इन्दर कुमार की दुविधा? / जयप्रकाश चौकसे

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इन्दर कुमार की दुविधा?
प्रकाशन तिथि : 23 सितम्बर 2014


विगत सप्ताह प्रदर्शित 'खूबसूरत' ऋषिकेश मुखर्जी की रेखा अभिनीत फिल्म से प्रेरित प्रचारित की गई परंतु मूल फिल्म से कोई खास रिश्ता नहीं था। मूल फिल्म मध्यम वर्ग के जीवन की कठिनाईयों के बीच 'निर्मल आनंद' के तलाश की कहानी थी आैर सोनम कपूर ने इसे राजे-रजवाड़ा की शान-शौकत में ढालने की कोशिश की। बहरहाल नई फिल्म के साथ इन्दर कुमार की आगामी फिल्म रेखा अभिनीत 'सुपर नानी' का ट्रेलर लगा है जो अत्यंत प्रभावोत्पादक है। इन्दर कुमार की फिल्म में वर्तमान का कोई सितार नहीं है परंतु उन्होंने सितारों वाली फिल्म की तरह खूब धन खर्च किया है। उनकी असली संपत्ति तो उनकी कहानी है जो एक सफल गुजराती नाटक पर आधारित है। इन्दर कुमार के पास इसके सिवा कोई रास्ता नहीं है कि वे दीवाली के उत्सव के समय फिल्म लगाएं क्योंकि अगले कई महीनों तक हर सप्ताह दो बड़ी फिल्मों का प्रदर्शन है आैर उन्हें ऐसा सप्ताह नहीं मिल रहा है जिसमें उनकी फिल्म को एकल प्रदर्शन का अवसर मिले। दीवाली के उत्सव पर शाहरुख खान की 150 करोड़ रुपए की लागत की 'हैप्पी न्यू ईयर' लग रही है। शाहरुख की फिल्म के प्रचार व्यय समान रकम में इन्दर कुमार ने 'सुपर नानी' बनाई है।

पहले यह विश्वास था कि जिन दर्शकों को भव्य सितारा जड़ित फिल्म के टिकिट नहीं मिलेंगे, वे उसी परिसर में लगी कम बजट की सार्थक फिल्म देख लेंगे परंतु अब ऐसा नहीं होता। अब दर्शक इस कदर सितारा प्रेमी हो गए हैं कि उनको सार्थकता का चांद भी नजर नहीं आता। मल्टीप्लैक्स परिसर में हर आधे घंटे में नया शो प्रारंभ होता है, अत: टिकिट नहीं मिलने की समस्या नहीं है आैर नई प्रदर्शन व्यवस्था ने फिल्म टिकिट की काला बाजारी खत्म कर दी है। अब मल्टीप्लैक्स में टिकिट दर इतनी अधिक है कि आप समझ लें उसमें काला धन शामिल हैं गोयाकि टिकिट की कालाबाजारी को जायज कर दिया गया है। एकल सिनेमाघरों में टिकिट दर कम हैं परंतु युवा दर्शक की शान के खिलाफ है कि वह एकल सिनेमा में फिल्म देखे आैर सच तो यह है कि फिल्म के साथ वह 'जिन्हें' देखने आया है, वे 'तितलियां' भी मल्टीप्लैक्स में ही फिल्म देखती हैं। पॉपकोर्न के कारण दर्शक मूंगफली खाना भूल चुके हैं। दरअसल इन्दर कुमार जिस जद्दोजहद से गुजर रहे हैं, वह सभी कम बजट की सार्थक फिल्म बनाने वालों की परेशानी है। कम बजट की दर्जनों फिल्में बनकर मुद्दतों से प्रदर्शन का इंतजार कर रही हैं। आज इस तरह की फिल्मों को प्रदर्शन कर पाना अत्यंत कठिन हो गया है। चार करोड़ रुपए में बनी फिल्म को प्रदर्शित करने के लिए टेलीविजन पर दस करोड़ रुपए की लागत लगती है। आज सामाजिक प्रतिबद्धता की फिल्म बनाना असंभव हो गया है। सफल सितारों की छवि इतनी मजबूत होती है कि छवि के बाहर फिल्म बनाना जोखिम का काम है। अत: 'लार्जर दैन लाइफ' छवि ने फिल्म से जीवन के स्पंदन को खारिज कर दिया है। "लगान' के बाद आमिर खान 'तारे जमीं पर' जैसी सार्थक फिल्म बना पाए परंतु आज उनकी जो छवि है उसमें 'तारे जमीं पर' नहीं बनाई जा सकती। छवि से हटकर करने की चाहत सभी सितारों के दिल में हैं परंतु वे स्वयं अपनी छवि में कैद हैं।

इंदर कुमार की फिल्म पारिवारिक है, अत: दीपावली उसके लिए सही समय है परंतु भव्य फिल्म उसे लील सकती है। इन्दर कुमार की फिल्म एक परिवार की कहानी है जिसमें नानी को अपने बच्चों को सही मार्ग पर लाने के लिए अपने को बदलना होता है ताकि वह उस जबान में बात कर सके जिसे उसके परिवार का युवा वर्ग समझता है। स्पष्ट है कि यह जबान 'सफलता' है या प्रसिद्ध हो जाना है। हमने साधारण को कितना महत्वहीन कर दिया है। क्या साधारण सामान्य होना अपराध है? सारी शिक्षा इत्यादि का भी फोकस ही बदल दिया है।

'विशिष्ट' हुए बिना जीना कठिन कर दिया है। आश्चर्य की बात यह है कि डेमोक्रेसी में आम आदमी का मत अत्यंत महत्वपूर्ण है आैर आज आम आदमी का जीवन ही सबसे कठिन हो गया है। कहीं ऐसा तो नहीं कि 21वीं सदी में आम आदमी की जो हालत बनाई जा रही है आैर जिस ढंग से सरकारें चुनी जा रही हैं, यह सब लिबरल डेमोक्रेसी को ही सबसे घटिया तरीका साबित कर देगी। विगत अनेक सदियों के अनुभव से लगता था कि लिबरल डेमोक्रेसी ही सबसे कम दोष वाली व्यवस्था है परंतु 21वीं सदी में इस इतिहास प्रक्रिया से प्राप्त नतीजा ही गलत सा लगने लगे या ऐसा भरम ही बना दिया जाए तो कोई आश्चर्य नहीं। अभी नई सदी ने अपनी पल झलक ही दिखाई है, अत: कोई नतीजा नहीं निकाला जा सकता परंतु संकेत भयावह हैं।