ईश्वरवाद / गीताधर्म और मार्क्सीवाद / सहजानन्द सरस्वती
हम उसी चीज पर यहाँ विशेष प्रकाश डालने चले हैं। लेकिन उस अवतारवाद की जड़ में कर्मवाद है और है यह दार्शनिकों की चीज। गीता ने उसी को ले लिया है इसलिए जब तक कर्मवाद का विवेचन नहीं कर लिया जाता, अवतारवाद का रहस्य समझ में आ सकता नहीं। यही कारण है कि हम पहले कर्मवाद की ही बात उठाते हैं। यह कर्म का सिद्धांत किसी न किसी रूप में अन्य देशों के भी बहुतेरे दार्शनिकों ने - पुरानों ने और नयों ने भी - माना है। यह दूसरी बात है कि उनने खुल के ऐसा न लिखा हो। उनके अपने लिखने के तरीके भी तो निराले ही थे और सोचने के भी। इसीलिए उनने यह बात निराले ही ढंग से - अपने ही ढंग से - मानी या लिखी है। मगर हमारे देश के तो आस्तिक-नास्तिक सभी दार्शनिकों ने यह कर्मवाद स्वीकार किया है, सिवाय चार्वाक के। न्याय, सांख्य आदि दर्शनों के अलावे जैन, बौद्ध, पाशुपत आदि ने भी इसे साफ स्वीकार किया है। यह बात तो पहले ही कही जा चुकी है कि गीता ने भी कर्मवाद को माना है। मगर वह पौराणिक ढंग के कर्मवाद को स्वीकार न करके दार्शनिक कर्मवाद को ही मानती है, यह भी बताया जा चुका है। गीता के और और स्थानों में भी यह बात पाई जाती है। अठारहवें अध्या य के 'दैव चैवात्र पंचमम्' (18। 14) में यही बात 'दैव' शब्द से कही गई है, यह भी कह चुके हैं। चौथे अध्याैय के 'जन्म कर्म च मे दिव्यम्' (4। 9) में दैव की जगह दिव्य शब्द आया है। मगर बात वही है। दोनों शब्दों का अर्थ भी एक ही है। दिव् शब्द से ही दिव्य या दैव शब्द बनते भी हैं। यों तो उसके 7, 8 - दो - श्लोकों में जो कुछ कहा गया है वह कर्मवाद के ही आधार पर कहा जा सकता है। दूसरे ढंग से वह कभी भी युक्तिसंगत होई नहीं सकता।
हाँ, तो आइए जरा इस कर्मवाद की दार्शनिक तह में पहले घुसें और देखें कि इसकी हकीकत क्या है। हम पहले कह चुके हैं कि पदार्थों में बराबर परिवर्तन जारी है। फलत: कुछी दिनों बाद चीजें बदल के एकदम नई बन जाती है। यद्यपि हमें ऐसा पता नहीं चलता और न हम यही समझ पाते हैं कि सचमुच कोई चीज बदल चुकी है। इस बात में वैज्ञानिकों की भी सम्मति दी जा चुकी है। गीता ने भी यह बात शुरू में ही 'देहिनोऽस्मिन्' (2। 13) में स्वीकार की है। हमने वहीं पर इस परिवर्तन के दृष्टांत के रूप में किसी कोठी या बरतन में बंद करके रखे गए चावल का दृष्टांत भी दिया है और बताया है कि किस तरह नया चावल कुछ दिनों में बदल के बिलकुल ही दूसरा बन जाता है। यहाँ भी हम फिर उसी दृष्टांत को लेंगे। हालाँकि जो कुछ विचार अब करेंगे वह दूसरे ढंग से, दूसरे पहलू से होगा। मगर इसे समझने के लिए वहाँ लिखी सभी बातें स्मरण कर लेने की हैं। दुबारा लिखना व्यर्थ है। वैज्ञानिक की प्रयोगशाला की भी जो बात वहाँ लिखी है, खयाल कर लेने की है।
जब हम देखते हैं कि प्रतिक्षण, प्रति सेकंड हरेक पदार्थ से अनंत परमाणु निकलते और उनकी जगह नए-नए आ धमकते हैं तो हमें आश्चर्यचकित हो जाना पड़ता है। इसलिए प्रयोगशाला में बैठ के ही यह बात सोचने की है। क्योंकि दूसरे ढंग से इस पर आमतौर से लोगों को विश्वास होई नहीं सकता। लोगों के दिमाग में यह बात समाई नहीं सकती कि प्रतिक्षण हरेक पदार्थ के भीतर से असंख्य परमाणु निकलते और भागते रहते हैं और उनकी जगह ले लेते हैं नए-नए बाहर से आ के। विज्ञान के प्रताप से यह बात अब लोगों के दिमाग में आसानी से आ जाती है। मगर पुराने जमाने में जब ये वैज्ञानिक यंत्र कहीं थे नहीं और न ये प्रयोगशालाएँ थीं तब हमारे दार्शनिक विद्वानों ने ये बातें कैसे सोच निकालीं यह एक पहेली ही है। फिर भी इसमें तो कोई शक हई नहीं - यह तो सर्वमान्य बात है - कि उनने ये बातें सोची थीं, ढूँढ़ निकाली थीं। इन्हीं के अंवेषण, पर्यवेक्षण और सोच-विचार ने उन्हें अगत्या कर्मवाद के सिद्धांत तक पहुँचाया और उसे मानने को मजबूर किया। या यों कहिए कि इन्हीं को ढूँढ़ते-ढूँढ़ते उनने कर्मवाद का सिद्धांत ढूँढ़ निकाला।
हमारे नैयायिक दार्शनिकों का एक पुराना सिद्धांत है कि एक ही स्थान में दो द्रव्यों का समावेश नहीं होता। पार्थिव, जलीय आदि सभी पदार्थों को उनने द्रव्य नाम दिया है। रूप, रस आदि गुणों में कोई भी जिन पदार्थों में पाए जाएँ उन्हीं को उनने द्रव्य कहा है। वे यह भी मानते आए हैं कि कई द्रव्यों के संयोग से नया द्रव्य तैयार होता है। दृष्टांत के लिए कई सूतों के परस्पर जुट जाने से कपड़ा बनता है। सूत भी द्रव्य हैं और कपड़ा भी। फर्क यही है कि सूत अवयव हैं और कपड़ा अवयवी। सूतों के भी जो रेशे होते हैं उन्हीं से सूत तैयार होते हैं। फलत: रेशों की अपेक्षा सूत हुआ अवयवी और रेशे हो गए अवयव। रेशों के भी अवयव होते हैं और उन अवयवों के भी अवयव। इस प्रकार अवयवों की धारा - परंपरा - चलती है। उधर कपड़े को भी काट-छाँट के और जोड़-जाड़के कुर्त्ता, कोट वगैरह बनाते हैं। वहाँ पर कपड़ा अवयव हो जाता है और कोट, कुर्त्ते अवयवी। जितने नए सूत जुटते जाते हैं उतना ही लंबा कपड़ा होता जाता है - नया-नया कपड़ा बनता जाता है। उधर अवयवों के भी अवयव करते-करते कहीं न कहीं रुक जाना जरूरी होता है, जहाँ से यह काम शुरू हुआ है। क्योंकि अगर कहीं रुकें न और हर अवयव के अवयव करते जाएँ तो पता ही नहीं लगता कि आखिर अवयवी का बनना कब और कहाँ से शुरू हुआ। इसीलिए जहाँ जाके रुक जाएँ उसी को नैयायिकों ने परमाणु कहा है। परमाणु (Atom) का अर्थ ही सबसे छोटा, छोटे से छोटा - जिससे छोटा हो न सके। परमाणुवाद के बारे में और भी दलीलें हैं। मगर हमें यहाँ उनमें नहीं पड़ना है। उन पर कुछ प्रकाश आगे डाला गया है। गुणवाद के प्रकरण में।
इस प्रकार परमाणुओं के जुटने - संजोग - से चीजें बनती रहती हैं। अब मान लें कि कुछ परमाणुओं ने मिल के एक चीज बनाई। लेकिन, जैसा कि कह चुके हैं कि पुराने परमाणुओं का निकलना और नयों का जुटना जारी है, जब कुछ और भी परमाणु पुरानों के साथ, जिनने आपसे में मिल के कोई चीज बनाई थी, आ जुटे तो अब जो चीज बनेगी वह तो दूसरी ही होगी। पहली तो यह होगी नहीं। क्योंकि पहली में तो नए परमाणु थे नहीं। इसी प्रकार कुछ सूतों को जुटाकर कपड़ा बना। मगर सूत तो जुटते ही रहते हैं। इसलिए नए सूतों को पुरानों के साथ जुटने पर कपड़ा भी बनता ही जाएगा। हाँ, यह नया होगा, न कि वही पहले ही वाला। क्योंकि पहले तो ये नए सूत जुटे न थे। यही हालत सर्वत्र जारी रहती है। अब यहीं पर नैयायिकों की वह बात आती है कि एक ही स्थान में दो द्रव्यों का समावेश नहीं हो सकता है।
चाहे परमाणुओं वाली बात में या सूतों वाली। हम हर हालत में देखेंगे कि नए-नए कपड़े या नई-नई चीजें बनती जाती हैं। मगर सवाल तो यह होता है कि जिन सूतों से पहला कपड़ा बना है उन्हीं के साथ कुछ दूसरों के जुटने से दूसरा और तीसरा बनता है। यह बात चाहे जैसे भी देखें, यह तो मानना ही होगा कि पहले कि जिन सूतों से पहला कपड़ा बना और उन्हीं में उसका समावेश है, अंटाव है। उन्हीं में दूसरा भी बनता है और उसके बाद वाले कपड़े भी बनते हैं; हालाँकि दूसरे-तीसरे आदि का अंटाव कुछ नए सूतों में भी रहता है। मगर पहले सूतों में भी तो रहता ही है। पीछे वाले कपड़े पहले वाले सूतों के बिलकुल ही बाहर तो चले जाते नहीं। ऐसी हालत में उन्हीं सूतों में कई कपड़े कैसे अंटेंगे, यही तो पहेली है। कपड़े तो द्रव्य हैं। और द्रव्य तो जगह घेर लेते हैं। इसी से नैयायिक कहते हैं कि एक ही स्थान में एक से ज्यादा द्रव्यों का अंटाव या समावेश नहीं हो सकता।
तब सवाल होता है कि यदि एक ही कपड़ा उनमें रहेगा तो साफ ही है कि जोई पीछे या नया बनेगा, तैयार होगा, तैयार होता जाएगा वही सभी - नए पुराने - सूतों में समाविष्ट होगा। फलत: पहले वाले हट जाएँगे, नष्ट हो जाएँगे, खत्म हो जाएँगे। जैसे-जैसे नए सिरे से कपड़ा बनता जाएगा तैसे-तैसे पहले बने कपड़े नष्ट होते जाएँगे। इस प्रकार के सभी पदार्थों में यही प्रक्रिया जारी रहती है - पहलेवालों के नाश का यह सिलसिला जारी रहता है। दूसरा उपाय है नहीं - दूसरा चारा है नहीं। बात तो कुछ अजीब और बेढंगी-सी मालूम पड़ती है। मगर हमें इस दुनिया में कितनी ही बेढंगी बात माननी ही पड़ती है। जब बुद्धि और तर्क की कसौटी पर कसते हैं तो जो बातें खरी उतरें उनके मानने में उज्र क्या है? किसी जमाने में सूर्य स्थिर है और पृथिवी चलती है; इस बात के कहनेवालों को बड़ी आफतें झेलनी पड़ीं। मगर गणित और हिसाब-किताब की मजबूरी जो थी। वे लोग करते क्या? नतीजा यह हुआ कि आज आमतौर से वही बात मानी जाने लगी है।
पहले विज्ञान का यह विकास न होने के कारण लोगों को इसमें झिझक हुई। मगर आज तो विज्ञान ने ही बता दिया है कि जरूर ही पुराने वस्त्र, पुराने चावल, पुराने पदार्थ नष्ट हो जाते हैं और नए पैदा हो जाते हैं। भला कपड़े के बारे में तो नैयायिक दार्शनिक यह भी कहते थे कि साफ ही नए सूत जुटे हैं। देखने वाले देखते भी थे। मगर कोठी में बंद चावलों में कौन देखता है कि चावलों के नए परमाणु जुटते और पुराने भागते जाते हैं। पुराने सूतों की ही सूरत-शक्ल के नए सूत कपड़े में जुटते हैं। मगर चावलों के पुराने परमाणुओं में जो स्वाद या रस होता है उसी स्वाद और रस के नए परमाणुओं को आते और पुरानों की जगह लेते कौन देखता है? चावल का स्वाद दस साल के बाद बदल के गेहूँ का तो हो जाता नहीं। उसमें स्वाद, रस वगैरह चावल का ही रहता है। इससे मानना पड़ेगा कि जो नए परमाणु आए वे चावल के ही स्वाद और रस के थे। बात तो यह भी कम अजीब और बेढंगी-सी है नहीं। इसीलिए नैयायिकों की बात अब समझ में आ जाती है - आ सकती है। चावलों के ही परमाणुओं का - वैसे ही स्वाद, रस, रूप-रेखाओं का - खजाना किसने कहाँ जमा कर रखा है जो बराबर आते-जाते हैं? यह नहीं कि चावलों की ही बात हो। गेहूँ, चने, मटर आदि की भी तो यही बात है। पशु, पक्षी, मनुष्य, खाक, पत्थर सबों की यही हालत है। सबों में अपनी ही जाति के परमाणु आ मिलते हैं! फलत: यह तो मानना ही पड़ेगा कि सबों का अलग कोष, खजाना (Stock) कहीं पड़ा है। मगर पता नहीं कहाँ, कैसे पड़ा है। यही तो पहेली है। बरतन या कोठी के मुँह तो ऐसे बंद हैं कि जरा भी हवा आ-जा न सके। मगर ये अनंत परमाणु बराबर आते-जाते रहते हैं! यही तो माया है, जादू है!
यहाँ तक तो हमने इस पहेली की उधेड़-बुन दार्शनिक ढंग से की। मगर सवाल हो सकता है कि इसका कर्मवाद से ताल्लुक क्या है? ताल्लुक है और जरूर है। इसीलिए तो जरा विस्तार से हमने यह बात लिखी है। नहीं तो आगे की बात समझ में नहीं आती। बात यह है कि अनंत परमाणुओं का आना-जाना और पुरानी की जगह नई चीज का बन जाना एक पहेली है यह तो मान चुके। अब जरा सोचें कि आखिर यह होता है क्यों और कैसे? पुराने चावलों की जगह नए क्यों बने? वैसे ही परमाणु क्यों आए और उतने ही ही क्यों आए जितने निकले? यदि कमीबेशी भी हुई तो बहुत ही कम। गेहूँ में चावल के और चावल में गेहूँ के क्यों नहीं आ गए? गाय में भैंस के और भैंस में गाय के क्यों न घुसे? आदमी में पशु के तथा पशु में आदमी के क्यों न प्रवेश पा सके? मर्द में औरत के और औरत में मर्द के क्यों न चले आए? वृक्षों में पत्थर के और पत्थरों में वृक्षों के क्यों न जुटे? मूर्खों में पंडितों के तथा पंडितों में निरक्षरों के क्यों न लिपटे? ऐसे प्रश्न तो हजार-लाख हो सकते हैं, होते हैं।
इन परमाणुओं का वर्गीकरण कहाँ कैसे किया गया है? यदि काम कौन करता है? जिसमें जरा भी गड़बड़ी न हो, किंतु सभी ठीक-ठीक अपनी-अपनी जगह जाएँ-आएँ यह पक्का प्रबंध क्यों, किसने, कैसे किया? इसमें कभी गड़बड़ न हो इस बात का क्या प्रबंध है और कैसा है? परमाणुओं के कोष में कमी-बेशी हो तो उसकी पूर्ति कैसे हो? यदि यह माना जाए कि हरेक पदार्थ से निकलने वाले परमाणु अपने सजातियों के ही कोष में जा मिलते हैं, तो प्रश्न होता है कि ऐसा क्यों होता है और उन्हें कौन, कहाँ, कैसे ले जाता है? साथ ही यह भी प्रश्न होता है कि निकलने वाले परमाणुओं की जो हालत होती है वह तो कुछ निराली होती है, न कि कोष में रहनेवालों की ही जैसी। ऐसी दशा में उनके मिलने से वह कोष खिचड़ी बन जाएगा या नहीं? नए चावल का भात भारी होता है और मीठा ज्यादा होता है, बनिस्बत पुराने चावलों के। इसलिए यह तो मानना ही होगा कि चावल के भी परमाणु सबके-सब एक ही तरह के नहीं होते। ऐसी हालत में चावल के परमाणुओं के भी कई प्रकार के कोष मानने ही होंगे। अब यदि यह कहें कि नए चावलों के परमाणु पुनरपि वैसे ही नए चावलों में जा मिलेंगे और जब तक जाकर मिल जाते नहीं तब तक कहीं शांत पड़े रहेंगे, तो सवाल होता है कि यह बारीक देखभाल कौन करता है और क्यों? ठीक समय पर वैसे ही चावलों में उन्हें कहाँ, कैसे पहुँचाया जाएगा यह व्यवस्था भी कैसे होती है? यह तो ऐसा लगता है कि कोई सर्वशक्तिशाली और सर्वव्यापक देखने वाला चारों ओर आँखें फाड़ के हर चीज को बारीकी से देखता हो और ठीक समय पर सारी व्यवस्था करता हो। यह कैसी बात है, यह प्रश्न स्वाभाविक है? यह कौन है? क्यों है? कैसे है? ये प्रश्न भी होते हैं। उसके हाथ बँधे हैं या स्वतंत्र हैं? यदि बँधे हैं तो किससे? और तब वह सारे काम ठीक-ठीक करेगा कैसे? यदि स्वतंत्र हैं तो भी वही बात आती है कि सारे काम नियमित रूप से क्यों होते हैं? कहीं-कहीं मनजानी घरजानी क्यों नहीं चलती?
चावलों को ही ले के और भी बातें उठती हैं। माना कि चावलों से असंख्य परमाणु निकलते रहते हैं। तो फिर जरूरत क्या है कि उनकी जगह खाली न रहे और दूसरे परमाणु खामख्वाह आ के जम जाएँ? धीरे-धीरे चावल पतले पड़ जाएँ तो हर्ज क्या? खिर घुनों के खा जाने से तो ऐसा होई जाता है। कपूर के परमाणु निकलते हैं और उनमें नए आते नहीं। इसीलिए वह जल्द खत्म हो जाता है। वही बात चावलों में भी क्यों नहीं होती? यदि कहा जाए कि चावलवाला मर जो जाएगा, तो प्रश्न होता है कि आग लगने या चोरी होने पर क्या वह भूखों नहीं मर जाता जब चावल लुट जाते या जल जाते हैं? और कपूर वाले पर भी यही दलील क्यों न लागू हो? चावल जलने पर या लुट जाने पर जो होता है वही बात यों भी क्यों नहीं हो? किसी समय चावलों के परमाणु ज्यादा निकल जाएँ और वह गल-सड़ जाए और किसी समय नहीं, ऐसा क्यों होता है? इसी तरह के हजारों सवाल उठ खड़े होते हैं यदि हम इन पदार्थों के खोद-विनोद और अंवेषण में पड़ जाएँ। हमने तो यहाँ थोड़े से प्रश्न नमूने के तौर पर ही दिए हैं।
इसी खोद-विनोद, इसी जाँच-पड़ताल, इसी अंवेषण के सिलसिले में इन जैसे प्रश्नों के उत्तर ढूँढ़ते-ढूँढ़ते हमारे प्राचीन दार्शनिकों को विवश हो के ईश्वर और कर्मवाद की शरण लेनी पड़ी, यह सिद्धांत स्थिर करना पड़ा। मनुष्य अपनी पहुँच के अनुसार ही कल्पना करता है। हम तो देखते हैं कि नियमित व्यवस्था बुद्धिपूर्वक ही होती है। बिना समझ और ज्ञान के यह बात हो पाती नहीं। और अगर कभी घड़ी या दूसरे यंत्रों को नियमित काम करते देखते हैं तो उसी के साथ यह भी देखते हैं कि उनके मूल में कोई बुद्धि है जिसने उन्हें तैयार करके चालू किया है। वही उनके बिगड़ जाने पर पुनरपि उन्हें ठीक कर देती है। जड़ पदार्थों में तो यह शक्ति नहीं होती कि अपनी भूल या गड़बड़ देखें, त्रुटि का पता लगाएँ और उसे सँभालें। इसके बाद हम बाकी दुनिया में भी ऐसी ही व्यापक या समष्टि बुद्धि की कल्पना करते हैं, क्योंकि हम सभी मिल-मिला के भी बहुत से कामों को नहीं कर सकते। वे हमारी ताकत के बाहर के हैं। दृष्टांत के लिए चावल वगैरह के बारे में जो बातें पूछी गई हैं उन्हीं को ले सकते हैं। वे हमारी पहुँच के बाहर की बातें हैं। जिन्हें हम देख पाते नहीं उनकी व्यवस्था क्या करें? और अगर थोड़ी देर के लिए मान भी लें कि हमीं सब लोग उन्हें करते हैं, कर लेते हैं, कर सकते हैं, तो भी हम सबों के कामों की मिलान (Co-ordination) तो होनी ही चाहिए न । नहीं तो फिर वही गड़बड़ होगी। अब इस मिलान का करने वाला कोई एक तो होगा ही जो सब कुछ बखूबी जानता हो।
जो लोग इन प्रश्नों के संबंध में प्रकृति, नैसर्गिक-नियम, शाश्वत विधान (Nature, Natural Law, Eternal Law) आदि कह के बातें टाल देते हैं वे शब्दांतर से अपनी अनभिज्ञता मान लेते हैं। हमारा काम है गुप्त रहस्यों का पता लगाना, प्रकृति के - संसार के - नियमों को ढूँढ़ निकालना। दिमाग, अक्ल, बुद्धि का दूसरा काम है भी नहीं। इन बातों से किनाराकशी करना भी हमारा काम नहीं है। कोई समय था जब कहा जाता था कि योगियों का आकाश में यों ही चला जाना असंभव है, दूर देश का समाचार जान लेना गैरमुमकिन है। पक्षी उड़ते हैं तो उड़ें। उनकी तो प्रकृति ही ऐसी है। मगर आदमी के लिए यह बात असंभव है। अपेक्षाकृत कुछ कम-बेश दूरी पर हमारी आवाज दूसरों को भले ही सुनाई दे। मगर हजारों मील दूर कैसे सुनाई देगी? शब्द का स्वभाव ऐसा नहीं है, आदि-आदि। मगर अंवेषण और विज्ञान ने सब कुछ संभव और सही बता दिया - करके दिखा दिया! फलत: स्वभाव की बात जाती रही। मामूली-सी बात में भी तर्क-दलील करते-करते जब हम थक जाएँ और उत्तर न दे सकें, तो क्यों न स्वभाव या प्रकृति की शरण ले के पार हो जाएँ? तब हम भी क्यों न कह दें कि यही प्रकृति का नियम है, नित्य नियम है? बात तो एक ही है। ज्यादा बुद्धिवाले कुछ ज्यादा दूर तक जा के प्रकृति की शरण लेते हैं। मगर हम कम अक्लवाले जरा नजदीक में ही और यह कैसे पता चला कि यह प्रकृति का नियम है, नित्य नियम है? प्रकृति क्या चीज है? नियम क्या चीज है? किसे नियम कहें और किसे नहीं? पहले तो कहा जाता था कि पृथिवी स्थिर है और सूर्य चलता है। क्यों? यही नित्य नियम है यही उत्तर मिलता था। अब उलटी बात हो गई इसीलिए प्रकृति, नेचर, प्राकृतिक नियमों की बात करना दूसरे शब्दों में अपने अज्ञान, अपनी संकुचित समझ, अपनी अविकसित बुद्धि को कबूल करना है। यह बात पुराने दार्शनिक नहीं करते थे। और जब जड़ नियमों को मानते ही हैं, तो फिर चेतन ईश्वर को ही क्यों न मानें? अंधे से तो आँखवाला ही ठीक है न? नहीं तो फिर भी अड़चन आ सकती है।
इसीलिए उनने उस व्यापक हाथ, शक्ति या पुरुष को स्वीकार किया, या यों कहिए कि ढूँढ़ निकाला। उसके बिना इस संसार का काम उन्हें चलता नहीं दीखा। इसीलिए उसे पुरुष कहा, पुरुष का अर्थ ही है जो सर्वत्र पूर्ण या व्यापक हो। यदि उसमें अविद्या, भले-बुरे कर्म, सुख-दु:ख, राग-द्वेष या भले-बुरे संस्कार मनुष्यों जैसे ही रहे तो फिर वही गड़बड़ होगी। पुरुष तो जीवों को भी कहते हैं। आत्माएँ भी तो व्यापक हैं। इसीलिए उसे निराला पुरुष माना और पतंजलि ने योगसूत्रों में साफ ही कह दिया कि 'क्लेशकर्मविपाकाशयैरपरामृष्ट: पुरुषविशेष ईश्वर:' (1। 24) इसका अर्थ यही है कि अविद्या आदि से वह सर्वथा रहित है। इसीलिए उसे रत्ती:-रत्तीू चीजों का जानकार होना चाहिए। नहीं तो फिर भी दिक्कत होगी और संसार की व्यवस्था ठीक हो न सकेगी। उसका ज्ञान ऐसा हो कि उसकी कोई सीमा न हो - वह भूत, भविष्य, वर्तमान सभी काल के सभी पदार्थों को जान सके। इसीलिए पतंजलि ने कहा कि 'तत्र निरतिशयं सर्वज्ञबीजम्' (1। 25)। अगर वह मरे-जिए, कभी रहे कभी न रहे तो भी वही दिक्कत हो। इसलिए कह दिया कि वह समय की सीमा से बाहर है - नित्य है, अजर-अमर है। जितने जानकार, विद्वान, दार्शनिक और तत्वज्ञ अब तक हो चुके उसके सामने सब फीके हैं - तुच्छ हैं। क्योंकि देशकाल से सीमित तो सभी ठहरे और वह ठहरा इससे बाहर। इसीलिए वह सबों का दादागुरु है - 'पूर्वेषामपि गुरु: कालेनानवच्छेदात्' (1। 26)