इलज़ाम / दीपक मशाल
बहुत हाथ-पाँव जोड़े उसने, रोया गिड़-गिड़ाया, मोहल्ले में अपनी इज्ज़त की दुहाई दी। लेकिन उन्हें ना पसीजना था सो नहीं पसीजे। मोहल्ले से गायब हुई मोटर साइकल की चोरी का इलज़ाम लगा कर, पूछताछ के लिए पुलिस उसे थाने ले गई। शुक्रवार का दिन था और शाम तक पुलिस के हथकंडे उसे यह कबूलवाने में नाकाम रहे थे कि चोरी में उसका हाथ था। उसे हवालात में डाल दिया गया। सोमवार से पहले जमानत के कोई आसार ना थे। एक निम्न-मध्यमवर्गीय आदमी के लिए इज्ज़त के अलावा देखने दिखाने के लिए और तो कोई दौलत होती नहीं, मगर दौलतमंदों के थाने में रहने वाले चौकीदारों ने आज वो दौलत भी लूट ली। जाने किसकी नज़र लगी कि उसकी गरीबी हालत ने उसे चोरी का भी आरोपी बना दिया।
अब मोहल्ले में कौन उसकी बात मानेगा कि उस पर लगा इलज़ाम झूठा है और वो इसे झूठा साबित करेगा भी कैसे। भविष्य को अमावस की रात में खोते देख उसने अपनी बेल्ट उतारी और उसकी कील अपने गले में घोंप ली। बलबला कर गले से निकलते खून को देख सारे थाने में हडकंप मच गया। आनन्-फानन में उसे हस्पताल पहुँचाया गया। बड़ी मुश्किल से जान बची, अगले दिन सुबह पता चला कि मोटरसाइकल बरामद हो गई, असली चोर पकड़ा गया। उसने कुछ राहत की साँस ली।
आजकल वह तारीखों के इंतज़ार में रहता है, अब उसपर आत्महत्या के प्रयास का मुकदमा चल रहा है।