इमली के बीया / विद्यानिवास मिश्र
लइकाई के एक ठे बात मन परेला त एक ओर हँसी आवेला आ दूसरे ओर मन उदास हो जाला। अब त शायद ई बात कवनो सपना लेखा बुझाय कि गाँवन में जजमानी के अइसन पक्का व्यवस्था रहे कि एक जाति के दूसर जाति से संबंध ऊँच-नीच पर कायम ना रहे, ना रुपया-पइसा के लेन-देन पर। ओ व्यवस्था में सबकर सब प हक रहे आ कहू ओ में दखल ना दे सकै। बियाहे में, जनेवे में, बाँसे के छितनी, बाँसे क डाल बनावे वाला धरिकार बसैं। ओनहन के जजमानी बँटल रहै। जवन गाँव ओनकै जजमानी के रहै ऊ गाँव उनुकर गाँव हो जाय, ओही किसिम के मिल्कियत ऊ मानैं। एक बेर अइसन भयल कि हमरे गाँव के जजमानी वाला धरिकार हमरे लग आयल। बोलल कि बाबू एक ठे कागज बनाय दें, हम ई गाँव पाँच बरिस खातिर बंधक रखल चाहतानी, पाँच रुपया में। हमरा बड़ा किरोध आइल कि ई कवन गाँव के बंधक रखे वाला! त बोलल कि बाबू गाँव पर सबकर आपन हक होला, हम आपन हकवे नू बंधक रखतानी, दोसर आपन हक रखो, हमके कवनो गुरेज नाई बा। खैर कागज बना देहली, ऊ गाँव बन्हकी रखलैं, कब छोड़वलैं भगवान जानैं। तब त हँसी आइल, आज सोचींले त मन उदास हो जाला कि का हम अपने गाँव प ओ हक के दावा क सकीलें? जवने गाँव के पानी पियलीं, जवने गाँव के बयार साँसे में भरल, जवने के धूर-माटी में बड़ भइलीं, जवने के आमे के बगइचा में जेठ के हलकारत लुक्कड़के कुच्छू नाई बुझलीं ओह गाँव के का हम आपन कह सकींले? बरिस का बकरस बीत जाला ओ गाँव में जाय के मौका न लागेला। कइसे कहीं ऊ गाँव हमार ह आ ईहो कइसे कहीं कि ऊ गाँव हमार ना ह। ओ गाँव के लोगन के जवन प्यार-दुलार-आदर मिलल बा, कइसे कहीं कि ऊहे प्यार-दुलार-आदर हम ना हईं।
राप्ती नदी के कछारे में बसल गाँव, नगीच से नगीच सड़क तीन कोस, आज-काल्ह के नाप-जोख में 10 कि.मी. लामे, नगीच से नचीग रेलवे स्टेशन पाँच कोस, माने लगभग सोरह किलोमीटर लामे, गाँव के पछिम ओर एक कोम प राप्ती नदी आ पुरुब ओर एतने दूरी पर गोर्रा, राप्तिए नदी से निकलल एक ठो शाखा। बाढ़ आवे त दूनो नदिया एक हो जाय। अपने गाँव के गैंड़ा नाव लागे, ऊहे सड़क ले चलि जाय। बाग-बगइचा सब पानी में डूबि जाय, बाढ़ि निकल जाय त अइसन पानी खेतन में आवे कि खाद दिहले के जरूरते ना रहि जाय। उपरे-उपरे अनाज छींट दें त ऊ छतियाफार उपजे। बाढ़ तब एक साल आँतर देके आवे। जवना साल ना आवे तवने साल रहर अइसन उपजे कि ओ में गाइ-भँइस त लुकाइए जाय छोट-मोट हथियो लुका जाय। कछरा में रहरी-रहरी अदमी कोसन चल जाय, पते ना लागे। गाँव के पुरुब ओर आमे के बगइचा रहला। सबसे छोर प हमरे घर के बाग रहल। सज्जी बिज्जू आम रहल आ बड़ा पुराना। चिनियवा आम फरे त गाड़ी के गाड़ी आमें आम, करियवा में आम कम आवे, बड़ा मोट ओकर छिलका रहे बाकिर रस बड़ा गाढ़ रहे। जरलहवा आम बड़वर रहे, आधा बिजली लगले से झुराइल रहे आ ओकरे नाते ओकर अजबे सवाद रहे। मिठवा गोपुली एक जड़ में दू आम रहल। एक ठो आम रहल जवन कच्चे मीठ रहे आ पाके त ओमें कीड़ा पर जाय, आ एक ठो मुदियवा आम रहे, छोटे होखे आ कठेसे होखे बाकिर बहुते मीठ। कवनो के सवाद दोसरे के सवाद से ना मिले। गाँवो के ईहे हिसाब रहे। केहू के गुण दोसरे में ना मिले, गुण दोसरे में ना मिले, गुण अलगे, चेहरो अलग, सुभावो अलगे, चलवो अलगे। ओ बगइचा के बीच में एगो पीपरे के पेड़ रहे ओके घंटहवा पीपर कहल जाय आ ओके नीचे जात के लरिका सब डेरायँ। ओही बगइचा से होके प्राइमरी स्कूल में जाय के रहे। प्राइमरी स्कूल दोसरे गाँव में रहे, ओके बीचे मरगा नाला रहे बाढ़ में ऊहो नदी हो जाय। कम पानी रहे त केकरो कान्हे प, ना त लकड़ी जोड़ के नाव बना के पार कइल जाय। पता ना कहाँ के जलकुंभी आ गइल कि सुख गइल कि सुख गइल ना त तनी-मनी पानी गर्मियों में रहे। ओही मरगवा के सटले तीन-तीन गाँव रहे। दखिन सीवान पा गोपलापुर, पछिम सीवान प दुलारीआ कोनाहे पछिम-उत्तर दीवाँ आ दिक्खिन के ओर कोनाहे डुमरी।
हमार गाँव सबके बीच में रहे आ सबसे तनी ऊँचो रहे। हमरे गाँव में सबसे नीमन बात ई रहे कि सब जाति आ व्यवसाय के लोग रहल। पाँच घर बढ़ई, चार घर लोहार, चार घर नाऊ, पाँच घर दखिनहवा चमार, एक घर चमड़ा के काम वाला चमार, तीन घर तेली, पाँच घर कलवार, तीन घर कोंहार, तीन घर माली, दू घर लाला, दू घर सकलदीपी बाम्हन, एक घर पुराहित, सबसे ढेर घर अहीरन के, मलाहन के आ मुड़ेरी लोगन के। मुड़ेरी लोग अधिकतर बंगाल में, असम में नाय चलावे, तिजारती बड़की-बड़की नाय। होली के अरीब-करीब घरे आवें आ जतना दिन गर्मी रहे ओतना दिन ओनहन के बंगाल, असाम के जादू के खीसा गाँव के बयारि में लहरात रहै। उनके घर के मेहरारू कुटनी-पिसनी के काम करैं। ओ में से एक मेहरारू आन्हर रहल। हमरी घरे आवे आ चाकी प दाल दरै, पिसान पीसे आ कबो-कबो हमन के कथो-कहनी सुनावे। बिना केकरो मदद के ऊ चलि आवे। हमरे घर हरवाह मलाह रहत रहलन भा चमार रहलन, बाकी सिलवाह त सुखई रहले, उनके पहिले उनके बाप रहले दुल्हर। सुखई काका के बड़ी रोब रहे। ऊ बाहर के बखार से महीने-महीने खोराकी में अनाज लें आ बड़ा अधिकार से हिसाब माँगें। हमरे घर के पिछवारे बढ़ई के घर रहे। ओमें से हरबंस हमरा साथे बढ़तो रहले। पछिम ओर कोंहरे के घर रहे आ ओमें से रघुन्नन हमरा साथे रहले। उत्तर के घर सुन्नर लोहार के रहल ओ घरे के मटेल्हू के माई के हमरे घर में बड़ा दखल रहे। हर काज-परोजन में ऊहे पतुकी, घइली, कोसा, कसरा बनाके दें। दिया-दियारी में दिया बनाकें दें हमहन के, माटी के जाँता-जाँती, छोट गाड़ी बना के दे आ खूब लड़ें। बियाहे-उयाहे में मड़वा में हाथी रखाय। ओ प कलसा रखाय। अपना पतोह के आगे क के जब हाथी कलसा लेके आवें त ओके परिछन होवे आ ओ परिछन में ओके नखरा देखे लायक रहे।
हमरे घरे के उत्तर ओर बिरजू अहीर के भाई-बंद रहैं। एक कोना में सरनाम-बिसराम रहले। ओकरा सटले मलाहे के घर रहे। एगो सोखा रहले बिरजू। ऊहो हमार हरवाह। उनकर चार भाई में एगो टहल रहले। टहल बहू आ बिसराम बहू में दिन के आँतर भले पर जाय बाकी सबेरे-सबेरे संवाद शुरू होखे त दतुअन मुँहे में रह जाय आ गारी-सराप के कवनो कोटि बाकी न रह जाय। दूनो जने अपने-अपने घरे के छोर तक आ जायँ। ना कबो हथापाई भइल ना झोंटा-झोंटउअल, खाली गारी-संग्राम होखो आ जब दूनो थकि जायँ तब उनुकर दतुअन पूरा होखे। हमार दादा पूजा करे बइठें आ महाभारत शुरू हो त कहैं कि अब शास्त्रार्थ शुरू हो गइल। बिरजू अहीर के एक लड़िका बलराज आ फिर दू लड़िका दिलराज-लखराज। दिलराज कुछ दिन ले हमरे घरे नौकरो रहले आ लालटेन बुतावे के होखे त ऊ बजाय बाती नीचे करे के मुँह से फूँक के बुतावल चाहैं। ऊ रंगून कमाय गइलें आ ओहीजा अलोप हो गइलें। एसे, उनुकर माई लखराज के माई के नाँव से जालन जाय लगली। ऊ हमरा मतारी के सखी रहली। लखराजो संसार से चल गइले। उनके एक ठे बेटी रहल ऊ हमरा दीदी के सखी रहे। लखराज के माई के ई नियम रहै कि हम छुट्टी प आईं त बढ़िया दही जमा के ले आवें। काजो परोजन के ऊहे दही जमावें। उनुकर हथौटी दही जमावे में मशहूर रहल। उनुकर जमावल दही के सवाद अबहींले जीभे में लागल बा, कवनो दही ओकरे आगे नीक ना लागे। हमरे घर के परुष शिवधनी अहीर के घर रहे आ दूनो के बीच में डीह बाबा रहले, जिनकर पूजा दुखहरन चमार करें। उनुकर उफली आ तासा के बिना कवनो शुभकार्य होय ना। उनके बेटा हमरे ईहाँ बाद में हर चलावत रहले आ उनुके घर के रमेश बहू सउरी में धगड़िन के काम करत रहली। हमार जनम उनही का हाथ भइय। तब छट्ठी ले त ऊहे चमाइन सउर सम्हारैं, ओकरे बाद नाउन सम्हारैं। हमार नाऊ रहले जगरोपन। बड़ा सोझवा। ऊ जतने सोझवा, उनुकर मेहरारू ओतने मुँह के तेज आ रोअनी। हमार जनम खिचड़ी के दिने भइल रहे आ ओ साल बाढ़ अइले के नाते तनी-मनी अकाले के स्थिति रहल। आधा गाँव खिचड़ी बनल-हमरे जनम में जवन पइसा लुटावल गइल ओही से। गाँव में लोग के हमरे ऊपर प्यार बहुत रहल। गाँव भर में हम बाबू कहल जाई। अधिक उमर वाली लरिका मानैं आ उनुकर पतोह चाहे कतनो सेयान होखैं, देवरे मानैं। हम साते आठ बरिस के रहलीं तबे देवर मानके अइस चुहल करैं कि हम लजा जाईं। ओमें कई ठे त बहुत त बहुत ढीठ रहली। हम चार साल के रहलीं कि नागपंचैया के दिने शिवधनी बहु पँचरंगी पहिर के निकलती। हम बाबा से कहलीं कि एही से आपन बियाह करब। बाबा कहलें कि कुजात हो जइब। हम जिद पकड़ली त शिवधनी कहले कि अच्छा भाई, आज से ई तहरे मेहरारू भइल। ऊ महरारू का भइल आफत हो गइल। हम पढ़े जाईं ओही रास्ता से त ऊ अपना लइकन के ललकारैं, देख, तहार दादा जा तारैं, हम तेजी से भाग जाईं। ओ लरिकाई के भूल के खामियाजा जले हमे पढ़त रहलीं-हाई स्कूल, इंटर में-तले भरलीं। हम ए गोजी-प्रसंग के गोपन रखल चाहीं जवना के ऊ उघार दे। हम के बड़ा संकोच होखे। हमार बियाह भइल त शिवधनी बहू दही लेके अइली। हमरा पत्नी से भेंट भइल त कहली कि देखीं रउए हमार लहुरी सौतिन हईं। फेर लाज-संकोच चल गइल आ एक सहज हँसी-मजाक बन गइल।
गाँव के नाँव काहे पकड़डीहा पड़ल एकर हमरा कवनी जानकारी त ना बा, बाकिर गाँव के दाखिन एगो पकड़ी के पेड़ रहल। कबो शायद बड़वर रहल होई। ओहिजा हमार खरिहान रहल, ओके दखिन काली माई के थान रहल। जइसन सज्जी जगह होला ओहिजो कवनो मूर्ति ना रहल। खाली माटी के हाथी-घोड़ा बदलल जालेसाले साल, जवन उनके सवारी के बोध करावे ले। कुआर-चइत में फूले के रथ चढ़ावल जाला। मालिए लोग के काम ह ई। केहू के बियाह-शादीपड़े त काली माई के थाने गइल जरूरी। काली माई, डीह बाबा, बरम बाबा हर गाँव में रहेले आ उनुकर थाने के पूजा होला। ओइजा कवनो मूर्ति ना होखे। हमरे गाँव में कवनो जमाने में बीर बाबा रहले। माने यक्ष के पूजा होत रहल। हमार एगो खेत रहे, बरेतन नाम के, उहाँ एगो बरगद के पेड़ रहे। ओही बरगद के नीचे बीर बाबा के थान रहे। खीसा-कहानी में लोग उनके नाम इयाद करे। बाकिर ऊ पेड़ हमरा बचपन के खाली यादगार बन गइल रहे।
जवने घर में हमार पैदाइस भइल ऊ कच्चा रहे। ओकर बहुत सपना अइसन इयाद रह गइल बा। खाली एक प्रसंग अबहीं ले इयाद बा। शायद हमरे मन प परल पहली छाप ह ऊ। हम ढाई-तीन बरिस के रहल होब। पच्छिम ओर दलान रहे। ओही दलान में भाई-बहिन अधपाकल फरुही (इमली) खइलीं। हमसे ओकर बीया घोंटा गइल। हमरे दीदी के चिंता भइल कि इमली खइले सब रोकेला, एके बतवलो ना जा सकेला आ ई बियवा जामी त का होई! कई महीना ले ओ बियवा के अँखुअइले के अनेसा बनल रहल। बियवा लाईं जामल, कहीं भितरे-भीतरे ऊ अइसने किसिम के पेड़ बन गइल जेके बारे में बतावल बहुत मुश्किल बा। हम गाँवे में ना रहीलें बाकिर ओही पेड़वा के करने गाँव हमरे भीतर रहेला। ओ पेड़वा के सोर बहुत नीचे चल गइल बा, भीतर बहुत गहिरे चल गइल बा।
आज लोग कहले प पतियाई नाईं कि पिछड़लो कहायेवाला गाँव अइसन मेल-जोल के गाँव हो सकेला जइसल हम देखले हईं। ई नाईं कि राग-द्वेष ना होखे, आपस में कलह ना होखे, एक दूसरे के बारे में एहर-ओहर के बात ना होखे, गोहे-बेगाहे झोंटा-झोंटउअल ना होखे, गारी-सराप ना होखे-सज्जी रहल, अइसन-अइसन पंचाइत हमरे बाबा के सामने आवे जवने के गवाह ए दुनिया मे मौजूदे ना होखे - केहू कहे कि फलनी अपने नइहरे के भूत हमरे ऊपर चला देले बाटिन, केहू कहे कि ई हमरे ऊपर टोना क दिहले बा। तब टोनहिन के नाम एक ठो आतंक रहे। संयोग से हमरे गाँव में कवनो टोनहिन ना रहल, बाकिर माई-ओई दोसरे गाँवे के टोनहिन के बारे में चेतावें कि ओनके नजरन में मत परिह। ओसहीं एक धोकरवहा के भय रहे कि बड़वार झोरामें ऊ लरिकन के उठाके चल देला। जवने बगइचा से होके स्कूल जाईं ओ बगइचे के बारे में हजारन किस्सा रहे। ईं सब रहल। पुराने जमाने के त जुलुम के किस्सा रहबे कइल अपना सामन हूँ हम जमींदारी के जुलुम कुछ-कुछ देखले रहीं। ई इच्छा रहल कि हमनी के ओ गाँव जमींदार नाईं रहलीं। बाकी के जाने कतना पुश्त से हमरे घर के बूढ़ मुखिया रहले आ हमरे बाबा के दावा रहे कि हमरे गाँव से केहू के रपट थाना में नइखे गइल। झगड़ा-फसाद के निपटारा गाँवे में हो जाय। बाबा घंटो लाग के भूत-प्रेतन के पंचाइत निपटा दें। ई जरूर रहे कि हमन के ओ गाँव में इज्जत रहे, आसो-पास के गाँव में। धन-दौलत के नाते ना, ना अउरो कवनो अधिकार के नाते। खाली एसे जे अइसन पंडितन के घर रहे जजे केहूके दुआरे गइले ना, कवनो रजो के नेवताना खइले, जे के कवनो धरम-करम के बारे में पूछे के होखे ऊ हमरे घर आवे। आ ईहे नाहीं, पटवारी के कागज में कुछ गलती होय त होय, हमरे बाबा के याददश्त में गाँव के धूर-धूर के नक्शा अइसन साफ रहल आ सात-सात पुश्त के कुर्सीनामा अतना साफ रहल कि लोग उनके बात के यकीन करैं। नेम रहल कि बाबा सबेरे दिशा-मैदान जायँ त एक फेरा अपने सज्जी खेत के त लगाइए लें। पूरा गाँव के खेती के हिसाब लगा लें आ कहाँ का करे के बा, कवन कमी बा एकर हिदायत हरवाहे के दे दें। उनुके साथे हम बहुत हिलगल रहलीं। उनही के साथे जागीं-सूतीं, ऊहे हमके महाभारत, रामायण के किस्सा सनुवलैं आ गाँव भर के कुर्सीनामा त सुनइबे कइले, गाँव के आस-पास के लोगन के पूरा इतिहास, 57 के बदअमली के इतिहास, जे लोग के जमींदारी रहल, सगउर के बड़का घर के इतिहास-पूरा सिलसिलेवार बतवले। हम काफी सेयान हो गइली त जनलीं कि हमार सग बाबा ना हवें, हमरे बाबा के बड़का भाई हवन।
ओ समय हमरे गाँव में बाजार ना लागत रहे। बाजार सोमारे-सोमार बगल के गाँव बिसुनपुरा लागत रहे आ सोमार के बाजार कइले के नजारो एगो नजारा रहे। जगह-जगह देखे में आवे कि ओगाँव के मेहरारू से अँकवार लेके भेंटत बाड़ आ जरिके में गोहरी के आग मतिन सुनगत बाटिन। दुई चार बून आँसू गिरा के फेर हँस-हँस के इनके-उनके बारे में नीमन-बाउर बतियावत बाटि न। बजार गइले के एगो उमंगे अलग रहे। अपने छोटके दादा के साथे बजारे जाईं आ धुधी गाँव के हलुआई मिठाई बेचे आवे। उनके से गुड़ के बताशा लेईं। ऊ गुड़ के बताशा हम फेर अब कहीं गाँव में देखींला नाईं। बड़े-बड़े शहरन में गुड़ के फैशन आवता बाकिर गुड़के बताशा के सोन्हाई अब केहू का जानी, गाँवे के सोन्हाई अब केहू का जानी! ई सोन्हाई आवेला मनई के हाथे के कवनो परस से, ऊ परस अब गायब हो गइल, मनई मन से अगर मटियो छुवे त ऊ सोना हो जाई आ अगर कुभाव से सोनवो छुए त माटी हो जाई गँउओ त बटले बा, भूगोलो में बा, सन 57 के इतिहास में बा, बाकिर गाँव में जवन रिश्ता के पारस परस रहल ऊ नाइँ बा। हालाँकि, चाहे हमार भरमे होखे, हम आठ-दस साल पहिले गया जाय के पहिले गाँवे गइल रहीं, गाँव के पितरन के नेवते के रहल कि चलीं सभे गया, त गाँव में कवनो घर ना बचल जहाँ के लोग अछत देबे ना आइल होखे। देखलीं कि जवन चेहरा फूले मतिन खिलल रहले तवन मुरझा गइला। जहाँ बतीसी झलकत रहल उहाँ गाल पचक गइल। जवना हाथे में पछेला रहल ऊ हाथ सून हो गइल। शिवधनी बहू आधा पागल हो गइल रहली। नया-नया नड़िका बइले जिनके चेहरा से उनके बापे के चेहरा याद आइल आ उनके बापे के नाँवे से बोलवलीं। गाँव के लोग के अजगुत लागे कि हमके सबकर नाँव इयाद था। नाँव कइसे न याद रहो? हर नाँव के साथ कवनो खट-मीठ-तींत बात टँकल बा।
एक बेर हम कोशिश कइलीं कि गाँव में अपने प्रयत्न से पंचायती व्यवस्था विध-विधान से हो जाय। आठ-नौ गाँव के बड़ पंचायत बनवलीं, बिना कवनो सरकारी सहायता के। पंचायत के चुनाव आ कार-बार दुइ साल चलवलीं लेकिन ऊ सपना अस टूट गइल। हम अपने जवानी के जोश में ई ना समझलीं कि जवन ऊपरी ठाट-बाठ से, हेल-मेल से विधान बनेला ओमें कवनो सत लाइँ रहेला। जवन पुश्त-दर-पुश्त से चल आइल बा ऊ अबो कवनो ना कवनो रूप में चलत बा। मंडल के नगाड़ा के बावजूद। काहे से कि ओकरे बिना कुछ नाइँ चली। अइसन नाइँ होत त अतना घरे का अच्छत हमरे अँजुरी में कइसे आवत! आखिर सबके भरोसा रहल कि हम पुरान मनइन के अबो इयाद रखीलें, चाहे ऊ शिवभजन बढ़ई हों, गंगादीन अहीर हों, मुंशी बलराम लाल हों, शिवशरण हजाम हों, अपने बौड़मपन बदे अलग छाप लिहले राजा हों, कानून छाँटे वाला लोचन मलाह हो, दुकानदारी में उस्ताद रामदास हों, रघुबीर आ उधई के बहिर जोड़ी हो, अपना खइले के अनुपात में भार ढोवे वाला बीपत कोहार हों, सबके आगे अलग किसिम के बुद्धि के बात करे वाला शिवधनी अहीर हों, सबकर कहीं अलग-अलग रूप आ सबकर कहीं अलग-अलग रिश्ता मन में टाँकल बा। ओही तरें लखराज के माई, रामअवध के माई, बिहारी के माई, ढुनमुन फुआ, भनमतिया के माई, एक ओर आ दुसरी ओर चुहुल करे वाली ओ समय के दू-दू तीन-तीन लरिकन के महतारी, बाकिर गाँव के रिश्ता में भौजी लागे वालिन के सहज स्नेह के रूप, उनके चुहल, उनके एक से एक दावा - ईहे सब जोर-जार के गाँव हवे आ ओही के आपन गाँव कहि सकींले। जहाँ छप्पर रहल उहाँ पक्का मकान उठ गइल, जे दुब्बर रहल से जब्बर हो गइल, जे बोल नाइँ पावत रहे से बड़का नेता हो गइल, ई सब गाँव के नक्शा चाहे होखे, गाँव होइबो करे त आपन गाँव ना ह। अब सड़क हमरे बगइचा से होत अउर आगे चल गइल, गोर्रा पर पक्का पुल पर गइल, गाँव में कई ठे चाय के दोकान हो गइल, कौनो समय रहल कि दूध आ माठा बिकात रहल। अब सितुही भर दूधे के चाय बिकाता। कवनो समय रहल कि जाति रोटी-बेटी ले रहल। हमरे गाँव से उजर के दूसरे गाँव में बसल एगो पठान चाचा रहलें। एक दूसरे के खेयाल अइसन रहे कि ऊ हमन खातिर एक ठो अलग ओसारा में जगह, भोजन बनावे के बर्तन-भाँड़ समेत रखलें रहन। हमरे घर के बियाहे में आके कार-बार सम्हारैं आ सब सुन ताटीं कि गाँव बदल गइल बा, गाँव में बिजुली पहुँचि गइल बा, गाँव के दखिन बान्ह गइल बा, अब बाढ़ आवे ना, अब गाँव में साँवा कोदो टाँगुन ना होला। अब गाँव में कवनो कोल्हू ना बा। ऊख न पेराला आ गुड़ पकावे वाला कड़ाहा में आलू भंटा ना पकावल जाता, पाक कड़ा प जवन घिंटउड़ा गुड़ होखे, ओकर कहीं नाँव ना केहू जानेला। दूध डेयरी में चलि जाला। लखराज के माई के दही सपना हो गइला। गाँव में दुआरे-दुआरे बहुत कम पोंछ लउकेले। बैलगाड़ियो अब एकाध ठो टूटल-टाटल पड़ल होइहें। ई हो सही बा कि अब ओतनी भुखमरी ना होले, बाकिर गाँव से अब चौतल उठ गइल। पचइया के दंगल उठ गइल। केहू चिक्का नइखे खेलत। कबड्डी त इब राष्ट्री खेल मु शुमार हो गइल। गुल्ली-डंडा के पता ना कवनो निशान बचल बा कि नाइँ। अब पटरी सेल्ह से कहाँ चमकावल जात होई! कहाँ खड़िया के रोशनाई बा! का ओ प नरकुल के कलम से लिखल जात होई-बड़ का सुन्नर-सुन्नर अच्छर-का ई सब बीत गइल, का कबो ई सब बीती? हमरे लेखे पकड़डीहा त अबो 'सदा अनंद रहे एही द्वारे' के असीम बा आ कदम के गाँछ चाहे कट गइल होखे 'झुलुहा पड़े कदम के डरिया' में अबो गाँव के रेखिया उठान उमिर जियतार गीत बनके गूँजेला। हम पकड़डीहा के निवासी हईं, ईं कहसे कहीं! खाली घर बा, दुआर बा - एसे कइसे कहीं! एतना जरूर कहब कि पकड़डीहा हमरे भीतर बा, ओकर कब्जा ताजिंदगी बरकरार रही। ओकरे साथे-साथे उहाँ रहे वाला लोगन के हको ओइसने बनल रही। ऊ हक हम कतना दे पाइब ना कह सकीं, बाकिर ओ हक के हम देनदार हईं, ई समुझ के हम अपना के ओ लोग के बनिस्पत अधिका भाग वाला मानींले जेकर कवनो जर-सोर नइखे रह गइल आ जेकरे ऊपर केहू के हक नाइँ बनत बा।