। उस वक्त तो बच ही निकला था अंततः। पता नहीं इस बार क्या हुआ?
क्या यह महज इत्तेफाक ही है कि गोंगेश के आत्महत्या के थोड़ी देर बाद ही, अभी आसपास के छोकरे रोते बिलखते उसकी अंतिम यात्रा की तैयारी में जुटे थे कि, दुनिया में एक ऐसा चमत्कार हुआ कि लोगों की आँखें फटी रह गईं। अजी मैं उसी चमत्कार की बात कर रहा हूँ जिसे आपने भी अपनी नंगी आँखों से देखा होगा। पूरे भारत भर में चमत्कार की यह घटना कैसे बिजली की रफ्तार से फैली थी, इसके गवाह हम और आप दोनों हैं।
सुबह अखबार देखा तो दंग रह गया था कि मेरी तरह और भी लोग हुए होंगे - आप भी शायद। घटना की शुरुआत दिल्ली से हुई थी जब सफदरजंग अस्पताल के पास किसी श्रद्धालु के हाथों भगवान गणपति ने दुग्धपान करना आरंभ किया था। फिर क्या था - देश भर में लाखों गणपतियों को लाखों लोगों ने लाखों बाल्टियाँ दूध पिला दिया। कलकत्ते के लोग सबसे आगे रहे। श्रद्धालु भक्त पार्टियों द्वारा हर गली, हर नुक्कड़, हर चौराहे पर कैंप बना कर गणेश जी को दूध पिलाने का बंदोबस्त किया गया। वैज्ञानिकों और नास्तिकों को धता बताते हुए लोगों के मन में भक्तिकालीन श्रद्धा का भाव इतने दिनों के अज्ञातवास के बाद पुरानी शिद्दत के साथ लौट आया। खुद मैंने अपने दफ्तर के लोगों के साथ लाउडन स्ट्रीट पर बने कैंप में जाकर बाकायदा लाइन लगा कर गणपति को दूध अर्पित किया। कैसे इंकार किया जा सकता है भला!
कुछ लोगों ने व्यावसायिक नजरिए से इस पूरे घटनाक्रम का अध्ययन किया। कम्यूनिस्टों के इस शहर में भी इतने भक्त लोग रहते हैं - यह पहली बार पता चला। जरा गौर करने पर ही इस बात का खुलासा किया जा सकता था कि इन भक्तों की प्रकृति पहले से जुदा और एकदम नई है। इनके हृदय में जो भक्ति भावना है, वह अनूठी है। इतिहास उलटने पर पता चला कि इस तरह के भक्तों के निर्माण का कार्य एक अरसा पहले किसी रामानंद सागर ने रामायण बना कर शुरू कर दिया था। नौकरीपेशा, व्यापारी और धन्नासेठों से लेकर भीख माँगने वाले लोगों तक में भक्ति की एक नई भावना विकसित हुई। घटनाक्रम का विस्तार से अध्ययन करने वालों ने फिलहाल के लिए अपने रजिस्टर में नोट किया कि समय आने पर ये नए भक्त लोग ही देश को एक नया रुख देंगे। कहना न होगा कि दृष्टि में पड़ने वाली सतह के बहुत नीचे तब गुपचुप ही एक नए एजेंडे पर काम शुरू हो चुका था। कभी कभी मैं सोचता हूँ कि आज की तारीख में गोंगेश यदि जीवित रहता तो आस्था या संस्कार जैसे किसी चैनल के साथ साझेदारी में 'गोंगेश्वरजी महाराज - लाइव इन कंसर्ट' नामक एक कार्यक्रम बना कर लाखों कमाया जा सकता था। याद है कि हाडू ने कहा था - किसी महात्मा विचारक की तरह बोलता है गोंगेश।
बहरहाल, मैं अकसर सोचता हूँ कि गोंगेश की आत्महत्या और जगतव्यापी इस चमत्कार का कोई तो 'कार्य कारण' संबंध होना चाहिए। झूठ नहीं बोलूँगा कि मैं साधारणतया किसी निष्कर्ष पर नहीं पहुँचता और पहुँचता भी हूँ तो किसी ऐसे निराकरण पर कि दो दिन बाद खुद के ही सोचे पर शर्म आए। मैं हूँ ही ऐसा। मैं न जाने कब से सोचता हूँ कि गोंगेश पर एक कहानी लिखूँगा और देखिए न कि हर बार सिर्फ सोचता ही रह जाता हूँ।