ईमेल / इला प्रसाद
आज अचानक, पहली बार, जय का मेल अपने मेलबॉक्स में पा कर वह मुस्कराई। तो जय ने भी अब ई-मेल करना सीख लिया! ज़रूर वंदना ने ही सिखाया होगा। अच्छा है। इस तरह वह जय से वंदना की भी ख़बर लेती रहेगी। कुछ इस तरह परेशान है लड़की कि मेल ही नहीं लिखती। पता नहीं उसकी शादी की बात कितनी आगे बढ़ी। जय बता सकेगा। वह भी जय को कुछ पते भेज सकेगी।
उसने एक सरसरी निगाह से सारे पते पढ़ डाले। यह उसकी पुरानी आदत है। पहले सारे पते पढ़ेगी, फिर तय करेगी कि किस क्रम में उसे अपने ई-पत्र पढ़ने हैं। पढ़ने हैं या बिना पढ़े मिटा देने है। लेकिन आज तो जय का मेल है। पहले उसे देख ले।
मेल खोला तो बिना किसी भूमिका, संबोधन के एक वाक्य था, 'मेरी कविता' और नीचे एक छोटी-सी कविता की कुछ पंक्तियाँ -
एक आकाश था मेरा विश्वास
निर्दोष, खूबसूरत
अछोर, आधारहीन
मुझ ही को छलता रहा।
उसे कुछ अजीब लगा। जय कविताएँ लिखता है यह उसे नहीं मालूम था। न वंदना ने, न ही जय ने उसे कभी बतलाया। पूरे महीने भर वह बनारस में वंदना के घर पर रही थी।
जय सारी भाग-दौड़ करता रहा था। उसके लिए रिक्शा बुलाने से लेकर ज्योति कुंज होस्टल की वार्डन के घर ले जाने तक। फिर डी. आई. जी. पुलिस से मिलना। पुलिस चरित्र प्रमाण पत्र की ज़रूरत थी उसे, अपने वीज़ा के लिए। हर कहीं वह छोटे भाई की भूमिका निभाता रहा। उसके सारे काम करवाता रहा। इतना छोटा है मुझसे- वह मन ही मन सोचती। फिर भी पुरुष होने मात्र से हर कहीं यह मेरा अभिभावक बन जाता है और लोग कितने सहज भाव से स्वीकार भी लेते हैं। रिक्शेवाला भी रिक्शे के पैसे मुझसे न माँगकर उससे माँगता है। इच्छित भाड़ा न मिलने पर मुझसे कुछ न कह कर उससे जिरह करता है। क्या संरचना है समाज की!
तब पहली बार जय ने उससे खुलकर इतनी बातें भी की थीं। अपने करियर, महत्वाकांक्षा एवं अपने भविष्य से जुड़ी हज़ार बातें। युनिवर्सिटी में सीनियर होने के नाते वंदना उसे दीदी कहती थी, तो वह जय की भी दीदी थी। लेकिन इस सबके बावजूद वह यह नहीं बता पाया कि वह कविताएँ लिखता है!
हो सकता है उसने इंटरनेट पर मेरी कविता पढ़ी हो। शायद वह भी न जानता रहा हो कि वह लिखती है। आज समान अभिरुचि की जानकारी पाकर उसने उसे लिखने की सोची हो।
उसे कविता अच्छी लगी। उसने दो पंक्तियाँ लिख दीं।
अच्छी कविता है। छपने की कोशिश करो।
आशा के विपरीत अगले ही दिन जवाब आ गया।
कहाँ कोशिश करूँ?
उसे हँसी आ गई। इस क्षेत्र में भी उसे जय की दीदी की भूमिका निभानी है। दिशा-निर्देश पाने के लिए ही शायद इस लड़के ने उसे अपनी कविता भेजी। वह चाहे तो थोड़ी खिंचाई भी कर सकती है। प्रेमभंग की कविता है क्या? लेकिन अभी जाने दो। कहीं नाराज़ न हो जाए। वंदना के बारे में भी तो जानना है।
उसने थोड़ा लंबा पत्र लिखा।
स्थानीय अख़बारों से शुरू करो। फिर पत्रिकाओं तक पहुँचो। पाठकों की प्रतिक्रिया जानने की कोशिश करो। हो सके तो कवि गोष्ठियों में भाग लो और खूब पढ़ो। वंदना कैसी है? स्नेह - अनु दीदी।
इस बार कई दिनों बाद पत्रोत्तर आया।
कौन वंदना? अख़बारों से संपर्क किया है। प्रतिक्रिया आने पर सूचित करूँगा। आपको पेंटिंग्स भी अच्छी लगती हैं या सिर्फ़ हिंदी कविता? - जय।
उसे हँसी आई। बात टालने का यह अच्छा तरीक़ा है। ज़रूर दोनों भाई बहन लड़ बैठे हैं। वंदना मेल का जवाब नहीं देती, जय पूछता है कौन वंदना!
खाने की मेज़ पर उसने विवेक को बताया।
जानते हो, मुझे लगता है जय और वंदना लड़ बैठे हैं। वंदना ने तो मेल लिखना छोड़ ही दिया है, जब से मैंने उसे विनोद का विवाह प्रस्ताव गंभीरता से लेने को कहा। आजकल जय के मेल आ रहे हैं। कविताएँ लिखता है! मैंने वंदना का हाल पूछा तो कहता है कौन वंदना?
स्वभाव से विनोदी विवेक मुस्कराए।
उससे कहो, वही वंदना जो बनारस में तुम्हारे घर में रहती है।
हाँ, मुझे जानना था कि वंदना की शादी का क्या हुआ। कुछ समय पहले उसने मुझे बतलाया था कि फिर एक रिश्ते को उसने मना कर दिया। लड़केवाले पूरी तरह तैयार थे। लड़का भी। लेकिन उसे बातचीत कर लगा कि यह परिवार बहुत संकीर्ण विचारोंवाला है। वह सामंजस्य नहीं बिठा पाएगी। घर पर सब उससे दुखी हैं।
तुमने क्या कहा?
मैंने भी उसे डाँटा कि कबतक वह अपने घरवालों को परेशान करती रहेगी। इस तरह फ़ैसले लेना बिल्कुल ग़लत है। इतनी आसानी से किसी का स्वभाव समझ में आ जाए तो फिर क्या बात है! कभी लड़ाइयाँ हों ही नहीं। लेकिन वह कहती है कि उसकी दीदी के साथ जो कुछ हुआ उसकी वजह से उसे डर लगता है कि वैसा कुछ, कभी भी, किसी हालत में उसके साथ नहीं होना चाहिए।
विवेक गंभीर हो गए। वह भी चुप हो आई। वंदना के घर की कहानी विवेक से छुपी न थी। वंदना से सिर्फ़ दो साल बड़ी निधि विवाह के साल भर के अंदर ही दहेज के लिए प्रताड़ित होकर वापस घर आ गई थी और एक स्कूल में नौकरी कर रही थी। वकील पिता की संतान होने का इतना ही फ़ायदा मिला कि वह वापस आ सकी और जल्द ही कानूनी तौर पर उसे तलाक़ भी मिल गया। दो बरस पहले जब अनु वंदना के घर पर थी तो वंदना के पिता उसे बेहद परेशान लगे थे। एक अनब्याही और एक तलाकशुदा बेटी का बाप दुखी और परेशान न हो तो क्या हो!
तब अनु ने जय को ही सुझाया था कि वह दोनों बहनों के लिए तबतक अख़बार में विज्ञापन दिलवाता रहे जबतक कि उनका विवाह न हो जाए। आख़िर उसका खुद का विवाह भी तो इसी तरह हुआ था और आज वह विवेक के साथ सुखी है।
उसे लगा, एक बार फिर जय से ही बात करनी होगी। पहले उसके पत्र का उत्तर दे ले।
उसने सहज भाव से लिखा-
कुछ भी चलेगा जय। कविता, पेंटिंग्स या फिर कोई चुटकुला। बात तो संपर्क में बने रहने की है न! स्नेह - अनु दीदी।
कई दिन बीत गए।
फिर एक दिन अचानक उसका मेलबॉक्स चेतावनी दे रहा था कि उसने अपने कोटे से अधिक स्थान का उपयोग किया है और कुछ ई-पत्र मिटाए बिना वह अपना मेल बॉक्स नहीं खोल सकती। अनु को पता था ऐसा सिर्फ़ रेखा कर सकती है । बड़ी फ़ाइलें वही भेजती रहती है, मना करने के बावजूद। चित्रों से भरे। अब उसे डाँटना होगा। लेकिन नहीं यह जय था। दो पेंटिंग्स भेजी थीं उसने। अच्छी थीं लेकिन इतनी भी नहीं कि रखने का मन हो। उसने देखा और मिटा दिया। अब फिर मेलबॉक्स में जगह ही जगह थी।
सोचा जय को लिखे, इतनी लंबी फ़ाइलें मत भेजा करो, फिर टाल गई। अपनी प्रतिक्रिया न भेजकर भी आप अपनी असहमति जता सकते हैं। असर अनुकूल रहा। बहुत दिनों तक कोई पत्र नहीं आया। इस बीच वह वंदना से ही संपर्क करने की कोशिश करती रही और जवाब में वही संक्षिप्त उत्तर पाती रही। अच्छी हूँ। कुछ नया नहीं। सब यथावत चल रहा है। आप सब कैसे हैं। वगैरह। वह अक्सर सोचती क्या इसे पता भी है कि जय आजकल उससे संपर्क में है! कभी समय मिले तो कंप्यूटर पर ही बात की जा सकती है। वंदना से पूछे बिना तो वह जय को भी नहीं कह सकती कि इन लड़कों के बारे में पता करो। वंदना को बुरा लग गया तो रिश्ता अनुकूल रहने पर भी मना कर देगी। इसीलिए तो झेल रही है अबतक!
जय का ही मेल आया। फिर इस बार एक कविता थी, थोड़ी लंबी। फिर प्रेम कविता।
अनु को यह विचित्र लगता था।
हर ई-पत्र का जवाब देते हुए वह अंत में स्नेह लिखना न भूलती। और यह लड़का? किसी औपचारिकता की ज़रूरत ही नहीं समझता। कोई संबोधन नहीं। बिना किसी भूमिका संबोधन के कविताएँ, पेंटिंग्स या जो जी में आए भेजेगा। वंदना का हाल पूछो तो बतलाना ही नहीं चाहता। ठीक है, वह वंदना से कब किसी औपचारिकता की अपेक्षा करती है। उसीका भाई तो है। फिर भी उसने फिर अपनी प्रतिक्रिया भेजी और पूछा वंदना का क्या हाल है।
वही नपा तुला उत्तर - आप किस वंदना की बात कर रहीं हैं? ज़रा विस्तार से बताइए। मैंने अपनी कविताएँ अख़बारों में छपने के लिए भेजी हैं। अभी जवाब नहीं आया है- जय।
इस ई-मेल को साथ ही लगा हुआ एक और ई-मेल था। किसी रेणु का -
बहुत सुंदर लिखते हो जयेश। सशक्त अभिव्यक्ति है। लिखते रहो।
यह रेणु कौन है?
उसे अधिकार है, वह पूछ सकती है।
उसने पूछा। जवाब आया -
मैं नहीं जानता। मुझे उसका पता एक पत्रिका में मिला। मैंने उसे अपनी कविता भेजी थी।
स्वाभाविक साफ़गोई। जय ऐसा ही है!
लेकिन इस वंदना को क्या हो गया है! अरसा गुज़र गया। कोई मेल नहीं। पचा जाती है सब। या फिर दो लाइनें लिखेग़ी। अच्छी हूँ। आप कैसी हैं? कोई नई ख़बर? वंदना।
पढ़कर गुस्सा आता है। ख़बर मुझे देनी है या उसे। जान बूझकर बचने की कोशिश। रहने दो, मुझे क्या। नहीं बताना चाहती, न बताए। हे भगवान, इस लड़की की शादी हो जाए!
उसे ठीक से पता है किस जद्दोजहद से गुज़रता है इंसान, अपनी अव्यवस्थित ज़िंदगी को रास्ते पर लाने के लिए। खुद उसने क्या कम ठोकरें खाई हैं विवेक से विवाह का अंतिम फ़ैसला लेने तक! पता नहीं यह लड़की कब फ़ैसले लेना सीखेगी। उसे भी वक्त नहीं मिलता। नए देश में नई गृहस्थी की सौ पेचीदगियाँ हैं। वरना कभी कंम्यूटर पर ही बात कर लेती। लेकिन यहाँ जब उसके सोने का वक्त होता है तो उधर देवी जी ऑनलाइन नज़र आती हैं, तब नींद से पलकें भरी होती हैं, शरीर थका और हिम्मत जवाब दे जाती है।
जय से ही पूछना होगा लेकिन पूछे कैसे। यह लड़का तो कुछ बतलाना ही नहीं चाहता। पिछले तीन महीनों में कम से कम दर्जन भर मेल तो लिखे होंगे उसने लेकिन वंदना के ज़िक्र से ही बचना चाहता हो जैसे। बस कविताएँ लिखेगा। प्रेम कविताएँ!
तब भी कोई रास्ता तो निकालना होगा। उसने फिर जय को ही लिखा।
इस बार होली की शुभकामनाओं के साथ और स्पष्ट किया कि वह वंदना को अलग से पत्र नहीं लिख रही।
जवाब आया।
वंदना आपको नहीं जानती। शुभकामनाओं का शुक्रिया। और इस बार एक ई-शुभकामना पत्र उसके लिए।
अजीब हाल है। अब वंदना भी उसे पहचानने से मना करती है।
होली के बाद उसे वंदना का पत्र मिला। दीदी, बहुत तनाव में हूँ। नौकरी कर रही हूँ। पापा ने तो जय की भी शादी तय कर दी। मैं होली में घर नहीं गई - वंदना।
अनु का मन रो उठा। इतनी बेचारी हो गई उसकी वंदना! घर से दूर, अकेली। कैसा लगा होगा उसे त्योहार में भी घर न जाकर! जब उसके पापा ने निशीथ की शादी की थी तब तो वह झेल गई थी। निशीथ भी उससे छोटा ही था लेकिन बस साल भर और तब वह अपनी पीएच. डी. पूरी करने की ज़िद पर अड़ी थी। लेकिन इस बार इतना छोटा है जय उससे। क्या-क्या नहीं सुनना पड़ा होगा उसे। वरना वह इस तरह उसके सामने अपना मन खोलती? उसने तुरंत जवाब दिया।
मुझे यह पढ़कर कोई खुशी नहीं हुई वंदना। तुम यह बताओ कि तुमने अपने लिए क्या निर्णय लिया? जय ने कैसे स्वीकार लिया? वह तुमसे इतना छोटा है! -दीदी।
वंदना ने भी तुरंत ही जवाब दिया। दीदी आप जय को दोष न दें। मम्मी पापा को भी नहीं। मेरी ही ग़लती है - वंदना।
अब उसकी इच्छा हुई दोनों भाई बहन को अच्छी डाँट पिलाए।
पहले उसने जय को पत्रोत्तर दिया, जो वह इतने दिनों से टालती आ रही थी।
यह क्या मज़ाक है जय! लड़ बैठे हो वंदना से? वंदना की मनस्थिति समझने की कोशिश भी नहीं करते। तुमसे ऐसी उम्मीद तो मुझे कतई नहीं थी।
वंदना से बात करनी होगी। बहुत आहत है वह। उसे समझाना होगा। मौका भी मिल गया।
कई दिनों तक वह देर रात तक कंप्यूटर पर काम करती रही। याहू मेसेंजर पर उपलब्ध की सूचना के साथ।
वंदना ने खुद ही एक दिन संदेश भेजा। वह बात करना चाहती है। अनु को बड़ी राहत महसूस हुई। वंदना को बताना होगा कि इस बीच जय उसे मेल लिखता रहा है और कविताएँ भेजता है। और यह भी कि अनु ने खुद उसके लिए कई लड़कों के पते जमा किए हैं। यदि उसकी स्वीकृति हो तो वह जय से बात करे। क्या अब ऐसा करना उचित होगा जब वह खुद बता रही है कि जय की भी शादी तय हो चुकी। अनु को तो वह स्वार्थी लगता है।
उसने बात शुरू की।
जय की शादी कब तय हुई वंदना?
पिछली बार घर गई थी तब।
और तुमने अपने लिए क्या सोचा?
दीदी, तीन रिश्ते आए। किसी को भी हाँ नहीं कर सकी।
क्यों?
मन हाँ करे तब तो।
मन क्यों हाँ नहीं करता? निधि को सोचकर?
निधि की तो शादी हो गई फिर से।
तब!
ऐसे ही
ऐसे क्या, किसी पर दिल आ गया!
ऐसा होता तो अबतक फ़ैसला ले चुकी होती।
लेकिन तुम कबतक ऐसे चलाओगी वंदना?
घर जा रही हूँ पंद्रह दिनों बाद। शायद इस बार बात बन जाए। मुझे वह इंसान अच्छा लग जाए।
भगवान करे।
हाँ!
अनु को लगा अब वह पूछ सकती है कि उसने जय को ऐसा क्यों कहा।
तुमने जय को क्यों कहा कि तुम मुझे नहीं जानतीं।
मैंने कब कहा।
अरे वाह! जय ने लिखा मुझे।
दीदी आप किस जय की बात कर रही हैं। जय को ई-मेल लिखना नहीं आता।
लेकिन वह तो लिखता है मुझे। अपनी कविता भी भेजी उसने।
दीदी बिलीव मी। जय कविताएँ नहीं लिखता। उसे ई-मेल करना भी नहीं आता। मैं उससे फ़ोन पर बात करती हूँ।
अनु का मन तेज़ी से घटनाओं की संगति बिठा रहा था।
दीदी आप ऑन लाइन हैं न? वंदना पूछ रही थी।
हाँ वंदना।
दीदी आप पूछिए। वह कोई और जय है।
ठीक है वंदना।
वह इस जय को वंदना के लिए रिश्ते सुझानेवाली थी! कैसे मान लिया उसने कि वह उसकी वंदना का भाई जय ही है? उसे आप ही कह रहा है तुम नहीं? पत्र तो अंग्रेज़ी में थे! और पत्र भी क्या थे, प्रेम कविताएँ। वही दीदी बनकर सलाह दिए जा रही थी। उसका ई-पता तो पत्रिकाओं में छपा हुआ है फिर कोई भी पत्र लिख सकता है। कैसे इतनी बड़ी बेवकूफ़ी कर डाली उसने!
आनन-फानन में उसने एक ई-पत्र जय को लिख डाला।
मुझे अफ़सोस है, मैं तुम्हें अपनी मित्र वंदना का भाई जय समझती रही। पिछले पत्र में जो कुछ मैंने लिखा उसका मुझे खेद है। कृपया उस पत्र पर ध्यान न दो।
अब वह लड़का खुलकर उसके सामने था।
आश्चर्य है। मेरी दीदी का नाम भी वंदना है। अपने बारे में और अपनी मित्र के बारे में कुछ और बताइए। आप क्या गोरखपुर की हैं?
तो इसे मेरे बारे में कुछ नहीं मालूम। क्या मासूमियत है! कहाँ से मेरा ई-पता उठाया इसने! अनु की खीझ बढ़ती जा रही थी।
उसने जवाब दिया।
बता दूँगी। पहले यह तो बतलाओ कि तुम्हें मेरा ई-पता कहाँ से मिला?
जवाब हाज़िर था।
मुझे आपका पता कहानी ई-पत्रिका में मिला। आपने एक कहानी पर अपनी प्रतिक्रिया भेजी थी। अब अपने बारे में बताओ। आप तो मुझे जानती ही हैं, मैं वंदना का भाई जय हूँ।
क्यों नहीं! टू स्मार्ट। अनु ने सोचा।
किसे फ़ुर्सत है तुमसे उलझने की!
अनु ने चुपचाप जय का ई-पता अपनी स्पैम लिस्ट में डाल दिया।