इन्फेक्शन / शशिकांत सिंह शशि
अचानक हमारे मोबाइल की घंटी बजी। हमने झाँका, हमारे मित्र बनारसी दास का नाम चमक रहा था। दिन के तीन बजे, जब हम आँत में भात भर के खाट तोड़ रहे हों, मोबाइल या दरवाजे की बेल का बजना कतई गवारा नहीं है लकिन बज रही मोबाइल का गला घोंटना भी अच्छा नहीं लगा। हमने रिसीव कर ही लिया -
- 'हेलो! प्रभु बोलिए। दोपहर में कैसे याद किया?
- 'हमारी तबीयत खराब लग रही है। पेट में दर्द है और चक्कर आ रहे हैं।'
- 'ये तो हराम के भोजन के लक्षण हैं। आपको फिर किसी ने भोज पर आमंत्रित किया होगा। आपने उसे छठी का दूध याद करा दिया होगा। अब भुगतिए।'
- 'तुम्हें मजाक सूझ रही है हमारी जान जा रही है।'
जीभ के प्रति दास जी की निष्ठा अभिनंदन के योग्य थी। जीभ की निष्ठा के कारण कभी-कभी उनकी महादशा हो ही जाया करती थी। महीने दो महीने में एक बार डॉक्टर-दर्शन के योग हो जाया करते थे। सबसे बुरी दशा तब होती थी, जब कोई दुष्मन उन्हें भोज पर आमंत्रित कर देता था। मित्र तो बुलाते नहीं थे। उन्हें पता था कि खाकर बीमार होगा और मित्रों को ही झेलना पड़ेगा। बहरहाल हम उनके घर पहुँचे तो आप मय तकिये के धराशायी हो गए थे। पलंगतोड़ काया नीचे जमीन पर। हमने जाते ही दरियाफ्त की -
- 'प्रभु! बेजान तकिये को तो छोड़ दो। पलंग पीठ तजि अवनि कठोरा... करके क्यों लेटे हो। अभी स्वर्ग जाकर भी क्या करोगे? वहाँ तत्काल आरक्षण की कोई सुविधा नहीं है। धक्के खाने पड़ेंगे। तुम कुछ भी खाने की स्थिति में हो नहीं। पेट में पहले ही दर्द है तुम्हारे।'
दास जी ने आँखें खोलीं। दयादृष्टि डालकर बोले -
- 'नहीं ...नीचे तो हम इसलिए लेट गए थे क्योंकि फर्श ठंडी लग रही थी। वो... दरअसल आधी रात से ही पेट में मीठा-मीठा दर्द हो रहा है। जाने का नाम ही नहीं ले रहा। यदि कुछ खा लूँ तो तेज हो जाता है। डॉक्टर से बात की थी। उसने अस्पताल जाने की सलाह दी है। मुझे चिंता हो रही है। तुम साथ चलो। तुमको तो पता ही है कि ये अस्पताल वाले तरह-तरह के नाटक करके जेबें काटते हैं।'
- 'सरकारी अस्पताल में भर्ती हो जाओ। अंतिम संस्कार भी करके ही बाहर जाने देते हैं। वैसे आगे-पीछे तो तुम्हारे कोई है नहीं।'
- 'यार तुम तो हमारा अंतिम दर्शन करने पर तुले हो। मैं समझता हूँ कि हम नवजीवन नर्सिग होम' में चलें। वहाँ डॉक्टर से सलाह लेंगे। सुना है वहाँ के डॉक्टर अच्छे हैं। तुम साथ चलो।'
नवजीवन नर्सिंग होम शहर के उन प्राइवेट अस्पतालों में से है जहाँ से वापस आने के बाद हर आदमी को लगता है कि नया जीवन मिल गया। नए जीवन की तरह नवीनता का आभास होता है। पूर्व की सारी कमाई तो अस्पताल ले लेता है। आदमी नए सिरे से जीवन शुरू करता है। हर बीमारी का शर्तिया इलाज किया जाता है। चाहे वह बीमारी हो या न हो। हमें भी एक पुरानी कहावत याद आई कि रोग और ऋण को कम नहीं समझना चहिए। पेट दर्द से दास जी हमेशा दुखी रहते ही थे। स्थायी इलाज कराना भी जरूरी था। सो, नर्सिंग होम को प्रस्थान कर गए।
आलीशान बिल्डिंग देखकर ही मन खुश हो गया। आधी बीमारी तो केवल भवन की भव्यता देखकर ही ठीक हो जाए। धड़कते हृदय से, पूछते हुए एक डॉक्टर साहब के ऑफिस में जा घुसे। डॉक्टर साब के चेहरे की चमक देखकर हमारे अंदर आत्मविश्वास की लहरें उठने लगीं। उन्होंने हमें गौर से देखा और बोले -
- 'मरीज कौन है?'
- 'जी ...मैं हूँ।' दासजी मिमियाए।
- 'क्या बीमारी है?'
- 'पेट में दर्द है। हमेशा हो जाता है।'
- 'हूँ... जाँच करनी पड़ेगी। आइए।'
हम उनके साथ-साथ हो लिए। वे हमे शीशे के एक बड़े हॉल में ले गए। वहाँ नाना प्रकार के मरीज एक ही प्रकार की बेड पर पड़े दिख रहे थे। छोटे-छोटे केबिन। एक बेड खाली थी। बेड नंबर-4। उसी पर दासजी को लिटाया गया। दो कंपाउडर दौड़कर आए। उन्होंने तुरंत दास जी को पकड़कर बेड पर लिटा दिया। दो नर्सें दौड़ती हुई आईं और लोहे का एक स्टैंड बाजू में खड़ी करके चली गईं। एक कंपाउडर मुश्तैदी से आया और उस पर दो बोतलें टाँगकर चला गया। डॉक्टर आए उन्होंने दाहिनी भुजा में सुई चुभोई और बोतल से उसे जोड़ दिया। उनके बदन में पानी जाने लगा। न तो दास जी की समझ में आ रहा था कि पानी क्यों बदन में पटाया जा रहा है। न मेरी समझ में। हम आतंकित होने लगे थे। डॉक्टर ने जीभ देखी। आँखों के अंदर टार्च की रोशनी फेंकी। उनके पेट को चारों कोनों से थपथपाया। फिर आकाशवाणी सी की -
- 'पेट का एक्स-रे करना होगा। लगता है कि पेट के अंदर कोई चीज फँस गई है। कभी-कभी छोटी आँत में खाने का एक दाना भी फँस जाए तो दर्द होता रहता है। एक्स-रे करने के बाद ही कुछ पता चलेगा।'
मेरी ओर देखकर बोले -
- 'आप इनके साथ हैं। बाहर काउंटर पर मिल लें। एक्स-रे की तैयारी करनी होगी।'
हम मिलने चले गए। काउंटर वाले ने नाम-पता ठिकाना लिखवाने के बाद पाँच हजार रुपये जमा करा लिए। धनराशि तो हम लेकर ही गए थे। डॉक्टर-दर्शन कभी निष्फल नहीं जाते। धनराशि जमा करके, एक पर्ची लेकर, हम दास जी के पास आ गए। बेचारे अधमरे से हो रहे थे। देखते ही बोले -
- 'क्या कह रहा था? कितने पैसे जमा करके आ रहे हो?'
- 'एक्स-रे करके देखेंगे कि तुमने आजतक कितना अपनी कमाई का खाया है और कितना हराम का। उन्हें लग रहा है कि छोटी आँत में भात फँस गया है। एक्स-रे से पता चलेगा। उसके बाद हो सकता है कि पेट को फाड़ कर भात निकाल दें। दर्द से हमेशा के लिए निजात मिल जाएगी।'
बनारसी दास अभी ठीक से मायूस भी नहीं हो पाए थे कि चंद्रयान की तरह का एक यान लेकर एक कंपाउडर सामने आया। बेड के किनारे यान को खड़ा करके बटन दबाने लगा। एक प्लेट कूद कर बाहर आई। दो चमच्चियाँ दुबे जी की पेट से सट गईं। उसके बाद थोड़ी सी खट-खट और। यान के नीचे से एक चमचमाती हुई प्लास्टिक की पाटी बाहर कूदी। उसे लेकर वह महापुरुष चला गया। दास जी चितित हो लिए। थोड़ी ही देर में डॉक्टर के केबिन से हमें बुलाया गया। हम धड़कते हृदय से अंदर प्रवेश कर गए।
- 'हमारा अनुमान गलत निकला। पेट एकदम साफ है। पेट में कुछ नहीं है। आँत में एक दाना भी नहीं है। हम किडनी की जाँच करेंगे। किडनी ही शरीर की शुद्धि का कार्य करती है। यदि उसमें कोई खराबी हो तो दर्द होना संभव है।'
- 'हमें आज यहाँ रुकना पड़ेगा क्या?'
- 'जी ...हाँ ...अड़तालिस घंटे के बाद ही हम कुछ बता पाएँगे। हम दो-तीन एंगल से जाँच कर रहे हैं। क्रोनिक डिजिज है। हमेशा दर्द होता है। किडनी में यदि डिफेक्ट नहीं होगी तो लीवर की जाँच करनी पड़ेगी। लीवर यदि ओ.के. हुआ तो हो सकता है कि हम फेफड़े पर भी एक नजर डालते चलें। हम ग्रेडुएली पूरे बॉडी की जाँच करके आपको दो एक दिन में बता पाएँगे कि वास्तव में इस बीमारी के पीछे क्या वजह है।'
- 'जी... तब तक ...फी कितनी हो जाएगी? हमने यक्ष प्रश्न कर ही दिया।'
डॉक्टर साहब मुस्कराए। हम घबराए।
- 'चिंता मत कीजिए। यही कोई दो हजार रोज का चार्ज है। आप लोग बेरोजगार हैं तो आपको रिबेट मिलेगा। हमारा अस्पताल समाज के लिए ही बना है। हम समाजसेवी लोग हैं।'
हमने उनकी समाज सेवा को मन से नमन किया और दास जी को को आकर खुशखबरी सुना दी। उनको राहत तो मिली कि पेट को फाड़ने की नौबत नहीं आएगी। जानते तो हम भी थे कि उनकी आँत में कोई दाना बिना पचे रह ही नहीं सकता। बिना डकार लिए मुफ्त का मुर्गा पचाने वाले इस महाशक्तिशाली बंदे के आँत की जाँच करके डॉक्टर मुँह की खा चुके थे। किडनी के मामले में भी यही होने वाला था। इसे बीमारी कोई नहीं है। हो सकता है कि पेट भूख से दर्द कर रहा हो। हमने दुबे जी को दो गिलास जूस पिलाई। जूस पीकर जब संतुष्टि को प्राप्त हुए तो पेट दर्द फिर तेज हो गया। कराहने लगे।
- 'देखा तुमने मैंने क्या कहा था। जूस पिया नहीं कि पेट दर्द तेज हो गया। कोई विकट बीमारी लग गई है। तुम मेरी दादी को फोन कर दो।'
दरअसल दुबे जी की दुनिया में, एक दादी ही थी। विवाह बंधनों में बँधे नहीं थे। यूँ कह लीजिए कि उनको किसी ने अपनी पुत्री दी ही नहीं थी। उनकी स्थायी बेरोजगारी को देखते हुए, उनके पिताजी ने, पहले ही, उन्हें दुनिया के सबसे नालायक पुत्र की उपाधि से नवाजा था। उनके हालचाल में दिलचस्पी लेनी बंद कर दी थी। आश्चर्य की बात है कि दादी उनको अभी तक अपना बेस्ट पोता मानती थी। हमने उन्हें फोन कर दिया। अस्पताल का कार्यक्रम जारी रहा। दास जी के पेट दर्द के अंतिम समाधान की ओर लगातार बढ़ते रहे। दो घंटों के बाद एक रोबोट टाइप का आदमी प्रकट हुआ। इस बार उसके साथ फिर एक मशीन थी, जिसमें नाना प्रकार के तार लगे थे। आते ही उसने दुबे जी को बाँधना चालू किया। उसने पता नहीं क्या-क्या किया। दुबे जी को पेट के बल लिटाया। पीठ के बल लिटाया। शुक्र था मुर्गा नहीं बनाया। उसके जाने के बाद दुबे जी ने राहत की साँस ली। हम राहत की साँस भी नहीं ले पाए थे कि एक नर्स आई। उसने हमारे हाथ में एक पर्चा पकड़ा दिया।
- 'काउंटर पर मिल लीजिए और ये दवाइयाँ ले आइए।'
काउंटर-मिलन की सच्चाई से हम वाकिफ थे। हमने अपना ए.टी.एम. कार्ड सँभालकर रखा था। उसके सफल इस्तेमाल की नौबत आ गई। काउंटर पर दो हजार रुपये जमा करके हम दवा लेने गए। एक टोकरी से थोड़ी कम दवाइयाँ लेकर हम दास जी के सिरहाने पहुँचे तो उन्हें छत की ओर देखते पाया।
- 'प्रभु! अभी जाना नहीं। ऊपर जाने के पहले हमारी उधारी जो चढ़ रही है। उसे चुकता करते जाना। सात हजार काउंटर पर और दो हजार की दवा।'
- 'किडनी जाँचने के दो हजार।'
- 'आपकी महा-किडनी कोई साधारण किडनी तो है नहीं। दो किडनी होती तो इतना भोजन कैसे पचाते? हो सकता है कि चार हो।'
- 'मजाक मत करो यार। दादी को सूचित कर दो। पता नहीं हम रहें न रहें।'
हमने उनकी अंतिम इच्छा का सम्मान किया और दादी को सूचित कर दिया। शाम में अचानक अस्प्ताल के सभी कर्मचारी मुश्तैद नजर आने लगे। एक मरियल सा आदमी आया जिसे देखकर दावे के साथ कहा जा सकता था कि इसे अस्पताल में ही होना चाहिए था। चेहरे पर जमाने भर की हड़बड़ाहट समेटे बेड नंबर चार पर आया। आते ही उसने दुबे जी को उठाकर खड़ा किया और बेड की चादर बदल कर चला गया। दूसरा आया उसने वहाँ की सफाई की। हमने उत्सुक होकर पूछा -
- 'कोई मंत्री-वंत्री भर्ती होने वाला है क्या?'
- 'नहीं ...बड़े डॉक्टर साहब दौरे पर आ रहे हैं।'
- 'सुबह वाले छोटे थे?'
- 'नहीं ...वे भी बड़े ही थे। बड़े-बड़े आठ डॉक्टर चौबीस घंटों मे आते हैं। अस्पताल ही बड़ा है।'
बड़े डॉक्टर साहब ने चार नंबर बेड पर आते ही दास को निहारा। दास उदास था। उसका रिपोर्ट लिए एक नर्स खड़ी थी। बड़े डॉक्टर साहब उसे देखते रहे। नर्स को कुछ समझाते रहे। उनकी मुखमुद्रा काफी गंभीर लग रही थी। उन्होंने एक पर्ची पर दवाइयाँ लिखीं और नर्स को दे दिया जिसे उनके जाते ही नर्स ने मुझे दे दिया। मैं उसे लेकर गया। एक टोकरी दवाइयाँ लेकर तुरंत आ गया। नर्स से मैंने पूछा -
- 'डॉक्टर साब क्या कह रहे थे?'
- 'जाकर उन्हीं से पूछ लीजिए। केबिन में बैठे हैं।'
मेरे पूछने पर डॉक्टर साहब ने बताया कि लीवर में इन्फेक्शन लगता है। पूरी तरह तो बताया नहीं जा सकता है। जाँच के बाद ही पता चलेगा। हो सकता है कि लीवर में इन्फेक्शन हो। सिमटम तो वही हैं। सुबह खाली पेट लीवर की जाँच होगी। जाँच के बाद ही पता चलेगा कि इन्फेक्शन का स्तर क्या है। मैं पहली बार घबराया, लीवर में यदि इन्फेक्शन है तो इसका मतलब कि खतरनाक मामला है। इन्फेक्शन शब्द है खतरनाक। दास के सिरहाने आकर मन कर रहा था कि फूट-फूट कर रो लूँ। आखिर बचपन का मित्र है। अब इस दुनिया से जा रहा है। अच्छा हुआ कि शादी-वादी नहीं हुई, नहीं तो एक विधवा जीवन का भार अलग होता। कहीं एक दो छोटे-छोटे बच्चे होते तो कौन पालता उन्हें? बेचारा, जीवन में बिना कुछ देखे ही जा रहा है। मैं दुखी हो रहा था और आप खर्राटे ले रहे थे। वहीं उनकी बेड के पास ही एक लुँगी बिछाकर मैं भी लेट गया। रात तो कट गई। बनारसी दास का स्वर्गवास नहीं हुआ।
सुबह-सुबह वार्ड ब्वाय फिर आया। उसने आते ही दुबे जी को हटाकर, चादर बदली। दुबे के बदन को पानी से पोंछकर; आसपास के फर्श को चमकाकर, जाने लगा तो हमारी ओर मुड़कर बोला -
- 'साहब! सफाई करने के लिए तो अस्पताल में तीन लोग हैं लेकिन करना केवल मुझे ही पड़ता है। गधे की तरह काम करना पड़ता है और मिलता क्या है। महीने के केवल दो हजार रुपये। अधिक माँगो तो कहते हैं कि हिसाब कर लो। खुद तो लाखों से खेलते हैं। ऊपरवाला सब देख रहा है। उसकी लाठी बेआवाज चलती है। अब आप जैसे बड़े लोग दस-पाँच दे देते हैं तो अपना भी गुजारा चल जाता है।'
कहने के बाद वह हमारी ओर देखने लगा। मैं दास की ओर देख रहा था। वह छत की ओर देख रहा था। यह कार्यक्रम शायद लंबा चलता लेकिन वह महापुरुष चला गया। उसके जाते ही दास मुँह लटका कर बोला -
- 'अभी भी पेट में दर्द है। लगता है दवा काम नहीं कर रही है। अब यहाँ रहने से क्या लाभ। यहाँ से निकलने का जुगाड़ लगाओ। मुझे दवा की नहीं दुआ की जरूरत है। भूख भी प्रचंड लगी है। कहीं से तली हुई मछली का जुगाड़ करो। पराठे के साथ, खाया जाए।'
- 'प्रभु, आप ससुराल में नहीं अस्पताल में हैं। आप के ज्ञानवर्द्धन के लिए बताते चलें कि आप के पेट में इन्फेक्शन नाम की कोई बीमारी हो गई है। अभी तो लीवर की जाँच होगी। रात में जो डॉक्टर आया था। उसे संदेह है कि तुम्हारे लीवर में इन्फेक्शन हो गया है।'
- 'मतलब?'
- 'कोई बीमारी होती होगी और क्या? मैं डॉक्टर थोड़े ही हूँ। आते ही होंगे जाँच करेंगे। उसके बाद यदि जाने दें तो ठीक है। नहीं तो पता नहीं कब तक यहाँ रहना होगा।'
उधर लीवर जाँच की तैयारी चल रही थी, इधर दादी आ गई। उसने आते ही दुबे जी को गले से लगाया और रोने लगी। रो चुकने के बाद बोली -
- 'तुझे हुआ क्या है?'
- 'पेट में दर्द है।'
- 'तो यहाँ क्यों पड़ा है? पेट दर्द की दस दवाइयाँ तो मैं जानती हूँ। चल यहाँ से अभी निकल। डागदर वागदर कुछ नहीं...।'
एक कंपाउडर के आने से दादी के धाराप्रवाह प्रवचन में विघ्न पड़ गया। उसने आते ही कहा।
- 'आपने कुछ खाया तो नहीं है? आपके लीवर की जाँच होगी। आप हैं, इनके साथ जाइए, काउंटर पर मिल लीजिए। जाँच कराना जरूरी है।'
- 'तेरा डागदर कहाँ है? मुझे अपने बच्चे को अभी के अभी लेकर जाना है।'
दादी के उच्च स्वर ने कमाल कर दिया। केबिन से निकल कर वही कल वाला डॉक्टर बाहर आ गया। पहले तो उसकी समझ में मामला ही नहीं आया। आते ही बोला -
- 'आपके पोते का हम अपहरण कर के नहीं लाए। आप जब चाहें ले जा सकती है। रिस्क आपकी अपनी होगी। हम तो बीमारी का पता लगा रहे हैं। लीवर की जाँच के बाद ही पता चलेगा कि असल में बीमारी की जड़ क्या है। हमें शक है कि इनकी लीवर में इन्फेक्शन में है। यदि समय से इलाज नहीं हुआ तो इनकी जिंदगी खतरे में पड़ सकती है। लीवर का इन्फेक्शन पूरे शरीर में फैल जा सकता है। बाकी आपकी मर्जी।'
- 'डागदर साब, जड़-फुनगी सब पता है। खाने में जीभ चटोर है। बचपन में भी इसे ऐसे ही हो जाता था। तब हींग और ज्वायन से ठीक हो जाया करता था। अब आपकी जैसी मर्जी , लेकिन... ठीक तो हो जाएगा न।
- 'हम कोशिश कर रहे हैं। इन्फेक्शन है दो दिन में ठीक हो सकता है। दस दिन भी लग सकते हैं। आपको भरोसा हो तो रखिए नहीं तो ले कर जा सकते हैं।'
बुढ़िया रोने लगी। दास जी के कंठ में भी रुलाई ने दस्तक दी। हमें भी रोने की तलब हो ही रही थी। अभी हम सामूहिक रूप से रुदन करते कि नर्स ने आकर हमें बाहर जाने का इशारा किया। एक समय में एक ही आदमी के रहने का नियम था। यह एक नया झंझट। हम बाहर जाएँ तो प्रत्येक तीन घंटे पर एक टोकरी दवा कौन लेकर आएगा? यदि दादी चली गई तो दास जी सिरहाने बैठकर रोएगा कौन? बनारसी का इन्फेक्शन उसे लेकर ही जाएगा। डॉक्टर तो कोशिश करने की बात कर रहे हैं। दादी रह गई। हम बाहर आ गए। बाहर बरामदे में भी किसी ने नहीं रहने दिया। एक चायवाले की कुर्सी पर बैठना चाहा तो उसने भी भगा दिया। अंततः एक खड़े स्कुटर पर शरण मिली। अब समस्या यह थी कि रात में दादी कहाँ रहेगी।
स्कुटर बैठे-बैठे हमें ज्ञान प्राप्त हुआ कि हम डॉक्टर से बात करें कि हमारे पास पैसे नहीं हैं। हो सके तो उधार इलाज करते रहें। बेरोजगार आदमी हैं। रोजगार मिलते ही पाई-पाई चुका देंगे। जाएँगे कहाँ नवजीवन से भाग कर। हमारी हालत हो भी लगभग ऐसी ही हो गई थी। ए.टी.एम. अब खाली था। दास जी के पिताजी यदि आएँ और फंड दें तो संभव है कुछ दिनों तक और इन्फेक्शन का इलाज करा सकें। हमने डॉक्टर साहब से बात की -
- 'डॉक्टर साब! बनारसी का इन्फेक्शन तो ठीक होने से रहा। पता नहीं युग-युगांतर तक इलाज चलता रहेगा। इधर हालात यह हैं कि पैसे का कोई इंतजाम नहीं हो पाया है। दादी भी आ गईं। दो लोगों का खाना। हो सके तो लॉज में रूम लेना पड़ेगा। आपके इस कमरे का किराया भी चल ही रहा होगा। मेरा आग्रह था कि आप हमारा पता-ठिकाना लिख लेते और बनारसी के ठीक होने के बाद उसी से वसूल लेते। नहीं तो हम खुद ही दे जाते। आपको तो लोग धरती पर भगवान भी कहते हैं।'
डॉक्टर ने जिस नजर से हमें घूरा उस नजर से हाई स्कूल में मैथ के मास्टर ही घूरा करते थे। हमारे हलक में प्राण आ गए। उनकी गूँजती हुई आवाज कानों से टकराई -
- 'आपके पास पैसे नहीं हैं। यह आपका निजी मामला है। अस्पताल को इससे कोई लेना-देना नहीं है। हम यहाँ खैरात करने के लिए तो बैठे नहीं हैं। पैसे नहीं हो तो सरकारी अस्पताल में आप अपने दोस्त को लेकर जा सकते है। हद हो गई। भगवान क्या बिना प्रसाद चढ़ाए ही मुराद पूरी कर देता है।'
हमने मन ही मन सोचा कि अब तक लगभग बीस हजार का बिल बन गया और यह प्रसाद भी नहीं हो सका तो प्रभु क्या प्राण हरण के बाद ही छोड़ोगे। मुँह लटकाकर हमने डॉक्टर से विदा ली। दूसरे दिन नर्स ने हमें सूचित किया कि अस्पताल हमें छोड़ने जा रहा है। काउंटर पर बिल चुका कर आना होगा। हमें एक चमचमाती किताब मिली जिसमें लगभग सात पन्ने थे जिन पर नाना प्रकार के बिल थे। उस किताब को लेकर हम आखिरी बार काउंटर पर गए। मन खुशी से नाच रहा था। काउंटर पर दस हजार देने पड़े लेकिन हमें मलाल तक नहीं हुआ।
- 'डॉक्टर साब लेकिन इन्फेक्शन का क्या होगा?'
- 'हमने दवाइयाँ दे दी हैं। खाते रहेंगे, ठीक हो जाएगा।'
अस्पताल के बाहर आकर लग रहा था। हमें नया जीवन मिला है। अस्पताल का नाम यदि नवजीवन है तो बिल्कुल सार्थक है।