इसी सहरा में कोई आईना तलाश करो / कृष्ण किशोर
इतिहास में पहले ऐसा कई बार हो चुका है, अब फिर ऐसा होता दिखाई दे रहा है। धीरे-धीरे, लेकिन गुप्त रूप से नहीं, अनेक देशों, समाजों के लोग अपने-अपने ढंग से बर्बरता के शिकजों से मुक्त होने की छटपटाहट में हैं। दूसरे देश और समाज जो आगे आ रहे हैं, वे अपनी पहचान की ओर भी बढ़ रहे हैं। हम कौन हैं, लोक बुद्धि के स्त्रोत कहां हैं - इन सब बातों की तरफ़ वे आज़ाद देश-समाज तेज़ी से वापिस जा रहे हैं - यानी मानसिक गुलामी के पंजे से आज़ाद होने का प्रयास ज़ोर पकड़ रहा है। शारीरिक रूप में तो 1950 तक लगभग सब देश आज़ाद हो चुके थे। अपनी मौलिकता की तरफ़ लौटने का सबसे बड़ा साधन उन की अपनी भाषाएं हैं जो उनकी शिक्षा का माध्यम भी बन रही हैं।
शुरू से ही आज़ाद देशों की शिक्षा की भाषा उनकी अपनी भाषाएं ही रही हैं। यूरोप इस बात का सब से स्पष्ट उदाहरण है। यूरोप के सब देशों की भाषाएं अलग-अलग हैं। वे देश लम्बे समय से राजनीतिक रूप से आज़ाद रहे। भाषा की शक्ति के विकास और मौलिकता के संबंध को वे अच्छी तरह समझते हैं। यूरोप वैसे भी अपने मूल्यों से चिपक कर जीने वाली कौमों का घर है। इसलिए वे सांस्कृतिक कायरता के शिकार भी हैं। उसी का परिणाम यह भी है कि वे अपनी भाषाओं के आगे अंग्रेज़ी या किसी अन्य भाषा को सन्देशवाहक से ज़्यादा हैसियत नहीं देते।
सन् 2004 में यूनेस्को द्वारा उच्च शिक्षा का डेटाबेस संकलित किया गया था (WHED - WORLD HIGHER EDUCATION DATABASE, UNESCO) । इसमें देशों की शिक्षा का माध्यम भाषाओं की विस्तृत तालिका भी थी। अंग्रेज़ी का नाम यूरोप में सिर्फ़ नाम-मात्र को ही आता है। इन देशों के प्राथमिक से उच्चतम् शिक्षा माध्यम की भाषा के स्वरूप की एक झलक यहां प्रस्तुत करना असंगत नहीं होगा -
आस्ट्रिया की जनभाषा जर्मन है - शिक्षा का माध्यम - जर्मन
चैक रिपब्लिक की - चैक, जर्मन और कहीं-कहीं इंगलिश
बोस्निया - बोस्नियन, सर्बियन, क्रोएशियन
बेल्जियम की - बेल्जियन, फ्रैंच और डच बल्गारिया की - बल्गारियन
क्रोएशिया की - क्रोएशियन डैनमार्क की - डैनिश
फिनलैण्ड की - फिनिश और स्वीडिश पुर्तगाल की - पोस्चुगीज़
आयरलैण्ड की - इंगलिश जर्मनी की - जर्मन
फ्रांस की - फ्रैंच ग्रीस की - ग्रीक
हंगरी की - हंगेरियन इटली की - इटालियन
नीदरलैण्ड की - डच नोर्वे की - नोर्वेजियन
पोलैण्ड की - पोलिश स्पेन की - स्पेनिश
स्वीडन की - स्वीडिश यू.के.(इंगलैण्ड) की - इंगलिश
स्विटजरलैण्ड की - फ्रैंच, जर्मन, इटालियन
ये सब देश किसी भी दूसरी भाषा को ज़रूरत की चीज़ से ज़्यादा नहीं समझते। इनके घर-बार सुरक्षित हैं, परम्पराएं सुरक्षित हैं, स्मृति सुरक्षित है, साहित्य और धर्म सुरक्षित है, साहित्य और धर्म से पैदा होने वाली मानसिकता सुरक्षित है। इनका आकाश-पाताल सुरक्षित है। अपनी पूरी गहराई में उतरने के लिए इन का समुद्र इनके पाँव तले और अपनी पूरी ऊंचाई तक उड़ने के लिए इन का आकाश सिर के ऊपर है। आर्थिक उतार-चढ़ाव इन की अपनी सुबुद्धि या कुबुद्धि के कारण मात्र उतार-चढ़ाव की वस्तु है। ये लोग बनावटी या बाहरी उत्तेजना में अनाप-शनाप भाषा या उस भाषा द्वारा अर्जित सीमित साधनों से अपने दिन-रात बदहवासी में नहीं गुज़ार रहे। अपने अकिंचन श्रमजीवियों को अशिक्षा, उपेक्षा और अवसरहीनता की कालकोठरियों में नहीं धकेल रहे हैं। अमेरिका का आतंक इन के सिर पर भी है लेकिन इन की लड़ाई एक सांझी संस्कृति और धर्म की वजह से हिंसात्मक स्पर्धा से इन्हें बचा लेती है। अमेरिका का वर्चस्व इतना अधिक, बनावटी या शोषक बन कर इनके यहां उपस्थित नहीं होता। एक जैसा रंग, धर्म, सांझा अतीत, संगीत और सांझी कला की परम्पराएं इन्हें एक सूत्र में बांधे रखती हैं। फिर भी अपनी-अपनी अलग भाषाएं इन सभी देशों की हैं। जिन से इन का अर्न्तमन निर्मित होता है। व्यापक स्तर पर सांझे संघर्षों और परम्पराओं को अपनी-अपनी भाषा के माध्यम से ये वहन करते हैं। इतनी अधिक सांझ होने पर भी अपने प्राणतत्व यानी अपनी भाषाओं को वे लोग चमड़ी की तरह नहीं, अपनी चेतना की तरह पहने हुए हैं। अंग्रेज़ी भाषा का यूरोप के देशों पर न दबदबा है, न प्रयोग और न ही उपयोगिता। यूरोप में अंग्रेज़ी केवल मात्र वैश्विक ज्ञान की सांझ का अन्तर्स्तरीय माध्यम है
2.
अंग्रेज़ी का वर्चस्व पहले सिर्फ़ उन्हीं देशों में था जो उन के उपनिवेश थे। फ्रैंच ही सभी अन्तर्राष्ट्रीय संगठनों और संस्थानों की भाषा थी। कला, साहित्य और विज्ञान में भी फ्रैंच तथा जर्मन भाषाएं ही आती थीं। यह कोई पुरानी बात नहीं है। दूसरे विश्वयुद्ध तक दुनिया की यही स्थिति रही। जिन पांच देशों के उपनिवेश दुनिया भर में थे, उन्हीं की भाषाएं वहां प्रशासनिक स्तर पर और बाद में उच्च शिक्षा के स्तर पर प्रयोग होने लगीं। फ्रांस, स्पेन, इंगलैण्ड, पुर्तगाल और कहीं-कहीं डच लोग मुख्य उपनिवेशक रहे। लेकिन उपनिवेशों में भी साधारण जन और उन की शिक्षा की भाषाएं उनकी अपनी भाषाएं थीं। इसलिए गुलामी में रहकर भी लोक संस्कृति, लोकभाषाएं, लोक संगीत, धर्म, परम्पराएं - सब से अधिक वहां का लोकमानस सुरक्षित रहा। उपनिवेशकों की भाषा और संस्कृति सीमित क्षेत्रों को ही प्रभावित करती थी। व्यापक तौर पर लोग अपना देशीय भरपूर जीवन जीते थे। इस भरपूर जीने में भरपेट जीना शायद शामिल नहीं था। दूसरे विश्वयुद्ध के बाद अमेरिका का आधिपत्य बढ़ा, उन का राजनीतिक और आर्थिक साम्राज्यवाद बढ़ा। पर उसके समानान्तर रूस, चीन तथा अन्य साम्यवादियों के उदय ने अमेरिका के प्रभुत्व को नियंत्रण में रखा।
अमेरिकी शोषण राजनीतिक और आर्थिक स्तरों पर सारे विश्व में तेज़ हुआ सोवियत संघ के विघटन के बाद। लेकिन इस की प्रतिक्रिया भी जल्दी ही शुरू हो गई। कुछ समय बाद ही वृहत्त स्तर पर देशों और समाजों को अपनी पहचान ख़तरे में नज़र आने लगी, उनकी स्मृति वापिस आने लगी। उन्हें जैसे रेत में दबा हुआ आईना मिल गया हो। अपनी पहचान की तरफ वापसी में भाषा की अहम् भूमिका है। लोग अपने उपनिवेशिकों की भाषाओं का जुआ कन्धे से उतार फेंकने में लगे हुए हैं। उन विदेशी भाषाओं की जगह वे अमेरिकी अंग्रेज़ी को नहीं अपना रहे हैं। अपनी भाषाओं ही को समृद्ध करने का एक अभियान जैसा है। यह मात्र शोषण के विरुद्ध प्रतिक्रिया नहीं है। जैसे-जैसे देशों की आज़ादी वयस्क होती जा रही है, अपने कुछ ख़ास होने के अहसास की शिद्दत भी बढ़ रही है।
लैटिन अमेरिका जो एक सदी से भी ज़्यादा पहले आज़ाद हो गया था, वहां स्पेनी भाषा ही हर स्तर पर बोली जाती है। प्रशासन, शिक्षा, शोध, साहित्य तथा डिपलोमेटिक - हर स्तर पर। केवल ब्राज़ील ही पुर्तगाली भाषा हर स्तर पर प्रयोग करता है। बाकी देश - अर्जेंटीना, पेरू, बोलिविया, कोलंबिया, चिले, क्यूबा, एक्वाडोर सभी सम्पूर्ण रूप से अपनी भाषा और संस्कृति में पूरी तरह डूबे हुए हैं, रचे-बसे हैं। इन की संस्कृतियां, राग-रंग, मार्डी ग्रा, नृत्य मुद्राएं और इन का लैटिन अमरीकी साहित्य जो स्पेनी भाषा में ही है - सब के होशो-हवास गुम किए हुए है। इन की भाषा और मौलिकता ही इनकी शक्ति है। ये सिर्फ़ तमाशे की चीज़ नहीं बने हुए हैं। अपनी अलग पहचान से इन्होंने सारी दुनिया को तमाशबीन बनाया हुआ है।
इस्लामिक देश चाहे किसी के भी उपनिवेश रहे हों, अमेरिकी साम्राज्यवाद से तंग आकर अपनी ही भाषाओं और अदबो-आदाब की ओर मुड़ कर देख रहे हैं। मिश्र जैसे देश पूरे पाश्चात्य रंग से रंगे जा चुके थे, लेकिन वे भी अब उस मानसिकता से मुक्त हो रहे हैं। बाकी देश - बहरीन, इरान, ईराक, जोर्डन, कुवैत, लेबेनान, लिबिया, सूडान, सीरिया, मोरोक्को, ओमान, कतार, सऊदी अरब, यमन, यूनाईटेड अरब रिपब्लिक सभी अरबी या फ़ारसी में अपनी पहचान बनाए हुए हैं। उपनिवेशिक कारणों से अंग्रेज़ी इन देशों में कुछ सीमा तक प्रचलित है। फिर भी इन की सांस्कृतिक और भाषिक पहचान ठेठ अपनी है - भीतर भी और बाहर भी। एक लम्बे शोषण के बाद ये देश सब से अधिक ख़तरनाक दौर से गुज़र रहे हैं। इन का संघर्ष सिर्फ़ धर्म का संघर्ष कह कर खारिज नहीं किया जा सकता। इन की मरुस्थली संपदा के लुटेरों ने ही इनके धार्मिक तत्व को झिंझोड़ा है। उनके कबीलाई रोमांचकारी रीति-रिवाज़, संगीत, नृत्य, भाषाओं की विपुलता और बंजारी संस्कृति ने सदियों से आधे से अधिक संसार को सम्मोहन की हद तक आकर्षित किया। बाकी आधा विश्व जिसे हम अमेरिका और यूरोप के रूप में जानते हैं, तब वजूद के जंगली स्तरों पर ही हांफ रहा था। आज यूरोप, लैटिन अमेरिका, दक्षिणी पूर्वी एशिया, मध्य एशिया, चीन, कोरिया, जापान, रूस अपनी मौलिकता के शिखर पर हैं। उन की भाषाएं और संस्कृति उन की आर्थिक और मानसिक पूंजी का आधार हैं और उनकी शिक्षा का माध्यम भी।
इन्डोनेशिया की अपनी अलग कथा है। वहां मलय भाषा से मिलती जुलती इन्डोनेशियन भाषा का हर स्तर पर प्रयोग होता है। वह मलेशियन भाषा का ही एक मिश्रित स्वरूप है। डच लोगों द्वारा उपनिवेशित होने के कारण कई डच शब्द भी प्रयोग होते सुनाई पड़ जाते हैं। पर 1945 के बाद ही इन लोगों ने हर स्तर पर अपनी भाषा का प्रयोग शुरू कर दिया - उच्चतम शिक्षा के स्तर पर भी। अपनी भाषिक स्वायत्ता को वे बहुत महत्व देते हैं।
अफ्रीका की स्थिति काफी भिन्न है। वहां गुलामों के व्यापार के साथ-साथ मिशनरियों ने भारी संख्या में जाकर ईसाई धर्म फैलाया। इस्लाम और ईसाई धर्मों वाले इन देशों पर फ्रांस या इंग्लैण्ड का राज्य रहा। अफ्रीका में अपनी लोकभाषाएं व्यापक स्तर पर प्रयोग की जाती हैं। 'अफ्रीकान' एक ऐसी भाषा है जो साउथ अफ्रीका के 90 प्रतिशत काले और 60 प्रतिशत गोरे लोग बोलते हैं। अंग्रेज़ी के साथ-साथ यह दूसरी भाषा के रूप में इस्तेमाल होती है। वहां अंग्रेज़ी के साथ साथ 'अफ्रीकान' भी शिक्षा का माध्यम है। अफ्रीका का अधिकतर शक्तिशाली साहित्य भी अफ्रीकान में लिखा गया है। अफ्रीका की दूसरी मुख्य भाषा है - स्वाहिली (Swahili)। साहिल से बना हुआ यह अरबी का शब्द है। 5 करोड़ से अधिक लोगों की यह भाषा दक्षिण में सोमालिया से लेकर उत्तर में मोज़म्बीक तक इस्तेमाल की जाती है। अंग्रेज़ी और फ्रैंच उच्च शिक्षा की भाषाएं ज़रूर हैं, पर इन का प्रभाव क्षीण पड़ रहा है। आर्थिक रूप से एशिया - ख़ासकर चीन वहां पाँव फैला रहा है। और इस्लामी अफ्रीका में उपनिवेशक भाषाओं का प्रभुत्व खत्म हो रहा है और वे अपनी राष्ट्रीय भाषाओं को आकार देने में लगे हुए हैं। साहित्य की भाषा को ही उच्च शिक्षा की भाषा बनाने का संघर्ष जारी है। अरबी, अफ्रीकान, स्वाहिली, तथा अन्य स्थानीय भाषाएं अंग्रेज़ी और फ्रैंच को अपदस्थ करने में लगी हुई हैं। जहां गोरे लोगों की आबादी अधिक है, वहां की बात दूसरी है। वहां भी अपनी पहचान की तरफ वापसी, अपने धर्म, अपनी भाषा का अभियान प्रतिक्रियात्मक कम, ऐतिहासिक अधिक है।
अफ्रीका में कई देशों की अपनी लोक भाषाएं थीं जो कभी लिखित रूप में नहीं आईं। उन देशों ने उपनिवेशिकों की भाषाएं अपना लीं। लेकिन शर्त यही रही कि उनकी कोई अपनी लिखित भाषाएं नहीं थी। अंग्रेज़ी या फ्रैंच वहां अपनाई गई जहां अरबी भाषा नहीं थी। फ्रैंच अपनाने वाले देश हैं - कांगो, रवांडा, सेन्ट्रल अफ्रीकन रिपब्लिक, बर्कानिया और अंग्रेज़ी अपनाने वाले देश हैं - इथियोपिया, लाईबेरिया, मलावी और केनिया।
3.
दुनिया का ज़्यादातर हिस्सा पिछले तीन सौ सालों में अंग्रेज़ी, स्पेनी, फ्रांसीसी, पुर्तगाली और डच जुबानों के संपर्क में आया। कहीं-कहीं सीधी गुलामी न होकर किसी साम्राज्य का प्रभुत्व रहा। वहां की अर्थतांत्रिकी के परिणाम स्परूप वहां की भाषाओं ने सीमा पार जाकर अपना प्रभुत्व जमाया। इस प्रक्रिया में कई मिश्रित भाषाओं का जन्म हुआ और कई लोक भाषाएं लुप्त भी हुईं।
पिछली सदी में जो मिश्रित भाषाएं विकसित हुईं, उन्हें कई भाषाविद Pidgen - पिजन भाषाएं भी कहते हैं। इन भाषाओं में कई भाषाओं के शब्दों और व्याकरणों का प्रयोग होता है। पिजन इंगलिश, पिजन फ्रैंच पश्चिमी अफ्रीकी देशों और कैरीबियन द्वीपों में विकसित हुईं। स्टैण्डर्ड अंग्रेज़ी और स्टैण्डर्ड फ्रैंच के समानान्तर ये भाषायें विकसित होती रहीं। इसी की परम्परा में गैर अंग्रेज़ी और गैर स्पेनी, गैर फ्रांसीसी पिजन भाषाएं भी पनपीं। दक्षिणी अफ्रीका के अरब लोगों ने और अमेरिका के मूल निवासियों ने ऐसी भाषाओं का विकास किया। राजनीतिक मज़बूरी के समानान्तर यह एक सामाजिक मजबूरी है। मूल निवासियों ने अमेरिका में चिनूक (Chinook) भाषा का विकास किया। जो भाषाएं पीढ़ियों तक प्रयोग के बाद लोकभाषाएं बन गईं, उन्हें क्रियोल (Creole) कहा जाने लगा। पश्चिमी अफ्रीका में पिजन इंगलिश के कई स्वरूप क्रियोल के रूप में स्थापित हो चुके हैं। अफ्रीकी पूर्व गुलामों में गीची भाषा विकसित हुई जो Gullah - गुला क्रियोल भाषा है।
इन सब की एक स्टैण्डर्ड भाषा भी है जो वहां के उपनिवेशकों की स्टैण्डर्ड भाषा है। वह अधिकतर सम्पन्न और पढ़े लिखे लोगों द्वारा बोली जाती है। दूसरे स्तर के लोगों के साथ दूसरी यानी कि क्रियोल भाषा का प्रयोग किया जाता है। अमेरिका में भी काले लोग अपनी स्थिति के बाहर Gullah की बजाय स्टैण्डर्ड इंगलिश बोलते हैं, हालांकि अपने साहित्य में इस का भरपूर उपयोग उन्होंने किया है। लंडन में भी निम्न स्तर के लोग Cockney Dialect में जीते हैं, ऊपरी स्तर के लोग पब्लिक स्कूल की स्टैण्डर्ड इंगलिश का इस्तेमाल करते हैं। लेकिन हमारे यहां अपनी समृद्ध भाषाएं होने पर भी मिश्रित भाषाओं वाली स्थिति बनती जा रही है।
4.
अन्तर्राष्ट्रीयता और वैश्विकता किसी एक देश के आधिपत्य से जितनी जल्दी मुक्त हो जाए, उतना ही अच्छा। हर क्षेत्र से लोग दूसरे देशों में पढ़ने-लिखने, सांस्कृतिक आदान-प्रदान के लिए जाते हैं। व्यापारिक ज़रूरतें अपने-आप में महत्वपूर्ण हैं लेकिन हम मानवीय पक्ष को लेकर ही वैश्विकता की बात करेंगे जहां शोषण तत्व इस विचार में बाधा न बनता हो। ज्ञान विज्ञान का सांझाकरण भी ऐसी ही आवश्यकता है जो किसी राजनीतिक या आर्थिक दबाव के तहत क्षेत्रीय प्रमुखता ग्रहण न करे। यह सही है कि अमरीकी शोषण-तन्त्र ने आज विश्व की एकता को खण्डित किया है और ज्ञान-विज्ञान की बढ़ती हुई एकसूत्रता तथा अंग्रेज़ी को विश्वव्यापी स्वीकृति मिलने की स्थिति को कमज़ोर किया है। इस्लामी और वामपंथी देश इस विषय में एकजुट होकर अमेरिका का विरोध कर रहे हैं। एशिया में चीन, वियतनाम, कोरिया, लाओस, कम्बोडिया सभी वामपंथी देश हैं, रूस के एक बड़े भाग को भी एशिया में गिना जा सकता है। कुछ ऐसे देश भी हैं जो विधिवत वामपंथी नहीं हैं लेकिन उनकी आर्थिक नीतियों का झुकाव उसी ओर है। वे भी अमेरिकीकरण के विरोधी हैं। सारा दक्षिणी अमेरिका, एशिया के बाकी देश - एकाध को छोड़ कर - अमेरिकी पूंजीवाद के खिलाफ़ हैं। यूरोप के आधे देश, विशेष रूप से पूर्वी यूरोप वामपंथी मानसिकता का है। अमेरिकीकरण के साथ अमेरिकी अंग्रेज़ी का सीधा सम्बन्ध है। किसी भी विशिष्टता के साथ इन देशों में अंग्रेज़ी सम्मानित नहीं है।
अमेरिका और यूरोप अपने तीन सौ सालों के वर्चस्व से नीचे धकेले जा रहे हैं। बाहरी तौर पर हास्यास्पद लगने वाली इस बात को अर्थशास्त्री तरह-तरह हमारे सामने रख रहे हैं। नई आर्थिक शक्तियां तेज़ी से उभर रही हैं। चीन, भारत, जापान, अफ्रीका के कुछ देश, दक्षिणी अमरीका महाद्वीप के कुछ हिस्से और गैर यूरोपियन गोरी जातियां आज एक चुनौती बनी हुई हैं। जिन देशों की धरती में तेल है, उन्हें बहुत अधिक महत्व अभी नहीं दिया जा सकता उन की भौगोलिक परिस्थिति के कारण, उनकी राजनीतिक बुनावट के कारण, प्रजातांत्रिक व्यवस्थाओं की कमी के कारण या उन की व्यक्तिगत शक्ति-केन्द्रिता के कारण। लेकिन बाकी देशों, समाजों में लोग अपनी ही दृष्टिकेन्द्रिता या आवश्यकता-जनित सामाजिक सुबुद्धि के कारण अपना रास्ता अलग बना रहे हैं। इसके विपरीत अमेरिका और यूरोप में विशेष शक्ति केन्द्रों का आन्तरिक ह्रास हो रहा है। बाहर से भी इतनी अधिक संख्या में लोग वहां पहुँच रहे हैं कि उनकी सफ़ेदपोशी मटियाली पड़ती जा रही है। इस सारे परिवर्तन को सारा विश्व गौर से देख रहा है। दूसरी बड़ी बात यह है कि उनका अत्याधिक धन का लालच उन्हीं की जड़ों को कमज़ोर कर रहा है। अपने ही अधपढ़े युवकों को काम न देकर वे बाहर सस्ते श्रम वाले समाजों में कारखाने लगा रहे हैं। चीन, ताईवान, सैण्ट्रल अमेरिका, दक्षिणी अफ्रीका, इण्डोचाईना इत्यादि पश्चिमी पूंजी से उद्योग-धन्धों में पनप रहे हैं। जैसे-जैसे इन देशों में आर्थिक स्वतन्त्रता आ रही है, इन की खोई हुई याद्दाश्त भी वापिस आ रही है। ये अपनी भाषा, अपनी संस्कृति, अपने लोक संगीत, अपनी लोक सम्पदा को धीरे-धीरे वापिस अपनी जनचेतना का हिस्सा बना रहे हैं। ये वे देश हैं जो धर्मों से इतने पीड़ित या प्रेरित नहीं हैं। इन देशों में एक मिश्रित समाज अपनी मिश्रित शक्ति का उपयोग कर रहा है। लेकिन भारत की आर्थिक प्रगति पश्चिमी पूंजी द्वारा लगाए कारखानों पर आधारित नहीं है। पश्चिम आज भी भारत को अपना क्लर्क ही बनाए हुए है। अमेरिका अपनी पूंजी से यहाँ कारखाने नहीं लगा रहा जिससे साधारण लोगों को काम मिल सके। वे हमारे यहाँ काल सैन्टरज़ बना रहे हैं। अंग्रेज़ी पढ़, बोल सकने वालों को क्लर्की का काम दे रहे हैं। अमेरिकी दफ्तरों, कम्पनियों, हस्पतालों, व्यापारिक केन्द्रों में बिलिंग करने या दूसरे किस्म के प्रोग्राम चलाने का काम यहां के कम्प्यूटर सैंटरों में दे रहे हैं ताकि उनके अपने पढ़े-लिखे लोग योजनाएं बनाने के या दूसरे मानसिक तौर पर सृजनशील, मौलिक नियन्ता होने के काम स्वयं कर सकें। एक नई तरह का बाबू कल्चर अपने असली रूप में भारत में स्थापित हो रहा है।
चीन जैसे देश इस बाबूगिरी में नहीं पड़े। उन्होंने पश्चिमी पूंजी से अपने लोगों को श्रम दिलाया। अनपढ़ या थोड़े पढ़े-लिखे लोग जहाँ काम कर सकें, ऐसे उद्योग लगाए। इस तरह ही जनसाधारण उत्पादन के काम में लगता है। अपने स्तर पर अपने साधनों से उत्पादन स्त्रोत आगे चल कर पैदा किए जा सकते हैं। हमारे देश में उत्पादन के विपरीत एक कुर्सी-कम्प्यूटर संस्कृति का जन्म हो रहा है। इस का सीधा असर हम इन से असम्बंद्धित क्षेत्रों में भी देख सकते हैं।
हमारे देश और समाज की असली शक्ति उत्पादन केन्द्रों में है - चाहे वे कारखाने हों या खेत या स्कूल। उन्हीं के बल पर हम आज बहुत कुछ निर्यात करने की स्थिति में पहुंचे हैं। दूसरे देशों की फाईलों का रोकड़ा तैयार करने की मुनीमगिरी से कुछ परिवारों में थोड़ा धन ज़रूर आ रहा है, लेकिन एक बड़ी कीमत पर। काम संस्कृति एक विकास-संस्कृति होनी चाहिए, ह्रास-संस्कृति नहीं। संकीर्ण और दृष्टिविहीन सम्पन्नता मानसिक विपन्नता की ओर ले जाती है। सच पूछा जाए तो अपने ही देश के उत्पादन स्त्रोतों से इसे श्रृंखलित किया जाना चाहिए। ऐसे केन्द्र जहां सब को काम मिल सके - हर तरह के पढ़े-लिखे व्यक्ति को, यहाँ तक कि अशिक्षित व्यक्तियों को भी - इसके लिए नितान्त पूंजीवादी अर्थव्यवस्था की आवश्यकता नहीं है। हमारे सामने लैटिन अमेरिका के देशों का स्पष्ट उदाहरण है। वे निजीकरण (Privatisation) का व्यापक विरोध करते हैं और पड़ोसी अमेरिकी महामण्डी उन का कुछ नहीं बिगाड़ सकती। सब से अधिक गौर करने की बात यह है कि वे सारे देश अपनी ही भाषा में यानी स्पेनिश में ही अपना सारा कारोबार, उच्चतम शिक्षा और शोध संस्थान चलाते हैं। सिर्फ़ मामूली औज़ार के तौर पर वे अंग्रेज़ी का इस्तेमाल करते हैं। वैज्ञानिक सांझ के लिए जितना ज़रूरी हो बस उतना ही। हमारा पड़ोसी चीन भी इस बात को समझता है। जापानी तो शुरू से ही इस बात को जानते हैं। चीन में पश्चिमी देश अपने काल सैन्टरज़ और साफ़्टवेयर सैन्टर इसलिए नहीं लगाते क्योंकि चीनियों को उस तरह की इंगलिश नहीं आती। लेकिन वे देश जानते हैं कि उनकी शक्ति का स्त्रोत हैं उनके उत्पादन केन्द्र और उनके साधारणजन।
भारत की जो भी आर्थिक उन्नति हुई, उसका कारण अंग्रेज़ी से जुड़ी नौकरियां नहीं थीं। इसका कारण यहां के अपने उद्योग धन्धे थे, कारखाने थे जो यहां के साधनों द्वारा, यहां के उद्योगपतियों द्वारा लगाए गए थे। इन दस सालों में भारत की निर्यात दर बहुत अधिक बढ़ी। उन देशों में भारत के उत्पादनों की अधिक निर्यात है जहां अंग्रेज़ी का बोलबाला नहीं है। लेकिन चमक-दमक अमेरिका या कैनेडा से लोगों के आने-जाने में और नौकरियां मिलने में ज़्यादा है। इस क्षेत्र में मिलने वाली नौकरियां चाहे बाहर हों या देश में - हमारा दूरगामी आधार कभी नहीं बन सकतीं। उन देशों की आर्थिक या राजनीतिक नीतियों में परिवर्तन इस व्यवसाय को चौपट कर सकता है। उनके काल सेंटर या साफ़्टवेयर का काम उनके एक राजनीतिक निर्णय की दया पर निर्भर है। इस व्यवसाय में उतना काम ही हमारे देश में अन्ततः बच पायेगा जितना हम मौलिक रूप से उनसे ज़्यादा अच्छा कर पायेंगे जैसे जापान की स्थिति है।
5.
हमारी शहरी संस्कृति और वातावरण एक भाषाहीन रिक्तता का धुंआधार फैलाव है। आधी-अधूरी भाषा ध्वनियों का मिश्रण लोगों के मुंह से बाहर तो आता है, लेकिन किसी के भीतर नहीं उतरता। वहीं आस-पास ध्वनियों का गुंज्जल बन कर हवा में घुल जाता है। कैसी भाषा है ये जो सभी बोल सुन रहे हैं। क्या इतना ही कहने सुनने को भाषा का अस्तित्व होता है? भाषा कहने और सुनने वालों में अर्थों और सम्बन्धों का पुल होता है। भाषा मात्र शारीरिक संकेतों की तरह अपनी बात समझा लेने का अदना माध्यम नहीं होती। इस तरह की भाषा में आप सिर्फ़ उठ-बैठ, चल-फिर सकते हैं, छलांग नहीं लगा सकते।
दूसरी भाषाओं के शब्द लेकर अपनी भाषाओं में वाक्य बोलना तो हमेशा होता रहा है। हिन्दुस्तानी भाषाएं तो बनी ही कई भाषाओं के शब्दों को मिलाकर। लेकिन आज जिस तरह की भाषाएँ हम बोल रहे हैं, वह शब्दों का भाषा में घुलमिल जाना या शामिल होना नहीं है। वह ऐसा सृजन नहीं है जिस के लिए लोक बुद्धि और लोक संस्कृति अपने आप को समृद्ध करने को हमेशा तत्पर रहती है। अनेक दिशाओं से आती हुई जलधाराओं का यह स्वाभाविक संगम जैसा नहीं है। यहां शब्द शामिल नहीं हो रहे हैं। वाक्यों को कहीं से भी तोड़ कर दूसरी भाषा का वाक्य रख दिया जाता है। .....
I want to go लेकिन I think, मैं नहीं जा सकता। You know क्या करूँ, मैं। I am helpless... इस मिश्रण को तर्क बना कर पेश किया जाता है कि भाषाएं तो हमेशा ही दूसरी भाषाओं से शब्द लेती रहीं हैं। पर यह नमूना दूसरी भाषाओं से शब्द लेना नहीं है। अभी तक यही होता आया है कि अपनी भाषाओं में जिन चीज़ों के लिए ठीक-ठाक शब्द नहीं होते, हम उन्हें आस-पास की भाषाओं से उठा लेते हैं। अंग्रेज़ी के बेशुमार शब्द हमने लिए हैं। आख़िर दो सौ साल की गुलामी क्या कुछ शब्द भी हमारी भाषा को दे नहीं जाएगी। लेकिन एक वाक्य या वाक्यांश अंग्रेज़ी में और दूसरा देसी भाषा में - एक फूहड़ बोल-चाल की भाषा से आगे नहीं जा सकता। हिंदी प्रदेश में तो हिंगलिश नाम तक प्रचलित भी हो गया है। अपने शोधपत्र इस भाषा में नहीं लिखे जा सकते, किताबें इस भाषा में नहीं लिखी जा सकतीं। अपने परीक्षाओं के प्रश्नपत्र या उत्तर इस भाषा में नहीं दिए जा सकते। ऐसा कहीं भी, किसी भी देश में नहीं है। मिश्रित भाषाएं हमेशा ही बोल-चाल की चीज़ रही हैं। लेकिन यह अर्थपूर्ण मिश्रित भाषा भी नहीं है। इसे किसी भी सृजनात्मकता के लिए अपनाया नही जा सकता।
आज का संकट मात्र यह नहीं है कि हम हिंगलिश या किसी अन्य मिश्रित भाषा को उच्च पद पर आसीन करना चाहते हैं। आज का संकट है अपनी भाषाओं को स्वच्छ रूप से किसी प्रकार की मान्यता देने से आनाकानी करना और एक विदेशी भाषा को पूर्ण वर्चस्व देकर सारी भारतीय कौम के भविष्य को अनदेखा कर देना। उन लोगों के भविष्य को अनदेखा कर देना, जिन्हें अंग्रेज़ी में शिक्षा प्राप्त करने के अवसर कभी नहीं मिलेंगे। यह ठीक है कि करोड़ों लोग आज भारत में अपनी अपनी भाषाओं के अख़बार पढ़ते हैं और अपनी भाषाओं में फिल्में देखते हैं। उसके मुकाबले में अंग्रेज़ी के अख़बार पढ़ने वाले, फिल्में देखने वाले बहुत ही कम हैं। दरअसल, भाषा के प्रश्न को एक गलत संदर्भ दे दिया गया है। सीधी बात यह है कि अपनी भाषा के बल पर दो रोटी कमाना आज मुमकिन नहीं है, चैन की नींद सोना मुमकिन नहीं है। दूसरी बात यह कि करोड़ों लोग अपनी भाषाओं की किताबें नहीं पढ़ते, अख़बार ही पढ़ते हैं क्योंकि हर सुबह अपनी असली सूरत देखने के लिए अपना ही आईना चाहिए। हम अपनी असली ज़िन्दगी में कैसे जीते मरते हैं, उसकी झलक अपनी ही भाषाओं में देखने को मन करता है। फिल्मों में भी हम अपनी इच्छाओं, वासनाओं, खुशियों, उदासियों, अपने अंतस में बहती हुई जीवन धाराओं को, गीत संगीत को, रागनृत्य को अपने निकट के स्त्रोतों से ही उमड़ता हुआ देखना चाहते हैं। मनोरंजन एक सफ़ेद नदी है जिसकी चांदी की धार में बह कर थोपी हुई ज़िन्दगी से मुक्ति का अहसास हमें थोड़ी देर के लिए बचा कर रखता है।
अनाप-शनाप मिश्रित भाषा अख़बारों और अन्य मीडिया में भी भरपूर नज़र आने लगी है। इसका सबसे बड़ा नुकसान यह है कि हमारे समाज के नितांत अक्षम और साधनहीन हिस्से भी इसे ज़रूरी चीज़ समझने लगे हैं। हमारे समाज की समस्या यह नहीं है कि एक भिखारी बच्चा मिश्रित भाषा में भीख माँग रहा है। समस्या यह है कि यह बच्चा अंग्रेज़ी माध्यम के स्कूलों में नहीं जा सकता जिस के आधार पर उसे रोज़ी-रोटी मिलेगी। आज भाषा का प्रश्न सीधा रोज़गार से जुड़ गया है। आप के पास अंग्रेज़ी है तो रोज़गार शायद है वरना अपने जिस्म को जिस भी भट्ठी में झोंक दो - दो रोटी शायद फिर भी नहीं मिलेगी। क्योंकि जिस्मों के लिए उस तरह की भट्ठियां बुझती जा रही हैं। काम न खेतों में हैं, न सड़कों पर। जहां काम है, उस की शर्त अंग्रेज़ी बन गई है। किसानों को आत्महत्या से कौन रोके? परिवारों को फांसी पर झूल जाने से कौन मना करे? लोग इस समस्या को सिर्फ़ ग़लत सरकारी नीतियों से जोड़ कर देखते हैं।
अंग्रेज़ी भाषा के दम पर कुछ लोग रोटी कमा रहे हैं यह कोई बुरी बात कभी भी नहीं रही। लेकिन इस भाषा के सम्मोहन के दो भारी नुकसान हुए हैं। एक तो यह कि अंग्रेज़ी के बल पर ही हमारे समाज में काम मिल सकता है वरना भूखों मरो या किसी छोटी-मोटी मज़दूरी तक ही सीमित रहो। अंग्रेज़ी नहीं आती तो शर्म आनी चाहिए। अंग्रेज़ी नहीं आती तो टोकरी कुदाली उठाओ, पत्थर तोड़ो, रिक्शा चलाओ, समान ढोओ, छोटी-मोटी करियाने की दुकान खोलो। चाय का खोखा खोलो या ढाबे में फुलके बेलो। दफ्तर में नौकरी, बिज़नेस या कारखाने में नौकरी के लिए अंग्रेज़ी आना ज़रूरी है।
6.
यह बात बिल्कुल स्पष्ट है कि आज से सौ पचास साल बाद भी हर बच्चे या हर परिवार को अंग्रेज़ी नहीं आएगी। फिर किस लिए एक ही तरह के लोगों के प्रभुत्व का हम पक्का प्रबन्ध कर रहे हैं? आज की अंग्रेज़ी स्थिति के पक्षधर इसे वैश्विक ज्ञान और संपर्क के लिए एक ज़रूरी शर्त के तौर पर पेश करते हैं। लेकिन, अपनी भाषा में वैश्विक शिक्षा दी जाना बिल्कुल संभव है। आधे से अधिक संसार, विशेष रूप से वयस्क आज़ाद देश अपनी-अपनी भाषाओं में वैश्विक शिक्षा दे रहे हैं, वैश्विक नागरिक तैयार कर रहे हैं। हम किसी भी तरफ मुँह करके खड़े हो जाएं, हमारा भविष्य हमारी ही भाषाएँ हैं - जिन्हें हम सदियों से जानते हैं। और सदियों से जिन्हें हमने समृद्ध होते देखा है, बदलते देखा है, नए हाथों में हाथ डालकर चलते देखा है। कितनी ही दूरदराज़ की धरतियों से आने वाली खुश्बुओं को, खूबसूरतियों को अपने भीतर जज़्ब करते देखा है। हमारी भाषाएँ बच्चे स्कूल जाने से पहले ही सीख लेते हैं। सिर्फ़ लिखना और पढ़ना स्कूल जाकर सीखना रह जाता है, ज्ञान संचय के साथ-साथ आगे-आगे ज़रूरत की भाषा का भी संचय होता रहता है। यही भाषा सीखने का नियम है। अनुभव जनित ज्ञान या ज्ञान जनित अनुभव ही भाषा के प्रसार का आधार बनते हैं। किसी भी भाषा की विज्ञान की शब्दावली हमारी भाषा का हिस्सा बन सकती है। वे शब्द हमारे वाक्यों में समा सकते हैं। इस समस्या को इतना बड़ा कर के देखना धूतर्ता लगती है या कुछ विशेष क्षेत्र के लोगों की लाभ आकांक्षा।
पूरी भाषा को आत्मसात करने के लिए पूरी सामाजिक, सांस्कृतिक, मानसिक और ऐतिहासिक सांझ की ज़रूरत होती है। जिस किसी भाषा के साथ भी ऐसी सांझ पैदा हो जाए, उस के लिए अतिरिक्त प्रचार प्रसार की आवश्यकता नहीं रहती। आज जिस भाषा, मुख्य रूप से अंग्रेज़ी के साथ हमारे भविष्य को जोड़ा जा रहा है, उस भाषा के साथ हमारे साधारणजन की सामाजिक सांझ इतनी भर ही रही है कि एक ने हुक्म दिया, दूसरे ने कहा यस सर! Yes Sir या No Sir से आगे ये सांझ कभी समाज में गई नहीं। दो सौ साल भारत में रहने के बाद भी कोई अंग्रेज़ हमारा पड़ोसी नहीं बना, किसी बाज़ार में उसकी दुकान नहीं रही। एक अदृश्य संपर्क ही उन लोगों से हमारा रहा। शायद इसी कारण भारत में रहकर अंग्रेज़ी में लिखने वालों का प्रभाव भी एक ख़ास तरह के प्रभुत्व की स्थिति से आगे नहीं गया। बाहरी देशों में साऊथ एशियन स्टडीज़ के विभागों तक ही वे नाम सीमित हैं। सामान्य धरातल पर उनकी कोई पहचान नहीं है। भारतीय मूल के लेखक जो विदेशों में ही पढ़े-लिखे, बड़े हुए या वहीं पैदा हुए और वहीं प्रकाशित हुए, उनकी स्थिति दूसरी है। लेकिन वे भी अपने लेखन की वस्तु भूमि के लिए हज़ारों मील दूर अपने मूल समाज में ही पहुंचते हैं।
एक जातीय दंभ भी मुद्दत तक इस बात पर आधारित रहा कि हमारे राजनीतिक मालिक हमारा नाम जानते हैं कि नहीं। लेकिन अब स्थिति यह होगी कि जनसाधारण हमें जानते हैं कि नहीं। अच्छे साहित्यकार हमारी अपनी भाषाओं में ही हुए हैं और उन्हीं का प्रभाव जनमानस पर पड़ा। अपनी ही भाषाओं के लेखक हमारी चेतना के वाहक रहे। बंगाली, मराठी, हिन्दी या अन्य दक्षिणी भाषाओं के लेखकों की लम्बी सूची है, वो लेखक जो घर-घर में अपना प्रभाव रखते थे। यह बात तब की है जब हम गुलाम देश थे या गुलामी से मुक्ति का संघर्ष कर रहे थे तब हम अपना भरपूर जीवन अपनी ही भाषा और संस्कृति में जीते थे।
7.
लगता है हमारे बच्चों को उस दुनिया में धकेला जा रहा हैं जहां भाषा के माध्यम से ऊँच-नीच सिखाई जाती है, छीना-झपटी सिखाई जाती है। अपने और दूसरों के भविष्य के अन्तर को भाषा के माध्यम से गोरा या काला करके दिखाया जाता है। आर्थिक क्षमता के साथ जुड़ने की वजह से भाषा के साथ ये सारे प्रश्न अपने-आप ही जुड़ गए हैं। पहली बार मानवता के प्रांगण में पैसे दोगे तो बोलना सिखायेंगे की अनहोनी हो रही है। एक भाषा उन के बस्तों में ठूंसी जा रही है। किसी ख़ास भाषा-संस्कृति को उस की सम्पूर्ण सामाजिक संदर्भहीनता और मानसिक रिक्तता में एक आतंक की स्थिति तक ग्लैमरस बनाया जा रहा है।
हमारी भाषाओं के साथ जुड़ी परम्पराएं हमें अनायास ही वह कुछ करने की प्रेरणा देती हैं जिस से हमारी अंतिम तृप्ति, पूर्णता और अन्तरदृष्टि जुड़ी होती है। हमारी भाषाएं हमें कलाकार, कवि, चिन्तक, दार्शनिक, नाटककार, अभिनेता, वैज्ञानिक और वह सब कुछ बनाती हैं जो हम अपनी गहराई में होना चाहते हैं। सिर्फ़ रोज़ी रोटी कमा सकना ही किसी को भी पूर्ण तृप्ति नहीं दे सकता। हमारी जातियां कहां-कहां से आईं और एक हो गईं। कितनी ही प्राचीन भाषाएं और उनके अपभ्रँश 5000 सालों से भी अधिक समय से हमारे चिन्तन के आगे-पीछे चलती हुई परछाईयां हैं। उस के बाद हमारी स्थानीय भाषाओं के साथ तुर्की, अरबी, फ़ारसी भाषा के रूपों की धाराएं इस धरती के मैदानों, पहाड़ों, घाटियों में बहने लगीं। उन भाषाओं के अनगिनत शब्द हम अपनी भाषाओं में दिन रात प्रयोग करते हैं। 800 साल पहले हमारी जुबान के अज़ीम शायर अमीर ख़ुसरो ने हिन्दुस्तानी ज़बान को आसमां पर चढ़ा दिया। उन की कृति ख़ालिकबारी ने अरबी फ़ारसी और हिन्दुस्तानी ज़ुबानों की वृहत्त धारा को समृद्ध किया। उन्हीं के इस शेर को याद कर लिया जाए -
गोरी सोई सेज़ पे, मुख पर डाले केस
चल खुसरो घर आपने रैन भई चहुं देस।
अलग-अलग हिस्सों में या एक साथ बोली जाने वाली भाषाओं का यह वटवृक्ष इतना घना और छायादार है कि अब भी अपनी थकान मिटाने के लिए हम उसी छाया में शरण लेते हैं।
8.
बहुत सी ऐसी बातें हैं जो अभी बहुत गहरे में उतर कर गुम नहीं हुईं। ज़मींदोज़ इतनी भी नहीं हुईं कि उन्हें मामूली सी कोशिश से खोद कर बाहर न निकाला जा सके। ये धरती तो इतनी नर्म धरती है, कोई सिरफिरा नाखूनों से खुरचकर अपना आप बाहर निकाल सकता है। लेकिन सिरफिरे कहां से लाएं। रात भर आसमान के नीचे बैठकर चलिए कुछ लोग पैदा करें जो नाखूनों से ये नरम धरती खोदकर हमारी मिट्टी की महक हवा में उछाल दें। अभी लगता है, सहर तो करीब ही है -
घनी है रात मगर सहर भी तो दूर नहीं
कितना बाकी है सफ़र सोचना दस्तूर नहीं।
अपनी पहचान से दामन झाड़ लेना भी क्या अकीदा है? साफ़ सुथरे बन कर घर से ऐसे निकले हैं कि खुद पर किसी और का गुमां होता है। इस लिबास और रंगोबू को गिरेबां किए हुए कोई ज़माने भी तो नहीं गुज़रे जो बेबसी में कहना पड़े -
अपनी बदहवासी में घर से हम निकल आए
कौन रोकता हम को किस के दीवाने थे हम
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(दिसम्बर 2006)