ईर्ष्या / साहित्य शास्त्र / रामचन्द्र शुक्ल

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जैसे दूसरे के दु:ख को देख दु:ख होता है वैसे ही दूसरे के सुख या भलाई को देखकर भी एक प्रकार का दु:ख होता है, जिसे ईर्ष्या कहते हैं। ईर्ष्या की उत्पत्ति कई भावों के संयोग से होती है, इससे इसका प्रादुर्भाव बच्चों में कुछ देर में देखा जाता है और पशुओं में तो शायद होता ही न हो। ईर्ष्या एक संकर भाव है जिसकी संप्राप्ति आलस्य, अभिमन और नैराश्य के योग से होती है। जब दो बच्चे किसी खिलौने के लिए झगड़ते हैं तब कभी कभी ऐसा देखा जाता है कि एक उस खिलौने को लेकर फोड़ देता है जिससे वह किसी के काम में नहीं आता। इससे अनुमन हो सकता है कि उस लड़के के मन में यही रहता है कि चाहे वह खिलौना मुझे मिले या न मिले, दूसरे के काम में न आए अर्थात् उसकी स्थिति मुझसे अच्छी न रहे। ईर्ष्या पहले पहल इसी रूप में व्यक्त होती है।

ईर्ष्या प्राप्ति की उत्तेजित इच्छा नहीं है। एक के पास कोई वस्तु है और दूसरे के पास नहीं है तो वह दूसरा व्यक्ति इस बात के लिए तीन प्रकार से दु:ख प्रकट कर सकता है-

1. क्या कहें, हमारे पास भी वह वस्तु होती।

2. हाय! वह वस्तु उसके पास न होकर हमारे पास होती तो अच्छा था।

3. वह वस्तु किसी प्रकार उसके हाथ से निकल जाती, चाहे जहाँ जाती।

इन तीनों वाक्यों को ध्या नपूर्वक देखने से जान पड़ेगा कि इनमें दूसरे व्यक्ति की ओर जो लक्ष्य है उसे क्रमश: विशेषत्व प्राप्त होता गया है और वस्तु की ओर जो लक्ष्य है वह कम होता गया है। पहले वाक्य से जो भाव झलकता है वह ईर्ष्या नहीं है, साधारण स्पीर्धा अर्थात् लाभ की उत्तेजित इच्छा का एक अच्छा रूप है। उसमें वस्तु की ओर लक्ष्य है, व्यक्ति की ओर नहीं। ईर्ष्याष व्यक्तिगत होती है और स्पतर्धा वस्तुगत। दूसरे वाक्य में ईर्ष्याथ का कुछ और तीसरे में पूरा आभास है। इन दोनों में से एक (दूसरे) में दूसरे को वंचित न कर सकने का दु:ख गौण और दूसरे (तीसरे) में प्रधन या एकांत है।

स्पर्धा में किसी सुख, ऐश्वर्य, गुण या मन से किसी व्यक्ति विशेष को सम्पन्न देख अपनी त्रुटि पर दु:ख होता है, फिर प्राप्ति की एक प्रकार की उद्वेगपूर्ण इच्छा उत्पन्न होती है, या यदि इच्छा पहले से होती है तो उस इच्छा को उत्तेजना मिलती है। इस प्रकार की वेगपूर्ण इच्छा या इच्छा की उत्तेजना अंत:करण की उन प्रेरणाओं में से है जो मनुष्य को अपने उन्नति साधन में तत्पर करती है। इसे कोई संसार को सच्चा समझनेवाला बुरा नहीं कह सकता। यह उत्तेीजना ऐश्वर्य गुण या मन के किसी चित्ताकर्षक रूप या प्रभाव के साक्षात्कार से उत्पन्न होती है और कभी कभी उस ऐश्वर्य, गुण या मन को धारण करनेवाले की पूर्व स्थिति के परिज्ञान से बहुत बढ़ जाती है। किसी अपने पड़ोसी या मित्र की विद्या का चमत्कार या आदर देख विद्या प्राप्ति की इच्छा उत्तेड़जित होती है और यह जानकर कि पहले वह एक बहुत साधारण बुद्धि या वित्त का मनुष्य था, यह उत्तेहजना आशाप्रेरित होकर और भी बढ़ जाती है। प्राप्ति की इस उत्तेजित इच्छा के लिए सम्पन्न व्यक्ति ऐसा मूर्तिमन और प्रत्यक्ष आधार हो जाता है जिससे अपनी उन्नति या सम्पन्नता की भी आशा बँधती है और कार्यक्रम की शिक्षा मिलती है। किसी वस्तु की प्राप्ति की इच्छावाले को किसी ऐसे व्यक्ति को देख, जिसने अपने पुरुषार्थ से वह वस्तु प्राप्त की हो, कभी कभी बड़ा सहारा हो जाता है और वह सोचता है कि 'जब उस मनुष्य ने उस वस्तु को प्राप्त कर लिया तब क्या मैं भी नहीं कर सकता?' ऐसे सम्पन्न व्यक्ति की ओर जो इच्छुक या स्पर्धावान का बार बार ध्याकन जाता है वह उसकी स्थिति में किसी प्रकार का परिवर्तन करने के लिए नहीं, बल्कि अपनी स्थिति में परिवर्तन करने के लिए। स्पछर्धा में अपनी कमी या त्रुटि पर दु:ख होता है, दूसरे की सम्पन्नता पर नहीं। स्पछर्धा में दु:ख का विषय होता है, मैंने उन्नति क्यों नहीं की? और ईर्ष्यां में दु:ख का विषय होता है, उसने उन्नति क्यों की? स्पर्धा संसार में गुणी, प्रतिष्ठित और सुखी लोगों की संख्या में कुछ बढ़ती करना चाहती है और ईर्ष्या कम।

ऊपर के विवरण से यह बात झलक गई होगी कि ईर्ष्या एक अनावश्यक विकार है, इससे उसकी गणना मूल मनोविकारों में नहीं हो सकती। यह यथार्थ में कई भावों के विचित्र मिश्रण से संघटित एक विष है। जब किसी विषय में अपनी स्थिति को रक्षित रख सकने या समुन्नत कर सकने के निश्चय में अयोग्यता या आलस्य आदि के कारण कुछ कसर रहती है तभी इस इच्छा का उदय होता है कि किसी व्यक्ति विशेष की स्थिति उस विषय में हमारे तुल्य या हमसे बढ़कर न होने पाए। यही इच्छा बढ़कर द्वेष में परिवर्तित हो जाती है और तब उस दूसरे व्यक्ति का अनिष्ट, न केवल उस विषय में बल्कि प्रत्येक विषय में वांछित हो जाता है। वैर और द्वेष में अंतर यह है कि वैर अपनी किसी वास्तविक हानि के प्रतिकार में होता है, पर द्वेष अपनी किसी हानि के कारण या लाभ की आशा से नहीं किया जाता।

यह बात ध्याषन देने की है कि ईर्ष्या व्यक्ति विशेष से होती है। यह नहीं होता कि जिस किसी को ऐश्वर्य, गुण या मन से सम्पन्न देखा उसी से ईर्ष्याव हो गई। ईर्ष्याठ उन्हीं से होती है जिनके विषय में यह धारणा होती है कि लोगों की दृष्टि हमारे साथ साथ उन पर भी अवश्य पड़ती होगी। अपने से दूरस्थ होने के कारण अपने साथ साथ जिन पर लोगों का ध्याजन जाने का निश्चय नहीं होता उनके प्रति ईर्ष्या नहीं उत्पन्न होती। काशी में रहनेवाली किसी धानी को अमेरिका के किसी धानी की बात सुनकर ईर्ष्या नहीं होगी। हिन्दी के किसी कवि को इटली के किसी कवि का महत्तव सुनकर ईर्ष्या नहीं होगी। संबंधियों, बालसखाओं, सहपाठियों और पड़ोसियों के बीच ईर्ष्या का विकास अधिक देखा जाता है। लड़कपन से जो आदमी एक साथ उठते बैठते देखे गए हैं उन्हीं में से कोई एक दूसरे की बढ़ती से जलता हुआ भी पाया गया है। यदि दो साथियों में से कोई किसी अच्छे पद पर पहुँच गया तो वह इस उद्योग में देखा जाता है कि दूसरे किसी अच्छे पद पर न पहुँचने पाए। प्राय: अपनी उन्नति के गुप्त बाधाकों का पता लगाते लगाते लोग अपने किसी बड़े पुराने मित्र तक पहुँच जाते हैं। जिस समय संसर्ग सूत्र में बाँधकर हम औरों को अपने साथ एक पंक्ति में खड़ा करते हैं उस समय सहानुभूति, सहायता आदि की संभावना प्रतिष्ठित होने के साथ ही साथ ईर्ष्या और द्वेष की संभावना की नींव भी पड़ जाती है। अपने किसी विधन से हम भलाई ही भलाई की संभावना का सूत्रपात करें और इस प्रकार भविष्य के अनिश्चय में बाधा डालें, यह कभी हो ही नहीं सकता। भविष्य की अनिश्चयात्मकता अटल और अजेय है। अपनी लाख विद्या बुद्धि से भी हम उसे बिलकुल हटा नहीं सकते।

अब ध्याहन देने की बात यह निकली कि ईर्ष्या के संचार के लिए ईर्ष्या करनेवाले और ईर्ष्या के पात्र के अतिरिक्त स्थिति पर ध्या न देनेवाले समाज की भी आवश्यकता है। इसी समाज की धारणा पर प्रभाव डालने के लिए ही ईर्ष्या की जाती है; ऐश्वर्य गुण या मन का गुप्त रूप से बिना किसी समुदाय को विदित कराए, सुख या संतोष भोगने के लिए नहीं। ऐश्वर्य या गुण में हम चाहे किसी व्यक्ति से वस्तुत: बढ़कर या उसके तुल्य न हों, पर यदि समाज की यह धारणा है कि हम उससे बढ़कर या उसके तुल्य हैं तो हम संतुष्ट रहेंगे, ईर्ष्या का घोर कष्ट न उठाने जाएँगे। कैसी अनोखी बात है कि वस्तु प्राप्ति से वंचित रहकर भी हम समाज की धारणा मात्र से संतुष्ट रहते हैं। ईर्ष्याश सामाजिक जीवन की कृत्रिमता से उत्पन्न एक विष है। इसके प्रभाव से हम दूसरे की बढ़ती से अपनी कोई वास्तविक हानि न देखकर भी व्यर्थ दु:खी होते हैं। समाज के संघर्ष से जो अवास्तविकता उत्पन्न होती है वह हम पर प्रभाव डालने में वास्तविकता से कम नहीं। वह हमें सुखी भी कर सकती है, दु:खी भी। फारसी मसल है, मार्गे अंबोह जशने दारद। हम किसी कष्ट में हैं, इसी बीच में कोई दूसरा व्यक्ति हमसे अपना भी कष्ट वर्णन करने लगता है तो हमारे मुँह पर कुछ हँसी आ जाती है और हम कुछ आनंदित होकर कहते हैं, भाई! हम भी तो इसी बला में गिरफ्तार हैं। यदि दस पाँच आदमी वही कष्ट बतानेवाले मिलें तो हमारी हँसी कुछ बढ़ भी जाती है। एक बार किसी ने अपने संबंधी के मरने पर एक विद्वान् से पूछा, हम धैर्य कैसे धारण करें? उसने कहा, थोड़ी देर के लिए सोचो कि इसी संसार में लाखों अनाथ इधर उधर ठोकर खा रहे हैं, लाखों बच्चे बिना माँ बाप के रो रहे हैं, लाखों विधवाएँ ऑंसू बहा रही हैं। यदि हमें कोई कष्ट है तो क्या दूसरों को भी उसी कष्ट में देखकर थोड़ी देर के लिए हमारा वह कष्ट सचमुच घट जाता है? यदि नहीं घटता है तो यह हँसी कैसी, यह धैर्य कैसा? यह हँसी केवल स्थिति के मिलान पर निर्भर है, जिससे अपनी स्थिति के विशेषत्व का परिहार होता है। यह लोक संश्रय का एक गुण है कि कभी कभी स्थिति के बने रहने पर भी उसके विशेषत्व के परिहार से तत्संबंधी भावना में अंतर पड़ जाता है। पर यह अंतर ऐसा ही है जैसे रोते रोते सो जाना या फोड़ा चिराते समय क्लोरोफार्म सूँघ लेना।

समाज में पड़ते ही मनुष्य देखने लगता है कि उसकी स्थिति दोहरी हो गई है। वह देखता है कि मैं यह हूँ, और मैं बड़ा समझा जाता हूँ। इस निश्चय के साथ एक यह निश्चय और जुड़ जाने से कि मैं बड़ा समझा जाता हूँ मनुष्य के आनंद या सुख के अनुभव में वृद्धि होती है। इसी प्रकार मैं क्षुद्र हूँ इस धारणा के साथ मैं क्षुद्र समझा जाता हूँ इस धारणा के योग से दु:ख के अनुभव की वृद्धि होती है। इस प्रकार स्थिति के एकांत और सामाजिक दो विभाग हो जाने से कोई तो दोनों विभागों पर दृष्टि रख सकते हैं और कोई एक ही पर। शक्तिशाली और प्रतिभासम्पन्न मनुष्य पहले यह प्रयत्न करते हैं कि 'हम ऐसे हों'। फिर वैसे हो जाने पर यदि आवश्यक हुआ तो वे यह प्रयत्न भी करते हैं कि 'हम ऐसे समझे जाएँ'। इन दोनों के प्रयत्न जुदे जुदे हैं। संसार में शक्ति सम्पन्न सब नहीं होते, इससे बहुत से लोग स्थिति के पहले विभाग के लिए जिन प्रयत्नों की आवश्यकता है उनमें अपने को असमर्थ देख दूसरे ही विभाग से किसी प्रकार अपना संतोष करना चाहते हैं और उसी पर दृष्टि रखकर प्रयत्न करते हैं। ईर्ष्या ऐसे लोगों के हृदय में बहुत जगह पाती है और उनके प्रयत्नों में सहायक भी होती है। भाव प्रवर्तन आदि के बल से जिस समुदाय के प्राणी परस्पर ऐसे बन गए हैं कि अपने इंद्रियानुभव और भावनाओं तक को जवाब देकर दूसरों के इंद्रियानुभव और भावनाओं द्वारा निर्वाह कर सकते हैं, उसी से ईर्ष्या का विकास हो सकता है। अत: ईर्ष्या का अनन्य अधिकार मनुष्य जाति ही पर है। एक कुत्ता किसी दूसरे कुत्तो को कुछ खाते देख उसे आप खाने की इच्छा कर सकता है, पर वह यह नहीं चाह सकता कि चाहे हम खाएँ या न खाएँ वह दूसरा कुत्ता न खाने पाए। दूसरे कुत्तोंर की दृष्टि में हमारी स्थिति कैसी है, इसकी चिंता उस कुत्तो को न होगी।

अपने विषय में दूसरों के चित्त में अच्छी धारणा उत्पन्न करने का प्रयत्न अच्छी बात है। इस प्रयत्न को जो बुरा रूप प्राप्त होता है वह असत्य के समावेश के कारण, दूसरों की धारणा की अवास्तविकता और अपनी स्थिति की सापेक्षता के कारण, जब हम अपने विषय में दूसरों की झूठी धारणा और अपनी स्थिति के सापेक्ष रूप मात्र से संतोष करना चाहते हैं तभी बुराइयों के लिए जगह होती है और ईर्ष्यान की राह खुलती है। जैसी स्थिति हमारी नहीं है, जैसी स्थिति प्राप्त करने की योग्यता हममें नहीं है, हम चाहते हैं कि लोग हमारी वैसी स्थिति समझें। जैसी स्थिति से वास्तव में हमें कोई सुख नहीं है वैसी स्थिति किसी दूसरे के समन या दूसरे से अच्छी स्वयं समझने से नहीं बल्कि दूसरों के द्वारा समझी जाने से ही हम संतोष करते हैं। ऐसे असत्य आरोपों के बीच यदि ईर्ष्या् ऐसी असार वृत्ति का उदय हो तो इसमें आश्चर्य ही क्या है।

ऊपर जो कुछ कहा गया उससे शायद यह धारणा हो सकती है कि ईर्ष्यात अप्राप्त वस्तु ही के लिए होती है। पर यह बात नहीं है। हमारे पास जो वस्तु है उसे भी दूसरे के पास देखकर कभी कभी हमें बुरा लगता है, हम दु:खी होते हैं। किसी गरीब पड़ोसी को क्रमश: धानी होते देख आसपास में धानी माना जानेवाला मनुष्य कभी कभी बुरा मनने लगता है। एक ऊँची जाति का आदमी किसी नीच जाति के आदमी को अपने ही समन वस्त्रा आदि पहने देख बुरा मनता और कुढ़ता है। इसका कारण यह अस्थायी बुद्धि या अहंकार है कि 'हम ऊँचे हैं वह नीचा है, हम बड़े हैं, वह छोटा है।' लोक व्यवस्था के भीतर कुछ विशेष वर्ग के लोग, जैसे- शिष्ट, विद्वान्, धर्म चिंतक, शासन कार्य पर नियुक्त अधिकारी, देश रक्षा में प्राण देने को तैयार वीर इत्यादि औरों से अधिक आदर और सम्मान के पात्र होते हैं। इनके प्रति उचित सम्मान न प्रदर्शित करना अपराध है। अन्य वर्ग के लोग धार्मानुसार इन्हें बड़ा मनने को विवश हैं। पर इन्हें दूसरों को छोटा प्रकट करने या मनने तक का अधिकार नहीं है। जहाँ इन्होंने ऐसा किया कि सम्मान का अस्तित्व खोया।

न्यायाधीश न्याय करता है, कारीगर ईंट जोड़ता है। समाज कल्याण के विचार से न्यायाधीश का साधारण व्यवहार में कारीगर के प्रति यह प्रकट करना उचित नहीं कि तुम हमसे छोटे हो। जिस जाति में इस छोटाई बड़ाई का अभिमन जगह जगह जमकर दृढ़ हो जाता है, उसके भिन्न भिन्न वर्गों के बीच स्थायी ईर्ष्या स्थापित हो जाती है, और संघ शक्ति का विकास बहुत कम अवसरों पर देखा जाता है। यदि समाज में उन कार्यों की, जिनके द्वारा भिन्न भिन्न प्राणी जीवन निर्वाह करते हैं परस्पर छोटाई बड़ाई का ढिंढोरा न पीटा जाए, बल्कि उनकी विभिन्नता ही स्वीकार की जाए, तो बहुत सा असंतोष दूर हो जाए, राजनीतिक स्वत्व की आकांक्षा से स्त्रियों को पुरुषों की हद में न जाना पड़े, सब पढ़े लिखे आदमियों को सरकारी नौकरियों ही के पीछे न दौड़ना पड़े। जहाँ इस छोटाई बड़ाई का भाव बहुत प्रचार पा जाता है और जीवन व्यवहारों में निर्दिष्ट और स्पष्ट रूपों में दिखाई पड़ता है, वहाँ लोगों की शक्तियाँ केवल कुछ विशेष विशेष स्थानों की ओर प्रवृत्त होकर उन उन स्थानों पर इकट्ठी होने लगती हैं और समाज के कार्य विभागों में विषमता आ जाती है। अर्थात् कुछ विभाग सूने पड़ जाते हैं, और कुछ आवश्यकता से अधिक भर जाते हैं, जैसा कि आजकल इस देश में देखा जा रहा है। यहाँ कृषि, विज्ञान, शिल्प, वाणिज्य आदि की ओर तब तक पढ़े लिखे लोग ध्यायन न देंगे जब तक कुछ पेशों और नौकरियों की शान लोगों की नजरों में समाई रहेगी। इस प्रकार की शान प्राय: किसी शक्ति के अनुचित प्रयोग में अधिक समझी जाती है। कोई पुलिस का कर्मचारी जब अपने पद का अभिमन प्रकट करता है तब यह नहीं कहता कि 'मैं जिस बदमाश को चाहूँ उसको पकड़कर तंग कर सकता हूँ' बल्कि यह कहता है कि 'मैं जिसको चाहूँ उसको पकड़कर तंग कर सकता हूँ।

अधिकार संबंधी अभिमन अनौचित्य की सामर्थ्य का अधिक होता है। यदि अधिकार के अनुचित उपयोग की संभावना दूर कर दी जाए तो स्थान स्थान पर अभिमन की जमी हुई मैल साफ हो जाए और समाज के कार्य विभाग चमक जाएँ। यदि समाज इस बात की पूरी चौकसी रखे कि पुलिस के अफसर उन्हीं लोगों को कष्ट दे सकें जो दोषी हैं, माल के अफसर उन्हीं लोगों को क्षतिग्रस्त कर सकें जो कुछ गड़बड़ करते हैं, तो उन्हें शेष लोगों पर जो निर्दोष हैं, जिनका मामला साफ है और जिससे हर घड़ी काम पड़ता है, अभिमन प्रकट करने का अवसर कहाँ मिल सकता है? जब तक किसी कार्यालय में छोटे से बड़े तक सब अपना अपना नियमित कार्य ठीक ठीक करते हैं तब तक एक के लिए दूसरे पर अपनी बड़ाई प्रकट करने का अवसर नहीं आता है। पर जब कोई अपने कार्य में त्रुटि करता है तब उसका अफसर उसे दंड देकर अपनी बड़ाई या अधिक सामर्थ्य दिखलाता है। सापेक्ष बड़ाई दूसरे को क्षतिग्रस्त करने और दूसरे को नम्र करने की सामर्थ्य का नाम है। अधिकार की सापेक्ष बड़ाई दूसरे को क्षतिग्रस्त करने की सामर्थ्य है और धन या गुण की सापेक्ष बड़ाई में दूसरे को नम्र करने की सामर्थ्य है। इससे विदित हुआ कि यह छोटाई बड़ाई हर समय तमाशा दिखाने के लिए नहीं है, बल्कि अवसर पड़ने पर संशोधन या शिक्षा के लिए है। किसी अवधा के ताल्लुकेदार के लिए बड़ाई का वह स्वाँग दिखाना आवश्यक नहीं है कि वह जब मन में आए तब कामदार टोपी सिर पर रख, हाथी पर चढ़ गरीबों को पिटवाता चले। किसी देहाती थानेदार के लिए यह जरूरी नहीं है कि वह सिर पर लाल पगड़ी रख गँवारों को गाली देकर हर समय अपनी बड़ाई का अनुभव करता और कराता रहे। अभिमन एक व्यक्तिगत गुण है, उसे समाज के भिन्न व्यवसायों के साथ जोड़ना ठीक नहीं। समाज में स्थान स्थान पर अभिमन के अजायबघर स्थापित होना अच्छा नहीं। इस बात का ध्यानन रखना समाज का कर्तव्यर है कि धर्म औरराजबल से प्रतिष्ठित संस्थाओं के अंतर्गत अभिमानालय और खुशामदखाने न खुलने पाएँ।

इस प्रकार किसी बड़े धनी या गुणी का यह हर घड़ी का काम न हो जाना चाहिए कि वह औरों के धन या गुण से अपने धन या गुण का मिलान किया करे और अपने से कम धनी या गुणी लोगों से अपनी श्रेष्ठता देख दिखाकर संतोष किया करे। इस प्रकार संतोष करना, वस्तु को छोड़ छाया पर संतोष करना है। इस प्रकार के संतोष का सुख मनुष्य के लिए स्वाभाविक है; पर वह ऐसे ही अवसरों तक के लिए निर्दिष्ट है जब किसी त्रुटि का संशोधन हो, कठिनता का निराकरण हो या आवश्यकता की पूर्ति हो। उसे ऐसे अवसरों के अतिरिक्त और अवसरों में घसीटना बुराई है। कई आदमी किसी रास्ते के पत्थर को हटाने में लगे हैं और वह नहीं हिलता है। एक दूसरा आदमी आकर अकेले उस पत्थर को हटाकर फेंक देता है। उस समय उसे अपने को बल में औरों से बढ़कर देख संतोष और आनंद होगा और शेष लोग भी उसके कृत्य से प्रभावित रहने के कारण उस समय उसके इस सापेक्ष आनंद या आनंद प्रदर्शन से कुढ़ेंगे नहीं, बल्कि कुतूहलयुक्त होंगे और शायद कुछ शिक्षा भी ग्रहण करें। पर यदि उसे इस बड़ाई के आनंद का चस्का लग जाएगा और वह हर घड़ी इसका अनुभव करना चाहेगा, उसे प्रकट किया करेगा, तो यह एक प्रकार का दुर्वव्य सन हो जाएगा और अहंकार के नाम से पुकारा जाएगा।

जिस किसी के चित्त में इस प्रकार अहंकार घर करेगा, उसमें अपने चारों ओर अपने से घटकर धन, मन, गुण या बल देखने की स्थायी इच्छा स्थापित हो जाएगी और जो वस्तु उसे प्राप्त है, उसे भी दूसरों को प्राप्त करते देख उसे कुढ़न या ईर्ष्या होगी। उसके अहंकार से आहत होकर दूसरे लोग भी उसकी उन्नति न देखना चाहेंगे और उससे एक प्रकार की उचित ईर्ष्या रखेंगे। इस प्रकार ईर्ष्या की अच्छी खेती होगी। सारांश यह कि अभिमन हर घड़ी बड़ाई की भावना भोगने का दुर्वव्यासन है और ईर्ष्या उसकी सहगामिनी है। इस बड़ाई के अनुभव को भोगने का जिसे दुर्वव्यसन हो जाता है, उसके लिए उन्नति का द्वार बंद सा हो जाता है। उसे हर घड़ी अपनी बड़ाई अनुभव करते रहने का नशा हो जाता है, इससे उसकी चाह के लिए वह सदा अपने से घटकर लोगों की ओर दृष्टि डाला करता है और अपने से बड़े लोगों की ओर नशा मिट्टी होने के भय से देखने का साहस नहीं करता। ऐसी अवस्था में वह उन्नति की उत्तेवजना और शिक्षा से वंचित रहता है। इसी से अभिमन को 'मद' भी कहते हैं। दुर्वव्येसन किसी प्रकार का हो, मद है।

यह तो कहा ही जा चुका है कि ईर्ष्या दूसरे की असम्पन्नता की इच्छा की आपूर्ति से उत्पन्न होती है। ऐसी इच्छा यदि किसी हानि के बदले में अथवा हानि की आशंका से हो तो वह शुद्ध ईर्ष्या नहीं है। किसी दूसरे से हानि उठाकर उसकी हानि की आकांक्षा करना केवल बुराई का बुराई से जवाब देना है और क्रोध या वैर के अंतर्गत है। इसी प्रकार यदि किसी की संपन्नता से हमें क्लेश या हानि की आशंका है और हम उसकी ऐसी संपन्नता की अनिच्छा या उसका दु:ख करते हैं तो केवल अपना बचाव करते हैं-आजकल के शब्दों में अपनी रक्षा के स्वत्व का उपयोग करते हैं। यदि हम किसी अन्यायी को कोई अधिकार पाते देख कुढ़ते हैं, तो केवल अपने या समाज के बचाव की फिक्र करते हैं, ईर्ष्या नहीं करते। यदि हमें निश्चय है कि हमारा कोई मित्र इतना घमंडी है कि यदि उसे किसी वस्तु की प्राप्ति होगी तो वह हमसे ऐंठ दिखाकर हमारा अपमन करेगा, तो हमारा यह चाहना कि वह मित्र वह वस्तु न पाए अथवा इस बात पर दु:खी होना कि वह मित्र वह वस्तु पा गया, ईर्ष्या नहीं; बचाव की चिंता है। इसी से अभिमानियों से ईर्ष्या करने का अधिकार मनुष्य मात्र को है। लोग इस अधिकार का उपयोग भी खूब करते हैं। क्या राजनीति में, क्या साहित्य में, क्या व्यवहार में, मनव जीवन के सब विभागों में इस अधिकार का उपयोग होते देखा जाता है। ऐसा देखा गया है कि अच्छे से अच्छे लेखकों के गुणों पर उनके अभिमन से आहत लोगों के प्रयत्न या उदासीनता से बहुत दिनों तक परदा पड़ा रहा है और वे जिंदगी भर भवभूति के इस वाक्य पर संतोष किए बैठे रहे हैं-

उत्पत्स्यते हि मम कोऽपि समनधार्मा

कालो ह्ययं निश्वधिर्विपुला च पृथ्वी।

अभिमनग्रस्त गुण को लोग देखकर भी नहीं देखते हैं। अभिमानी स्वयं अंधा होकर दूसरों की ऑंखें भी फोड़ता है। न उसे दूसरों के उत्कृष्ट गुण की ओर ताकने का साहस होता है और न दूसरों को उसके गुण को स्वीकार करने की उत्कंठा होती है। अभिमन दोनों ओर ज्ञान का निषेधा करता है। अत: जिस प्रकार अभिमन न करना श्रेष्ठ गुण है उसी प्रकार दूसरे के अभिमन को देख क्षुब्धा न होना भी श्रेष्ठ गुण है।

अब यह स्पष्ट हो गया होगा कि ईर्ष्या दूसरे की प्राप्ति या प्राप्ति की संभावना से उत्पन्न दु:ख है, चाहे वह वस्तु हमें प्राप्त हो या न हो। अत: ईर्ष्या धारण करनेवालों के दो रूप होते हैं। एक असंपन्न और दूसरा संपन्न। असंपन्न रूप वह है, जिसमें ईर्ष्या करनेवाला दूसरों को ऐसी वस्तु प्राप्त करते देख दु:खी होता है जो उसके पास नहीं है। ऐसे दु:ख में आलस्य या असामर्थ्य से उत्पन्न नैराश्य, दूसरे की प्राप्ति से अपनी सापेक्षिक छोटाई का बोध, दूसरे की असंपन्नता की इच्छा और अंत में इस इच्छा की पूर्ति में बाधक उस दूसरे व्यक्ति पर एक प्रकार का मीठा क्रोध, इतने भावों का मेल रहता है। किसी वस्तु को हम नहीं प्राप्त कर सकते दूसरा उसी को प्राप्त करता है। हम समझते हैं कि लोगों की दृष्टि जब हमारी स्थिति पर पड़ती होगी तब उसकी स्थिति पर भी पड़ती होगी। इससे लोगों की दृष्टि में हमारी स्थिति अवश्य कुछ न्यून जँचती होगी। अत: स्थिति की समनता के लिए हम चाहते हैं कि वह दूसरा व्यक्ति उस वस्तु को न प्राप्त करता या खो देता। पर वह दूसरा व्यक्ति जीता जागता यत्नवान् प्राणी होने के कारण उसे प्राप्त करता या रक्षित रखता है। इससे हमारी इच्छापूर्ति में बाधा होती है और हम बाधक के ऊपर मन ही मन चिड़चिड़ाते हैं।

ईर्ष्या में क्रोध का भाव किस प्रकार मिला रहता है इसका प्रमाण बराबर मिलता रहता है। दूसरे व्यक्ति को किसी वस्तु से संपन्न देख यदि कोई उससे ईर्ष्या करता है तो केवल यही नहीं होता कि वह उसी वस्तु को उससे अलग करके या अलग करने का प्रयत्न करके संतोष कर ले, बल्कि वह उस संपन्न व्यक्ति को अवसर पाने पर, बिना किसी अन्य कारण के, कुवाक्य भी कह बैठता है। जी दुखाने का यह प्रयत्न बिना किसी प्रकार के क्रोध के नहीं हो सकता। इसी कारण जैसे 'क्रोध से जलना' कहा जाता है वैसे ही ‘ईर्ष्या से जलना' भी कहा जाता है। साहित्य के शब्दों में, क्रोध ईर्ष्यान के संचारी के रूप में समय समय पर व्यक्त होता हुआ देखा जाता है। अब यहाँ पर लगे हाथों यह भी देख लेना चाहिए कि यह क्रोध है किस प्रकार का। यह क्रोध बिलकुल जड़ क्रोध है। जिसके प्रति ऐसा क्रोध किया जाता है उसके मानसिक उद्देश्य की ओर नहीं ध्या न दिया जाता। यदि हम असावधानी से दौड़ते समय किसी सोए आदमी से टकराकर उस पर बिगड़ने लगें, या रास्ते में पत्थर की ठोकर खाकर उसे चूर चूर करने पर उतारू हों तो हमारा यह क्रोध जड़ क्रोध होगा; क्योंकि हमने यह विचार नहीं किया कि क्या वह आदमी हमें ठोकर खिलाने के लिए ही सोया था; या वह पत्थर हमारे पैर में लगने के नामानुकूल इरादे से वहाँ आ पड़ा था। यदि हमारे पास कोई वस्तु नहीं है और दूसरा उसे प्राप्त करता है, तो वह उस उद्देश्य से नहीं प्राप्त करता कि उससे हम अपनी हेठी समझकर दु:खी हों और हमारी इच्छापूर्ति में बाधा पड़े। यह दूसरी बात है कि पीछे से यह मालूम करके भी कि उसकी प्राप्ति से हम अपनी हेठी समझ समझकर बेचैन हो रहे हैं, वह हमारे दु:ख में सहानुभूति न करे और उस वस्तु को लिए आनंद से कान में तेल डाले बैठा रहे। प्राय: तो ऐसा होता है कि किसी वस्तु को प्राप्त करनेवाले मनुष्य को पहले यहख्याल भी नहीं होता कि उसकी प्राप्ति से किन किन महाशयों की मनहानि हो रही है।

ऊपर कहा जा चुका है कि ईर्ष्या धारण करनेवालों की दो दशाएँ होती हैं। असंपन्न और संपन्न। असंपन्न दशा का दिग्दर्शन तो ऊपर हो चुका। संपन्न दशा वह है जिसमें जो वस्तु हमें प्राप्त है, उसे दूसरे को भी प्राप्त करते देख हमें दु:ख होता है। असंपन्नता में दूसरे को अपने से बढ़कर होते देख दु:ख होता है। असंपन्न दशा में यह प्रवृत्ति पाई जाती है कि हम दूसरे से बढ़कर रहें। उसके बराबर न रहें। संपन्न की ईर्ष्यां में आकांक्षा बढ़ी चढ़ी होती है, इससे उसका अनौचित्य भी बढ़कर होता है। असंपन्न ईर्ष्यापवाला केवल अपने को नीचा समझे जाने से बचाने के लिए आकुल रहता है, पर संपन्न ईर्ष्या वाला दूसरे को नीचा समझते रहने के लिए व्याकुल रहता है। असंपन्न की ईर्ष्या में नैराश्य का भाव और अपनी कमी का दु:ख मिला रहता है, इससे उसकी कलुषता उतनी गहरी नहीं जान पड़ती। निराश और अभाव पीड़ित मनुष्य जैसे इधर उधर भूलता भटकता फिरता है, वैसे ही ईर्ष्या की राह में भी जा पड़ता है। पर संपन्न की स्थिति ऐसी क्षोभकारिणी नहीं होती।

हमारा कोई साथी है जो किसी वस्तु में हमसे कम है। उसकी कमी और अपनी बड़ाई देख दिखाकर हर घड़ी प्रसन्न होने का हमें दुर्वव्यसन हो गया है। इसी बीच उसको भी वह वस्तु प्राप्त हो जाती है और हमें जान पड़ता है कि हमारी स्थिति, जो सापेक्ष थी, मारी गई। अपने आनंद में इस प्रकार बाधा पड़ते देख हम अपने साथी की उस प्राप्ति से दु:खी होते हैं, और मन ही मन उस पर कुढ़ते भी हैं। साथी को बहुत दिनों तक तो इसका पता ही नहीं चलता, पीछे पता चलने पर भी वह हमारे इस दु:ख में कुछ भी सहानुभूति नहीं करता। हमारी कुप्रवृत्ति का कारण बिना अवसर के हर घड़ी बड़ाई का अनुभव व स्थिति की सापेक्षिकता का सुख भोगने की लत है। किसी स्थिति की वास्तविकता पर मुख्य और सापेक्षिकता पर गौण दृष्टि रखनी चाहिए। सापेक्षिकता नजर का खेल है, और कुछ नहीं। यदि हमें पेट भर अन्न नहीं मिलता है, पर लोग समझते हैं कि हम अपने किसी साथी से अच्छे या धानी हैं, तो लोगों की इस धारणा से हमारा पेट नहीं भर सकता। लोगों की इस धारणा से आनंद होता है पर वह उस आनंद का शतांश भी नहीं है जो वास्तविक स्थिति में प्राप्त वस्तुओं से मिलता है। अत: स्थिति के वास्तविक आनंदों को छोड़ इस छायारूपी आनंद पर मुख्य रूप से ध्या न रखना प्रमाद और स्थिति की रक्षा का बाधक है। यदि हम वास्तविक दशा की ओर ध्या न रख आवश्यक प्रयत्न न करते रहेंगे तो अपनी सँभाल नहीं कर सकते।

कभी कभी ऐसा होता है कि लोगों की धारणा का कुछ मूल्य होता है अर्थात् उससे कोई अनुकूल स्थिति प्राप्त होती है। जैसे, यदि किसी गाँव में मूर्ख और विद्वान् दो वैद्य हैं तो लोग दूसरे को अधिक निपुण समझ उसके पास अधिक जाएँगे और उसकी आमदनी अधिक होगी। अब यदि पहला वैद्य भी परिश्रम करके वैद्यक पढ़ लेगा और लोगों की यह धारणा हो जाएगी कि यह भी विद्वान् है तो दूसरे वैद्य की आमदनी कम हो जाएगी। ऐसी अवस्था में उस दूसरे वैद्य का पहले वैद्य की उन्नति से कुढ़ना शुद्ध ईर्ष्या नहीं, हानि का दु:ख या झुँझलाहट है। ईर्ष्या नि:स्वार्थ होनी चाहिए।

ईर्ष्या का दु:ख प्राय: निष्फल हो जाता है। अधिकतर तो जिस बात की ईर्ष्या होती है, वह ऐसी बात होती है, जिस पर हमारा वश नहीं होता। जब हममें अपनी ही स्थिति में अनुकूल परिवर्तन करने की सामर्थ्य नहीं है तब हम दूसरे की स्थिति में कहाँ तक परिवर्तन कर सकते हैं ? जितनी जानकारी हमें अपनी स्थिति से हो सकती है उतनी दूसरे की स्थिति से नहीं। किसी स्थिति में परिवर्तन करने के लिए उसके अंग प्रत्यंग का परिचय आवश्यक होता है पर कभी कभी ऐसे अवसर आ जाते हैं जिनमें ईर्ष्या की तुष्टि का साधन सुगम होता है, जैसे यदि किसी आदमी को किसी दूसरे से कुछ लाभ पहुँचनेवाला होता है या पहुँचता होता है तो हम उस दूसरे से उसकी कुछ बुराई कर आते हैं और उसे उस लाभ से वंचित कर देते हैं। पर हमारी यह सफलता निरापद नहीं। यदि वंचित व्यक्ति को हमारी कार्रवाई का पता लग गया तो वह क्रुद्ध होकर हमारी हानि करने के लिए हमसे अधिक वेग के साथ यत्न करेगा। हमने तो केवल जरा सा जाकर जबान हिलाने का कष्ट उठाया था, पर वह हमारी हानि करने के लिए पूरा परिश्रम करेगा।

ईर्ष्यात में प्रयत्नोत्पादिनी शक्ति बहुत कम होती है। उसमें वह वेग नहीं होता जो क्रोध आदि में होता है क्योंकि आलस्य और नैराश्य के आश्रय से तो उसकी उत्पत्तिही होती है। जब आलस्य और नैराश्य के कारण अपनी उन्नति के हेतु प्रयत्न करना तो दूर रहा, हम अपनी उन्नति का ध्याकन तक अपने मन में नहीं ला सकते, तभी हम हारकर दूसरे की स्थिति की ओर बार बार देखते हैं और सोचते हैं कि यदि उसकी स्थिति ऐसी न होती तो हमारी स्थिति जैसी है वैसी ही रहने पर भी बुरी न दिखाई देती। अपनी स्थिति को ज्यों की त्यों रख सापेक्षिकता द्वारा संतोष लाभ करने का ढीला यत्न आलस्य और नैराश्य नहीं तो और क्या है? जो वस्तु उज्ज्वल नहीं है उसे मैली वस्तु के पास रखकर हम उसकी उज्ज्वलता से कब तक और कहाँ तक संतोष कर सकते हैं? जो अपनी उन्नति के प्रयत्न में बराबर लगा रहता है उसे न तो नैराश्य होता है और न हर घड़ी दूसरे की स्थिति से अपनी स्थिति के मिलान करते रहने की फुरसत। ईर्ष्या की सबसे अच्छी दवा है उद्योग और आशा। जिस वस्तु के लिए उद्योग और आशा निष्फल हो, उस पर से अपना ध्या न हटाकर दृष्टि की अनंतता से लाभ उठाना चाहिए।

जिससे ईर्ष्या की जाती है उस पर ईर्ष्या का प्रभाव क्या पड़ता है, यह भी देख लेना चाहिए। ईर्ष्या अप्रेष्य मनोविकार है। यह पहले ही कहा जा चुका है कि किसी मनुष्य को अपने से ईर्ष्याय करते देख हम भी बदले में उससे ईर्ष्याक नहीं करने लगते। दूसरे को ईर्ष्यान करते देख हम उससे घृणा करते हैं। दूसरे की ईर्ष्यास का फल भोग हम उस पर क्रोध करते हैं, जिसमें अधिक अनिष्टकारिणी शक्ति होती है। अत: ईर्ष्या एक ऐसी बुराई है, जिसका बदला यदि मिलता है तो कुछ अधिक ही मिलता है। इससे इस बात का आभास मिलता है कि प्रकृति के कानून में ईर्ष्याष एक पाप या जुर्म है। अपराधी ने अपने अपराध से जितना कष्ट दूसरे को पहुँचाया, अपराधी को भी केवल उतना ही कष्ट पहुँचाना सामाजिक न्याय नहीं है; अधिक कष्ट पहुँचाना न्याय है; क्योंकि निरपराध व्यक्ति की स्थिति को अपराधी की स्थिति से अच्छी दिखलाना न्याय का काम है।

ईर्ष्या अत्यंत लज्जावती वृत्ति है। वह अपने धारणकर्तव्यर स्वामी के सामने भी मुँह खोलकर नहीं आती। उसके रूप आदि का पूरा परिचय न पाकर भी धारण कर्तव्य उसका हरम की बेगमों से अधिक परदा करता है। वह कभी प्रत्यक्ष रूप से समाज के सामने नहीं आती। उसका कोई बाहरी लक्षण धारण कर्तव्य पर नहीं दिखाई देता। क्रोध में ऑंखें लाल हों, भय में आकुलता हो, घृणा में नाक भौं सिकुड़े, करुणा में ऑंसू आए, पर ईर्ष्या में शायद ही कभी असावधानी से ठंडी साँस निकल जाए। ईर्ष्या इतनी कुत्सित वृत्ति है कि सभा समाज में, मित्रमंडली में, परिवार में, एकांत कोठरी में, कहीं भी स्वीकार नहीं की जाती। लोग अपना क्रोध स्वीकार करते हैं, भय स्वीकार करते हैं, घृणा स्वीकार करते हैं, लोभ स्वीकार करते हैं पर ईर्ष्या का नाम कभी मुँह पर नहीं लाते; ईर्ष्याव से उत्पन्न अपने कार्यों को दूसरी मनोवृत्तियों के सिर मढ़ते हैं। यदि हमें ईर्ष्या के कारण किसी की प्रशंसा अच्छी नहीं लग रही है तो हम बड़ी गंभीरता और सज्जनता प्रकट करते हुए उसके दोषों और त्रुटियों का निदर्शन करते हैं। वैर ऐसी बुरी वृत्ति तक कभी कभी ईर्ष्या को छिपाने का काम दे जाती है।

[चिन्तामणि, भाग-1]