इम्तियाज की हाईवे और नवदीप का एनएच टेन / जयप्रकाश चौकसे
प्रकाशन तिथि :19 मार्च 2015
कुछ समय पूर्व इम्तियाज अली की 'हाईवे' प्रदर्शित हुई और अभी नवदीप की 'एन.एच. टेन' अर्थात नेशनल हाईवे नं. दस प्रदर्शित हुई। दोनों ही फिल्मों में हाईव प्रतीक की तरह इस्तेमाल हुआ है। दोनों ही फिल्मों की नायिकाएं सताई हुई नारियां हैं। इम्तियाज अली की फिल्म का हाईवे हमारे नए बहुप्रचारित विकास का प्रतीक है। इसके एक महानगर वाले सिरे पर एक अमीर परिवार की आठ वर्ष की उम्र से ही बड़े उम्र के रिश्तेदार की यौन पीड़ित या कहें उनकी कुंठा की पीड़ित बालिका है और परिवार वाले सत्य जानकर भी विरोध नहीं करते, क्योंकि वह रिश्तेदार ही उनकी भ्रष्टाचार से कमाई का माध्यम बना है और उसका 'आशीर्वाद' हटते ही सारा ऐश्वर्य धरा रह जाएगा। गरीबी अकेली ही नैतिकता या परम्पराओं को नहीं तोड़ती, समृद्धि भी आंतरिक तोड़-फोड़ करती है। हाईव के दूसरे छोर पर है एक गांव के गरीब घर का लड़का, जो दूध पर नहीं बस गरीब मां की लोरियां सुनकर जवान हुआ है। वह बेरोजगार युवक अपहरण के व्यवसाय में जुट जाता है और जब उस अमीर घराने की युवती के बचपन में यौन शोषण की बात उसे मालूम पड़ती है और अपहृत युवती को किडनेपर के शोषित बचपन की बात मालूम पड़ती है तो दोनों इस दर्द के 'हाईव' पर एक दूसरे के साथ हो जाते हैं।
नवदीप की नायिका शिक्षित, बेराजगार व शादीशुदा है और उसका सफल प्रेम विवाह है। गुड़गांव जैसी तथाकथित विकसित बस्ती में वह दुष्कर्म के प्रयास को विफल कर चुकी है। उसी हादसे की घिनौनी यादों से मुक्ति के लिए उसका पति उसका जन्म दिन मनाने कहीं जा रहा है। बहरहाल, सारे दर्दनाक घटनाक्रम के अंत में हम देखते हैं कि उसके शिकार पर निकले लोगों को उसने स्वयं मार दिया। दोनों ही फिल्मों की नायिकाएं अपने साहस से दुष्टों को नष्ट कर देती हैं। दो अलग-अलग मिजाज वाले फिल्मकारों की नायिकाओं का दु:ख और आक्रोश घिनौनी अन्याय आधारित व्यवस्था से जन्मा है परंतु दोनों फिल्मकारों के हृदय में कहीं अन्याय से जूझती औरतों के लिए दर्द है। इम्तियाज अली की 'रॉकस्टार' के एक गीत में औरत के दर्द का इज़हार यूं हुआ है 'सारी-सारी रात मैं कतिया करूं' यह 'कतियां' चर्खा कातने के लिए प्रयुक्त होता है। अगर इम्तियाज अली की फिल्म में आलिया भट्ट का नया स्वरूप उजागर हुआ है तो नवदीप की फिल्म में अनुष्का शर्मा भी प्रखर रूप में उजागर हुई है और दोनों ही फिल्में अपने अल्प बजट के कारण व्यावसायिक रूप से भी सफल हैं।
दोनों ही फिल्मों में मूलभूत अंतर यह है कि इम्तियाज अली की फिल्म में आर्थिक असमानता और उससे उत्पन्न सांस्कृतिक मूल्यों के पतन की बात है परंतु नवदीप की फिल्म में इस आर्थिक असमानता से भी बड़ी और गहरी बात है जाति-प्रथा और उसकी कट्टरता। अपनी जाति के प्रति घोर प्यार जाने कैसे अन्य जातियों के लिए नफरत में बदल जाता है। यह नफरत संभवत: फसल की तरह राजनीतिक स्वार्थवश जान-बूझकर बोई गई है। यह प्रचारित और प्रत्यारोपित है। फिल्म में जहां संविधान के नहीं लागू होने की बात है तो जाहिल पुलिस वाला एक ही सांस में मनु और महात्मा आंबेडकर का नाम लेता है।
इस वर्ष अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस पर मैंने अनेक विवाहित स्त्रियों से पूछा कि अगर उन्हें एक कत्ल की कानूनी इजाजत मिले तो वे किसे मारना चाहेंगी। मुझे उत्तरों ने चौंका दिया, क्योंकि कुछ ने पति का नाम लिया तो अनेक ने किसी अन्य औरत जैसे निर्मम सास या क्रूर ननद इत्यादि के नाम गिनाए। नवदीप की फिल्म में गांव की मुखियां एक औरत है जो पराई जाति के युवा से प्रेम करने के अपराध में अपनी बेटी के भाइयों को ही उसे मार देने का आदेश देती है। क्या सत्ता की कुर्सी पर बैठते ही मां मर जाती है? एक और दृश्य में यही औरत अपनी कत्ल की गई बेटी का सारा सामान एकत्रित करके नष्ट करना चाहती है और नवदीप उसी लड़की की अलमारी पर चिपके धर्म के स्टिकर को हटाते उस मां को दिखाते हैं। संकेत स्पष्ट है कि कत्ल हुई लड़की धार्मिक प्रवृत्ति की थी व उसके मन में भगवान के लिए घोर आस्था थी और उसकी मां जाने किस परम्परा की खातिर उसका कत्ल करवाती है। क्या इस जातिवाद की परम्परा का जन्म धर्म की गंगोत्री से नहीं हुआ है? फिल्में कभी-कभी अनुत्तरित प्रश्नों को जन्म देती हैं।