इस शहर में हर शख्स परेशान सा क्यों है / ममता व्यास

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उस दिन ये गीत सुना --सीने में जलन आखों में तूफ़ान सा क्यों हैं? इस शहर में हर शख्स परेशान-सा क्यों है? और मैंने लोगो को उस दिन गौर से देखना शुरू किया। यकीन मानिए, उस दिन मुझे सुबह से शाम तक हर आदमी परेशान ही दिखा।

हम अपने आसपास दिनभर में कितने चेहरे देखते हैं। सड़कों पर, कार्यस्थल पर हर जगह बहुत से चेहरे। लेकिन क्या सभी चेहरों को आपने हंसते हुए देखा है? अक्सर लोग हैरान परेशान से दिखते है। खुश होते है भी तो ज़रा देर के लिए, मानो हँसने, खुश होने में भी उनके पैसे खर्च हो रहे हों। खुश होते भी है तो किसी कारणवश, मनचाहा हो गया तो खुश, नहीं हुआ तो नाखुश... अपने इच्छित लक्ष्य की प्राप्ति हो गयी तो खुश हो लिए। और जो लक्ष्य प्राप्त नहीं हुआ तो गहरी उदासी में डूब गए। चलिए देखे मनोविज्ञान की नजर में खुश होना या उदास होना क्या मायने रखता है।

खुश होना या उदास होना मनोविज्ञान की भाषा में भावनात्मक संवेगों का मामला है। हमारी आवशयकताओं की तुष्टि इच्छित लक्ष्यों की प्राप्ति,अनुकूल परिस्थतियाँ हम ख़ुशी देती हैं और ये ख़ुशी या उत्साह हमारे मस्तिष्क में सकारात्मक संवेगों के पैदा होने का कारण बनते हैं,और हम अच्छा महसूस करते हैं।और जब इनकी कमी या अभाव होता है तो ये उदासी और दुख का कारण बनता है। ये हम सभी जानते हैं।

हमारी ख़ुशी या उदासी की तीव्रता, इनकी आवृति, इनके पैदा होने की बारम्बारता हमारे व्यक्तित्व और उसके विकास के साथ जुडी हुई है। हमारे ज्ञान और समझ की अवस्थाएं क्या है, हमारी चीजों को विश्लेषित करने की क्षमताएं कितनी सटीक हैं, हमारी आत्म-मूल्यांकन की पद्धतियाँ और निरपेक्षता का स्तर क्या है, और हमने अपनी आवशयकताओं और लक्ष्यों के साथ अपने को भावनात्मक संवेगों को किस तरह जोड़ा है?

अगर हम अपने व्यक्तित्व का विकास कर रहे हैं, ज्ञान और समझ को, विश्लेषण क्षमताओं को बहा रहे हैं, अपनी महत्वकांक्षाओं को सीमित कर रहे हैं, और अपनी आवश्यकताओं और लक्ष्यों के साथ भावनात्मक जुड़ाव को कम करते जा रहे हैं तो निश्चित ही हम अपन संवेगों के नियंत्रण और नियमन में सक्षम बनते जाते हैं। और इसके विपरीत होने पर हम अपनी संवेगों के दास होते जाते हैं। यही पर हम गलती करते हैं। हमें संवेगों का दास नहीं बनना है। इसे इस तरह समझे।

रोजमर्रा के जीवन में हम रोज कई तरह की आवश्यकताओं और आकांक्षाओं से जूझते हैं। ये आवश्यकताएं ये इच्छाएं और इनके पूरी होने की आकांक्षा करना। उन्हें पूरा करने के लक्ष्य बनाना और अपनी परिस्थतियों का विश्लषण करना और लक्ष्यों की अनुकूल हालत बदलने की कोशिश करना।

यदि व्यक्ति हालातों का सही विश्लेषण करे और अपनी काबिलियत पर गौर करे, सही मूल्यांकन कर, योजना बनाये तो वो यकीनन अपने लक्ष्य को प्राप्त कर सकता है। अपने हालातों का सही आंकलन नहीं कर पाना, योजना नहीं बना पाना, और परिवर्तनों का स्वागत नहीं कर पाना उदासी और दुखों का कारण बनता है।

लक्ष्य की प्राप्ति जहाँ व्यक्ति को आनन्द और ख़ुशी से भर देती है। वहीँ लक्ष्य की प्राप्ति ना होने से दुख, पीड़ा और उदासी से घिर जाता है। जब ये उदासी बहुत दिनों तक बनी रहे तो अवसाद की स्थिति आ जाती है।

व्यक्ति, यदि अपने लक्ष्यों के प्रति भावनात्मक रूप से ज्यादा जुड़ जाए तो भी अति दुखी होने लगता है। वो दूसरी चीजों जैसे कि प्रतिष्ठा, सम्मान, अस्तित्त्व आदि के साथ जोड़ लेता है तो जाहिरा तौर पर खुश, उदासी और दुख कि तीव्रता को और बढ़ा लेता है। वह ज्यादा ही खुश होता है, ज्यादा ही उदास होता है, ज्यादा ही अवसाद से घिर जाता है।

जब हम चीजों को वस्तुगत रूप से कम तथा आत्मपरक रूप से ज्यादा देखने लगते हैं, मतलब हम चीजों को अपने हितों के सापेक्ष तौलने लगते हैं, हित के अनुकूल आकांक्षाएं पालने लगते हैं। हम चीजों से भावनात्मक रूप से इतने ज्यादा जुड़ जाते हैं कि उनके प्रति निस्पृह रहने कि बजाए उन्हें खुश या दुख का जरिया बना लेते हैं। तब हम बहुत दुखी या बहुत खुश होने लगते हैं। दोनों ही चीजे ठीक नहीं होती।

उदाहरण के लिए ----दो उदाहरण से बात समझती हूँ। मिस्टर शर्मा और मिसेस शर्मा; दोनों ही बहुत जल्दी बहुत सा पैसा कमाना चाहते थे। इसलिए वो हमेशा लाटरी का टिकर खरीदते हैं, जब कभी संयोग से लाटरी लग गयी, लाभ हुआ तो इतने खुश हो गए की खुद को खुदा मानने लगे और अगली बार बहुत सा पैसा फिर लाटरी में लगा दिया। अबकी बार सारा पैसा डूब गया। अब इतने दुखी हो गए की पूरे परिवार के साथ आत्महत्या करने की बात सोचने लगे। उनकी नजर में उनका जीवन व्यर्थ हो गया था। हमारे आसपास बहुत से ऐसे उदाहरण है।

अख़बारों में हम आये दिन पढ़ते हैं की फलां युवक या युवती ने, परीक्षा में कम नंबर आने की वजह से आत्महत्या कर ली। या किसी प्रेम सम्बन्ध में असफलता मिलने पर जीवन समाप्त कर लिया।

यही नहीं इसे भी देखिए --इक पति, जब आफिस से या दुकान से थकाहारा घर आता है तो, परिवार से अपेक्षा करता है, खासकर पत्नी से की उसका गर्मजोशी से स्वागत किया जाए। और घर पहुँच कर जब पत्नी शिकायतों का पिटारा खोल देती है तो वो नाखुश हो जाता है। ठीक इसके विपरीत, दिनभर घर में काम करने वाली पत्नी, अपेक्षा करती है की उसका पति उसकी सारी बाते ध्यान से सुने, की कैसे उसने पूरा दिन घर और परिवार को संभालने में बिताया। लेकिन पति महोदय यदि आते ही कहे तुम दिनभर करती क्या हो? बस, यही वो क्षण है जो ख़ुशी का बन सकता था लेकिन उसे हमने अपने गलत व्यवहार से दुख में बदल दिया। हम दिन भर में कई बार अपने गलत व्यवहार, अपेक्षा और उम्मीद की वजह से दुख को आमंत्रण देते हैं। ख़ुशी को महसूस नहीं कर पाते। मुस्कान आ ही नहीं पाती होठों पर, और चेहरे पर हैरानियाँ, परेशानियां चस्पा हो जाती हैं।

तो फिर इस समस्या का समाधान क्या है? समाधान बस इतना सा है की, हमें अपनी मानसिकताओं और वास्तविकताओं को टटोलना होगा। अपना मूल्यांकन करना होगा। मूल्यांकन के बाद अपने व्यवहार में परिवर्तन करना होगा। इससे हालात बदलेंगे। व्यक्तित्व का विकास होगा। हमें अपने व्यक्तित्व का विकास करना होगा।अपना ज्ञान और समझ बढानी होगी। जीवन को दुख उदासी के दलदल से निकालना होगा। थोड़ा सा प्रयास करने से हम अपनी जीवन को सहज बना सकते हैं। देखीये फिर कोई नहीं कहेगा इस शहर में हर शख्श परेशान सा क्यों है?