इन दीवारों में जान है! / देव प्रकाश चौधरी

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दीवारें बोल रही हैं। कहीं शहनाई के शहंशाह विस्मिल्ला खान शहनाई बजाते दिख रहे हैं तो कहीं घर के दरवाजे के सामने गृहणी गाय को रोटी दे रही है। कहीं समुद्र मंथन हो रहा है तो कहीं चाय की दुकान पर दूध उफन रहा है। कहीं किसी सरकारी ईमारत की दीवार पर शिव के वाहन नंदी सजे हुए हैं तो कहीं कोई साधु अपने ध्यान में मग्न है। यह रंगों का खेल है, जो दीवारों पर खिलकर पुराने इलाहाबाद को एक नया शहर बना रहा है-प्रयागराज। पुराने लोग कहते हैं, "यह शहर ऐसा पहले कभी नहीं सजा।" प्रयागराज कुंभ के स्वागत में सजकर तैयार है। परंपराओं और संस्कृति की ख़ुशबू को समेटे शहर की दीवारों पर बनी अनगिनत कलाकृतियाँ एक नई कहानी कह रहे हैं। दिल्ली, कोलकाता, मुंबई, उड़ीसा के अलावा इलाहाबाद और बनारस के ढेर सारे कलाकारों ने मिलकर भारतीय संस्कृति पर जो रंग बखेरा है, वह कुंभ में आनेवाले श्रद्धालुओं के लिए एक नया और दिलचस्प अनुभव होगा। दीवारों पर विज्ञापन न चिपकाने या गंदगी न फैलाने की चैतावनियों को देख-देख कर बड़ी हुई आंखों के लिए यह सुकून की बात है। इलाहाबाद में रहनेवाले और फोटोग्राफी के दीवाने सुमित दि्वेदी बताते हैं, "दीवारें तो सजी ही हैं। सेल्फी प्वॉइंट भी बनाए गए हैं। इस कुंभ में सेल्फी की धूम रहेगी।"

दीवारों पर बने इन चित्रों में इतिहास है। परंपरा है। संस्कृति है। आस्था है। गंगा की महिमा है तो आने वाले कल को संवारने की चिंता भी। 'पेंट माय सिटी' अभियान ने रंग जमाया है। शहर का नाम बदला था तो कुछ लोगों को पसंद नहीं आया। इलाहाबाद के सुधीर शुक्ला कहते हैं, "मुख्य मार्ग से लेकर लिंक मार्ग और मोहल्लों से लेकर चौराहे तक जाने वाली हर सड़क पर जितनी भी दीवारें हैं, उन पर सांस्कृतिक गाथाओं के किरदारों और देवी-देवताओं के अलावा प्रयागराज की बड़ी हस्तियों के चित्र भी दीवारों पर बनाए गए हैं। इससे शहर का महत्त्व तो बढ़ा है। तस्वीर ऐसे ही बदलती है। तस्वीर ऐसे ही बदलनी चाहिए।"

शहर के जितने भी रास्ते से अब पर्यटक गुजरेंगे, वहाँ की हर दीवार पर भारतीय प्राचीन भारत की सभ्यता की झलकियाँ आंखों के सामने नज़र आएंगी। प्रयागराज में कुंभ के इस मौके पर लगभग 500000 स्क्वायर फीट पर पेंटिंग का काम हुआ है। जेल की दीवार पर 54 हज़ार स्क्वायर फीट के दायरे में समुद्र मंथन की कृतियाँ उकेरी जा रही हैं। इसे गिनीज बुक ऑफ वर्ल्ड रिकार्ड में भी दर्ज कराने की तैयारी है। कई कंपनियों को शहर सजाने का काम दिया गया है। कई करोड़ ख़र्च हुए हैं। पेंट के अलावा जगह-जगह पर मूर्तियाँ भी लगाई गई हैं।

दीवारें बदलीं तो क्या शहर का मन भी बदला है। क्योंकि प्रयागराज का सांस्कृतिक महत्त्व भले ही हमारे दिल में हो, लेकिन गंदगी के मामले में इस शहर की अब तक आलोचना ही होती रही है। "शायद लोगों का मन बदले," प्रयागराज के प्रसिद्ध कलाकार और प्राध्यापक डॉ. अजय जेटली एक उदाहरण देकर समझाते हैं, "विश्वविद्यालय में कला संकाय से जुड़ी एक दीवार पोस्टरों से अटी रहती थीं। बेहद गंदी। हमलोगों ने उस लंबी दीवार पर म्यूरल बना दिया। अब उस पर एक भी पोस्टर नहीं लगे हैं।" डॉ. जेटली इस शुरुआत को सकारात्मक रूप से देखते हैं। लेकिन उनका मानना है कि कहाँ क्या पेंट होना था, इस निर्णय में हड़बड़ी दिखती है।

"वैसे एक क़िस्म की हड़बड़ी प्रयागराज के स्वभाव में है," संस्कृतिकर्मी और प्राध्यापक धनंजय चोपड़ा की बातों का मर्म वे समझ सकते हैं, जो कुंभ में न सही, कभी प्रयागराज गए हों। लोग आते रहते हैं। जाते रहते हैं। गंगा जल की कुछ बूंदे मिल जाए, फिर कौन ठहरता है। एक बूंद में पूरी संस्कृति समा जाती है। सब हड़बड़ी में होते हैं। चोपड़ा कहते हैं, "दीवारों में तो जान आ गई है। जो सजा है, वह बचा रह जाए बस।"