इम्तेहान / नज़्म सुभाष

Gadya Kosh से
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शम्मा कि रौशनी को बेहद कम करने के बावजूद नज़ीरन को महसूस हुआ जैसे आंखों के रास्ते ये मुइ ज़हन में उतरकर उसके वजूद को झिंझोट रही है। यूं तो अभी ज़्यादा वक़्त नहीं हुआ था यही कोई आठ बजे होंगे मगर जब दिल में ग़मों का दरिया हिलोरें मार रहा हो तो एक-एक लम्हा भी सदियों-सा गुजरता है।

तीस साल हंसी खुशी गुज़र जाने के बाद एक ही पल में ऐसा क्या हुआ जो सबकुछ तहस नहस हो गया। आज उसे खु़द पर अफ़सोस हो रहा था मगर अब कर भी क्या सकती थी। तीर तो कमान से कबका निकल चुका था...उफ़् इतने बड़े कोठे का मालिक मुश्ताक़ न जाने कहाँ और किस हाल में दरबदर ठोकरें खाकर भटक रहा होगा। अब वह सोचती है कि आख़िर उसने क्यों उसका इम्तहान लिया...क्या ज़रूरत थी? ...मगर क्या वाकई में वही ज़िम्मेदार है?

उसने खु़द से ही पूछा मगर कोई तसल्लीबख़्श जवाब भले न मिल सका हो लेकिन वह ख़ुद को गुनहगार तो मान ही चुकी थी।

बेचैनी लगातार बढ़ती जा रही थी। रुई से भी नर्म बिस्तर जैसे बबूल के कांटों में तब्दील हो गया था...वो लगातार करवटें बदलती रही लेकिन बेचैनी कम होने के आसार नज़र न आ रहे थे। वह तख़्त से उठी। क़रीब ही मेज पर रखे लोटे का पानी एक गिलास में ढाला और होठों से लगा लिया ...कमबख़्त जैसे हलक सूख गया था। पानी पीने के बाद उसने गिलास रख दिया और बालों की उलझी लटों को अपने हाथों से दुरुस्त कर के कानों पर चढ़ा लिया। एक नज़र चारों ओर घुमाई। एक ही दिन में जैसे कोठरी की सारी दीवारें बदरंग हो चुकी थी अन्यथा यही दीवारें हमेशा कितनी खिली-खिली रहती थी...साखू की पटावदार छत जैसे एकाएक जर्ज़र होकर कभी भी भरभराकर गिर सकती थी...और वो...वो भी तो जर्ज़र हो गयी थी, बस भरभराना बाकी था...उसकी भी ज़िन्दगी का आधार छिन गया था। बहुत कुछ था जो एक ही दिन में छीज गया जिसे वह लफ़्ज़ों में बयाँ नहीं कर सकती।

अचानक उसकी नज़र दरवाजे़ पर गयी नीम अंधेरे में महसूस हुआ मुश्ताक़ खड़ा है... मगर नहीं... दरवाज़ा बंद था वहाँ उसकी परछाई तक नहीं...अब शायद ही उससे कोई पूछे-"इजाज़त हो तुम्हारे क़रीब आ जाऊं" और वह पहले खिलखिलाए फिर कहे-"तो क्या अब हमारे क़रीब आने की इजाज़त भी चाहिए"

उसका इतना भर कहना होगा कि मुश्ताक़ उसकी ओर बढ़कर उसे अपनी मज़बूत बाहों में समेट लेता...उफ़् अब तो जैसे सारे अहसास तक धूमिल हो रहे हैं।

उसे याद आया जब वह मात्र चौदह साल की थी तब उसे सुल्तानपुर से इसी कोठे पर लाकर तीन हजार में बेचा गया था। इस कोटे की मालकिन "अम्माजान" ने गिनकर तीन हजार रूपये दलालों को दिए फिर उसकी ओर गौर से देखा और आगे बढ़कर माथे को चूमते हुए समझाने वाले अंदाज़ में बोली-"जानती हूँ बेटी ये जगह किसी ज़हन्नुम से कम नहीं मगर तुम हम पर इतना भरोसा कर सकती हो कि तुम्हारी मर्जी के बग़ैर तुम्हें कोई छू न सकेगा लेकिन हाँ... इस हकीक़त को जल्द से जल्द क़ुबूल कर लेना कि अब यही तुम्हारा घर है"

और वह सहमी-सहमी अकबकाई-सी इस नयी दुनिया को समझने की कोशिश में लगातार फ़र्श को घूरे जा रही थी। उसके भविष्य का फै़सला तो उसी वक़्त हो चुका था जब वह घर से शौच के लिए निकली थी और उसे दो मर्दों ने पकड़कर ज़बरदस्ती न जाने कौन-सी बूटी खिला दी कि वह बेहोश हो गई और जब उसे होश आया तो वह एक छकड़े पर थी मगर वह चाह कर भी समझ न सकी कि उसकी मंज़िल अब कहाँ है।

इस बड़ी से हवेलीनुमा कोठी को अम्माजान ने अपने किसी आशिक़ से झटक लिया था। जवानी में क्या ग़ज़ब ढाती होंगी अम्माजान... यूं तो कोठी पर सब उन्हें अम्माजान ही कहते थे मगर उनका असली नाम गुलबदन था...लखनऊ की मशहूर रंडियों में उनका शुमार था...न जाने कितने रईसजादे उनके क़दमों में पड़े रहने के एवज़ में फ़कीर बनकर लखनऊ की गलियों की ख़ाक छानने लगे। लखनऊ में भला ऐसा कौन होगा जो उनके दीदार का तलबगार न हो।

उस आशिक़ ने भी दिल के हाथों मजबूर होकर ये कोठी उन पर लुटा दी थी...ये दो मंजिला कोठी ऐसी थी कि इसके चारों ओर कमरे बने थे और बीच में एक बड़ा-सा आंगन...और इसी कोठी को बाद में कोठे में तब्दील करके एक बड़े हॉल को शीशमहल का रूप दे दिया गया...जहाँ शाम होते ही संगीत की महफ़िल सजती...नवाब, नवाबजादे और रईसों का शाम से ही तांता लगा रहता। दिनभर उबासी लेती ये संकरी-सी गली शाम होते ही दुल्हन की तरह जगमगा उठती।

अम्माजान ने ऊपर का कमरा उसे दिया था और हैदरी को कोठे के तौर-तरीके सिखाने की ज़िम्मेदारी भी...उसे किसी तरह की परेशानी न हो इसलिए एक नौकरानी भी रखी गयी थी। अम्माजान ने कोठे पर उसे नया नाम दिया गया नज़ीरन... उसे रोज़ सुबह केसर और बादाम मिला दूध दिया जाता और देसी घी में पकाया हुआ ज़ायकेदार भोजन...एक साल में ही उसका रूप फागुन की गमकती धूप-सा खिल गया। पूरे शहर में नज़ीरन के चर्चे होने लगे। लखनऊ के एक से एक नवाबजादे उसके दीदार को मुंह मांगी क़ीमत देने के लिए अम्माजान के सामने हाजिर थे मगर उसने अम्माजान से एक डेढ़ साल इन सबसे दूर रहने की मोहलत मांगी थी जिसे उन्होंने खुशी-खुशी स्वीकार कर लिया। वैसे भी कोठे के तौर-तरीक़ों में अभी वह कच्ची थी...और कच्चा काम अम्माजान को कभी पसंद न आया। उन्हें बख़ूबी पता था कि नवाबजादों की बेचैनी जितनी ज़्यादा बढ़ेगी उतना ही उनका फ़ायदा होगा। आख़िर उन्होंने पूरी उम्र यही सब दांवपेंच सीखने में बिताए थे। अब तो बालों पर सफ़ेदी भी उतर आयी थी।

सुबह को एक मौलवी साब उसे उर्दू लफ़्ज़ों के बर्ताव के तौर तरीक़ों के साथ गुफ़्तुगू का अंदाज़ सिखाते तो शाम को दो घंटे हारमोनियम और तबले की थाप पर घुंघरुओं के साथ उसकी ज़ोर-आजमाइश होती और इन सबमें वह पूरा दिन हलकान रहती।

वक़्त धीरे-धीरे ग़ुजर रहा था। गर्मियों के दिन थे। हर तरफ़ गर्मी का साम्राज्य था। कोठरी के भीतर भी गर्मी से बस मामूली राहत ही थी। कई दिनों से उसे इमली खाने की तलब थी मगर आज उसकी ये मामूली-सी ख़्वाहिश ज़रा ज़्यादा ज़ोर मारने लगी। बाहर वह निकल नहीं सकती, अम्माजान ने सख़ती से मना कर रखा था लिहाज़ा वह सबीहा को खोज रही थी मगर वह उसे कहीं नज़र न आयी।

उसने सोचा शायद नीचे गई होगी। वह कोठरी से बाहर निकलकर उसे बुलाने के लिए निकली तो देखा सामने एक खूबसूरत नौजवान खड़ा है हालांकि सामना तो पहली बार ही हुआ था किंतु उसकी बातें अक्सर होती थी चुनांचे उसे ख़बर थी कि ये अम्माजान का बेटा मुश्ताक़ होगा।

उसने उसे देखा तो शरमाते हुए अपना दुपट्टा लेने के लिए कोठरी की तरफ भागी मगर इसी बीच पीछे से आवाज़ आई-"हुज़ूर इस क़दर बेरुख़ी...हम ग़ैर तो नहीं"

जुमला हल्के फुल्के अंदाज़ में उछाला गया था लिहाज़ा वह पलटी और उसके चेहरे पर खा जाने वाली नज़र डाल कर बोली-"क्या अम्माजान ने आपको बताया नहीं कि ज़नानख़ाने की तरफ़ मर्दों का आना सख़्त मना है"

उसने अपनी तराशी हुई दाढ़ी पर हाथ फेरा फिर उसकी तरफ़ बढ़ते हुए बोला-"आपके हुस्न के बड़े चर्चे सुने थे...सोचा आज दीदार कर लूं...मगर आप तो निहायत ही मग़रूर लगती हैं"

उसकी त्योरियाँ चढ़ गयीं "अजी बड़े बेशर्म हैं आप।" फिर उसे लगा शायद उसने ग़लत जवाब दिया है लिहाजा मुस्कुराई-

" हुस्न मग़रूर हो तभी अच्छा

दिलजले आह भर के मर जाएँ। "

"वाह वाह...ये तो गज़ब कही आपने...हम मुरीद हुए"

"अच्छा ...सच में" उसने हैरत से उसे देखा

"कमाल करती हैं आप ...इम्तेहान देना पड़ेगा क्या?"

"देना ही चाहिए... हम यक़ीन करें भी तो कैसे?"

"फ़रमाइए हम आपके लिए क्या कर सकते हैं?"

"मुझे इमली खानी है मगर सबीहा जाने कहाँ मर गई है... अगर आप ला सकें तो..." उसने तपाक से कहा मगर अंतिम लफ़्ज़ तक आते-आते उसकी आवाज़ में झिझक सिमट आयी।

"मांगा तो मांगा क्या... इमली" उसने हैरत से उसे देखा और आगे बोला-"आप कहती तो मैं चांद-सितारे तोड़ लाता"

"अभी चांद-सितारे खाने का मूड नहीं है अगर होगा तो ज़रूर बताऊंगी"

उसने कुछ इस अंदाज़ से कहा कि एक ज़ोरदार ठहाका गूंज गया।

"ठीक है अभी लेकर आता हूँ"

वह जाने के लिए बढ़ा ही था कि उसने रोक लिया।

"ठहरो... अठन्नी लिए जाओ.। दस पैसे की लाना ज़्यादा नहीं चाहिए।"

उसने उसे पैसे पकड़ाये तो वह जीने की तरफ जाकर नीचे उतर गया।

क़रीब एक घंटे के बाद वह एक दोने में इमलीे लेकर हाजिर हुआ।

"अंदर आ सकता हूं"

दरवाजे़ के पास पहुँच कर उसने दस्तक दी।

"आ जाइए"

वो अंदर पहुँचा तो नज़ीरन कोई किताब पलट रही थी। क़रीब से देखा तो शायरी की थी।

उसने दोना उसकी तरफ बढ़ा दिया। नज़ीरन ने दोना लेते ही एक मीठी इमली मुंह में रख ली और ज़ोर से चटकारा लगाया।

"बाकी पैसे"

"मेरे पास हैं"

"तो वापस करो"

"नहीं..."

उसने आंखें तरेरीं-"हद है ...ये तो बेईमानी है"

"जो भी समझ लो"

"अच्छा है... आगे से ध्यान रखूंगी पहली बार में धांधली" वह जैसे खुद में ही बड़बड़ाई।

"नज़ीरन...एक बात कहूं"

नज़ीरन तीसरी इमली मुंह में डालने ही जा रही थी कि उसके हाथ रुक गए उसने मुश्ताक़ की ओर देखा वह बोले जा रहा था-"मैं मदरसे में रहता हूँ यहाँ बहुत कम आना होता है ...मगर जब से तुम्हारे बारे में सुना है एक नज़र देखने की बड़ी तमन्ना थी आज देख लिया तो दिल को बड़ा सुकून मिला।"

वह कुछ पल ठहरा। जैसे लम्बी दूरी तय करने के बाद ज़रूरी सांसे फेफड़ों में भर रहा हो फिर उसने नज़ीरन के चेहरे को पढ़ने की कोशिश की। वह नासमझी वाले अंदाज़ में बस उसे सुनते हुए देखे जा रही थी नज़रें मिलते ही शर्माकर उसने नज़रें झुका लीं। उसने आगे कहा-"सच कहूँ तुम बेहद खूबसूरत हो"

फिर उसने कुर्ते की जेब में हाथ डाला और टटोलते हुए एक पोटली निकाली और उसकी हथेली पर रख दी।

"यह क्या है?"

"पाज़ेब है"

"तुम्हें कहाँ से मिली?"

"सुनार से ख़रीद कर लाया हूं"

"किसलिए?"

"तुम्हारे लिए"

"मगर क्यों?"

इस सवाल का सीधा जवाब देने में उसे झिझक महसूस हुई। क्या ये कुछ भी नहीं समझती। वो अचानक तख़्त से उठ खड़ा हुआ और बाहर जाने से पहले एक बार पलटकर उसे देखा वह अब भी पोटली लिए कश्मकश से उसे देख रही थी।

"आज पहली बार देखा है ...मुंह दिखाई समझ लेना" उसने कहा और बिना कोई जवाब सुने तुरंत बाहर निकल गया।

उसके जाते ही नज़ीरन ने पोटली खोलकर देखी। नई डिजाइन की खूबसूरत-सी पाज़ेब...वो भी अठन्नी के बदले... वह मुस्कुराई। पहली बार उसे तोहफ़ा मिला वह भी इतना महंगा... उसे पाज़ेब बेहद पसंद आयी ...उसने पहनकर देखी लगा पांव की खूबसूरती में चार चांद लग गये हैं...वो एकटक अपने पांवों को निहारती रही जैसे ख़ुद पर ही रीझ गयी हो।

उस रात मुश्ताक़ बार-बार उसके ख़यालों में आता रहा और वह हर बार कसमसाकर करवटें बदलती रही। उसदिन के बाद से तो उसका मिलना हकीक़त में होने लगा। दोनों एक दूसरे में घंटो खोये रहते। कभी-कभार वह फूलवाली गली से गजरे ख़रीद लाता और उसके बालों में गूंथ देता। दोनों के ज़िस्म से उठती पसीने की भीनी-भीनी गंध एक दूसरे को अपनी ओर खींचती...और एकदिन सब्र की उफनाती दरिया ने सारे बाँध तोड़कर सबकुछ अपने आगोश में ले लिया।

मगर ऐसी बातें छुपती कहाँ हैं। अम्माजान को पता चला तो जैसे उन्हें सांप सूंध गया था वह फुंकार उठी। कहाँ तो उन्होंने सोचा था कि "नथ उतराई" की रस्म पर किसी भी नवाबजादे से मोटी रक़म ऐठेगीं मगर उससे पहले ही उनके अरमानों पर तुषारापात हो गया।

उन्होंने नज़ीरन को तलब किया और इस बाबत पूछा तो उसने बिना झिझक के क़ुबूल कर लिया। अम्मीजान का ग़ुस्सा सातवें आसमान पर था-"क्या इसमें तुम्हारी सहमति भी शामिल थी?"

नज़ीरन ने हाँ में सिर हिला दिया।

"तुम्हें ज़रा भी लाज़ शर्म न आई" उन्होंने दांत पीसे।

"जिस कोठे पर शर्म लिहाज़ का ही सौदा किया जाता हो वहाँ कैसी लाज़ शर्म और वैसे भी हमारी लाज़ शर्म तो उसी दिन बाज़ार में नीलाम हो गई थी जिस दिन मुझे बेचा गया था। आज नहीं तो कल आप भी हमारे शर्म लिहाज़ का सौदा करतीं ही।"

यह तल्ख़ सच्चाई वह बोल तो गई थी जिसे अम्माजान ने महसूस भी किया मगर कोठे पर ऐसी वारदातें ही होने लगीं तो...आज एक ने बग़ावत की कल कोई और करेगा लिहाज़ा वह चीखीं-"यहाँ हमारी हुक़ूमत चलती है...लिहाज़ा हमारी सहमति शामिल तो होती"

"सीधे-सीधे कहिए आपका नुक़सान हो गया।"

"नज़ीरन...आज तुम बद्ज़बानी पर उतर आयी हो...अंजाम जानती हो"

"मुआफ़ी चाहती हूँ अम्माजान... मगर आपको याद होगा आपने ही कहा था बग़ैर मेरी मर्जी के कोई मुझे छू नहीं सकता फिर आज मेरी मर्जी का ख़याल क्यों नहीं?"

जैसे किसी ने गर्म तवे पर पानी उड़ेल दिया हो। वो मन मरोसकर रह गयीं। इसका कोई जवाब उनके पास न था। अब किस मुंह से उसे कटघरे में खड़ा करतीं। आगे उनका कुछ कह पाना संभव न था चुनांचे वह पांव पटकते हुए वहाँ से उठ कर चली गई। हालांकि यह कसक उनके दिल में हमेशा बनी रही कि नज़ीरन की बदौलत वह मोटी क़ीमत वसूल न कर सकीं...और इस बग़ावत में उनका अपना ख़ून भी शामिल था। वैसे वह चाहतीं तो ये बात छुपाकर किसी भी रईसजादे से मोटी रक़म वसूल लेतीं मगर वह वसूलों के खिलाफ़ जाकर बेइमानी न कर सकीं। लेकिन इस सदमे से उनके दिल को ज़बर्दस्त धक्का लगा था और उसी दिन से वह धीरे-धीरे छीजती रहीं...और अंततः एक साल के भीतर ही अल्लाह को प्यारी हो गयीं।

नज़ीरन की बेचैनी धीरे-धीरे बढ़ती जा रही थी। मुंह लगातार सूखता जा रहा था। उसने एक गिलास पानी और पिया फिर गिलास मेज़ पर रखकर उसने गौर से अलमारी की ओर देखा। सामने ही संदूक रखी थी। वो उठी। कांपते हाथों से संदूक को उठाकर तख़्त पर रखा। किसी कश्मकश में वह कुछ पल संदूक को देखती रही फिर उसने कुंडी खोल दी। उफ़्...उसके कपड़े... जो कभी घर से पहनकर उस मनहूस दिन को निकली थी...अम्मा ने ईद पर अपने हाथों से सिले थे। उसकी आंखे भर आयीं। ईद पर इन्हें पहनकर वह पूरे मोहल्ले में कुलाचें भर रही थी। उसने एक बार उनपर हाथ फेरा...मखमली-सा अहसास उसकी उंगली की पोरों में उतर आया और साथ में अम्मा का चेहरा भी जैसे इन कपड़ों में गुंथा था...आंखें बरस पड़ना चाहती थीं। उसने कपड़े किनारे रख दिये। अब एक ताबीज़ नज़र आया था जिसे एक पीर बाबा से फुंकवाकर अम्मा ने उसके गले में धागे से पहना दिया था ताकि वह बुरी नज़र से बची रहे मगर कहाँ बच सकी...पीर बाबा कि दुआएँ भी काम न आ सकीं। आख़िर में उसने पोटली उठाई। उसे खोला। पाज़ेब आजतक वैसी की वैसी रखी थी बस उसमें जरा-सा स्याहपन उतर आया था ठीक वैसे ही जैसे उसके रिश्ते में उतर आया है।

आज नवाब साब तशरीफ़ लाएंगे। ख़्वाज़ासरा वज़ीर खान बताकर गया है। उसने सुना तो मारे खुशी के लड्डू फूटने लगे। नवाब साब आज बड़े दिन बाद उसके कोठे पर तशरीफ़ लाएंगे उसके लिए भला इससे बड़ी बात क्या हो सकती थी। चुनांचे शीशमहल के सारे गाव तकिए, चादरें बदल दी गयीं। फर्श पर बिछे रंगीन कालीन को साफ़ कर दिया गया। नया पानदान और हुक्का क़रीने से सजा दिया गया। पीकदान के दाग़ धब्बों को साफ़ कराने के लिए मुश्ताक़ को उसने चौक भेजा था। छत और दीवारें भी साफ़ कर दी गयी थीं। मेहराबदार दरवाज़ों पर नये रेशमी पर्दे टांग दिए गये। वो बारीक़ी से एक-एक काम का जायज़ा ले रही थी कि कहीं कुछ चलताऊ न रह जाए। आदमकद आइने झाड़ पोछकर चमका दिए गये तो उसमें उसका सुर्ख़ गुलाबी चेहरा और हसीन हो उठा।

जाड़े के दिन थे। आफ़ताब उनींदा से होकर मग़रिब में सोने के लिए बेताब था। शाम के छः बजते ही नवाब साब शीशमहल में हाज़िर हो चुके थे। उनकी मेहमाननवाज़ी का पूरा इंतज़ाम था। शाम रंगीन हो उठी। तबले की थाप के साथ हारमोनियम के स्वर फ़जाओं में तैरने लगे और इसके साथ ही नज़ीरन के घुंघरुओं की झंकार अपने पूरे शबाब पर आ गयी। नवाब साब उसके हुस्न को देखकर अस्-अस् कर उठे। कमर में लचक...सुरमई आंखों में हया...होंठो पर लर्ज़िश...गालों पर सुर्खी...और संगीत की जुम्बिश पर थिरकते उसके पांव... वह उसे एकटक देखते जाते...और बीच-बीच में हुक्के की नली छोड़कर हाथ लहरा लहराकर तारीफ़ करते जाते।

क़रीब एक घंटे उसके पांव लगातार थिरकते रहे और होठों से ग़ज़लें बिखरकर शाम को मदहोशी में ढालती रहीं और इस तरह आख़िरी ग़ज़ल के साथ ही संगीत की महफ़िल थमी तो उन्होंने अपने गले का हार उसकी ओर उछाल दिया।

उसने झुककर उन्हें आदाब किया फिर एक पान उनकी तरफ़ बढ़ाया।

"हुज़र ख़ास आपके लिए"

नवाब साब ने पान लेने के बहाने उसकी उंगलियों को छुआ तो ऐसा महसूस हुआ जैसे उनके ज़िस्म में सनसनी भर गयी है। उन्होंने एक नज़र उसे गौर से देखा। पान मुंह में रखा और मुस्कुराते हुए बोले-"पूरे लखनऊ में मुझसे बड़ा शायद ही कोई तुम्हारा क़दरदान हो"

नज़ीरन ने सुना तो मुस्कुराई-"हज़ूर इस बात से किसे इन्कार है मगर मुश्ताक़ भी मुझे दिलोजान से चाहता है"

उसने बड़े सलीके़ से अपनी बात रखी थी मगर नवाब साहब को बात चुभ गयी "टके के आदमी से मेरी बराबरी" उन्होंने मन ही मन सोचा फिर ज़रा नाराज़गी से बोले-

"मतलब हमसे भी ज्यादा"

"हुज़र! ऐसा हमने कब कहा... हम तो आपकी रिआया हैं ...आप की मेहरबानी बनी रहे"

"मगर मुशताक़ तुम्हें दिलो जान से चाहता अभी तुमने यही कहा न"

"मुझे इस हकीक़त से भी इन्कार नहीं"

"तब तो आज इम्तेहान देना होगा"

"कैसा इम्तेहान हुज़ूर?" वह सहमी।

"मुहब्बत का"

"मुहब्बत का इम्तेहान...मैं कुछ समझी नहीं"

नज़ीरन को लगा अब मामला हाथ से निकल चुका है उसने नाहक मु्श्ताक़ का नाम ले लिया "या अल्लाह रहम कर" वह मन ही मन बुदबुदाई।

"अभी जब मैं इधर आ रहा था तो आंगन में एक मोटा लकड़ी का ठूंठ दिखा था अगर मुश्ताक़ तुम्हें चाहता है तो उसे कुल्हाड़ी दे कर कहो कि उसे चीरकर दस टुकड़े कर दे।"

"हुज़र ये कैसा इम्तेहान है?" कहते समय वह कसमसाई

"हम आज यही देखना चाहते हैं"

"ख़ैर हुज़ूर की जैसी मर्जी... उससे कहती हूँ"

वो कुछ देर ठहरकर सोचती रही फिर मुश्ताक़ को आवाज़ लगाई। वह हाज़िर हुआ और सामने नवाब साब के देखकर झुकर सलाम ठोका।

"आज नवाब साब मेरे हाथ का बना हुआ हलवा खाना चाहते हैं और चूल्हे के लिए लकड़ियाँ नहीं हैं। तुम ऐसा करो आंगन में जो ठूंठ पड़ा है उसे चीर दो ताकि मैं हलवा बना सकूं।"

"लकड़ी चीरने का शऊर हमें नहीं है... तुम जानती हो नज्जो...हाँ मैं टाल से लकड़ी ले आता हूँ तब तक तुम और इंतज़ाम करो"

"नवाब साब जल्दी में है कितना भी जल्दी करोगे देर हो ही जाएगी वैसे भी पुराना ठूंठ है दो-चार कुल्हाड़ी में अलग हो जाएगा"

"तुम समझती क्यों नहीं यह मेरे बस का नहीं... कभी नहीं किया मैंने" उसके चेहरे पर उदासी उतर आयी।

"रहने दो नज़ीरन... फिर कभी... अब चलता हूं" नवाब साब उठने लगे।

"हुज़ूर ज़रा ठहरिये तो"

उसने इल्तिज़ा करते हुए कहा तो नवाब साहब फिर से बैठ गये। उसनेदुबारा मुश्ताक़ की ओर देखा। उसके चेहरे पर कशमकश थी मगर उसने ज़रा सख़्ती से कहा-

"मुश्ताक़ आज तुम्हें ये ठूंठ चीरना ही पड़ेगा तुम्हें मेरी क़सम"

"इतनी बड़ी बात" मुस्ताक़ ने एक नज़र नज़ीरन को देखा। उसका चेहरा एकदम सख़्त था। वो पलटा। भागकर नीचे पहुँचा। शम्आ की रौशनी तेज़ की और कुल्हाड़ी लेकर ठूंठ पर पिल पड़ा।

दोनों छज्जे पर आकर उसे देख रहे थे। वह लगातार कुल्हाड़ियाँ चलाए जा रहा था मगर ठूंठ पुराना होने के बावजूद ठस से मस न हो रहा था। कुल्हाड़ी का हर ज़ोरदार वार वह सहता मगर उसने जैसे क़सम खा रखी थी...वो चीरे जाने को तैयार न था।

अब तो हर वार पर चिंगारियाँ निकलने लगी थीं मगर वह पागलों की तरह बिना रुके दनादन कुल्हाड़ियाँ चला रहा था। उसके पांव कांपने लगे ज़हन में जैसे लावा भर गया था। कनपटी की नसें चटक जाना चाहती थीं। जाड़े का मौसम होने के बावजूद उसका पसीना उफनाई गोमती की तरह बह रहा था। कुल्हाड़ियों पर कुल्हाड़ियाँ बरस रही थी। हर अगला वार जैसे जलजला लेकर आने वाला था। मुश्ताक़ पर पागलपन की इन्तेहा थी। बावजूद इसके अब तक ठूंठ ज़रा भी न हिला था।

क़रीब दस मिनट के बाद उसकी हिम्मत जवाब देने लगी। कांपते पांवों के सहारे खड़ा रह पाना अब मुश्किल था। उसने बड़ी हसरत से पलटकर नज़ीरन को देखा। शायद वह उसकी हालत देखकर रोक दे मगर नज़ीरन के चेहरे पर ऐसा कोई भाव पढ़ने में वह नाकाम रहा। अलबत्ता वह नवाब साहब से मुस्कुराते हुए बातें कर रही थी।

उसकी दिमाग़ की नसें चटक गयीं। कुल्हाड़ी दुबारा ताबड़तोड़ चलने लगी। अपनी पूरी ताक़त लगाकर उसने जैसे ठूंठ साथ जंग छेड़ दी थी। करीब पांच मिनट बाद उसने ठूंठ के दो टुकड़े कर दिए। पहली फतह मिलते ही जुनून और बढ़ गया फिर तो उसने ठूंठ का क़ीमा बनाकर पूरे आंगन में छितरा दिया फिर कुल्हाड़ी एक तरफ़ उछाली और झटके से बाहर निकल गया।

नवाब साहब हैरान थे। नज़ीरन से आँख मिला सकें इतनी ताब उनमे न थी। चुनांचे नज़रें झुकाकर आहिस्ता से बोले-"अच्छा... मैं फिर आऊंगा" और नीचे उतर गये।

रात के ग्यारह बज चुके थे। मुश्ताक़ का कहीं अता-पता न था। उसे खोज कर लाने के लिए दरबान को भेजा गया था मगर वह न मिल सका। नज़ीरन का एक-एक लम्हा जैसे सदियों की तरह बीत रहा था आख़िर कहाँ गया होगा? जब तक मेरी गोद में सर रखकर आधे घंटे लेटता नहीं उसे नींद नहीं आती। शायद ही इन तीस सालों में कोई मौक़ा ऐसा रहा हो जब बिना उसके सोया हो। कई बार वह मुजरे के लिए बाहर भी गई है तो भी मुश्ताक़ उसके साथ ही गया ...फिर क्यों नहीं आया आज? शाम से ही उसने कुछ न खाया था...क्या उसने कुछ खाया होगा? पहला निवाला मुंह में रखते ही मेरी याद न आयी होगी...आजतक ऐसा नहीं हुआ कि मुझे अपने हाथों से खिलाये बिना कभी उसने कुछ खाया हो। वो पूरी रात बेचैनी मैं इधर से उधर की कोठे में भटकती रही। उसे महसूस हुआ वह मात्र एक चलती फिरती लाश है जिसकी रूह उससे जुदा हो गयी है।

क़रीब आठ बजे सुबह मुश्ताक़ नमूदार हुआ।

नज़ीरन ने उसे देखा तो बदहवास-सी उसकी ओर बढ़ी और शिक़ायती लहजे़ में बोली-

"रात भर कहाँ थे तुम।? ...मेरे बारे में ज़रा भी न सोचा"

वो ये सोचकर आगे बढ़ी थी कि उसके कांधे पर सर रखकर फूट-फूटकर रो लेगी मगर उसने हाथ लहराकर बीच में ही रोक दिया-" ठहरो नज़ीरन

उसके पांव जहाँ के तहाँ जम गए जैसे काठ मार गया हो "नज़ीरन...आज इतनी अजनबीयत"

वो बदहवासी में बुदबुदाई-"मगर मैं तो तुम्हारी नज़्जो हूं"

"मेरी नज़्जो उसी पल-पल मर गई नज़ीरन, जिस पल मुझे अपनी मोहब्बत का इम्तेहान देना पड़ा।"

"तुम मेरी बात तो सुनो मुस्ताक़"

वो बिफर उठी।

"मैं पूरे तीस साल तुम्हें सुनता रहा तुमने जो भी कहा मैं बिना सवाल-जवाब किये करता रहा...मगर अब नहीं... लौटकर आया इसलिए हूँ ताकि जान सकूं तुम्हारे इम्तेहान में मैं पास हुआ था या फे़ल"

नज़ीरन के होंठ लरजे मगर लफ़्ज़ हलक से बाहर न आ सके महसूस हुआ गले में कुछ धसक गया है। बस सहमति में सिर हिलाया। आंखें उबल पड़ी।

"हाँ याद आया ...तुम्हारा एक पुराना कर्ज़ है हमपर" उसने जल्दी कुर्ते की जेब टटोली। अठन्नी निकालकर उसकी ओर बढ़ा दी और बाहर जाने के लिए मुड़ा फिर एक नज़र पलट कर उसे देखा-"अपना ख़याल रखना"

बदले में वह कुछ कहती इससे पहले ही मुश्ताक़ जा चुका था। उसकी आंखें बहुत देर तक शून्य में ताक़ती रहीं...शायद मुश्ताक़ लौटे ।

वो अब भी पाज़ेब हाथ में लिए जाने कहाँ खोई थी। अचानक दरवाजे़ पर आहट हुई और दरवाज़ा खुल गया। सामने सबीहा थी। उसने जल्दी-जल्दी दुपट्टे में अपना चेहरा छुपा लिया-"क्या हुआ? कम से कम अंदर आने की इजाज़त तो लेती"

"मुआफ़ करना बाजी.। नवाब साब आए हैं... आपसे मिलना चाहते हैं"

नवाब साब का नाम सुनते ही उसका मुंह कसैला हो गया। उसने सबीहा को हिक़ारत भरी नज़रों से देखा और बिफर पड़ी-"जाकर उनसे कह दो... नज़ीरन मर गई"