इत्ती-सी हंसी, इत्ती-सी ख़ुशी / ममता व्यास

Gadya Kosh से
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पिछले दिनों इक मित्र से बहस हो गयी। उनका मानना था कि जो लोग अमीर होते हैं वो ही लोग दूसरों की पैसों से मदद करते हैं या तोहफे भी वही लोग देते हैं। मेरा कहना था कि देने का भाव अगर मन में हो तो अमीरी और गरीबी की बात मन में आती ही नहीं। हम सभी के शरीरों में खून बहता है, लेकिन कितने लोग हैं जो रक्त-दान करते हैं? हम सब जानते हैं कि मरने के बाद हम सबकी देह ख़ाक होने वाली है लेकिन कितनों के मन में नेत्रदान या देहदान का विचार आता है? किसी को कुछ देने का भाव अगर मन में है तो दुनिया की कोई ताकत आपको देने से रोक नहीं सकती। देने के भाव पर आगे कुछ कहने से पहले मैं आपको मेरे भोपाल शहर के दो सुन्दर उदाहरण बताती हूँ और उसके बाद आगे की बात करुँगी।

मेरे इक अन्य मित्र ने मुझे बताया कि उनके आफिस के सामने एक मजदूर की झोपड़ी है। वो गरीब मजदूर दो हज़ार रुपया हर महीना कमाता है। मेरे मित्र के ऑफिस की केंटिन में हर रोज बहुत-सा खाना बच जाता है। वो मजदूर रोज उस बचे हुए खाने को इकठ्ठा करता है। खाने को पोलीथिन बैग में भरकर सात-आठ किलोमीटर दूर रोज पैदल चलकर जाता है और भिखारियों एवं लाचारों को बांटता है और ये नेक काम करता है। अक्सर मेरे वो मित्र उसे अपनी गाड़ी में बिठाकर ले जाते हैं। वो गरीब मजदूर, जिसके पास खुद किसी को देने के लिए कोई चीज नहीं है लेकिन उसके मन में देने की चाह इतनी प्रबल है कि वो केंटिन का बचा हुआ खाना ज़रुरतमंदों को देकर खुश हो लेता है। दुनिया की कोई ताकत उससे उसकी ये ख़ुशी नहीं छीन सकती। है ना?

दूसरा उदाहरण भी बहुत सुन्दर है। मेरे शहर में बड़ा तालाब है उसकी सुन्दरता निहारने अक्सर बहुत से अमीर लोग अपनी सुन्दर बड़ी-सी गाडी में बैठकर आते है। ताल की सुन्दरता और अमीरों की सुन्दरता आपस में बातें करती हैं। वहीं पर इक पागल घूमता है। वो आसपास के होटलों और ढाबों से बची हुई रोटियाँ बटोरता है; और उन्हें अपने झोले में भर कर तालाब के किनारे इक बड़े से पत्थर पर बैठ जाता है। उस आता देख तालाब की सारी मछलियाँ उसके पास खिंची चली आती हैं। वो इक बादशाह की तरह रोटियों के टुकड़ों को मछलियों के सामने डालता जाता है। गौहर महल के सामने ये बादशाह (जिसे मेरा शहर पागल कह कर बुलाता है) रोज़ अपने खजाने लुटाता है। न जाने क्यों? ये पागल मुझे शहर का सबसे खूबसूरत व्यक्ति लगता है। कैसी सुन्दर मुस्कान है उसकी और शान ऐसी कि सिकन्दर भी शरमा जाए। उसके पास न घर है, ना गाड़ी ना कोई कपडे और न जेब में भरे नोट... लेकिन दिल कितना खूबसूरत है। क्या वो पागल है? हो सकता है उसने अपनी सुधबुध खो दी हो, लेकिन देने का भाव कैसे याद रह गया उसे? उसके मन में प्रेम जीवित है। उसे मुस्काना आता है; खुश होना आता है। देना आता है और सबसे बड़ी बात कि वो बदले में कुछ चाहता भी नहीं... शायद थोड़ी-सी ख़ुशी, थोड़ी-सी हंसी... मुस्कान? आनन्द या परमानन्द?

इन दोनों उदाहरण के बाद ये बात तो तय हो गई कि अगर मन में देने का भाव है तो कोई बहाना नहीं चलता। आप किसी भी तरह से देते हैं और देने के बहाने खोज ही लेते हैं। अक्सर लोग बहाने बनाते हैं। हम किसी को क्या दे? कैसे दे? कोई क्या सोचेगा? देने-लेने पर हमारा विश्वास नहीं इत्यादि... लेकिन मुझे बताइये कि कौन कहता है कि आप किसी को पैसे दें, महंगे तोहफे दें... आप वही दें जिसकी सामने वाले को ज़रूरत हो। बड़े बुज़ुर्ग हैं तो उन्हें सम्मान, बच्चों को स्नेह, दोस्तों को प्यार, अपनापन, प्रेम, दोस्ती... न जाने कितने हीरे-मोती हैं हमारे मन के खजाने में और हम उन्हें छिपाए फिरते हैं। बाँटते ही नहीं...

वैसे "देना" शब्द से बेहतर मुझे “बांटना” शब्द लगता है। हम किसी को क्या दे सकते हैं? हम देते नहीं दरअसल हम बाँटते ही हैं। अपनी अनुभूतियाँ, अपना प्रेम, अपना सुख, अपनी अनमोल मुस्कान, अपनी ख़ुशी, अपने विचार और भी बहुत-सी अनगिनत चीजें।

अब देने के सुख के बारे में बात की जाए। जब आप अपने किसी प्रिय को कुछ देना चाहते हैं तो कोई वस्तु देते हैं, सुन्दर फूल या हाथों से लिखा कोई खत, हाथों से बना खाना या ऐसा ही सुन्दर कुछ.. लेकिन क्या ये सिर्फ वस्तुएँ हैं? नहीं, इन छोटी-छोटी मामूली-सी दिखने वाली चीजों में आपका समस्त प्रेम सिमट जाता है। आप अपने कोमल अहसास, अपना प्रेम उस वस्तु के भीतर समाहित करते हैं। इस देने के सुख की अनुभूति को शब्दों में नहीं पिरोया जा सकता। ये तो वही जानता है जिसने कभी किसी के लिए कुछ यूँ ही खरीदा हो और यूँ ही दे दिया हो। आपने अपनी प्यारी भावना किसी के साथ साझा की, किसी के साथ बांटी। यही सुख है। यही ख़ुशी है। आपने किसी को कुछ दिया, आप देकर मुस्काए, जिसे मिला वो पाकर मुस्काया। देखिये दो मुस्कानें हो गईं... ऐसे हम बहुत-सी मुस्कानें बना सकते हैं।

अब बात लेने वाले की; यक़ीनन जिन्हें तोहफ़े, प्रेम, अपनापन और दोस्ती मिलती है वे भाग्यशाली होते हैं। उन्हें पता लगता है कि दुनिया में कोई है जिसे मैं याद हूँ, जिसे मेरी परवाह है, जो मुझे हर-पल सोचता है। ये ख़्याल ही किसी को रोमांचित कर देता है और लोग खुश हो जाते हैं। पल भर के लिए ही सही, हम किसी के होठों पर मुस्कान रख कर आ गए चुपके से... ये क्या कम है हमारे खुश होने के लिए?

हमें खुद के भीतर देने का भाव जगाना होगा। आदत डालनी होगी। जब आदत पड़ जाएगी तो आप बांटने को अमीरी-गरीबी से नहीं जोड़ेंगे। फिर आप आपके पास जो भी होगा, जैसा भी होगा आप उसे दे देने को आतुर होंगे। जैसे आपके सुन्दर विचार, आपकी प्रेरणा, प्रेम, अपनापन, हमदर्दी, मुस्कान... कुछ भी... किसी भी कीमत पर...

हमेशा ये स्मरण रहे कि ख़ुशी और हंसी का ताला, ख़ुशी और हंसी की छोटी चाभी से ही खुलता है। आपका मन आपका हृदय हमेशा देने के भाव से भरा हो, तभी आप दे सकेंगे। बुद्धि हमेशा लेने की फिराक में रहती है। कैसे ले लूँ, कहाँ-कहाँ से ले लूँ, किस तरह से हथिया लूँ, किसी को क्यों दूँ? क्या लाभ होगा मुझे? ऐसे तर्क बुद्धि करती है। उसे देना आता ही नहीं, सिर्फ लेना आता है। लेकिन हृदय हमेशा सोचता है कैसे दे दूँ? किस तरह से दे दूँ? किस जतन से दे दूँ? सब कुछ उसे सौंप दूँ। इसलिए प्रेम में देने का भाव आता है।

हम जब प्रेम से भरे होते हैं, तो कलश छलक-छलक जाता है। अहंकार रहित होते हैं और दिल के अमीर भी होते जाते हैं प्रेम में। खुश होते हैं वो लोग जो प्रेम में होते हैं। उनके पास देने के लिए कोई तर्क और कोई विचार नहीं होते। इतनी फुरसत ही नहीं कि जोड़ना-घटाना करें, वो सिर्फ याराना करते हैं। अपनी ख़ुशी से हंसी से... इक खुशबु है, इक जादू, इक मिठास, एक छुअन भर है... इत्ती-सी हंसी, इत्ती-सी ख़ुशी...