इत्तिफाक ताकत है / प्रेमचंद

Gadya Kosh से
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एक जमाने में हिन्दुस्तान के लोग इस सीमा तक युद्धप्रिय थे कि बात-बात पर तलवारें चलती और खून की नदियाँ बहती थीं। या अब लोग ऐसे शान्तिप्रिय हो गए हैं कि पत्तों के खड़कने से भी कान खड़े हो जाते हैं और हाय बवेला मच जाता है। यह अंग्रेजी राज की बड़ी अनुकम्पा है। जब से सूरत कांग्रेस कुछ अदूरदर्शी देशभक्तों की अन्यायपूर्ण कार्रवाइयों से छिन्न-भिन्न हो गई है, नेशनलिस्ट और माडरेट - दोनों पक्ष एक दूसरे के जानी दुश्मन हो गए हैं और जिम्मेदार हलकों से यह आवाज लगातार सुनाई देती है कि अब दोनों पक्षों में एकता होनी कठिन है। यहाँ तक कि दोनों ओर से अलग-अलग अधिवेशन किए गए और आगे भी किए जाने की तैयारियाँ हो रही हैं।

हिन्दुस्तान अपने विचार-स्वातंत्र्य और विशाल-हृदयता के लिए सदा प्रसिद्ध रहा है। यह बात इसी देश में देखने में आती है कि मामूली पत्थरों के समक्ष श्रद्धा से नतमस्तक होने वालों से लेकर उच्च कोटि के स्वतंत्र विचार दार्शनिक तक सभी हिन्दू-धर्म की विस्तृत सभा के सदस्य समझे जाते हैं। मगर धर्म के बन्धन से मुक्त होने पर भी कांग्रेस समान विचार के पक्षों को अपनी मंडली में जगह नहीं दे सकती, और वह भी इस हालत में जबकि दोनों का विरोध वास्तविक नहीं है। हम मानते हैं कि अबकी कांग्रेस में कुछ दीवाने नौजवानों ने बहुत शोर मचाया और कुछ बड़े-बड़े नेताओं को बोलने भी नहीं दिया। उनकी यह हरकत सरासर गलत थी। कोई भी बुद्धिमान व्यक्ति ऐसी उच्छ्रंखलता का पक्ष नहीं ले सकता, मगर ऐसी हालत में देशभक्ति का दावा करने वाले महानुभावों को खुश होना चाहिए था कि नौजवानों में कांग्रेस के साथ व्यावहारिक दिलचस्पी लेने का शौक तो पैदा हुआ। और उन्हें इस कोशिश में अपनी पूरी ताकत लगानी चाहिए थी कि किस प्रकार इस नये उत्साह का बेहतरीन इस्तेमाल किया जा सकता है, बनिस्बत इसके कि उसे एक झटके से अलग कर देने की जरूरत समझी जाती। जरूरत इस बात की थी कि जब कांग्रेस बर्खास्त की गई तो मैम्बरों के चुनाव के अनुरूप देश के सभी रहनुमा नये उपाय और कानून प्रस्तावित करते। हरेक प्रान्त और शहर को उसकी आबादी और व्यापारिक महत्त्व के आधार पर मैम्बरों की एक निश्चित संख्या चुनने का अधिकार दिया जाता और अगले साल कांग्रेस दोगुनी शानो शौकत के साथ दोनों पक्षों के मैम्बरों सहित इकट्ठी आयोजित होती। उस समय किसी दल को यह शिकायत न होती कि एक पक्ष ने एक स्थान विशेष के सैकड़ों डेलीगेट भरती कर दिये।

मानवीय विचारों में सदा विरोध रहा है और रहेगा। यह लगभग असम्भव है कि सभी मनुष्य एक ही विचार के हों। दुनिया में जहाँ कहीं भी राष्ट्रीय दल हैं वहाँ मतभेदों को हमेशा प्रतिद्वंद्विता की दृष्टि से देखा जाता है। इस समय तो नरम दल वाले खुश हैं कि हमने अपने दल को घास-फूस से साफ कर लिया और अब हम पूरी तसल्ली से हर साल अधिवेशन करते रहेंगे। मगर क्या ये लोग इस बात की जिम्मेदारी ले सकते हैं कि भविष्य में इन लोगों में फिर किसी समस्या पर मतभेद नहीं होगा। और क्या उस हालत में फिर कन्वेंशन भी दो फाड़ नहीं हो जायेगा। और क्या यह अन्तहीन सिलसिला उस समय तक जारी नहीं रहेगा जब तक कि कट-छँटकर कांग्रेस कुछ बूढ़े आदमियों की एक मंडली रह जायेगी।

बुद्धिमानों की परम्परा है कि जब उनसे कोई गलती हो जाती है तो बहुत जल्दी शर्मिन्दा हो जाते हैं और उस गलती को सुधारने का प्रयास करते हैं। मिस्टर तिलक ने सबसे पहले मेल-मिलाप की आवाज उठाई है और उसकी आवश्यकता स्वीकार की है। इसके प्रतिकूल नरम दल के नेता, जो धृष्टताओं के कम से कम उसी सीमा तक जिम्मेदार हैं जिस सीमा तक मिस्टर तिलक, एकता के नाम से घबराते हैं। मानो यह उनके कई महीने के सत्प्रयासों का परिणाम है। उन्हें न केवल अपनी गलती पर पछतावा है बल्कि उस गलती को सही ठहराने की कोशिश में लगे हुए हैं और कांग्रेस की इस गलती को मिस्टर मार्ले के यादगार शब्दों में ‘तयशुदा बात’ समझते हैं। मिस्टर तिलक जानते हैं कि कांग्रेस से बाहर उनका कुछ अस्तित्व नहीं, मगर मिस्टर गोखले इस विचार से भ्रमित हैं कि हमारी इस हरकत से खुश होकर सरकार अब हम पर कृपाओं की भरमार कर देगी। वे यह बिल्कुल भूल जाते हैं कि नेशनलिस्टों की जमात कुछ दिनों से ही अस्तित्व में आई है, उससे पहले सब लोग नरम दली ही थे। उस समय सरकार ने उनके साथ क्या रियायत कर दी थी। भगवान् नेशनलिस्टों का भला करे कि उनके शोर शराबे ने सरकार को नरम दल वालों की माँगों पर वरीयता देने का वादा तो किया मगर यह ध्यान रहे कि यह वादा उस समय हुआ था जब दोनों पक्ष प्रकट रूप में इकट्ठे थे। और यदि उनका अलगाव किसी सैद्धांतिक विषय पर सद्भावनापूर्वक हुआ होता तो सम्भव था कि इस विचार से कि नरम दल नेशनलिस्टों से अलग रहे और इकट्ठा न होने पावे, सरकार अपना वादा पूरा करती। मगर अब जबकि दोनों वर्गों में मनोमालिन्य उत्पन्न हो गया है, अभिमान और व्यक्तित्व का विष फैल गया है और देखती आँखों उनके इकट्ठा होने की कोई उम्मीद दिखाई नहीं देती, तो सरकार को वादा पूरा करने की कोई जरूरत नहीं रही। क्योंकि अब वह यह समझेगी कि मनमुटाव व पारस्परिक स्तुतिगान के जोश में ये दोनों अपने आप ठंडे पड़ जाएँगे, हमें क्या आवश्यकता है कि एक को दबाने के लिये दूसरे की पीठ सहलाएँ और थपकियाँ दें। अब उसे नेशनलिस्टों की प्रगति का कुछ भी भय नहीं रहा क्योंकि वे महानुभाव जो अब नरम दली बन रहे हैं, अगर किसी सिद्धान्त से नहीं तो केवल अकड़ और स्वाभिमान के विचार से नेशनलिस्टों के दल से परहेज रखेंगे और चाहे सरकार की तरफ से निराश भी हो जायें, मगर नरम दली बने रहेंगे। पिछले दो बरसों में कांग्रेस को जो प्रतिष्ठा और सम्मान प्राप्त हुआ है वह उससे पहले के बीस बरसों में भी नहीं मिला था और यह इसी नये दल का प्रभाव था। अब क्योंकि दोनों दल अलग हो गए हैं, सरकार की दृष्टि में कांग्रेस का वही प्रभाव और प्रतिष्ठा रह गई जो दो बरस पहले थी। वे महानुभाव जो इस अलगाव से खुश होकर बगलें बजा रहे हैं और शर्मिन्दा होने तथा एकता का प्रयास करने के बजाय इस मामूली फटन को गहरा गढ़ा बनाने की धुन में हैं, उन्हें ठीक से समझ लेना चाहिये कि सरकार का वादा उसी समय तक के लिए था जब तक दोनों दल एक थे। उसका उद्देश्य अब पूरा हो गया और उसे पिछले बाईस बरसों से पता है कि माडरेट लोगों की प्रार्थना को क्या भाव देना चाहिये। यदि मिस्टर गोखले, बैनर्जी, मेहता आदि वास्तव में राष्ट्रहित के पक्षधर हैं तो उन्हें एकता और मेल-मिलाप के इस अवसर को हाथ से न जाने देना चाहिए और मिस्टर तिलक के उदाहरण से शिक्षा लेकर पुरानी बातों को भूल जाना चाहिए। धैर्य, साहस, दृढ़ता और क्षमा - ये देशभक्ति की पहली शर्तें हैं। जो लोग अपने ही भाइयों के शोर शराबे और मतभेद से झल्लाकर आपा खो बैठें और उन्हें दूध से मक्खी की तरह निकालकर फेंक दें, वे इससे ज्यादा नाजुक अवसरों पर जनता का क्या साथ देंगे। मिस्टर बैनर्जी जैसे देशभक्त से क्या यह कहने की आवश्यकता है कि अपनी राष्ट्रीय सभा में गालियाँ खाना और अपमानित होना इतना बुरा नहीं है जितना जनता के एक भाग को यह जानते हुए घर से निकाल देना कि सरकार बहुत जल्द उनकी हस्ती खाक में मिला देगी। वह दिन हमारे नरम दली भाइयों के लिए डूब मरने का होगा जब इस पारस्परिक वैमनस्य का परिणाम यह होगा कि सरकार का सख्त हाथ नेशनलिस्टों की गर्दन में होगा। और वह अवसर इससे भी अधिक शर्मनाक होगा जब नेशनलिस्ट लोग सरकार के जालिम हाथ के नीचे दबे बावेला मचाएँगे और हमारे नरम दली भाई तालियाँ बजाएँगे।