ईंख वाले किसान / कांग्रेस-तब और अब / सहजानन्द सरस्वती
उधर ईंखवाले किसानों के गले पर छुरी चल रही है। उनकी ईंख का दामपूरा-पूरा देना तो दूर , अधूरा भी नहीं दिया जाता है। इस साल मैंने खर्च का हिसाब लगाकर सरकार को साफ बता दिया कि चार रुपए मन उसका दाम चाहिए। धीरे-धीरे दो-चार साल में वही घटाकर रुपए या आठ आने तक कैसे किया जा सकता है और फिर भी किसान को लाभ ही होगा यह भी बता दिया। मगर सरकार ने निहायत बेशर्मी और बेदर्दी से वह दाम पारसाल से भी घटा दिया। युक्तप्रांत की सरकार तो और भी नीचे चली गई। किसानों को बता दूँ कि पारसाल उन्हें सवा रुपए मन के ही लिए तैयार होकर ही गन्ना उपजाना चाहिए। नहीं तो पछताएँगे। दो रुपए मन गन्ने का दाम देकर भी चीनी का दाम 30 रु. मन करना ठीक था। यदि बढ़ाया था तो किसानों को और भी पैसे देने थे-फी मन आठ आने तो जरूर ही। पारसाल ऐसा न किया गया। इस साल तो और भी घटा। आगे ज्यादा घटेगा और गन्ने की खेती के विकास के अभाव में चीनी का कारोबार खत्म होगा यह पक्की बात है। सरकार ने सेस के नाम पर कई करोड़ रुपए किसानों से ही लिए हैं ─ उन्हीं के दाम में से ये रुपए आए हैं। फिर भी ईंख के विकास और अधिक उपज के लिए क्या हुआ , यह सवाल डटकर करना होगा। तभी खब्बू मलों की नींद टूटेगी।