इब्तिदाइया / फ़ैज़ अहमद फ़ैज़

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यह छोटी-सी टिप्पणी इब्तिदाइया यानी ’भूमिका या प्राक्कथन’ फ़ैज़ की किताब ‘दस्ते-सबा’ (1952) के प्राक्कथन या आमुख के रूप में प्रकाशित हुई थी। कविता की सृजनात्मक रचना-प्रक्रिया के कुछ बुनियादी पहलुओं पर यह सार्थक ढंग से रोशनी डालती है। फ़ैज़ की राय में ज़िंदगी के फ़न और शायरी के फ़न एक साथ एक बिंदु पर अपने-अपने ढंग से मिल जाते हैं, चूंकि ज़िंदगी का तक़ाज़ा ही शायरी का भी तक़ाज़ा बन जाता है।

एक ज़माना हुआ जब ग़ालिब ने लिखा था कि जो आंख क़तरे में दजला (बग़दाद में बहने वाली एक नदी) नहीं देख सकती, वह दीदए-बीना (दृश्य-शक्ति) नहीं बच्चों का खेल है। अगर ग़ालिब हमारे समकालीन होते तो ग़ालिबन कोई न कोई आलोचक ज़रूर पुकार उठता कि ग़ालिब ने बच्चों के खेल की तौहीन की है। या ये कि ग़ालिब अदब में प्रोपगैंडा के हामी मालूम होते हैं। शायर की आंख को क़तरे में दजला देखने की नसीहत करना सरासर प्रोपगैंडा है। उसकी आंख को तो महज़ हुस्न से ग़रज़ है और हुस्न अगर क़तरे में दिखायी दे जाये तो वो क़तरा दजला का हो या गली की नाली का, शायर को इससे क्या सरोकार। ये दजला देखना-दिखाना फिलासफ़र या सियासतदान का काम होगा, शायर का काम नहीं है।

अगर इन हज़रात का कहना सही होता तो ज्ञानी पंडितों का हुनर रहता या जाता, हुनरमंदों का काम यक़ीनन बहुत आसान हो जाता। लेकिन ख़ुशाक़िस्मती या बदक़िस्मती से शायरी का फ़न (या कोई और कला) बच्चों का खेल नहीं है। इसके लिए तो गा़लिब का दीदए-बीना भी काफ़ी नहीं, इसलिए काफ़ी नहीं कि शायर या अदीब को क़तरे में दजला देखना ही नहीं दिखाना भी होता है। इसके अलावा अगर ग़ालिब के दजला से ज़िंदगी और दुनिया की तमाम चीज़ों से मतलब लिया जाये तो अदीब ख़ुद भी इसी दजले का एक क़तरा है। इसके मानी ये हैं कि दूसरे अनगिनत क़तरों से मिलकर इस दरिया के रुख, इसके बहाव, इसकी शक्लो-सूरत और इसकी मंज़िल तय करने की ज़िम्मेदारी अदीब के सर आन पड़ती है।

यूं कहिए कि शायर का काम महज़ अपनी आंख से देखना ही नहीं बल्कि देखे हुए की साधना अथवा तपस्या करना भी उसका कर्तव्य है। आस-पास के बेचैन कतरों में जिंदगी के दजले का अनुभव उसकी दृष्टि पर है, उसे दूसरों को दिखाना उसकी कलात्मक पैठ पर, उसके बहाव में दख़लअंदाज़ होना उसके शौक़ की पुख़्तगी और लहू की गर्मी पर।

और ये तीनों काम लगातार खोज और जद्दोजहद चाहते हैं।

जिंदगी का सिलसिला किसी हौज़ का ठहरा हुआ बंद पानी नहीं है, जिसे तमाशाई की एक ग़लत अंदाज़ निगाह घेर सके। दूर- दराज़, ओझल दुश्वारगुज़ार पहाड़ियों में बर्फ़ें पिघलती हैं, चश्मे उबलते हैं, नदी-नाले पत्थरों को चीरकर, चट्टानों को काटकर आपस में बग़लगीर होते हैं, और फिर ये पानी कटता-बढ़ता वादियों, जंगलों और मैदानों में सिमटता और फैलता जाता है। जिस दीदए-बीना ने इनसानी तारीख़ में जिं़दगी के दुखों के ये पड़ाव नहीं देखे, उसने दजला का क्या देखा है?

फिर शायर की निगाह उन गुज़रे हुए और हालिया मुक़ाम तक पहुंच भी गयी लेकिन उनकी मंज़रकशी में वाणी और होंठों ने मदद न की या अगली मंज़िल तक पहुंचने के लिए जिस्मो-जां कोशिश पर राज़ी न हुए तो भी शायर अपने फ़न में पूरी तरह का़मयाब नहीं है।

ग़ालिबन इतने बड़े रूपक को रोज़मर्रा, अल्फ़ाज़ में बयान करना ग़ैरज़रूरी है। मुझे कहना सिर्फ़़ यह था कि इनसानी जिंदगी की सामूहिक जद्दोजहद का एहसास, और उस जद्दोजहद में सामर्थ्य के अनुसार शिरकत, जिं़दगी का तक़ाज़ा ही नहीं फ़न का भी तक़ाज़ा है।

फ़न इसी जिंदगी का एक हिस्सा और इसी कोशिश का एक पहलू है।

यह तक़ाज़ा हमेशा क़ायम रहता है। इसलिए फ़न के इच्छुक लोगों के लिए इस तपस्या से मुक्ति नहीं। उसका फ़न एक स्थाई कोशिश है और लगातार तलाश।

इस कोशिश में कामयाबी या नाकामी तो अपनी-अपनी क़ाबलियत पर है। लेकिन लगातार कोशिश करते रहना किसी तरह मुमकिन भी है और ज़रूरी भी है। ये कुछ पन्ने भी इसी तरह की एक कोशिश हैं। मुमकिन है कि फ़न की अहम ज़िम्मेदारियों को निभाने की कोशिश के दिखावे में भी नुमाइश या अपनी शेखी बघारने और खु़दपसंदी का एक पहलू निकलता हो। लेकिन कोशिश कैसी भी मामूली क्यों न हो, जिंदगी या फ़न से फ़रार या शर्मसारी से बढ़कर है।

सेंट्रल जेल, हैदराबाद 16 सितंबर 1952 ई० उर्दू से अनुवाद : गोबिंद प्रसाद मो.: 09999428212