इम्तियाज अली सिनेमाई हाईवे / जयप्रकाश चौकसे

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इम्तियाज अली सिनेमाई हाईवे
प्रकाशन तिथि : 15 मई 2013


इम्तियाज अली के घर के एक हिस्से में ही सिनेमाघर था और उन्होंने बचपन में इतनी अधिक फिल्में देखीं कि परीक्षा में फेल हो गया। उनके शयन कक्ष में फिल्म की ध्वनियां आधी रात तक गूंजती रहती थीं। बहरहाल, फेल होने के बाद नशा टूट गया, परंतु यादों में सिनेमा बसा हुआ था। इसलिए मास कम्युनिकेशन में डिग्री लेने के बाद विज्ञापन विभाग में कॉपी राइटिंग करते हुए उन्होंने 'ऐसा सोचा न था' नामक पटकथा लिखी और सनी देओल ने उन्हें अपने चचेरे भाई अभय देओल को लेकर फिल्म बनाने का अवसर दिया। ताजगी लिए बनी प्रेम-कथा की प्रशंसा हुई, परंतु बॉक्स ऑफिस पर कोई कमाल नहीं हुआ। इम्तियाज अली का कहना है कि वे स्वयं बहुत अंतर्मुखी और शर्मीले स्वभाव के हैं, परंतु सनी देओल उनसे भी अधिक शर्मीले हैं। आज इम्तियाज अली सफल हैं, परंतु सनी देओल के प्रति उनके मन में बहुत श्रद्धा है, जिसने एक अनुभवहीन युवा को अवसर दिया। उनकी पहली फिल्म की कथा का आधार यह था कि परिवार द्वारा तय किए जाने वाले रिश्ते को अस्वीकार करने के बाद उन्हीं दोनों में फिर प्यार हो जाता है। युवा के संशय और अनिश्चय को ही अपनी दूसरी फिल्म 'जब वी मैट' का भी आधार बनाया, परंतु इस बार पटकथा चुस्त और संवाद में 'विट' था तथा मधुर संगीत व करीना कपूर के जीवन के श्रेष्ठ अभिनय ने फिल्म को सुपर हिट बना दिया और टेलीविजन पर अनेक बार दिखाए जाने के बाद भी चैनल सर्फिंग में निगाह पडऩे पर इसे पूरा देखे बिना चैन नहीं आता, ऐसी बला की कशिश है फिल्म में।

युवा के अनिश्चय, अधीरता और भंवरे की तरह भटककर फिर उसी फूल पर लौटने के आधार पर इम्तियाज अली ने अपनी तीसरी फिल्म 'लव आज और कल' की रचना की। अब उनकी ख्याति फैल रही थी। उन्होंने रणबीर कपूर और एआर रहमान के साथ 'रॉकस्टार' बनाई और उसका आधार भी वही था, परंतु इस बार नायक को धुन सवार है, जब तक प्रेम में उसका दिल नहीं टूटता। गोया कि वह विरह की गहराई में नहीं उतरता, तब तक उसके संगीत में जान नहीं आएगी। अत: उसकी अजीबोगरीब प्रेम-कथा में कई मोड़ आते हैं और अपने संगीत सृजन में सुधबुध खोकर यह आधुनिक बैजू बावरा सारी दुनिया और उसके दस्तूर को नकारता है। वह एअन रैंड के 'फाउंटेन हेड' के पात्र की तरह यह मानता है कि असाधारण प्रतिभा पर नैतिकता के सामान्य नियम नहीं लागू होते। बहरहाल, रणबीर के श्रेष्ठ अभिनय और एआर रहमान के संगीत के कारण यह गैरपारंपरिक प्रेम-कथा भी सत्तर करोड़ तक आय अर्जित कर सकी।

इम्तियाज अली की चारों फिल्मों में पात्र प्राय: यात्राओं पर रहते हैं और यह दो सतह पर चलती हैं- बाहरी और भीतरी यात्रा। संशय और अनिश्चय यात्राओं के कारण हो सकते हैं। उसके पात्रों की कोई मंजिल नहीं है, यात्रा अपने आप में एक मंजिल है। शैलेंद्र लिखते हैं 'चलते चलते थक गया मैं और सांझ भी ढलने लगी, तब राह खुद मुझे बांहों में लेकर चलने लगी।' निदा फाजली भी याद आते हैं- 'जो आता है, वह जाता है, ये दुनिया आनी-जानी है। यहां हर राह मुसाफिर है और सफर में जिंदगानी है।'

इम्तियाज अली की निर्माणाधीन फिल्म का नाम ही है 'हाईवे'। बदलते हुए भारत में 'हाईवे' महज राजपथ या जनपथ नहीं है, वरन वह विचारों का भी वहन करता है। कुछ लोगों के लिए 'हाईवे' शॉर्टकट भी है। हाईवे आयात किए गए विकास के उस मॉडल का परचम बन गया है, जो आर्थिक असमानता बढ़ाता है। यह 'विकास' केवल छोटे प्रतिशत के लिए है, परंतु उसी के पास प्रचार प्रसाधन व सत्य को लोप करने के सारे साधन हैं। इस हाईवे से सुख-सुविधा के सारे साजो-सामान कस्बों और ग्रामीण अंचल से महानगरों की ओर आ रहे हैं और महानगरों से छद्म आधुनिकता तथा अन्य व्यसन ग्रामीण क्षेत्र में पहुंच रहे हैं।बहरहाल, इम्तियाज अली के सिनेमा और जीवन को भी हाईवे ही मान सकते हैं। दरअसल वह आधुनिक दरवेश भी कहा जा सकता है, केवल सिनेमाई मुहावरे के कारण वह हाईवे है।

अंतर्मुखी लोग बहुत भीतरी यात्राएं करते हैं। बाहरी यात्रा का आकलन मीलों और घंटों द्वारा किया जा सकता है, परंतु भीतरी यात्रा का आकलन आंकड़ों में उपलब्ध नहीं होता। इम्तियाज अली कम लोगों के सामने ही थोड़े-से उजागर होते हैं। उनका ग्लेशियर जल्दी पिघलता नहीं, परंतु रणबीर कपूर के साथ उनकी इतनी अंतरंगता है कि दोनों एक-दूसरे के फैसलों को प्रभावित कर रहे हैं। यह इम्तियाज का ही प्रभाव है कि रणबीर कपूर अनुराग कश्यप की बॉम्बे वेलवेट कर रहे हैं। रणबीर कपूर के बचपन के मित्र अयान मुखर्जी हैं और दोों कमोबेश सारा समय साथ रहते हैं, परंतु अयान किसी के फैसलों को प्रभावित करने में यकीन नहीं करते। आखिर वे फॉर्मूले के आदि गुरु शशधर मुखर्जी के पोते जो ठहरे। इम्तियाज अली के घर के एक सिरे पर सिनेमाघर होने से उनका बचपन प्रभावित हुआ और अब हमेशा के लिए वे सिनेमा के हो गए। कल्पना कीजिए कि गली-मोहल्लों में बने सिनेमाघरों ने कितने लोगों के जीवन को प्रभावित किया है। टूरिंग टॉकीजों ने गांव और कस्बों में यही काम किया है। आखिर इस माध्यम का ऐसा क्या जादू है कि लोग इसकी प्रयोगशाला में जीवन बदलने आ जाते हैं। यह माध्यम सपने देखने-दिखाने की ताकत रखता है और सपने यथार्थ न होते हुए भी चुंबकीय ताकत रखते हैं। १४ मई के दैनिक भास्कर के अंक में प्रीतीश नंदी ने एक लेख लिखा है, जिसमें उनके बचपन से आज तक उन पर सिनेमा के प्रभाव का विशद वर्णन है।