ईश्वरार्पण और मदर्थ कर्म / पहला: अन्तरंग भाग / सहजानन्द सरस्वती
इस मनोवृत्ति का, इस दशा का पूरा परिपाक हो जाने पर चौथी सीढ़ी आती है, जो ऊपर उठने की दशा की दूसरी कही जा सकती है। इस दशा में पहुँचने पर संसार की विभिन्नता (diversity) का ज्ञान नहीं रहता है। जिस प्रकार मनुष्य व्यक्तित्व से शुरू करके समष्टि में पहुँच जाता है और वहाँ पहुँचते ही व्यक्तित्व लापता हो जाता है, ठीक उसी प्रकार समष्टि के ही थोड़ा और भी ऊपर उठने पर वह समष्टि भी विलीन हो जाती है। व्यक्तित्व या व्यष्टि और समष्टि ये दोनों ही सापेक्षिक चीजें हैं - इनमें एक को दूसरे की अपेक्षा है - ये दोनों परस्पर सापेक्ष हैं। जैसे पिता और पुत्र दोनों ही परस्पर सापेक्ष हैं। इसीलिए एक के ज्ञान के लिए दूसरे के ज्ञान की अपेक्षा है और इसीलिए यदि किसी को दूसरे की अपेक्षा न जानें तो उसे पिता या पुत्र न कह के आदमी, इनसान या मनुष्य ही कहेंगे और जानेंगे भी। यही बात व्यष्टि तथा समष्टि की भी है। जब तक ये दोनों हैं - जब तक इन दोनों का ज्ञान होता है -तभी तक इनकी हस्ती है, सत्ता है। मगर ऊपर उठते-उठते जब व्यष्टि का लोप सोलहों आना हो गया तो फिर समष्टि बुद्धि भी कहाँ रहेगी, कैसे होगी? इसीलिए सर्वत्र समरसता, एकरसता का ज्ञान होने लगा। गीता इसे ही ब्रह्मज्ञान या परमात्मा का ज्ञान कहती है। उस दशा में जो कुछ किया जाता है वह यज्ञार्थ होते हुए भी ईश्वरार्थ, ब्रह्मार्पण, मदर्पण या मदर्थ कर्म कहा जाता है। 'मयि सर्वाणि कर्माणि' (3 । 30), 'यत्करोषि' (9 । 27), 'स्वकर्मणा तमभ्यर्च्य' (18 । 46), 'चेतसा सर्वकर्माणि' (18 । 57), आदि गीता के वचनों में यही बात कही गई है। इसी के बारे में कहा जाता है कि भगवदर्पण बुद्धि से या भगवान की प्रसन्नता के लिए कर्म किया जा रहा है। असल में आत्मा और समस्त संसार - दोनों ही - जब परमात्मा बन गए और उसके सिवाय इनकी जुदा स्थिति रही नहीं गई, तब तो जो कुछ होता है उसे भगवदर्पण-बुद्धिपूर्वक ही माना जाना चाहिए।