इस महाव्याधि को मिटाइये / सन्तराम बीए
भारत की सबसे महान् व्याधि जो इसे ले डूबी है, हिन्दुओं की जन्ममूलक ऊंच-नीच की दुर्भावना अर्थात् जात-पांत है। एक समय था जब कश्मीर से कन्याकुमारी तक और अटक से कटक तक सारा देश हिन्दू होता था। इतना ही क्यों, नौवीं शताब्दी में काबुल में भी पाल वंश के हिन्दू राजा राज करते थे। परंतु आज हम देखते हैं कि आधा पंजाब मुसलमान हो गया, आधा बंगाल मुसलमान हो गया है और आधा मद्रास ईसाई हो गया है। अनंत छोटी-छोटी जातियों में बंटे होने के कारण सब हिन्दू मिलकर विदेशी आक्रामकों का सामना नहीं कर सके। हिन्दू ऊपर से चाहे एक राष्ट्र दीख पड़ते हों, परंतु भीतर से झांका जाए तो इनकी जितनी जातियां और उपजातियां हैं उतने ही अलग-अलग राष्ट्र हैं। संसार का ऐसा कोई भी देश नहीं जहां के अधिवासी आपस में रोटी-बेटी का व्यवहार न करते हों। भारत ही एक ऐसा देश है जहां के अधिवासी आपस में बिल्कुल अलग-अलग पड़े हैं। स्वर्गीय डॉ. भीमराव आम्बेडकर कहा करते थे कि प्रजातंत्र शासन पद्धति वहीं सफल हो सकती है जहां की प्रजा में समता, बंधुता और स्वतंत्रता का भाव हो। जात-पांत की दुर्भावना इन तीनों का ही उलट है। जब तक सामाजिक सुधार न हो, राजनीतिक सुधार सफल नहीं हो सकता। इस समय भारत में प्रजातंत्र शासन बेशक है, परंतु जात-पांत की व्याधि से ग्रस्त होने के कारण जिस जाति का कोई व्यक्ति उच्चाधिकारी बनता है वह अपनी ही जाति के व्यक्ति को आगे लाने का यत्न करता है। किसी दूसरी जाति के योग्य से योग्य व्यक्ति को भी ऊपर नहीं उठने देता। इसमें उसका भी कोई दोष नहीं। जिस व्यक्ति के साथ हम खान-पान और बेटी व्यवहार कर सकते हैं, जितना प्यारा और अपना हमें वह लगता है, उतना वह दूसरा मनुष्य कैसे हो सकता है जिसके साथ छू जाने से ही हम अपने को अपवित्र मानने लगते हैं।
जात-पांत की दुर्भावना केवल तथाकथित ऊंची और नीची कहलाने वाली जातियों में ही नहीं है। अपने को ऊंचा कहने वाली और नीची कहलाने वाली जातियों के अपने भीतर भी यही फूट है। मालवीय जाति के ब्राह्मण दूसरी जाति के ब्राह्मणों के साथ और चमार जाति के अछूत महार जाति के अछूतों के साथ बेटी व्यवहार नहीं करते। सन् १९२९ की
बात है लाहौर में एक भट्ट सज्जन मेरे पास आए और रोकर मुझसे कहने लगे कि मैं तो मुसलमान हो जाऊगां। मैंने पूछा कि क्यों? वे बोले, मैं मालवीय ब्राह्मण हूँ। मेरी एक लड़की का विवाह पंडित मदनमोहन मालवीय के लड़के के साथ तय हुआ है। अपनी दूसरी लड़की के लिए मालवीय ब्राह्मणों में मुझे कोई लड़का नहीं मिला इसलिए मैंने उसका विवाह किया तो एक ब्राह्मण लड़के के साथ ही परंतु वह गैर मालवीय है। इस पर पंडित मदनमोहन मालवीय इतने सख्त नाराज हुए कि मेरी पत्नी के मरने पर भी उन्होंने अपनी बहू और मेरी बेटी को मेरे घर नहीं आने दिया। ऐसे धर्म में रहकर मैं क्या करूं।
इसी प्रकार की एक और बात सुनिए। पूना निवासी श्री राजभोज एम.पी. मेरे मित्र थे। इसी प्रकार डॉ. भीमराव आम्बेडकर भी मेरे मित्र थे। वे दोनों तथा कथित अछूत जाति के थे। मैंने श्री राजभोज से कहा कि आप अपनी बेटी का विवाह डॉ० आम्बेडकर के बेटे से कर दीजिए। वे बड़े जोश में आकर बोले, मैं अपनी बेटी डॉ० आम्बेडकर के लड़के को कैसे दे दूं। हम चमार तो अछूतों में वैसे ही ऊंचे हैं जैसे सवर्ण हिन्दुओं में ब्राह्मण। डॉ० आम्बेडकर तो महार हैं जो हमसे कहीं नीची जाति हैं।
जातिभेद राष्ट्रीय एकता के लिए ही हानिकारक नहीं व्यक्तिगत रूप से भी यह बड़ा हानिकारक है। हिन्दू अपनी बहन के साथ और अपने ही गोत्र में विवाह क्यों नहीं करते? क्योंकि एक ही रक्त में ब्याह करने से संतान उतनी अच्छी नहीं होती जितनी कि दूसरे रक्त में विवाह करने से होती है। घोड़े और गधे के मिलाप से जो खच्चर पैदा होता है वह उन दोनों से अधिक बलवान होता है। इसी प्रकार भारतीय और अंग्रेज के समागम से जो ऐंग्लो-इंडियन संतान उत्पन्न होती है, वह दोनों से अच्छी होती है। उसमें अंग्रेज का रंगरूप और भारतीय की आकृति आ जाती है। सफल सेनापति बनने के लिए व्यक्ति में केवल शारीरिक वीरता ही नहीं बौद्धिक विचारशीलता भी होना आवश्यक है। हमारे हिन्दू राजपूत वीर तो बहुत बड़े थे परंतु उनमें विचारशीलता बहुत कम थी। इसीलिए वे मुसलमान, तुर्कों और मुगलों का सामना न कर सके और भारत पर मुसलमानों का अधिकार हो गया। यदि राजपूत और ब्राह्मण का आपस में बेटी व्यवहार होता तो उनकी संतान में राजपूत वीरता और ब्राह्मण की दूरदर्शिता, दोनों आ जाते और वह सफल सेनापति बनते। मुसलमानों और ईसाइयों में जन्ममूलक ऊंच-नीच की ऐसी दुर्भावना न होने से उनमें ऐसे सैनिक उत्पन्न होते रहे जिनको हिन्दू योद्धा न हरा सके। इस बुराई की ओर हिन्दुओं का कभी ध्यान ही नहीं गया। जातिभेद की दुर्भावना के कारण लाखों हिन्दू तो मुसलमान और ईसाई हो गए। परंतु हम एक भी अहिन्दू को शुद्ध करके रोटी-बेटी के संबंध द्वारा आत्मसात् नहीं कर सके। एक ब्राह्मण एक मुसलमान तो दूर किसी हिन्दू कहार या तेली के साथ भी खान-पान नहीं कर सकता। किसी मुसलमान का छुआ पानी पी लेने मात्र से ही वह अपने आपको पतित और अहिन्दू समझने लगता है। मुसलमान या ईसाई तो वह है जो हजरत मुहम्मद या ईसा को
अपना गुरू मानता है। इसका खान-पान के साथ कुछ संबंध नहीं। मुसलमान मांस खाते हैं तो बंगाल के सभी ब्राह्मण, एक विधवा स्त्री के सिवा, मांस-मछली खाते हैं। उनका बना भोजन खाने से जब कोई हिन्दू मुसलमान नहीं बन जाता तो मांसाहारी मुसलमान के हाथ की बनी रोटी खा लेने से आदमी कैसे मुसलमान हो जाता है। पाकिस्तान बनने से पहले की बात है कि मैं लाहौर में रहता था। वहां एक शिया मुसलमान नवाब कजलवाश दहलवी भी रहते थे। वह ताजियों के उत्सव के बाद एक बड़ा सहभोज किया करते थे। उन्होंने मुझे निमंत्रण दिया कि आप जात-पांत नहीं मानते तो मेरे इस सहभोज में खाना खाने आइए। मैंने कहा कि मैं आऊंगा परंतु मेरे भोजन में मांस नहीं होना चाहिए। उन्होंने कहा बहुत अच्छा हम आपको मांस नहीं देंगे। मैं उनके यहां खाना खाने गया। वे मेरे लिए हलवा, खीर और फल लाए। मैंने वे सब बड़े आनंद से खाए। इससे वह बड़े प्रसन्न हुए। इसी प्रकार देहरादून में एक मुसलमान हलवाई से मैंने एक आने की मिठाई मांगी। वह बोला मैं मुसलमान हूँ। मैंने कहा मैंने तुमसे पूछा है कि तुम कौन हो? तुम मुसलमान हो तो क्या हुआ? तुम हिन्दुओं की मिठाई खाकर मुसलमान के मुसलमान रहते हो। मैं तुम्हारी मिठाई खाकर मुसलमान कैसे हो जाऊंगा? इससे वह बहुत प्रसन्न हुआ। और पल्ला भरकर मेरे लिए मिठाई ले आया। मैंने कहा कि मैंने तो केवल एक आना दिया है आप इतनी मिठाई क्यों दे रहे हैं? इस पर वह बोला-छोड़ो जी रूपये-पैसे की बात आप मिठाई खाइए। वह पूछने लगा कि आप ही इस विचार के हैं या और भी कोई है? मैंने कहा, हमारा जात-पांत तोड़क मंडल, सारे का सारा इसी विचार का है। इस पर वह प्रसन्न होकर बोला, यदि ऐसा हो जाए तो हिन्दू-मुसलमान का झगड़ा ही न खत्म हो जाए।
जात-पांत की व्याधि को मिटाने के लिए केवल आख्यान और सम्मेलन ही पर्याप्त नहीं। जात-पांत को मिटाने का प्रचार वही कर सकता है जिसने आप जात-पांत तोड़ी हो। नहीं तो
पर उपदेश कुशल बहुतेरे। आप करें सो नर न घनेरे।।
जनता के विचार बदलेंगे तभी सरकार भी जात-पांत को मिटाने का पूरा प्रयत्न करेगी। आज से कोई पचास साल पहले जात-पात तोड़कर किया हुआ विवाह कानून की दृष्टि से जायज नहीं होता था। ऐसे विवाह की संतान अपने पिता की जद्दी जायदाद की अधिकारी नहीं मानी जाती थी। हमारे जात-पांत तोड़ो मंडल ने ही सर हरिसिंह गौड़ को प्रेरित करके अंतर्जातीय विवाह को कानून संगत बनवाने का सफल प्रयत्न किया। हमारे मंडल की स्थापना स्वर्गीय भाई परमानंद जी ने सन् १९२२ में अमेरिका से आकर लाहौर में की थी। उन्होंने अपनी बिरादरी के विरोध की परवाह न करते हुए अपनी बेटी का विवाह
जात-पांत तोड़कर किया था। इसी प्रकार हमारे मंडल के और भी बहुत से सदस्यों ने जातपांत तोड़ी है। मेरे स्वर्गीय मित्र पंडित भूमानंद जी की सगाई एक ब्राह्मण लड़की के साथ हुई थी परंतु जब वे हमारे मंडल में आए तो उन्होंने वह सगाई छोड़ दी और हमने उनका विवाह मुल्तान की एक अरोड़ा लड़की के साथ कराया।
जातिभेद को मिटाने के लिए भाषणों की अपेक्षा लेखों की अधिक आवश्यकता है। लेख जितनी गहरी काट करता है और उसका प्रभाव जितना स्थायी होता है,उतना उच्चस्तर में गरजकर भाषण करने का नहीं। इसलिए हमें जात-पांत के विरुद्ध साहित्य बढ़ाते रहना और सुकर्म द्वारा जात-पांत तोड़कर एकता का प्रचार करते रहना चाहिए।।