इन-आउट / प्रमोद यादव
ए..एन..यू...अनु....जे...एच...ए...झा...अनु झा ...जितना छोटा नाम, उतनी ही छोटी और सिमटी उसकी जिंदगी. बस...आफिस से घर और घर से आफिस. इस बीच वही रोज का बोझिल सिलसिला..एक सोच का सिलसिला. कुछ लोगों की जिंदगी में बरसात, ठण्ड, पतझर-बहार के मौसम होते ही नहीं...उन्हीं लोगों में से एक थी...अनु. घर पहुँचते ही दरवाजे पर लगे नेम-प्लेट को वह आदतन पढ़ती और बुदबुदाती...फिर अपनी कमजोर और लंबी उँगलियों के स्पर्श से ‘अनु झा’ के नीचे लिखे ‘आउट’ को ‘इन’ करती. कई-कई बार वह सोचती कि क्या केवल ‘इन’ कर देने से ही कोई सचमुच ‘इन’ हो जाता है या ‘आउट’ कर देने ‘आउट’?
पिछले कई दिनों से वह निरंतर महसूस कर रही है कि घर में नाममात्र को ही ‘इन’ रहती है जबकि दिलोदिमाग पूरी तरह ‘आउट’ रहता है और जब आफिस में रहती है, घर के दरवाजे पर ‘आउट’ लिखा होता है...वह पूरी तरह घर के चारदीवारी में रहती है...किसी अनजान भय..किसी आशंका से सहमी-सहमी.. डरी-डरी.. .कई-कई बार वह इस ‘इन-आउट’ के विचारों को अपने मस्तिष्क से झटक देना चाहा . सोचती की इस विषय में कुछ न सोचूं पर मन तब और अधिक उड़ानें भरता.. हमेशा ही ‘इन’ के वक्त वह ‘आउट’ रही और ‘आउट’ के वक्त ‘इन’. चाहकर भी कभी वह इस रोज के सिलसिलों को बदल न सकी.
दरवाजा ठेलते ही नजर सामने टंगी तस्वीर पर जाकर टिकती है. चौड़े और सुनहरे फ्रेम में जड़े बाबूजी और वीनू भैया की तस्वीर. दोनों की तस्वीरें इतनी जीवंत कि लगता है बाबूजी अब-तब ही पूछेंगे...’ अनु बेटे..लंच-बाक्स तैयार कर दी न..’ भैया की खिलखिलाती तस्वीर से लगता है जैसे भैया हमेशा की तरह किसी बात पर चिढ़ाकर हँस रहे हों. बाबूजी और वीनू भैया के साथ अनायास ही बबली दीदी की याद रोज रुला देती है. दोनों तस्वीरों के बीच वह बबली दीदी को स्पष्ट देखती है..और सुनती है उसकी सहमी-सहमी प्रार्थना भरी आवाज...’ अनु...तुझे मेरी सौगंध..जो यह बात और किसी को बताई तो...सच कहती हूँ...फाँसी लगा लूंगी...’ फिर सिसकियाँ और सिसकियाँ..
दो-ढाई साल पहले यही घर पूरा एक स्वर्ग हुआ करता. बाबूजी, परितोष भैया, बबली दीदी, वीनू भैया और अनु...बस पांच ही तो प्राणी थे. बाबूजी और वीनू भैया एक ही फैक्टरी में सर्विस करते ..बाकी सभी मजे से पढाई करते. वह मनहूस दिन आज भी उसे याद है जब स्वर्ग जैसे घर में पहली बार एक नारकीय स्थिति निर्मित हुई. अनु पहले ही जानती थी कि ऐसी खराब स्थिति कभी भी आ सकती है.इसलिए बार-बार बबली को सलाह देती रही कि अभी मामला बिगड़ा नहीं है..बाबूजी और भैया को साफ-साफ बता दे..वे माफ कर देंगे..लेकिन दीदी ने उसे कसम डाल दी थी ..और चेतावनी भी दी कि अगर किसी को बताया तो मर जायेगी.
फिर एक दिन उसे उलटी हुई और चक्कर पे चक्कर आने लगे. बड़े भैया परितोष भी उन दिनों छुट्टियों में जबलपुर से आये थे. बबली दीदी को सबसे ज्यादा वही चाहते थे. अनु डाक्टर के लिए मना करती रही पर भाई समझ न सका..बहन के प्रेम से वशीभूत वह डाक्टर ले आया. जब मालुम हुआ कि बबली माँ बनने वाली है तो परितोष भैया आपे से बाहर हो गए...अनु रो-रोकर भैया को खींचती रही .समझाने की कोशिश करती रही...और भैया बबली को पीटते रहे.. पीटते रहे..फिर खुद दहाड़ मार रोने बैठ गए. बाबूजी सुने तो सन्न रह गए..सारा गुस्सा पी अपने कमरे में बंद हो गए. उस दिन अनु को भी खूब फटकार मिली....नसीहतें मिली .. बबली दीदी ने रात भर दरवाजा नहीं खोला. दूसरे दिन भी देर तक दरवाजा नहीं खुला तो सभी किसी अनहोनी की आशंका से डर गए..किसी तरह जब दरवाजा खुला तो दीदी सीलिंग फैन में लटकती मृत मिली.. इस घटना के बाद घर का वातावरण अजीब सा हो गया. अनु पर कड़ी पाबंदी लगा दी गई और हर छोटी-बड़ी गलती पर उसे चेतावनी मिलने लगी. घर में सभी अलग-अलग ‘टापू’ से हो गए.. अजनबी से हो गए. बबली दीदी के बारे में बातचीत तक की मनाही थी. उसकी तस्वीर मेज से हटा दी गई तब से वह तस्वीर अनु के ट्रंक में है. ढाई साल बीत गए..वह कभी उसे दीवाल पर जड़ न सकी. कुछ करीबी लोग जिनका अनु के घर अक्सर आना-जाना होता था, उनसे भी बातचीत बंद करा दी गई. धीरे-धीरे उन लोगों ने खुद ही अनु के घर जाना बंद कर दिया.
इस हादसे के ठीक एक महीने बाद ही एक और भयानक जलजला आया... बचा-खुचा घर, इस जलजले की भेंट चढ गया. फैक्टरी में एक दिन अचानक एक भारी विस्फोट हुआ और तीस कर्मचारी मारे गए..बाबूजी और वीनू भैया भी मृतकों में शामिल थे...फैक्टरी की तरह घर भी ख़ाक हो गया..और अवशेष की तरह बच गए ..केवल परितोष और अनु परितोष भैया को जैसे काठ मार गया..अनु केवल रोती रही..बिलखती रही..बाबूजी और वीनू भैया के मृत्योपरांत जो राशि फैक्टरी से मिलनी थी, वह प्रबंधन और यूनियन की लड़ाई के चलते कोर्ट पहुँच गया..तात्कालिक जो राशि मिली वह क्रिया-करम में ही खर्च हो गए..अब अजीब स्थिति थी.
अनु बार-बार बड़े भैया परितोष को समझाती रही कि वे जबलपुर जाकर अपनी बी.ई. की पढ़ाई पूरी कर ले..वह कहीं भी, कोई भी नौकरी करके उसके लिए रुपये भेजती रहेगी..लेकिन बड़े भाई को, जो अब बाप की जगह था, यह कैसे गवारा होता ? उसने पढ़ाई छोड़ दी. नौकरी की तलाश में दर-दर भटके पर नहीं मिली.अलबत्ता उन्ही दिनों अनु को प्रतीक के प्रयास से ‘साहनी एंड साहनी’ में नौकरी मिल गयी. प्रतीक दो साल पहले कालेज के दिनों अनु के साथ पढ़ा था.
अनु उन्ही दिनों ही प्रतीक से प्रभावित थी.पर बबली दीदी वाली घटना से वह इतनी आतंकित थी कि चाहकर भी उन दिनों प्रतीक के प्यार का जवाब न दे सकी थी प्रतीक भी दिल की गहराईयों से उसे प्यार करता..उसने कई बार अनु से सुनना चाहा कि वह भी उसे चाहती है पर अनु कभी भी उसे साफतौर पर जवाब न दे सकी.. प्रतीक ने तब एक बार कहा भी था-‘ सोचने के लिए तुम्हें पूरी उम्र दे रहा हूँ..पर जवाब जरुर देना अनु..’
आफिस में अनु के टेबल के बगल ही प्रतीक का टेबल था. अनु उसके एहसानों को कभी भुला नहीं पाती..क्योंकि बुरे दिनों में उसने ही यह नौकरी दिलाई थी इसलिए उसकी सभी बातों का वह सकारात्मक जवाब ही देती..एक दिन जब प्रतीक ने लंबे अरसे बाद फिर पुरानी यादों का वास्ता दिया..दोहराया..तो वह ‘ना’ न कह सकी..और भला कब तक खुद को सम्हालती ?..वह भी तो उसे चाहती ही थी..अंततः दोनों फिर मिलने लगे..और करीब से करीबतर होते गए..पर जब कभी प्रतीक ‘घर-परिवार’ की बातें करता ..वह भय से काँप जाती.. और एकाएक उससे छिटक जाती..कहती- ‘ मुझे भूल जाओ प्रतीक..भूल जाओ.. मैं चाहकर भी तुम्हारी नहीं हो सकती..मुझे भूल जाओ..’
घर में घटी दुर्घटनाओं का जिक्र कर कई बार बताया कि परितोष भैया को अगर हमारे संबंधों की जानकारी हुई तो वे काटकर फेंक देंगे..पर बार-बार प्रतीक हौसला देता कि ऐसा कुछ नहीं होगा..अक्सर वह कहता- ‘ अनु.. तुम अगर थोडा साहस दिखाओ तो तुम्हारे भैया को मैं समझा लूँगा..लेकिन तुम ही डर गयी तो..’ तब अनु कुछ न कहती...चुपचाप ख़ामोशी की चादर तान लेती.
आज परितोष भैया सुबह से किसी सर्विस के सिलसिले में दो-तीन दिनों के लिए बाहर गए हैं.यह बात उसने जब प्रतीक को बताई तो वह तपाक से बोल पड़ा था- ‘ गुड न्यूज..तब तो आज शाम की चाय तुम्हारे यहाँ पियेंगे..’तब अनु ने उसे विनम्रतापूर्वक मना कर दिया था.
अभी आरामी- कुर्सी पर पसरे प्रतीक को याद कर ही रही थी कि बेल बजी..दरवाजा खोला तो प्रतीक ही था..इसके पहले कि अनु कुछ बोलती, प्रतीक हाथ जोड़ बोल उठा- ‘सारी..अनु ..गुस्सा मत करना..मना करने के बाद भी आ गया..जानता हूँ..तुम निहायत ही डरपोक लड़की हो..अपने भैया से काफी डरती हो..वो बाहर हैं, फिर भी तुम्हे लगता है जैसे आ जायेंगे..अब माथे से पसीना पोंछ लो..और अपने नाजुक हाथों से एक कप चाय पिला दो..मैं तुरंत चला जाऊँगा....प्रामिस..’
अनु ‘ कहाँ डरती हूँ ’ वाले अंदाज से सीना फुलाई और उसे सोफे पर बैठाया. बैठते ही उसने अनु को अपनी गोदी में खींच लिया. वह हडबडा गयी..दरवाजा बंद करने के बहाने खुद को छुड़ाई और दरवाजा बंद की. चाय के लिए किचन की ओर मुड़ ही रही थी कि फिर बेल बजी. अनु और प्रतीक चुप एक-दूसरे को ताकने लगे.अनु का चेहरा अकस्मात सफ़ेद सा पड़ गया. पसीने से तरबतर हो गई वह. प्रतीक ने इशारा किया तब दरवाजे की और बढ़ी. दरवाजा खोला तो अवाक रह गई.
‘भैया...आप...आप तो..बाहर गए थे न...? ‘ अनु हकला-हकला कर मुश्किल से इतना ही बोल पाई.
परितोष ने एक नजर अनु को ..उसके अस्त-व्यस्त साडी को ..बिखरे केश को घूरा ..फिर प्रतीक को विचित्र नज़रों से देखा. उसने नमस्ते की मुद्रा में अभिवादन किया जिसका कोई जवाब नहीं मिला. परितोष सीधे किचन में चला गया. पीछे-पीछे अनु भी चली गयी. प्रतीक चुपचाप किचन की ओर निहारता खामोश खड़ा रहा. किचन के अन्दर से दोनों की आवाज साफ़-साफ़ प्रतीक के कानों से टकरा रही थी.....
‘ कौन है यह ? ‘
‘ जी..प्रतीक..’
‘ कौन प्रतीक ? ‘
‘ प्रतीक भैया... जिन्होनें मुझे नौकरी दिलाई थी.. मुझे..अपनी ..सगी..सगी बहन की तरह ...’
प्रतीक आगे और कुछ न सुन सका. उसे लगा जैसे किसी ने उसके कानों में गरम तेल उंडेल दिया हो.. तेजी से वह दरवाजे की ओर लपका. हड़बड़ी में उसके बुशशर्ट का पिछला हिस्सा दरवाजे के किसी कील में फँस गया. उसे छुडाने पीछे घुमा तो नेमप्लेट पर नजर पड़ी. धीर से बुदबुदाया- ‘ अनु झा...इन...’
उसने ‘इन’ के ऊपर उंगली फिराई.. फिर पढ़ा- ‘ अनु झा...आउट..’और तेजी से बाहर चला गया.