इमली पेड़ की छाया में / मनोज कुमार पंडा / दिनेश कुमार माली
"मनोभाव वातावरण में संघनित अनबोली, अनकही कहानी होते हैं।" -- बेन ओवेरी
बिरीपाली गाँव के किनारे लगे दो बड़े पुराने इमलियों के पेड़ों पर रहने वाले भूत सारे गांव पर शासन करने वाली देवी बूढ़ी ठाकुरानी से भी ज्यादा पुराने थे। मगर इन सबसे ज्यादा बूढ़ा था- कंध बूढ़ा। अगर दुनिया में किसी चीज को पहेली कहा जाए तो वह था- कंध बूढ़ा। वह पुरातत्त्ववेत्ताओं द्वारा खोजी गई वस्तुओं से भी ज्यादा पुरातन था।
कंध बूढ़ा गाँव का एक इतिहास था। उसे कई नामों से पुकारा जाता था। ‘सर्वनाम’ अर्थात सभी नामों का एक नाम उसके लिए ज्यादा उचित था। उसके हर नाम की एक कहानी थी जिसे एक छोटा इतिहास कहा जा सकता है।
सर्दी के महीनों में अपनी खाट के नीचे कोयला जलाकर सोता था वह। जब भी वह नींद से जागता, लकड़ी के छोटे डंडे से आग को बिखेरता। एक बार ऐसा करते समय आग की लपटें भभक गई और उसके पहनने वाली लंगोट समेत खाट की रस्सियाँ जल गई। इस दुर्घटना में उसकी चमड़ी तक जल गई थी। मगर उस पर कुछ भी असर नहीं हुआ। एक बार जलते हुए हुक्के को कान पर लगाकर उसे बुझाना भूल गया था, जिससे उसकी कनपटी और उसके इर्द-गिर्द के बाल काफी जल गए थे। मगर उसे इस बात का भी भान नहीं रहा। एक बार जंगल में वह आग जलावन लकड़ी बीनने गया अपने कमर पर दहकते कोयले की सिगड़ी बांधकर। तब भी उसे अपनी कमर झुलसने का एहसास नहीं रहा। कभी-कभी बीड़ी को गलत किनारे से पकड़ कर पीने से उसके होठ जल जाते थे। शरीर पर जहां –तहां जलाने के निशान दिखाई देने लगते थे। इस वजह से वह “जला-बूढ़ा” के नाम से विख्यात था।
गाँव में एक बहुत बड़ा तालाब था, जिसे उस बूढ़े आदमी ने अपने एक साल की कड़ी मेहनत से खोदा था। साल भर उसमें पानी भरा रहता था। लोग कहते है कि कंध बूढ़ा घंटो-घंटो तक उसमें गर्दन तक पानी में डूबकर भैंस की तरह नहाता था। एक किंवदंती के अनुसार अपनी जवानी के समय कुएं में इस तरह नहाते समय कभी-कभी लोग भूल से पानी खींचते समय अपनी बाल्टी उसके सिर पर दे मारते थे। लोग उसकी इस तरह की अनेक अजीबो-गरीब हरकतों से वाकिफ थे और वे उसे उसकी मूर्खता के लिए डांटने लगते थे। तब भी वह मुस्कराते हुए कुएं से बाहर निकल आता था। शायद तभी उसने लोगों की डांट-फटकार से बचने के लिए तालाब खोदा था। इस विचित्र आदत की वजह से लोग उसे “पानी-बूढ़ा” के नाम से भी जानते थे।
शायद ही उसे अपने जीवन की इन सारी अनहोनी घटनाओं के बारे में कुछ भी याद होगा। जब चार पाँच गांववासी उसे किसी घटना की याद दिलाने के लिए उकसाते तो भूली-बिसरी कुछ घटनाएं याद आती और वह जोर-जोर से खिलखिलाकर हंसने लगता। कोई बात बताते-बताते बीच में वह कुछ भूल जाता तो उसे याद दिलाना पड़ता ताकि वह अपनी बात जारी रख सके। इसलिए वह ‘भुलक्कड़ बूढ़ा’ के नाम से भी प्रसिद्ध था। चूंकि वह बाएं हाथ से काम करता था, इसलिए उसे ‘ डेबिरी बूढ़ा’ भी कहते थे।
उसके अनेक नाम थे, इसलिए किसी को भी उसका मूल नाम पता नहीं था। इससे भी बढ़कर उसे स्वयं अपना नाम तक मालूम नहीं था। जब कोई उससे पूछता, “ तुम्हारा नाम क्या है?”। वह केवल मुस्कराने लगता। आसपास के लोग उसे जिस नाम से पुकारते थे, वह उसका नाम बन जाता था।
एक आदमी जिसे अपना नाम तक मालूम नहीं हो, क्या वह अपनी उम्र बता पाएगा? उसे “सर्वनाम आदमी” से पुकारेंगे, नहीं तो क्या? उसके व्यक्तित्व का सबसे बड़ा गुण था उसकी निर्मल मुस्कराहट। वह हर किसी को देखकर मुस्कराता था। बहुत सारी संस्थाओं से लोग उसे मिलने आते थे, क्योंकि वह अपने इलाके का एक लिजेंडरी आदमी था। अखबार वाले साक्षात्कार लेने आते थे। एक अमेरिका के एक लेखक दंपत्ति भी उसे मिलने आए थे। वे विदेशी समाचार एजेंसी ‘वाशिंगटन पोस्ट’ के सह-संपादक थे। न्यूज चेनेल 'जी' और 'दूरदर्शन' ने भी उस पर एक फीचर फिल्म बनाई थी।
जब कोई उसे अपने जवानी के दिनों के बारे में पूछता तो बदले में वह सिर्फ मुस्करा देता था। जब कोई उसे हाथी पकड़ने जैसे साहसिक कारनामों के बारे में सुनाने की जिद्द करता तो वह आकाश की ओर देखकर मुस्कराने लगता। मानो वह सौ साल पीछे लौट आया हो। और उसके बाद वह हर चीज भूल जाता। मगर जब उसे याद दिलाया जाता तो वह कहना शुरू करता कि उसने दलगंजन और पृथ्वीराज के साथ हाथी पकड़े थे। उसने राजा दलगंजन के लिए तीन और पृथ्वीराज राजा के लिए आठ से दस हाथी पकड़े थे। उसके लिए वह जमीन पर बहुत बड़ा गड्ढा खोदकर, पास में मचान लगाकर एक पेड़ पर चढ़कर उसे देखता रहता था। खाना-पीना खाए बिना कई दिनों तक छदमवेश में वह वहां इंतजार करता- केवल बीड़ी पीकर। आखिरकार कोई न कोई हाथी उस खाई में गिर जाता और दूसरे हाथी उत्तेजित होकर गुस्से में पेड़ों के आस-पास की झाड़ियों को झिंझोड़ते हुए चिंघाड़ने लगते। एक-दो दिन बाद जब उनका गुस्सा ठंडा पड़ जाता, केवल आग और आतिशबाजी उनका पीछा करने लगती। बड़ी मुश्किल से खाई में गिरे हाथी को पालतू बनाया जाता। राजा पृथ्वीराज भी जंगल में हाथियों को पकड़ने टेंट और कैंप लगाते थे। एक बार जब वे इस प्रकार के आखेट पर थे, एक हाथी ने राजा पर आक्रमण कर दिया और उसे सूंड़ से उठाकर दूर फेंक दिया। चोटिल महाराजा को महल लौटना पड़ा और कुछ ही दिनों में उनका वहाँ देहांत हो गया। भुलक्कड़ बूढ़ा केवल मुस्कराता रहता और कहता कि घायल राजा को पालकी तक वह स्वयं ले गया। उसे अपने जलने के निशान वाली बाहों पर गर्व था। उन्हीं हाथों से उसने राजा को उठाया था!
उन्हीं हाथों से उसने कई खतरनाक दस्युओं को पकड़कर ब्रिटिश सरकार को सौंपा था। उसे अपनी बहादुरी के कारनामों के लिए कई इनाम भी मिले थे। कई सरदारों को उसने अपने निशस्त्र हाथों से पकड़ा था, जिन्हें सजा के तौर पर बाद में अंडमान निकोबार भेज दिया गया। उनमें एक भखारिया बिंझल भी था। इस तरह के उसने सैकड़ों चोरों को पकड़ा था। वे लोगों की हत्या कराते थे, लूटते थे और गंधमर्दन की दुर्गम पहाड़ियों में छुप जाते थे। महाराजा दलगंजन सिंहदेव ने पुलिस बुलाकर अपराधियों को पकड़ने के लिए गंधमर्दन पहाड़ियों में हरिशंकर मंदिर के परिसर में डेरा डाला था। दस दिनों के अंदर अंदर में वे सारे लुटेरे उनकी पकड़ में आ गए थे। मगर उनका सरदार पकड़ में नहीं आया था। राजा ने सरदार बखारिया बिंझल को पकड़ने के लिए सौ रुपए का इनाम भी रखा था।
राजा ने इसके लिए कंध बूढ़ा को बुलाया था। उस समय कंध बूढ़ा हरिशंकर मंदिर के पास बह रहे झरने के नजदीक बेखबर सो रहा था। वह राजा के सामने मुस्कराते हुए आया। राजा ने उसे अपनी चार राइफलों में से एक राइफल पकड़ाते हुए आदेश दिया था, “ जाओ, और बखारिया बिंझल को पकड़कर लाओ, जिंदा या मुर्दा। “
यह सुन जवान कंध बूढ़ा का खून गरम हो गया। राजा को चिंतित देख हाथ जोड़ते हुए उसने कहा, “ कृपया मुझे एक बंदूकची पुलिस दीजिए। मैं बंदूक नहीं चला पाऊंगा। बेहतर होगा मुझे एक रस्सी दे दीजिए।“
उस रस्सी को अपनी कमर में बांधकर एक बंदूकची पुलिस को अपने साथ लेकर घने जंगलों की तरफ चला गया।
दो दिन हुए जंगल से कंध बूढ़ा को नहीं लौटता देख राजा बहुत दुखी हुआ। पता नहीं, उसे कोई शेर खा गया या कोई साँप काट लिया। दूसरी सुबह जब राजा अपने महल लौटने के लिए तैयारी कर रहा था तो उसने देखा कि एक कंध बूढ़ा एक दस्यु को अपने कंधे पर लटकाकर ला रहा था। कंध बूढ़ा ने पहले उसे राजा के सामने पटका और फिर खुद भी अचेत हो गया। उसकी कमर और कंधों पर जगह जगह चाकू के घाव लगे हुए थे, जिनसे बुरी तरह खून बह रहा था। राजा ने तुरंत ही राजवैद्य बुलाकर उसका इलाज करवाया। होश में आने पर उसे पुलिस के हाथों सौंप दिया गया। वह पूरी तरह लहूलुहान और मरणासन्न था। मगर ऐसा माना जाता है कि इस घटना के अनेक साल बाद उसकी मौत अंडमान द्वीप पर हुई।
देखते-देखते कंध बूढ़ा आस-पास के दो सौ गांवों तक विख्यात हो गया था और डाकुओं के सरदार को मारने के कारण उसकी लोकप्रियता सरकारी कागजों में दर्ज हो चुकी थी। गाँव के मुखिया और जमींदारों ने उसके प्रति अपना आभार व्यक्त किया था कि उसका बहादुरी भरा यह कार्य आने वाली कई पीढ़ियों तक याद रखा जाएगा। और आज भी अगर कोई उसे अपनी प्रसिद्धि के बारे में पूछता तो वह शून्य आकाश की ओर देखकर मुस्करा देता।
कंध बूढ़ा को कई इनाम मिले दस रुपए से लेकर सौ रुपए तक। उसकी बहादुरी के कारनामों के लिए उसे कई प्रशस्ति पत्र प्रदान किए गए, मगर उन सभी से उसे क्या लेना-देना! उन सभी को उस बूढ़े आदमी ने अपना हुक्का जलाने में इस्तेमाल कर लिया।
उसने कभी भी किसी को अपने परिवार के बारे में नहीं बताया। मगर जो कुछ भी लोग कहते, वह हँसते हुए सुन लेता था। पटनागढ़ साम्राज्य के क्रूर महाराजा चुरुप्रताप देव के शासन काल में चिन्नु भोई के नेतृत्व में कंध जाति को एकजुट कर मालगुजारी नहीं देने के लिए संगठित किया जा रहा था। एक बार जिस समय राजा चुरुप्रताप सोनपुर साम्राज्य के राजकुमार की शादी के लिए कालाहांडी महल में तशरीफ रख रहे थे, उस समय विद्रोही कंधों ने बीच रास्ते से राजा को उठा लेने की योजना बना ली। ढ़ोल की थाप पर उन्होंने सारे गांवों में अपने इन इरादों की खबर फैला दी।
आस-पास के गांवों में यह खबर आग की तरह फैल गई और देखते-देखते बहुत सारे कंध युवक अपने हाथों में हथियार लेकर सड़क पर उतर आए, राजा और उसके संबंधियों का अपहरण करने के लिए। मगर चिन्नु भोई से दुश्मनी का मतलब राजा को अच्छी तरह पता था, इसलिए अपने हाथियों की घंटियाँ खोलकर बिना कुछ आवाज किए वे जंगल के अंदर चले गए। मगर जब वे कालाहांडी पहुंचे, तब तक शादी हुए तीन दिन बीत गए थे। वापस आते समय राजा ने कालाहांडी नरेश से सशस्त्र सैनिकों की टुकड़ी अपने साथ लेकर पटनागढ़ जाने के लिए दूसरा रास्ता पकड़ लिया। वही चिन्नु भोई कंध बूढ़ा के पिता थे। उस चिन्नु भोई ने अपनी अंतिम सांस जेल में ली।
उसकी कब और कैसे शादी हुई, उसे पता भी नहीं। पर वह भी एक ऐतिहासिक घटना की तरह थी। उसने राजा के द्वारा आयोजित की गई घुड़दौड़ में हिस्सा लिया था, जिसमें उसके अच्छे प्रदर्शन के लिए एक घोड़ा इनाम में मिला था। ऐसा कहा जाता है कि घुड़दौड़ प्रतियोगिता के समय एक जवान लड़की आवेश में आकर जोर-जोर से तालियाँ पीटकर खुशी का इजहार कर रही थी। उसकी बड़ी-बड़ी गोल आँखें कंध बूढ़ा को अविरत निहार रही थी। उसने अपने बालों में से कुरैई का फूल निकालकर उसकी ओर जैसे ही फेंका, वैसे ही वह उसे अपने घोड़े पर उठाकर एक ही क्षण में जंगल में चंपत हो गया। यह देख राजा और उपस्थित अन्य जनों को अचरज का ठिकाना नहीं रहा। अपनी पसंदीदा दुल्हन को उठा ले जाने का कंध समाज में यह आम रिवाज था।
दो दिन के बाद उसने उस लड़की को सुरक्षापूर्वक उसके परिवार में लौटा दिया और उसके एक महीने बाद उन दोनों की शादी हुई। राजा के अत्यंत करीबी होने के कारण उसकी समाज में खास प्रतिष्ठा थी। इसलिए आसपास के दसों गांवों से सौ से ज्यादा आदमी और औरतों ने उस शादी में हिस्सा लिया। कम से कम दस से बारह गाड़ियों में आम के पत्ते और फूल लदे हुए थे, दुल्हन के गाँव बारात में ले जाने के लिए। शादी धूमधाम से सम्पन्न हुई। शराब पानी की तरह बहा। जंगली भैंसों का मांस दावत के लिए पकाया गया। घर वापस आते समय एक भयंकर दुर्घटना घटी, मगर किस्मत से उनमें से किसी को कुछ नहीं हुआ।
अधिकांश गाँव वाले बाराती अपने अपने घरों को लौट गए थे। इधर कंध बूढ़ा भी बचे हुए कुछ बारातियों के साथ अपनी दुल्हन लेकर जंगल से लौट रहा था। ढ़ोल बजाने वाले आगे-आगे चल रहे थे, और पीछे-पीछे चार बैलगाड़ियाँ। एक बैलगाड़ी में कंध बूढ़ा की पत्नी और कुछ अन्य लोग थे। कंध बूढ़ा अपने घोड़े पर सवार था। अचानक एक चीता उनके रास्ते से गुजारा। सभी लोग डर गए। कंध बूढ़े ने अपनी पत्नी को चिढ़ाने के लिहाज से कहा, “ चीता देखोगी? ”
उसकी डरी हुई पत्नी इससे पहले कि कुछ कहती, कंध बूढ़ा ने उसे बैलगाड़ी से खींचकर घोड़े पर बैठाकर देखते-देखते जंगल में छू-मंतर हो गया। सभी लोग आश्चर्यचकित थे। कुछ लोगों ने उन्हें जंगल में खोजने का प्रयास किया, मगर सभी एक के बाद एक मुंह लटकाकर लौट आए। चार घंटे गुजरने के बाद कंध बूढ़ा अपनी बेहोश पत्नी को साथ लेकर आया और कहने लगा, “ चीते को देखकर डर गई थी यह। “
उसे भी जहां-तहां बहुत चोटें लगी थी। चीते ने उसके ऊपर आक्रमण किया था। वह पूरी तरह लहूलुहान हो चुका था। अपने गाँव लौटने पर राजा को जब यह खबर मिली तो उसने अपने आदमी को भेजकर सरकारी अस्पताल में कंध बूढ़ा का इलाज करवाया था। पंद्रह दिन बाद वह पूरी तरह ठीक हो गया था।
अस्पताल में जब डॉक्टर ने उसे पूछा कि वह चीता कहाँ है? उसने अपलक उत्तर दिया, “ मैंने उसे मौत के घाट उतार दिया। “ यह सुन डॉक्टर हतप्रभ रह गया। यह खबर तेजी से आग की तरह आसपास के सारे गांवों में फैल गई। यहाँ तक कि राजा और ब्रिटिश पुलिस को भी यह बात पता चल गई। बिना किसी अस्त्र-शस्त्र का प्रयोग किए किस तरह उसने अपने हाथों से जंगली चीते को फाड़ डाला? यह दिखाने के लिए चीते की लाश को आसपास के गांवों में, फिर कस्बों में और अंत में राजमहल में घुमाया गया। हजारों लोगों ने चीते की सड़ी हुई बदबूदार लाश देखी। उसकी पत्नी को यह देख उलटी आने लगी। इस वजह से शादी के बीस दिन बाद कंध बूढ़ा की सुहाग रात मनाई गई। उस रात उसकी पत्नी ने शिकायत की थी, “ तुम मुझे चीता दिखाने वहाँ क्यों लेकर गए? ”
कंध बूढ़े ने मज़ाक में कहा, “ घुड़दौड़ के उस दिन तुमने मुझ पर वह फूल क्यों फेंका था? ”
शायद जीवन में सपने देखने वाले ही जिंदा रहते है। और जिनके सपने जिंदा नहीं होते वे सब गाजर मूली की तरह रह जाते हैं।
कंध बूढ़ा की कहानी हजार पन्नों से कम नहीं होगी। हर दिन उसकी एक नई कहानी बनता था। उसका कद-काठी,उसकी त्वचा,उसकी सांस, उसकी चुप्पी उसका अकेलापन ... हर चीज रहस्यमयी थी –एक नई कहानी गढ़ने में। उसका घर तो मानों कहानियों का खजाना था। जिसे भी वह स्पर्श करता था, वह एक कहानी बन जाता था। उसके बोए हुए पेड़-पौधें, उसके पालतू कुत्ते,बिल्ली, तोते खरगोश, उसका बसाया हुआ गाँव बिरीपाली, उसका खोदा हुआ तालाब – हर चीज के पीछे कोई न कोई कहानी थी। कोई इतिहास या भूगोल नहीं था। वे कहते थे, कोई ऐसा नक्शा नहीं, कोई ऐसा विज्ञान नहीं,कोई ऐसी सरकार नहीं, कोई ऐसा अंधविश्वास नहीं, कोई ऐसा भगवान या शैतान नहीं, कोई ऐसी प्रकृति या मौसम नहीं – जब उस गाँव में कोई उठा-पटक नहीं होती हो। हर कोई उस गाँव को नजरअंदाज करता था। कौए और कोयल, चील और बाज सभी गाँव के उजड़ पेड़ों से उड़कर अपने पंख झाड़ते थे। इस गाँव में सूर्योदय और सूर्यास्त अघटनीय होता था। चंद्रमा असमय उदय होता था। इमली के पेड़ों पर फल-फूलों का लगना भी किसी अनहोनी घटना से कम नहीं था।
कोई भी निश्चित तौर पर यह नहीं कह सकता था कि सच में ठाकुरानी की जगह पर ग्राम-देवी रहती भी है या नहीं।
गाँव वालों को तपती धूप प्यास की तरह लगने लगती, बारिश पंखदार मक्खियों की तरह आती और सर्दी लौकी के फूलों की तरह। निर्जन बिरीपाली गाँव में सिवाय कहानियों,पहेलियों और रहस्यों के अलावा कुछ भी नहीं था।
कंध बूढ़े को यह भी पता नहीं था कि देश कब आजाद हुआ। उसने आजादी जैसा कोई शब्द सुना तक नहीं था। उसने गुलामी जैसा शब्द भी नहीं सुना था। उसे भारत के किसी प्रधानमंत्री तक के नाम मालूम नहीं थे। उसे सिवाय दो राजाओं दलगंजन और पृथ्वीराज के अलावा शायद ही किसी राजा का नाम मालूम होगा। उसका समय केवल वर्तमान में बीतता था। उसने कभी भी भविष्य के सपने नहीं देखें। उसे अपने गुजरे समय का कभी पश्चाताप नहीं था। उसका भूतकाल आसन्न वर्तमान से कुछ जल्दी चालू हो जाता था। वर्तमान में जी रहे किसी रहस्यमयी आदमी का जीवन वृतांत एक बड़े उपन्यास में भी नहीं समेटा जा सकता था। भले ही, उसकी जिंदगी और अनुभवों को छोटी-छोटी कहानियों में बाटा जा सकता था। उसकी जिंदगी का आँखों देखा हाल बताना किसी के लिए संभव नहीं था। न कोई जीवन में उसके उतार चढ़ाव थे। न ही कोई पूर्ण सत्य या कोई पूर्ण उपलब्धि। बिलकुल भी किसी तरह की कोई हलचल नहीं थी। उसके गाँव में कोई बैलगाड़ी या उसके पहिये भी नहीं थे। गांववासी अक्सर कहते थे, जहां हल नहीं होगा, वहाँ हलचल कैसी? अगर कोई उपन्यासकार उसके गाँव आकर नैतिक मूल्यों की खोज करता तो शायद संभव है कि वह पागल हो जाता। वह अपनी कहानी इस तरह नहीं लिख पाता, “ एक समय था एक गाँव था ....” और नहीं अपनी कहानी को इस तरह कह पाता, “ आखिरकार सभी लोगों ने गाँव छोड़ दिया ....”
यह उसे उचित शब्द भी नहीं मिल पाते फिर उचित वाक्य की तो बात ही क्या? शब्दकोश से परे नए शब्द और व्याकरण की किताबों से परे वाक्य बिरीपाली गाँव में घुल मिल गए थे। कोई आदमी बिरीपाली गाँव में किसी शब्द का अर्थ खोज सकता है, शब्दकोश के शब्दों का भी अर्थ खोजा जा सकता है। मगर उसे बिना शब्द पकड़े शब्द का अर्थ अवश्य मिल जाता और अगर गहरा अर्थ खोजने का प्रयास करता तो यह स्वाभाविक है कि उसे अपने व्यर्थ के प्रयासों से ज्यादा खराब लगता।
बिरीपाली शब्द और उसका अर्थ कंध बूढ़ा स्वयं है। वह स्वयं उसकी आकृति, भाव-भंगिमा, आधिदैविक, गाँव की नैतिकता और मूल्यों का सम्मान था। जब कोई पेंटर गाँव को पेंट करने का प्रयास करता तो बिरीपाली गाँव एकाध घंटा भी नहीं टिक पाता। या तो पेंटर के ऊपर छत गिर जाती या वह अपना सामान लेकर वाहन से खिसक जाता। जिस दीवार पर सरकार अपनी उपलब्धियों के आर्थिक ग्राफ के पोस्टर चिपकाती, वह दीवार तुरंत टूट जाती। गाँव वालों के भरण पोषण का दावा करने वाली विकास योजनाएँ बीच में ही रद्द हो जाती।
अगर कोई गाँव का नक्शा खींच उसे एटलस के किसी पन्ने पर रखता तो वह आदमी पूरी तरह उदास हो जाता, क्योंकि गाँव की सड़कों के बीचो बीच अपने आप घास और इमली के पेड़ उग जाते। और घर टूटने लगते, नए घर बनने लगते दूर-दूर और ज्यादा दूर। कोई भी गाँव वालों की संस्कृति और आदतों का हिसाब नहीं रखता था, क्योंकि वह हमेशा बदलती रहती थी। आजीविका के लिए ईंटें बनाने वाले कुम्हार दूर-दूर तक नजर नहीं आते।
यह केवल रहस्य ही नहीं बल्कि प्रश्नवाचक भी था कि ईंटें बनाने वाले दूर कहाँ चले गए? वे सारे लोग कहाँ चले गए, किसी को पता नहीं। जब वे लोग समूह में जाते थे, तो बहुत विचित्र लगता था। किसी को भी याद तक नहीं है, कब कंध बूढ़ा के दो लड़के और लड़कियों का परिवार कहाँ गायब हो गया। दूसरे लड़के की लड़की जब चार घंटे की थी, तभी उसने अपना घर छोड़ दिया था। सुबह-सुबह आकार किसी ने उसे याद दिलाया कि ट्रेन बारह बजे निकल जाएगी। वह जाने के लिए तैयार हो गया। तभी गोलापी का प्रसव-शूल प्रारम्भ हो गया। गोलापी, उसका पति, उसका चार साल का बेटा और चार घंटे की बेटी हँसते हुए ट्रेन में बैठ गए। वह ट्रेन जो एक राक्षस की तरह आई थी, रहस्यमयी तरीके से अचानक गायब हो गई। रेल का इंजन दूर से कुछ गंदा दिख रहा था। मैले कुचैले कपड़े पहने गाँव वाले स्टेशन पर उसका इंतजार कर रहे थे। कुछ आदमी स्टेशन की सफाई कर रहे थे। उस दिन से बिरीपाली गाँव के प्रत्येक घर में एक बूढ़ा आदमी जरूर नजर आता है। मगर किसी के पास में उनका सही-सही हिसाब नहीं था। न तो किसी एजेंसी के पास, तो न किसी सरकार के पास।
अगर कोई उसकी गिनती रखना चाहेगा तो उसे निराशा ही हाथ लगेगी। टूटे-फूटे मकानों का हिसाब रखना भी उसके लिए मुश्किल होगा। अगर वह किसी टूटे घर को अपनी गिनती में शामिल नहीं करता है तब भी उसे निराशा ही हाथ लगेगी। अगर एक घंटे की कमर तोड़ यात्रा के बाद जब वह इस नतीजे पर पहुंचता है कि उस गाँव में केवल बारह आदमी बचे है, तभी कोई पेड़ के पीछे से तो कोई पत्थर के पीछे से बाहर निकलता। अगर वह फिर से गिनना चालू करता, तब तक या तो कोई बूढ़ा या तो मर जाता या फिर उसे मरणासन्न देख गाँव के कुत्ते भौंकने लगते। यह देख या तो वह आदमी डर जाता या फिर डर के मारे उसकी आंखें फटी की फटी रह जाती, मानो वह एक मुर्दा शरीर है और वह किसी गाड़ी की तरह गाँव छोड़ देता।
वास्तव में वह बहुत गलती करता। अगर किसी सरकारी संगठन या संस्था को उन बूढ़े लोगों की वास्तविक संख्या का रिकॉर्ड बनाना है तो उन्हें धीरज रखना होगा और उनकी अंत्येष्टि कर्म में भाग लेना होगा, तभी जाकर केवल दो मिनट में उन बुजुर्गों की वास्तविक संख्या गिनी जा सकती है।
गाँव के दो कुत्ते कभी-कभार ही भौंकते हैं। वे केवल तभी भौंकते है, जब किसी की मौत होने वाली हो। जब वे आकाश की ओर देखकर भौंकते तो पता चल जाता कि उनकी बिरादरी का दूसरा आदमी चला गया है। कुत्ते उन्हें मृतक के घर के दरवाजे के पास ले जाते और गाँव के सारे बूढ़े मिलकर उस लाश को खींचते। रास्ते में बीच-बीच में वे रुकते जाते। इमली पेड़ के नीचे थोड़ी-सी लकड़ियों की चिता बनाकर उस लाश को जला देते। अगले दो दिन, वे और ज्यादा जलावन इकट्ठा करते। लाश और तीन दिन धीरे-धीरे जलती रहती। गाँव का यह अन्त्येष्टि कर्म बहुत ही विचित्र प्रकार का था। इस दृश्य का चित्रांकन करना या किसी साहित्यिक कृति में वर्णन करना बहुत ही मुश्किल था।
कंध बूढ़ा और अन्य नंबर 10,11,12,12-14,8-9-10-11- उनके घरों की ठाकुरानी खंभे की तरह खड़े रहते, यहां तक कि ठाकुरानी खंभे के ऊपर। न तो वे छाया में कांपते थे और न ही तपती धूप में गर्मी का अनुभव करते थे और उन्हें मूसलाधार बारिश से भी कोई डर नहीं था। जहां कहीं वे इकट्ठा होते, धूप, बारिश, सर्दी,छाया या लोग,नेता, सरकार या संगठन सब उनसे बचते और दूसरे रास्ते चले जाते। किसी की फिक्र नहीं। सभी पत्थर की तरह अविचलित, इमली के पड़े की तरह, ठाकुरानी के खंभे की तरह, भगवान में विश्वास की तरह, अंधविश्वास की तरह।
प्रिय पाठको, इसे केवल कहानी न समझे। इसमें अगर कोई धुंधलापन लगे तो कृपया उसे रबर से मिटा दे। शब्द अपने स्रोत की ओर लौट जाएंगे बिना अपना अर्थ बयान किए। पन्ने फिर से नए सफेद होंगे। बूढ़े लोगों के बिरीपाली गाँव की तरह शब्दों को खो जाने दें। जिस तरह केंकड़ा दलदल पर अपने निशान छोड़ जाता है, ठीक इस तरह यह कहानी अपने शब्दों की अमिट छाप छोड़ जाएगी। इन शब्दों का कोई नहीं पकड़े, जब तक कि उनमें वायरस या बैक्टीरिया न हो जाएँ। सभी उनसे सुरक्षित दूरी बरकरार रखें।