ईश्वरीय कमतरियां और मानवीय साहस / जयप्रकाश चौकसे
प्रकाशन तिथि :12 सितम्बर 2016
भारत की रेशमा कुरेशी ने न्यूयॉर्क के फैशन समारोह में लोगों का दिल जीत लिया। अर्चना कोचेकर के द्वारा डिज़ाइन की गई पोशाक पहनकर वे प्रस्तुत हुईं और सबसे अधिक सराही गईं। मात्र दो वर्ष पूर्व उनकी बहन द्वारा ठुकराए गए पागल प्रेमी ने रेशमा के चेहरे पर तेजाब फेंक दिया था, जिस कारण उनकी एक आंख की रोशनी चली गई, चेहरा झुलस गया। अस्पताल में दर्द की सेज पर महीनों रहकर उनका इलाज हुआ, बाई अांख तो वापस नहीं लौटी परंतु तेज़ाब के निशान कुछ हद तक मिटाने में सफल रहीं परंतु अभी भी एक गहरा चिह्न जस का तस है, जिसे अब वे साहस के पदक की तरह धारण करती हैं। उन्होंने तेज़ाब की खुली बिक्री पर रोक लगाने का आंदोलन भी किया परंतु सफलता नहीं मिली। इस प्रकरण में यह जानकारी नहीं मिली की तेज़ाब फेंकने वाले को सजा हुई या वह मात्र दो वर्ष की सजा काटकर अब आजाद घूम रहा है गोयाकि तेज़ाब की चलायमान दुकान खुली हुर्ई है। क्या कानूनी दंड से अपराध समाप्त हो जाता है? यह तय है कि आंख के बदले आंख कोई आदर्श दंड विधान नहीं है। गांधीजी ने इस विषय पर कहा था कि इस तरह का दंड विधान दुनिया को अंधों की बस्ती बना देगा परंतु तब भी चतुर काईया व्यापारी अंधों को आईना बेचने में सफल होंगे। व्यापार क्षेत्र प्रार्थना संसार से बड़ा और ताकतवर है। सामूहिक कत्ल को परोक्ष बढ़ावा देने वाला व्यक्ति शिखर सिंहासन पर विराजमान हो जाता है। मनुष्य की जन्मना कमतरी को ईश्वरीय कमतरी की तरह संबोधित किया जाता है- 'चिल्ड्रन ऑफ लेसर गॉड।'
अमेरिका के फिल्म व्यवसाय में यह मान्यता है कि ईश्वरीय कमतरी के व्यक्ति को केंद्रीय पात्र बनाकर फिल्म बनाने पर ऑस्कर पाने की संभावना बढ़ जाती है। यह अमेरिकी समाज की सहिष्णुता है। अमेरिकी समाज और सरकार को समझना कठिन है कि वहां इस तरह की फिल्मों को सराहा जाता है गोयाकि मानवीय दर्द के प्रति वे संवेदनशील हैं परंतु वियतनाम, कोरिया इत्यादि जगहों पर अपनी फौज को उन्होंने भेजा है और अनावश्यक युद्ध का प्रारंभ किया है। यह बात भी गौरतलब कि आधुनिकतम हथियारों से सुसज्जित उनकी सेना कहीं सफल नहीं हुई और दूसरे विश्वयुद्ध में सफलता का कारण ब्रिटिश रणनीति और रूस का अनगिनत लोगों को युद्ध में झोंकना निर्णायक रहा है। युद्ध एक व्यापार है परंतु व्यापारिक दृष्टिकोण से युद्ध जीता नहीं जाता।
हॉलीवुड की तरह भारतीय फिल्म उद्योग में भी ईश्वरीय कमतरी पर अनेक फिल्में बनी हैं। लगभग साठ वर्ष पूर्व दिलीप कुमार अभिनीत 'दीदार' में नायक अंधत्व से जूझता है। खाकसार की लिखी आरके नय्यर की संजीव कुमार अभिनीत 'कत्ल' में भी नायक दुर्घटना में आंखें खो देता है परंतु अपनी बेवफा प्रेमिका का कत्ल करने में सफल होता है। ताराचंद बड़जात्या ने एक लंगड़े और एक दृष्टिहीन मित्र की कहानी 'दोस्ती' के नाम से बनाई थी। गुलजार ने मूक दंपती पर संजीव कुमार और जया भादुड़ी अभिनीत 'कोशिश' बनाई थी, जिसकी प्रेरणा उन्हें जापानी फिल्म 'हैपीनेस फॉर अस अलोन' से प्राप्त की थी। इस किस्म की फिल्मों में मणिरत्नम की 'अंजलि' शिखर स्थान रखती है। अमिताभ बच्चन अभिनीत 'पा' भी श्रेष्ठ फिल्म मानी जाती है। संजय लीला भंसाली की 'गुजारिश' भी ऐसे ही पात्रों की फिल्म है। श्रीदेवी व कमल हासन अभिनीत 'सदमा' भी महान फिल्मों में शुमार है। पांचवें दशक की 'जागृति' अत्यंत सफल रही थी और उसी से प्रेरित फिल्म पाकिस्तान में भी बनी थी। रामानंद सागर की 'आंखें' तो जासूसी कथा थी परंतु इसी नाम से बनी एक फिल्म में तीन अापाहिज पात्र एक बैंक लूटने में सफल होते हैं।
दरअसल इस तरह की फिल्में और यथार्थ की घटनाएं मनुष्य के साहस और असीमित शक्तियों की कीर्ति गाथाएं हैं। राणा सांगा ने 84 घावों के बावजूद युद्ध में भाग लिया था। राजपूत पृथ्वीराज चौहान और कवि चंद बरदाई की कथा भी प्रसिद्ध है कि मोहम्मद गोरी ने उनकी आंखें निकाल ली थीं और चंद बरदाई के काव्य से संकेत पाकर पृथ्वीराज चौहान का तीर सीधे मोहम्मद गोरी को लगता है। काव्य द्वारा संकेत कुछ इस प्रकार का था, चार बांस चौबीस गज, अंगुल अष्ट प्रमाण, ता ऊपर सुल्तान है मत चूके चौहान।'