इमरोज़ के नाम / अमृता प्रीतम / पृष्ठ 1

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७ जनवरी १९८३

हैरान हूं-छ: जनवरी को देखा सपना क्या सचमुच किसी भविष्य की पेशीनगोई था... आज फरवरी की चौबीस तारीख है, और सुन रही हूं कि नवराज की बीवी को हमल है... घर में अपना सपना सुनाया था, इसलिए आज कंदला पूछ रही है कि जो बच्चा मैंने बादलों के कंबलों में सोया हुआ देखा था, वह लड़का था या लड़की ? मैंने सिर्फ बच्चा देखा था,यह नही कि वह लड़का है या लड़की....... न इस समय सोच रही हूं कि वह जरुर लड़का हो। बच्चे की आमद मुबारक है,चाहे वह लड़का हो या लड़की......


२४ फरवरी १९८३

-ओ खुदाया ! मुझे शिरोमणि गुरुद्वारा प्रबंधक कमेटी का नोटिस ? और मुझ पर फ़तबा कि गुरू नानक के लिए मुहब्बत से लबरेज़ मेरी नज्में साम्प्रदायिक वातावरण को बिगाड़ सकती हैं?


७ अप्रैल १९८३

आज जिंदगी में फिर एक बार मैं चौबीस मई के दिन बल्गारिया में हूं, जब इस देश में अक्षरों का उत्सव मनाया जाता है... आज सवेरे से मेंह बरस रहा था। कल से सभ्यता की रक्षा पर विचार करने के लिए जो कान्फ्रेंस शुरू होगी, उसके लिए मुल्कों से लोग आए हुए हैं, और हम सब सोच रहे थे कि इस बरसते मेंह में आज अक्षरों का उत्सव कैसे होगा.. लेकिन उत्सव उसी आब-ताब से हुआ, दस बजे से लेकर साढ़े ग्यारह बजे तक, जैसे हर बरस होता है। हर इलाके के सैकड़ों बच्चों ने, बरसते हुए मेंह में जलूस निकाला, लाल हरी पीली और सफेद झंड़ियां लहराई। जिन्होंने स्लाव लिपि बनाई थी, उन दो विद्वानों-क्रिअल और मैतोवी-~की तस्वीरें लहराईं। और उन अक्षरों को इस्तेमाल करके, जिन शायरों और अदीबों ने मुल्क के गुलाम शरीर में स्वतन्त्रता की रुह जगाई थी, उन शायरों और अदीबों की तस्वीरें भी लहराई... मैं बहुत-से शायरों और अदीबों के नामों से परिचित हूं, इमरोज ने भी इनके स्कैच बनाए हैं, इसलिए हम दोनों, जुलूस के झ़डों पर लहराई गई तस्वीरों से, कईयों के नाम पहचानते रहे-वह वापत्सारोव वह खरिस्तो बोतेफ...वह गिओ मिलेव ..वह ईवान वाजोव...वह खरिस्तो समरनैंस्की ... और इतने में सामने एक झंडे से लहराती हुई एक तस्वीर दिखाई दी-डोरा गाबे की... १९६६ में मैं पहली बार डोरा गाबे से मिली थी, और मिलते ही हम दोनों को एक दूसरे की ऐसी पहचान हो गई कि हमने एक दूसरे से उस की नज्में भी सुनीं और दिलों की बातें भी। और यह सिलसिला पन्द्रह बरस चलता रहा।

जब १९८० में मैं बल्गारिया आई थी, डोरा गाबे से उसके घर मिलने गई थी, तो एक रेशमी रुमाल मेरे गले में डालकर उसने कहा था, `यह हमारी आखरी मुलाकात है, तुम अब अगली बार आओगी तब में नहीं होउंगी... मैनें उसके मुंह पर हथेली रखी, तो उसने मेरी हथेली को होंठों पर से हटाकर अपनी छाती पर रख लिया, बोली,

"सुनो ! मैनें एक लम्बी नज्म लिखी है-`समुद्र से बातें ' ..." और इस वर्ष के आरम्भ में मैने सुना था कि वह समुद्र से बातें करते हुए, समुद्र में लीन हो गई है... और देखा सामने जो अक्षरों का उत्सव मनाया जा रहा है, उसमें वह एक तस्वीर बनकर , एक झड़े पर लहरा रही है... मन की जिस हालत में मैं दिल्ली से आई थी सिर्फ में जानती हूं, या इमरोज और जैसा कि इमरोज के कहा था, मैनें अपने देश की दहलीजों को पार करते समय सारी उदासी को केंचुली की तरह उतार दिया था... लेकिन अब-जब सामने अक्षरों के उत्सव में डोरा बागे की तस्वीर लहराती हुई देखी तो आंखों का पानी आंखों का पानी आंखों के कहने के बाहर हो गया। होंठ सिसक आए-' ओ खुदाया ! यह भी एक देश है जो अपनी एक शायरा के अक्षरों को अक्षरों के उत्सव में शामिल कर रहा है, और एक मेरे अक्षरों वाला पंजाब है, जो आज मेरे अक्षरों पर फौजदारियां कर रहा है...' मैनें अपनी आंखों को सौगंध दिलाई थी कि रोना नहीं, लेकिन दो-एक पल के लिए जब मेरी आंखों के सौगंध को तोड़ दिया, तो पास खड़े इमरोज से कुछ ताकत उधार लेने के लिए उसकी बांह कसकर थाम ली... उसने मेरी ओर देखा, और मेरे गले की आवाज चाहे गीली थी, पर होंठो पर जो लफ्ज़ आए वह सूखे भी थे, सहज भी,-'मेरे बाद, शायरों पर फौजदारियां करने वालों, और पवित्र अक्षरों पर गोलियां चलाने वालों से कह देना कि दुनिया में वह गोली कहीं नहीं बनी है जो सच को लग सके...


सोफिया, २४ मई १९८३

७ मई की दोपहर थी जब देखा-पैरों के नीचे ज़मीन भी उदासी के रोड़ों वाली थी, और सिर के ऊपर आसमान भी उदासी के बादलों से घिरा हुआ था... और मन न जाने कौनसे पाताल में उतर गया... और फिर १४ मई की रात थी जब आधी नींद की हालत में मैने एक चीख की तरह कहा था-

'मेरे नानक, ! मैने तुम्हारी कल्पना करके देखी है, लेकिन आज तुम्हें प्रत्यक्ष देखना चाहती हूं...कल्पना की आंखों से नहीं, इन हाड़-मांस की आंखों से..' नहीं जानती, यह चीख कितनी लम्बी थी-सिर्फ इतना जानती हूं कि मेरे शरीर का रोम-रोम चीख बना हुआ था कि अचानक आंखों के सामने एक उजाला फैल गया, और बिजली जैसी एक थरथराहट मेरे सारे शरीर मे उतर गई... कोई सूरत सामने नहीं आई, लेकिन अहसास जैसी एक आवाज़ सुनी-

'तुम ! उसके अस्तित्व का सबूत मांगती थीं, सबूत मिल गया ?' उस आधी नींद की हालत में मुंह से निकला-

'हां, मैने उन्हें देख लिया...' और अगले कई दिनों तक, अखबार वालों ने जितने इंटर्व्यू मांगे, मैं देती रही और गुरू नानक के बारे में लिखी हुई मेरी नज़्मों पर जो फौजदारी मुकदमे का नोटिस था, उसके जवाब के लिए, एक वकील को मुख्यारनामा भी लिखकर दिया, लेकिन इतने दिनों सी सारी उपरामता के साथ-चौदह तारीख की रात वाले सपने ने, मेरे माथे पर जैसे एक ठंडी हथेली रख दी। २१ मई की शाम को बल्गारिया जाना था, चली गई। २५ मई से २७ मई तक सोफिया में को ही, कांग्रेस में सांस्कृतिक और आध्यात्मिक मूल्यों के बारे में जो तकरीर करनी थी, वह भी की। लेकिन २८ मई से वार्ना जा कर अपनी सेहत के लिए जो इलाज लेना था, उसके लिए पांच सौ किलोमीटर का सफर करते हुए प्रकृति का जो मनोरम दृश्य देखा, उसने फौजदारी मुकदमे वाली बात की उदासी भी और गहरी कर दी और १४ मई की रात वाले सपने की थरथराहट भी माथे में भर दी... यही एक तड़प थी, एक सुकून था, जो एक नज़्म बनता गया-

बादलों के महलों में मेरा सूरज सो रहा है

यहां कोई खिड़की नहीं, दरवाजा नहीं, सिढ़ी भी नहीं

और सदियों के हाथों ने जो पगडंडी बनाई थी

वह निन्तन के पैरों के लिए बहुत छोटी है

रोशनी की मेंहदी मैंने हाथों पर लगाई है

आज दु:खों की काली और ठिटुरती रात में

उसकी एक किरन मुझे दिखाई दे गई

बादलों के महलों में मेरा सूरज सो रहा है...


वार्ना, ३० मई १९८३

आज से ग्यारह बरस पहले इमरोज़ और मैंने लंदन में एक स्कैंडिनेवियन फिल्म देखी थी, जिसमें मुहब्बत को कल-कल करते झरनों की भाषा में पेश किया गया था। वहां कई थिएटर ऐसे हैं जहां एक ही फिल्म दिन-भर चलती रहती है, और एक पाउंड का टिकट लेकर आगर आप थिएटर में चले जाएं तो एक ही फिल्म को, चाहें तो कई बार देख सकते हैं। इमरोज़ और मैने भी वह फिल्म उस दिन कई बार देखी थी... कहते हैं, उस फिल्म की कहानी एक सच्ची घटना के आधार पर बनाई गई थी। उसमें सर्कस में काम करने वाली लड़की है और फौज का एक सिपाही। दोनों अपने क्षेत्रों से बाहर नहीं आ सकते, लेकिन दोनों को एक दूसरे से बेपनाह मुहब्बत हो जाती है, और उस मुहबब्त का तकाज़ा है कि दोनों को कुछ दिन साथ जरूर जीना है- दोनों अपने-अपने क्षेत्र से बाहर आ जाते हैं, और जानते हैं कि दोनों बहुत जल्दी कानून की पकड़ में आ जाएंगे, इसलिए मौत से उधार लिए हुए दिनों में, वह हर पल फूलों की आब-ताब के समान जीते हैं... २१ मई को बल्गारिया आने से पहले दिल्ली में एक अफ़वाह सुनी थी कि आजकल पंजाब में जैसे कई लोग गोलियों का निशाना बन रहे हैं, मैं भी वैसे ही किसी गोली के निशाने का लक्ष्य हूं... इसे अफ़वाह कहना ही सही है, वैसे मैंने यह बात एक विश्वसनीय सूत्र से सुनी थी... बल्गारिया का निमंत्रण स्वीकार करने की मानसिक दशा नहीं थी, लेकिन जितने भी मेरे शुभ-चिन्तक मेरे पास आए थे, उनका आग्रह था कि मैं यह निमंत्रण ज़रूर स्वीकार कर लूं... और उस समय ग्यारह बरस पहले देखी हुई स्केंडिवियन फिल्म की कहानी मेरे मानस मे घुल गई... और लगा-जिंदगी की आखरी सांस तक, फूलों की आब की तरह जीना है...बाद में बल्गारियन दोस्तों का तपाक भी फूलों को पानी देने जैसा था... लेकिन कभी-कभी घोर उदासियां भी आंखों में जो पानी नहीं ला सकती, किसी दोस्त की मुहब्बत उस पानी का बांध तोड़ देती है... ऐसी घटना दिल्ली में भी हुई थी जब खुशवंत सिंह ने कहा था-

"मैं तुम्हें अकेली किसी कचहरी की पेशी में नहीं जाने दूंगा। तुम्हारे साथ रहूंगा। अगर तुम्हें किसी ने गोली मारनी है तो साथ में मुझे भी मार दें..."

और ठीक ऐसी ही बात हरिभजन सिंह ने भी कही थी-

'देखो, शायर के तौर पर मुझे जो हासिल करना था, कर लिया है। तालीम के क्षेत्र में भी जो पाना था, पा लिया है। और आलोचक के तौर पर भी जो प्राप्ति करनी थी, कर ली है। अब तुम्हारे साथ मरने को तैयार हूं...'

और अब एकदम पराये देश में आज २५ मई की रात को जब बल्गा-रिया के सबसे प्यारे शायर ल्यूबोमीर लैवचैल ने अपने घर दावत पर बुलाया है, तो चाभियों के गुच्छे में से घर की चाभी निकाल कर मुझे थमा दी है-

"यह तुम्हारा घर है, तुम्हारा जब जी चाहे, आकर खोल लिया करना !"

लैवचैव के घर की चाभी मैनें अपने माते से लगा कर लैवचैव को लौटा दी, और

"कहा, दोस्तो ! तुम्हारी बीवी चित्रकार है, उससे कहो कि इस चाभी का चित्र बनाकर मुझे दे दे। मैं जब तक जीऊंगी-तुम्हारे बोल की निशानी अपने पास रखूंगी।" लेकिन लेवचैव के घर की सीढ़ियां उतर कर, जब में और इमरोज़ अपने होटल के लिए कार में बैठे, तो इमरोज़ के कंधे से सिर लगा कर-मुझे रोना आ गया... सोफिया,-२५ मई, रात साढ़े बारह बजे इस बार ज़िंदगी की गनीमत वाली बात है कि बल्गारिया का निमंत्रण सिर्फ मुझे ही नहीं था, इमरोज़ को भी था, इसलिए सफ़र का एक-एक पल खुशगवार है... सोफ़िया से वार्ना जाते हुए पांच सौ किलोमिटर रास्ते का चप्पा-चप्पा फलों और फूलों से लदा हुआ देखा, तो पता लगा कि कई उजाड़ों का एक-एक एकड़ टुकड़ा, यहां की सरकार ने उन लोगों को बिना किसी मुल्य के, दिया है, जो भी अपनी मेहनत से आबाद करके रख सकतें हैं। शर्त सिर्फ एक ज़मीन पर सारी मेहनत उन्हें अपने ही हाथों से करनी है, किसी मजदूर को उजरत देकर अपने खेत या बगीचे का काम नहीं करवाना है... मैने हंस कर कमरोज़ के कहा,

"चलो, यही बस जाएं ! तुम तो जाटों के पुत्र हो, खेती-बड़ी तुम्हारी नसों में है, तुम एक एकड़ ज़मीन आबाद करना, और मैं खेतों में झोंपड़ी डालकर रहूंगी, तुम्हारा खाना पकाया करूंगी..."

यह दिन लाल पकी हुई चेरियों के हैं और हमने चेरियों की टोकरी भर कर कार में रखी हुई थी। इमरोज़ ने कहा,

"गेहूं और मकई बीजने वाली मेहनत शायद अब मुझ से नहीं हो सकेगी, हम पूरी एक एकड़ ज़मीन में चेरियों के पौधे लगा लेंगे...रोज लाल पकी हुई चेरियां खा लिया करेंगे...तुम पक्की चेरियां तोड़ती रहा करना.."

मैं भी उसी रौ में थी, कहा "हां, हम चेरियां चुनते रहेंगे, मैं कभी-कभी नज़्म भी लिख लिया करूंगी, तुम कभी-कभी पेन्ट भी कर लियो करना..." और इमरोज़ ने कहा,

"फिर कभी कोई इधर से गुज़रेगा तो पूछेगा,-यहां कहीं एक शायरा की झोंपड़ी है, जो कभी हिन्दुस्तान से आई थी।"

"हां, वैसे ही जैसे हमारे दामोदर ने अपनी कहानी में लिखा है कि कोई राही मक्के की ओर जा रहा था। रास्ते में रात हो गई, लेकिन उस भूखे-प्यासे राही के पास न रोटी का एक टुकड़ा था, न एक घूंट पानी, और न ही रात का कोई ठिकाना। उस समय रेगिस्तान में उसे एक झोंपड़ी नज़र आई। वहां पहुंचा तो हीर बीबी ने उसे पानी का कटोरा भर कर दिया, और कहा अभी मियां रांझा भेड़ें चरा कर लौटेगा, तो तुम्हें दुध का कटोरा दूंगी..." और मेरी बात अभी मुहं में ही थी कि इमरोज ने कहा-

"वह भी तुम और मैं थे। तब मक्के के रास्ते में जाकर बस गए थे, अब इस जन्म में वार्ना जाने वाले रास्ते पर बस जाते हैं..." और हंसी-हंसी की बात एक ठंडी सांस का मोड़ मुड़ गई, मेरे मुंह से निकला, "यह सियालों और खेड़ों के कर्म हमें हर जन्म में भुगतने हैं ?"


२९ मई १९८३

अब जिस सपने से बड़ी हैरान जागी हूं, इमरोज़ की बांह पकड़ कर कितनी ही देर तक उसकी ओर देखती रह गई कि यह सपना उसे कैसे सुनाऊं ! कुछ भी लफ्जों की पकड़ में नहीं आ रहा था...हौले-हौले आधे-अधूरे लफ्जों में सुनाने की कोशिश की...

"किसी दीवार में एक बहुत बड़ा शीशा लगा हुआ है...अचानक मेरा ध्यान शीशे की ओर जाता है और देखती हूँ कि सिर से पैर तक मेरी सूरत किसी मंदिर में पड़ी हुई पार्वती की सूरत जैसी हो गई है...बदन पर सफेद धोती है जिस का पल्ला सिर तक लिपटा है सिर पर लम्बे बालों का एक जूड़ा है...नक्श इसी तरह तराशे हुए...पर मेरी सूरत, आज से कुछ बरस पहले जैसी है...चेहरे पर गंभीरता आज जैसी है, पर नक्शों की जवानी आज से कुछ बरस पहले जैसी...

"पत्थर की एक गढ़ी हुई मूर्ति की तरह अपने आपको देखती हूं...और खुद ही कहती हूं-आज मैंने यह कैसा भेस बनाया हुआ है ? बिल्कुल शिव की गौरी जैसा..." सपने की हैरानी और खुमारी बताई नहीं जाती....