इन आंखों के सिवा दुनिया में क्या रखा है ? / जयप्रकाश चौकसे

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इन आंखों के सिवा दुनिया में क्या रखा है ?
प्रकाशन तिथि : 20 जनवरी 2014


जिन दिनों बिमल राय 'देवदास' की शूटिंग कर रहे थे, उन दिनों दिलीप कुमार ने कहा था कि सुचित्रा सेन अत्यंत समर्पित एवं अनुशासित कलाकार हैं और देवदास के प्रेम दृश्यों में अनुभूति की तीव्रता केवल आंखों के माध्यम से अभिव्यक्त होती है, वे दोनों कभी एक दूसरे को स्पर्श नहीं करते। सुचित्रा सेन अपनी निगाह से उजास फैला सकती थी और अगर वे चाहती तो संभवत: निगाहों से टेबल कुर्सी को अपने स्थान से चलायमान कर सकती थी गोयाकि उन आंखों में जादू था। 'देवदास' के सफल प्रदर्शन के बाद दिलीप कुमार ने यह भी स्वीकार किया कि बंगाली फिल्मों में सुचित्रा सेन और उत्तम कुमार के बीच जो जादुई रसायन था, वह देवदास में नहीं नजर आया। यह सचमुच आश्चर्य की बात है कि कोई दो कलाकारों के बीच एक अदृश्य सेतु बन जाता है जिसका संबंध परदे के परे उनके प्यार से नहीं है। यह केवल कैमरे के सामने ही होता है।

मीना कुमारी ने लंबे अंतराल के बाद अपनी घोर बीमारी के समय पाकीजा के शेष भाग की शूटिंग दी। जब कैमरामैन प्रकाश संयोजन में व्यस्त होता था तब मीना कुमारी लगभग निर्जीव व्यक्ति की तरह नजर आती थीं और इतनी कमजोर लगती थीं कि यकीन ही नहीं होता था कि वे अगला शॉट दे पायेंगी परंतु शॉट रेडी होते ही कैमरे के सामने जाने कैसे वे सजीव हो उठती मानो कैमरे से कोई ऊर्जा उनके शरीर में प्रवेश कर रही है। निर्जीव धातुओं और प्लास्टिक से बने कैमरे में चलते ही न जाने कैसे कलाकार को ऊर्जा देने की क्षमता आ जाती है।

आम जीवन में भी परिवार के लोगों के बैठने की जगह तय समान होती है और यह किसी व्यवस्था के अधीन नहीं होता वरन् अनेक दिनों तक दोहराये जाने के कारण यह मान लिया जाता है कि परिवार का फलां सदस्य अमुक जगह ही बैठेगा और सीट के परिवर्तन से सचमुच व्यक्ति थोड़ा सा परेशान सा नजर आता है गोयाकि आत्मीयता निर्जीव वस्तुओं से भी हो जाती है। इसी तथ्य के अगले चरण में हम देखते है कि वस्तुओं के प्रति इतना संवेदनशील व्यक्ति अपने व्यवहार में संवेदनाविहीन मशीनी व्यक्ति लगता है। बात इस रिश्ते से भी गहरी है जो निदा फाजली के इस शेर में बयां होती है-चीखे घर के द्वार की लकड़ी हर बरसात, कर कर भी मरते नहीं पेड़ों में दिन रात। इस सरल से दिखने वाले संसार का दैनिक कार्यकलाप अत्यंत रहस्यमय है।

सुचित्रा सेन पलक झपकाए बिना लंबे समय तक रह सकती थी और उनकी आंख के परदे पर विभिन्न भाव उभरते थे तथा ऐसे ही किसी भावना की तीव्रता के क्षण में उनके ओंठ पर एक हल्की सी सिहरन उभर आती थी और एक जगह ओंठ में किंचित वक्रता भी आ जाती थी। भगवान जाने आंख के परदे के पीछे कितनी सतहें छुपी होती हैं। शर्मिला टैगोर भले ही कहें कि सुचित्रा सेन जितनी लोकप्रिय सितारा थीं, उतनी बड़ी कलाकार नहीं थीं।

सुचित्रा सेन संभवत: एकमात्र कलाकार है जिसने सत्यजीत राय के एक प्रस्ताव को समय के अभाव के कारण स्वीकार नहीं किया और राजकपूर के प्रस्ताव को भी अस्वीकृत किया। कई बार कलाकार की गई फिल्मों के कारण उतना चर्चा में नहीं आता जितना उसकी अस्वीकृत किया। मुंबई के निर्माता रमेश बहल सुचित्रा की पुत्री मुनमुन के साथ कलकत्ता गए थे परंतु पटकथा सुनना तो दूर उन्होंने मिलना भी स्वीकार नहीं किया।

सुचित्रा सेन एक असाधारण महिला थीं और भारतीय सिनेमा में उनका एक गौरवशाली स्थान है। एक लोकप्रिय अधिकतम की पसंद पर आधारित माध्यम में सुचित्रा सेन ने अपनी गरिमा को कायम रखा और कभी कोई कार्य महज लोकप्रिय होने के कारण नहीं किया। शरीर की सुंदरता और कोमलता से चरित्र के इस्पात का अनुमान नहीं होता।