इधर आना ज़रा / महेश दर्पण
दोपहर के वक़्त खाना खाने के बाद, थोड़ी देर कोई कमर सीधी करना भी चाहे तो गली से आ रही आवाज़ें चैन नहीं लेतीं। ऐसी भरी उमस में भी, कभी जामुन वाला अपनी तान छेड़ता निकल आएगा तो कभी चना-सत्तू-मुरमुरे वाला अपनी बुलन्द आवाज़ से नींद का तार जुड़ने न देगा। धीरे-धीरे वह इन आवाज़ों की अभ्यस्त ही हो चली है। आवाज़ें हों न हों, उनकी गूँज नींद में भी बनी रहती है। पर यह कैसी आवाज़ आ रही है आज ! समवेत स्वर में उठ रही यह जैसे अचानक ही उसे आमंत्रित किए जा रही है। रोज़मर्रा की आवाज़ों से अलग कुछ सुनते ही वह उठकर दरवाज़ा खोलती ज़रूर है।
मैं अभी सोच ही रहा था कि पत्नी उठ बैठी। उसने दरवाज़ा खोलकर गली में -झाँका, तो जमा भीड़ को ऊपर की ओर देखता पाया। लोगों की नज़र की सीध में उसकी आंखें भी ऊपर चढ़ती अपनी बेल से जा लगीं। घबराहट में उसे और कुछ तो न सूझा, मुझे ही पुकार बैठी, ‘‘तन्नू के दादा, इधर आना ज़रा !’’
उसका बोलने का तरीका ही बता देता है कि माज़रा है क्या ! किसी अनहोनी की आशंका से भरा मैं दरवाज़े पर पहुँचा, तो देखता क्या हूँ कि गली की तमाम औरतें, बच्चे और राह चलते लोग हत्यारे को गरियाए जा रहे हैं।
‘‘जिस किसी नासपीटे का काम है यह, उसे जिन्दगी में कभी छाँह नसीब न हो ...” गुस्से में भरी सेठानी के मुँह से निकल पड़ा।
दुकानवाली ने तो श्राप ही दे डाला — ‘‘आप छाँह की बात कर रही हो, मैं तो कहूँ, मुए की जिन्दगी से हरियाली ही खत्म हो जाए।’’
‘‘जाने कौन सिरफिरा होगा जिसने इतनी खूबसूरत फलती-फूलती बेल काट डाली... हम लोग इसी की छाँव में खड़े हो के तो आप लोगन कू कपड़े दिखाते थे...ये सुख भी छीन लिया कातिल ने !’’ मैक्सी, प्लाज़ो, टी शर्ट और सूट बेचनेवाला अपने भीतर का तमाम दुख घोलकर कह रहा था।
उसकी आवाज़ में आवाज़ मिलाता टमाटरवाला आवेश में भर उठा था —‘‘लेकिन जे देख लेना आप, भारी पाप लगेगा उसे। हरी बेल काटना तो हत्या बरोबर माना जाता है हमारे यहाँ।’’
मन्दिरवाली की आँखें भर आई थीं — ‘‘अजी, कित्ता बड़ा सुभीता खतम कर दिया हमारा ! जब चाहो, ठाकुर जी के वास्ते फूल तोड़ के ले जाओ ! बेल किसी का कुछ बिगाड़े थोड़ी ही थी !’’
कभी मुँह न खोलने वाला कबाड़ी भी अपना डण्डा फटकारते हुए मौजूद लोगों के बीच आँखें घुमा-घुमाकर अपनी नाराज़गी ज़ाहिर कर रहा था। गुस्से में उसके मुँह से फ़ेन-सा निकलने लगा था —‘‘देख लेना, जिसने किया है ये खराब काम, कोढ़ फूटेगा उसे । करमजले को पानी देने वाला भी नसीब न होगा, हाँ !’’
पत्नी कभी लोगों को देखती तो कभी मुझे । मैं कभी पत्नी को देख रहा था तो कभी कटकर मुरझा गई बेल को ।
हवा में हरदम लहराने वाले बेल के पत्ते निष्प्राण हो उलटे लटके पड़े थे । गुच्छों के गुच्छे फूल मुँह लटकाए ऐसे लग रहे थे, जैसे अचानक किसी ने उनकी सांस ही खींच कर अलग कर दी हो ।
कोरोना के भय से, जिन दिनों बाहर से कोई भी सामान लाने में घबराहट महसूस होने लगी थी, मुहल्ले भर ने पूजा के लिए मन्दिर चौक से फूल लाने भी बन्द कर दिए थे। फूलों लदी यह बेल ऐसे में हर किसी के लिए वरदान साबित हुई। जितने फूल तोड़ ले जाओ, दूसरे दिन उससे दुगने फूल बेल पर फिर लहलहाने लगते। पास से गुज़रो, तो बेल कहती लगती — ‘‘जब तक मैं हूं, फूल हमेशा रहेंगे... किसी को फिक्र करने की ज़रूरत नहीं है।’’
शाम के वक्त बच्चे इकट्ठे हो जाते तो गली गुलज़ार हो जाती । बच्चे बेल के पत्ते तोड़कर बन्द मुट्ठी के ऊपर रख पटाखा - सा फोड़ते या पत्तों से पीपनी बजाने लगते, तो बेल ज़रा भी नाराज़ न होती। हवा का झोंका आता तो वह बच्चों के साथ-साथ ख़ुद भी नाच उठती।
‘‘इलाके में नए आए लोग नहीं समझ सकते कि बेल के छाने में कितना वक़्त लगता है ! उसके चढ़ने के साथ-साथ आस-पास के लोगों में कैसे ख़ुशी की लहर दौड़ पड़ती है ! मुझे तो लगता है...’’ पत्नी जैसे अपने आप से बात कर रही थी।
‘‘क्या लगता है तुम्हें?’’ मैंने छूट गए आध-अधूरे वाक्य को उससे पूरा करने का आग्रह करते हुए कहा, तो उसने अपने दुपट्टे से भीग आई आंख का कोना पोंछते हुए कहा, ‘‘हो न हो, है ये किसी नये आदमी का ही काम। जिनके साथ-साथ यह बेल बड़ी हुई है, वो तो ऐसा करने की सोच भी नहीं सकते...।’’
पत्नी अपनी बात कहकर काम में व्यस्त हो गई, पर मुझे बेल के शुरुआती दिन याद आने लगे ।
बेल लगाई तो बगल वाले शर्मा-परिवार ने ही थी, पर इसका सुख भोगना जैसे उनकी क़िस्मत में न लिखा था।
चार-छह साल में जब तक मधुमालती की यह बेल बिजली के खम्भे के सहारे ऊपर तक चढ़ी और छोटी गली के दोनों तरफ के मकानों की बालकनी पर छा गई, तब तक शर्मा परिवार गाजियाबाद के अपने बड़े फ्लैट में शिफ़्ट हो गया ।
जब तक यहाँ रहीं, शर्माइन बेल की छाँव में खटिया बिछवाकर अक्सर बैठ जाया करती थीं। उनके बच्चों को उनका इस तरह बैठना बिलो स्टैण्डर्ड तो लगता था, पर वे चाहकर भी माँ से कुछ कह न पाते।
अरसे बाद आज शर्माइन की याद आ रही थी। पत्नी का तो कहना था-‘‘वह आज यहां होतीं, तो क्या मजाल थी कि कोई ऐसी ओछी हरकत कर जाता। जान न ले लेतीं वह उसकी !’’
पत्नी के लिए बेल का कट जाना बड़ी तकलीफ़ थी तो उसने मुझे भी कम गहरा घाव न दिया था ।
पत्नी का दरअसल, इस बेल से इस कदर लगाव था कि शाम के वक्त वह अक्सर उसके करीब होने के लिए फर्स्ट फ्लोर की बालकनी पर पहुँच जाती। कभी उसके नए कोमल पत्तों को देखकर उत्फुल्लित होती तो कभी झुंड के झुंड खिले फूलों को आहिस्ता से इस अंदाज़ में छूती कि कहीं वे कुम्हला न जाएं। एक रोज़ तो उसने सुबह-सुबह मुझे गेट से बाहर बुलाया और बिजली के केबल की तरफ इशारा करते हुए बहुत धीमे से कहा- ‘‘देखो-देखो, यही है वह चिड़िया जो सुबह चार बजे से भी पहले तेज़ आवाज़ में बुलाने लगती है।’’
मैंने नज़र उठाकर चिड़िया की तरफ देखा तो दंग रह गया- ‘‘छोटी-सी यह काली चिड़िया इतनी तेज़ आवाज़ करती है कि लेटा भले ही रहे, चाहकर भी कोई फिर सो नहीं सकता...!’’ मैं कुछ और कहता, इससे पहले ही एक गिलहरी चिड़िया के ठीक पास से सरकसी करतब दिखाते हुए आगे निकल गई। गिलहरी की पूंछ हवा में लहराते हुए उससे छू भर क्या गई, चिड़िया अपनी उसी तेज़ आवाज़ के साथ देखते-देखते जाने कहां फुर्र हो गई !
मैंने ग़ौर किया, पत्नी उसे उल्लसित मन उड़ते हुए देखकर बहुत ख़ुश थी। उसने मेरी तरफ इस भाव से देखा, जैसे कह रही हो — देखो, मैं तुम्हें बुला-बुला कर कैसी चीज़ें दिखा देती हूँ ! पर जो मैंने उसकी आवाज़ में सुना, वह यह था कि बेल न होती न, तो ये दूर-दराज़ की चिड़ियाँ यहाँ जो क्या आतीं !
बेल से छाई हरियाली ने हमारे एकरस जीवन में काफी कुछ नया जोड़ दिया था। कभी-कभी तो एक साथ इतनी गौरेया आकर बेल पर सत्संग करने लगतीं कि उनकी चीं-चीं से एक अलग ही लहरभरा संगीत पैदा होने लगता। सुबह-शाम, जब कभी हवा चलती, मधुमालती के फूलों की भीनी गंध उसमें घुलकर हमारी सांसों में इस तरह प्रवेश करती जैसे कह रही हो- यह लो, यह रही मैं। भर लो मुझे अपने में !
उस गंध को अपने भीतर भरते हुए मैं देखता — गिलहरी चुन-चुन कर मधुमालती के फूल कुतर रही है। कभी बेल के भीतर छुपकर तो कभी अपनी चपलता का प्रदर्शन करते हुए ।
मौसम बदलने लगता, तो पहले बेल से फूल नदारद होते, फिर उसमें नए पत्ते आने बन्द हो जाते। बचे रह गए पत्ते अपनी ताक़त भर बेल पर बना रहने की कोशिश करते, फिर धीरे-धीरे पीले पड़ने लग जाते। रंग बदल जाने के बावजूद, उनका मन बेल का साथ छोड़ने का बिल्कुल न होता। पर साथ कैसा भी क्यों न हो, कोई हमेशा के लिए थोड़े ही होता है ! हवा में ज़रा भी तेज़ी आती, तो पीले पत्ते समय से कुछ पहले ही ज़मीन पर आ गिरते । और हवा न चलती तो वह अचानक एक दिन किसी आश्चर्य की तरह ज़मीन पर एकदम बेआवाज़ चले आते । अक्सर ऐसा सुबह-सुबह या शाम घिरने से कुछ पहले होता ।
बेल हमारी ज़िन्दगी में छाती जा रही थी । गर्मियाँ आने को होतीं और उसमें नए पत्ते आने लगते, तभी से हम उसके फूलों का इन्तज़ार करने लगते ।
बेल कट जाने के दुष्प्रभावों के बारे में सोचकर मैं गमज़दा हुआ जा रहा था । जाने क्यों, एक-एक कर मेरी आँखों में वे दृश्य आते जा रहे थे, जो इस बेल के आकार लेने से क़रीबन चालीस साल पहले अपने इलाके के थे । छोटे-से अपने इस मुहल्ले में हर गली में चार-छह घर तो ऐसे थे ही, जहाँ कोई न कोई पेड़ दूर से ही नज़र आ जाता था । नीम, पीपल, अमलतास, जामुन, अमरूद, शहतूत, पपीता, केला, कचनार, आम और नीबू...जाने कितने किस्म के पेड़ घर के बाहर खुली छोड़ दी गई ज़मीन में यहाँ के लोगों ने लगा रखे थे ! ज़मीन तो बढ़िया थी ही, लिहाज़ा पेड़ फलते भी खूब थे। दो-तीन गलियों में बेल पेड़ पर इस कदर लदे रहते कि देखने वाले हैरान रह जाएँ ।
फल इलाके के लोगों को जोड़ने का काम इतनी सहजता से करते कि कुछ पता ही न चलता । कोई किसी के यहाँ अमरूद ले के चला हा रहा है तो दूसरे रोज़ उसके यहाँ किसी घर से केले या पपीते पहुँच रहे हैं। पाँच नम्बर गली में तो जामुन की ऐसी बहार थी कि मुहल्ले भर के बच्चे वहीं पहुँचे मिलते। सिन्हा साहब के यहाँ आम फलता, तो वह पड़ोसियों को ज़रूर चखवाते। जिन लोगों के यहाँ फलों के पेड़ न होते, वे छोटी-छोटी क्यारियों में मौसमी सब्ज़ी ही लगा लेते।
गज़ब का नज़ारा बना रहता था- कहीं टमाटर हो रहे हैं तो कहीं बैंगन, भिण्डी, गोभी या गाजर। कोई मटर लगाकर ख़ुश है तो किसी ने घीया-तोरी या कद्दू ही उपजा लिया। अरबी, प्याज़, लहसुन और फ्रेंचबीन तक इतनी होती कि बग़ैर पास-पड़ोस में बाँटे काम ही न चले। बाज़ार की सब्ज़ी तब लेता ही कौन था !
अब, भला, इलाके में बचा ही क्या है ! बचे रह गए कुछ खाली बड़े प्लाटों में झाड़-झंखाड़ के बीच कहीं पीपल, कहीं नीम तो कहीं आम और यूक्लिप्टिस के ऊंचे पेड़ जरूर खड़े हैं। बड़े प्लाटों में बने आलीशान मकानों में तो नकली अशोक के सीधे खड़े पेड़ों की बगल से झांकते रबर प्लांट ही हरियाली का संकेत देते हैं या फिर बालकनियों में लटके गमलों से झांकते अल्पजीवी फूलों के पौधे, मनीप्लांट या कैक्टस। जिन लोगों ने दलदल से बचाव की खातिर कभी यूक्लिप्टिस के पेड़ लगवा लिए थे, उसकी खराबियां पता चलते ही मन बदला और कटवा डाले। आज भी उनकी तेज़ गंध उसकी स्मृति में बसी है।
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अपना वह पुराना मुहल्ला तो अब अतीत की चीज़ हो चुका है। जाने कैसी मार पड़ी वक्त की कि अच्छे-खासे बड़े प्लॉट भी छोटे होते चले गए। अब हाल ये है कि दरवाज़ा खुलवाओ और सीधे घर में प्रवेश कर जाओ। न आंगन रहा और न बगीचा। क्यारियां कहां से होंगी जब गमलों तक के लिए जगह न बची। इंच-इंच जगह के लिए जहां कहा-सुनी शुरू हो गई हो, वहां हरियाली की कौन सोचे! वो तो भला हो सरकार की उस सोच का कि सड़कों-गलियों में जहां मुफीद जगह मिल सके, पेड़ लगवाए जाएं। कुछ बेलों की कटिंग भी उपलब्ध कराई गई। उन्हीं दिनों की बात है, शर्माइन ने भी सरकारी कारिंदे से एक हरे जंगले के साथ बेल की एक कटिंग ले ली। बिजली के खंभे के पास ही गड्ढा खुदवाकर पहले कटिंग रोंपी और फिर जंगला लगवा दिया। कभी शर्माइन पानी डालतीं तो कभी पत्नी। कुछ दिनों बाद ही जब बेल ने जड़ पकड़ ली तो उसमें नये पत्ते भी नज़र आने लगे। यह खुशी का ऐसा आलम था कि पत्नी और शर्माइन में पहले अक्सर बना रहने वाला खिंचाव भी जाता रहा। ‘‘पत्ता ही लगेंगे कि फूल भी आएंगे इसमें?’’ शर्माइन ने एक दिन शंका जाहिर करते हुए जिज्ञासा रखी तो पत्नी ने उसे बताया-‘‘ये तो बहन जी, मधुमालती के पत्ते लग रहे हैं। थोड़ा सब्र करो, ऐसे फूलेगी कि तुम बस देखती रह जाओगी।’’ देखते-देखते बेल जंगले से ऊपर निकल आई। जंगले के भीतर थी तो आवारा पशुओं से सुरक्षित थी, पर जब बाहर झांकने लगी तो उसकी फिक्र दोनों पड़ोसनों को लगी रहती। कभी वे उसे बारीक कपड़े से ढंकने की कोशिश करतीं तो कभी सहारा देकर ऊपर चढ़ाने का इंतजाम करती रहतीं। जब तक हाथ पहुंचता रहा, कोई न कोई बेल को ऊपर चढ़ने में मदद करता रहा, फिर एक दिन जैसे बेल ने अपने जवान हो जाने का संकेद दे दिया। अपने अगले हिस्से की वह कोमल घुंडी से किसी भी चीज़ का सहारा ले अपनी राह खुद बनाने लगी। उसके नये-नवेले घुमावदार हाथ अपने सहारे को इतने प्यार से गले लगाते कि वह हमेशा के लिए बेल का होकर रह जाता। बेल भी उससे ऐसी लिपटती चली जाती, जैसे अब कभी अलग ही न होना हो। बेल ने उठान पकड़ ली थी। उसके नये-नये कल्ले फूटकर नई-नई दिशाओं में बढ़ते जा रहे थे। जाने कब, केबल के सहारे उसकी दो-एक शाखें हमारी बालकनी तक भी खिंची चली आईं। शर्मा जी की बालकनी का कोना तो बेल पहले ही ढांप चुकी थी। धीरे-धीरे उसने स्ट्रीट लाइट पर भी ऐसा छाता-सा तान दिया कि रात के वक्त जब हवा चलती तो रोशनी का झिलमिल-झिलमिल करता नृत्य बच्चों के लिए एक दर्शनीय खेल ही बन गया। हवा में हिलते बेल के पत्ते दीवारों पर प्रकाश की ऐसी आकृतियां बनाते कि बच्चे उसे देखते रहने के फेर में घर के भीतर आने का नाम ही न लेते।
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‘‘यहां खड़े-खड़े क्या सोचे जा रहे हो? पता है, मैं तो उसी रोज़ समझ गई थी कि अब बेल का बुरा वक्त आने वाला है जब वह औरत बेल की जड़ के पास बैठकर जाने क्या गुल खिला रही थी!’’ पत्नी ने मेर कंधा हिलाते हुए कहा तो मैं बमुश्किल बेल से बाहर निकल सका। पर इसके साथ ही मेरे भीतर यह सवाल ज़ोर मारने लगा कि पत्नी ये किस औरत की बात ले बैठी है? और आखिर वह बेल की जड़ में कर क्या रही थी? जब मुझसे रहा न गया तो मैंने पत्नी से पूछ ही लिया, ‘‘कौन थी वह औरत और वहां क्या कर रही थी...?’’ पत्नी ने बताया, ‘‘अरे कुछ दिनों पहले, एक शाम की बात है। मैंने देखा, एक बच्चे के साथ एक औरत बेल के जंगले के पास बैठी कुछ खोदा-खादी-सी करने में लगी हुई है। मैंने उसे टोका तो जानते हो क्या बोली? कहने लगी, ‘मैंने मकान मालिक से पूछ लिया है। मुझे इस बेल की कलम लेनी है।’ मैंने झुंझलाकर कहा- ‘कलम लेनी है तो फिर जड़ क्यों खोद रही हो? ऊपर से काटकर एक टहनी ले जाओ।’ लेकिन, फिर भी वह देर तक जंगले के पास बैठी-बैठी जाने क्या करती रही! मुझे तो लगता है...’’ पत्नी ने गुज़रे दिनों का वाकया सुनाने के साथ ही अपनी शंका भी प्रकट कर दी थी। उसे मकान मालिक शर्मा जी पर गुस्सा भी आ रहा था कि यहां से गए तो ऐसे कि फिर शक्ल तक नहीं दिखाई! मकान बेच-बाच के छुट्टी कर देते तो बात अलग थी, लेकिन किरायेदारों के भरोसे ऐसे निश्चिंत बैठे हैं जैसे किराये के अलावा किसी चीज़ से कोई मतलब ही नहीं रहा। ऊपर वाले किरायेदार ऊपर और नीचे वाले नीचे मगन रहते हैं। उन्हें तो बेल जैसे काटने को दौड़ती हो। एक दिन तो पत्नी ने दोनों किरायेदारों को बुरी तरह से झाड़ दिया था। दोनों बेल को भला-बुरा कह रहे थे कि उससे गली में गंदगी बहुत हो जाती है। ऊपरवाली किराएदारिन कुछ ज्यादा ही बोल रही थी-‘‘जब देखो तब पत्ते गिरते रहते हैं। सारी गली पत्तों से भर जाती है। झाडू़ लगाने वाला आता है तो सारे पत्ते एक किनारे कर चला जाता है। थोड़ी देर बाद ही फिर वे नाली में तैरते नज़र आते हैं...’’ पत्नी तो जैसे पहले से तैयार बैठी थी-‘‘जब फूल खिलते हैं और खुशबू आती है, तब तो बड़े खुश होते हो। ज़रा से पत्ते क्या गिर गए, बर्दाश्त नहीं होते तुमसे! दुनिया में कौन-सी चीज़ है ऐसी, जिसमें सब अच्छा ही अच्छा है....अपने भीतर ही झांक के देख लो...पता लग जाएगा कितनी दूध की धुली हो।’’ सब कुछ ठीक-ठाक चल रहा हो तो इंसान सब भूल जाता है, लेकिन ज़रा भी उलटा-सीधा हो जाए तो पुरानी बातें खुद-ब-खुद यादों के रास्ते सामने आ खड़ी होती हैं। पत्नी को, कटी हुई बेल देख अब बीती हुई एक-एक बात याद आए जा रही थी। उसने एक शंका यह भी प्रकट कर दी कि हो न हो, यह काम दोनों में से किसी एक किराएदार का लगता है। अनजान ऐसे बन रहे हैं जैसे इन्हें कुछ खबर ही नहीं!
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सबसे ज्यादा दुख तो उसे इस बात का था कि बेल हमारे और आस-पास के मकानों के लिए एक खास पहचान बन चुकी थी। इलाके से अनजान कोई मेहमान या कूरियर वाला आ रहा हो तो सभी निश्चिंत होकर पहले डेविड स्कूल का मेन गेट बताते और फिर उसके सामने गली की बेल हो जाती पक्की पहचान। स्कूल की तरफ से गली में प्रवेश करने वाले को छायी हुई बेल दूर से ही नज़र आ जाती।
सुबह, दोपहर, शाम, जब कभी पत्नी को बेल से जुड़ा कुछ याद हो आता, वह सुनाने बैठ जाती। एक शाम अच्छी-खासी हवा चल रही थी। पत्नी अपनी पोती तन्नू के साथ बालकनी में घूम रही थी। अचानक तन्नू ने पूछा, ‘‘अम्मा, वो बेल में घूमने वाला काला कीड़ा कहां चला गया?’’ ‘‘कौन-सा कीड़ा?’’ ‘‘अरे वही न अम्मा, जो गुन-गुन करता रहता था। फूलों के ऊपर...’’ ‘‘अरे बेटी, अब वो यहां आकर क्या करेगा? अब तो देखना, मधुमक्खी भी नहीं आने वाली।’’ ‘‘और कौए?’’ ‘‘कौए भी कहां आते हैं अब?’’ तन्नू बात को जब जहां चाहे घुमा देती है, ‘‘अम्मा, हमारी ये बेल सूख क्यों गई?’’ ‘‘क्या बताऊं तुझे तन्नू।’’ ‘‘बंदर अब क्यों नहीं आते अम्मा?’’ दादी पोती की खुशी को पंक्चर नहीं करना चाहती, ‘‘बंदर तो तभी आते हैं न, जब उनका मन होता है!’’ दरअसल, हुआ यह कि एक रोज़ जाने कहां से मुहल्ले पर बंदरों ने धावा बोल दिया। जहां-जहां सारे रास्ते बंद थे वहां तो उनकी दाल न गली, पर कुछ खुली बालकनियों और मधुमालती की बेल पर तो उन्होंने ऐसा उत्पात मचाया कि किसी के रोके वे न रुके। देर तक न सिर्फ उछलकूद करते रहे, जो कुछ खाने-पीने का उनके हाथ लगता चट कर जाते। जाली के दरवाज़े से दादी तन्नू को यह नज़ारा दिखाकर खुश होती रही। उसी दिन तन्नू को हनुमान जी की अशोक वाटिका पहुंचने की कहानी भी दादी ने सुनायी थी। लाड़ में दादी पोती को तन्नू कहती हैं। वह भी कुछ देर यही बदला हुआ नाम सुनकर खुश रहती है।
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‘‘दादी, देखो न वो बंदर कैसे बेल के फूल तोड़-तोड़ के खा रहे हैं।’’ तन्नू ने चीखकर कहा। ‘‘हां बेटी, बंदर सब खाता है- रोटी, चना, चावल, फल, फूल... जो कुछ उसे मिल जाए। वह तो साग-सब्जी भी कच्ची ही चट कर जाता है। तन्नू उसी दिन से बंदरों के आने के इंतज़ार में रहती है। उसे बंदरों का ऊघम मचाना बड़ा अच्छा लगा था- ‘‘क्यों दादी, बंदरों ने उस दिन कैसे बेल के ढेर सारे पत्ते तोड़ डाले थे न!’’ ‘‘हां बेटी, उन्हें खाने से कहीं ज्यादा मजा उजाड़ने में आता है।’’ ‘‘हनुमान जी की तरह?’’ ‘‘हां बेटी! वैसे ही जैसे लंका में पहुंचकर हनुमान जी ने किया था।’’ ‘‘तो दादी, अब बंदर यहां आयेंगे तो क्या खाएंगे? क्या कौवे उन्हें भगाने फिर आ जाएंगे?’’ तन्नू के सवालों ने दादी को उदास कर दिया है। बेल थी तो कितना हरा-भरा रहता था यहां! फूल खिले हों, तब तो फिर कहना ही क्या! जाने कितने किस्म के पक्षी बेल पर अठखेलियां करते रहते! सीनियर सिटिजन से कबूतर उन्हें दूर से बैठे बस देखते रहते।
बेल सूखकर पहले केबल पर लटकी रही। फिर कभी आंधी तो कभी बारिश से टूट-टूट कर टुकड़ों-टुकड़ों में गिरती रही। बेल से हुई खाली जगह, नज़र पड़ते ही उदास कर जाती। तन्नू की दादी बेल वाली जगह को देखती तो उसके भीतर से हूक-सी उठने लगती। उसका बालकनी पर आना अब बहुत कम हो गया था। वहां वह तभी जाती है जब उसे तार पर कपड़े सुखाने होते हैं। कहती है-‘मुझसे बेल वाली खाली जगह की तरफ देखा ही नहीं जाता। कितनी भी कोशिश कर लूं, बेल मुझे भुलाए नहीं भूलती।’ दादी कभी तन्नू को विचारमग्न दिखाई देती है, तो वह पूछ बैठती है- ‘‘क्यां दादी, बेल की याद आ रही है क्या?’’ दादी ख़ामोश रह जाती है और तन्नू उसके चारों तरफ घूमती कुछ न कुछ बोलती जाती है। बेल नहीं है, पर लगता है जेसे हरदम साथ चले आ रही है। तन्नू मगन मन दूसरे खेल में आ पहुंची है, पर दादी की आंखों में अब भी बेल की स्मृतियां लहलहा रही हैं।
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वह सोच रही है- मुआ हाथ भर लग जाता वो बेल काटने वाला, सारी अक्ल ठिकाने न लगा देती उसकी! सुबह के वक्त रोज़ का नियम था उसका। वह पानी चलाती। गेट के बाहर रखे तुलसी के गमले सहित फूलों के गमलों को ताज़ा पानी पिलाती। बालटी में बचा रह गया पानी बेल की जड़ में डाल देने की पुरानी आदत थी उसकी। लेकिन जब से बेल की हत्या हुई है, वह बालटी में बचा पानी गली पर ही छिड़क देती है। उस रोज़ जाने क्या हुआ, पानी छिड़कते हुए ही धार के साथ-साथ उसकी नज़र बेल की जड़ तक जा पहुंची। जो कुछ उसे नज़र आया, उसे देख वह खुशी से चीख ही उठी-‘‘तन्नू के दादाऽऽ इधर आनाऽऽ ज़राऽऽऽ’’ उसकी आवाज़ की विकलता में ऐसी कशिश थी कि हाथ का अखबार मेज़ पर रख मैं फौरन बाहर जा पहुंचा। वहां देखता क्या हूं, पत्नी गली में उतर कर बेल के जंगले के पास जाकर बैठी हुई है। उसके हाथों में उस रोज़ जाने कहां से ऐसी फुर्ती आ गई थी कि वह तेज़ी से बेल के आसपास जमा कूड़ा-करकट हटाए जा रही थी। जंगला नीचे की तरफ से टूटा हुआ था, इसलिए वह बड़ी सावधानी से भीतर का कूड़ा बाहर करने में लगी थी। पत्नी की नज़र बेल से फूट रही नई कोंपल पर जमी थी और लग रहा था जैसे वह उसे अपने समूचे प्यार से सींच रही हो। मेरी ओर देखने की तो उसे फुरसत ही न थी। उसकी खुशी में इजाफ़ा करने की गर्ज से मैंने भीतर लौटकर एक बालटी में थोड़ा पानी भरा और उसके पास जा पहुंचा। बालटी रखने की आवाज़ के साथ ही हम दोनों की नजरें मिलीं तो मैंने पाया वह कह भले कुछ न रही हो, पर जैसे बेल की तरह मुझसे बस लिपट जाना चाहती हो। आज जाने कितने दिनों बाद बेल को पानी मिला था! पत्नी बेल में खोई थी और मैं पत्नी की उस आवाज़ में...इधर आनाऽऽ ज़राऽऽ।