इन्तज़ाम / अनिल जनविजय

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— माँ, भूख लगी है ।

— मुझे खा ले, हरामख़ोर !

— माँ, मैं खेलने जाऊँ ?

— जहन्नुम में जा !

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— भैया, देखो ये टमाटर ।

— लेकिन ये तो सड़े हुए हैं ...।

— पर भैया, भूख तो लगी है न ।

— चल, अच्छा ... आ !

— भैया, थोड़े से माँ-पिताजी के लिए भी ले लें, वे भी तो भूखे होंगे ...।

— माँ ! माँ ! देखो क्या लाया। लो खाओ ...।

— अरे ! कहाँ से ले आया ? चलो, कुछ तो भूख शान्त हुई ...। ले, ये अपने पिताजी के लिए रख दे ।

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— मोहन आज कह रहा था — भूख लगी है ...।

— गला घोंट दो उसका और क़ब्र में दफ़ना दो ...।

— आख़िर कुछ तो इन्तज़ाम करना ही होगा ...।

— (टमाटरों की ओर देखते हुए) हाँ, अब तो इन्तज़ाम करना होगा ...।

अगले दिन कमरे में तीन लाशें पड़ी हुई थीं और पिता मूक दृष्टि से कभी लाशों को तो कभी उन सड़े हुए टमाटरों को देख रहा था।