ईश्वर की खोज / ओशो

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प्रवचनमाला

कल रात्रि नदि के तट पर था। नदी की धार चांदी के फीते की भांति दूर तक चमकती चली गयी थी। एक मछुआ डोंगी को खेता हुआ आया था और देर से बोलते हुए जल-पक्षी उसकी आवाज से चुप हो गये थे।एक मित्र साथ थे। उन्होंने एक भजन गाया था और फिर बात ईश्वर पर चली गयी थी। गीत में भी ईश्वर की खोज की बात थी। जिन्होंने इसे गया था, उनके जीवन के अनेक वर्ष ईश्वर की तलाश में ही बीते हैं। मेरा परिचय उन से कल ही हुआ था।

विज्ञान के स्नातक हैं और फिर किसी दिन ईश्वर की धुन ने उन्हें पकड़ लिया था। तब से अनेक वर्ष इसी धुन में गये हैं, पर कुछ उपलब्ध नहीं हुआ है।मैं भजन सुनकर चुप था। उनकी आवाज मधुर थी और मन को छूती थी। फिर भजन के पीछे हृदय था और उस कारण गीत जीवित हो उठा था। मेरे मन में उसकी प्रतिध्वनि गूंज रही थी, पर उन्होंने इस मौन को तोड़कर अनायास पूछा था,

'यह ईश्वर की तलाश कहीं भ्रम तो नहीं है? पहले में आशा से भरा था, पर फिर धीरे-धीरे निराश होता गया हूं।'

मैं फिर थोड़ी देर चुप रहा और बाद में कहा,

'ईश्वर की तलाश भ्रम ही है, क्योंकि ईश्वर खोजने का प्रश्न ही नहीं उठता। वह सदा ही उपस्थित है। पर हमारे पास, उसे देख सके, ऐसी आंखें नहीं हैं, इसलिए असली खोज सम्यक-दृष्टिं को पाने की है।'

एक अंधा आदमी था। वह सूरज को खोजना चाहता था। वह खोज गलत थी। सूरज तो है ही, आंखें खोजनी है। आंखें पाते ही सूरज मिल जाता है। साधरणत: ईश्वर का तलाशी, सीधे ईश्वर को खोजने में लग जाता है। वह अपनी आंखों का विचार ही नहीं करता है।

यह आधारभूत भूल परिणाम में निराशा लाती है। मेरा देखना विपरीत है।

मैं देखता हूं कि असली प्रश्न मेरा है और मेरे परिवर्तन का है। मैं जैसा हूं, मेरी आंखें जैसी हैं, वही मेरे ज्ञान की और दर्शन की सीमा है। मैं बदलूं, मेरी आंखें बदलें, मेरी चेतना बदले, तो जो भी अदृश्य है, वह दृश्य हो जाता है। और फिर जो अभी हम देख रहे हैं, उसकी ही गहराई में ईश्वर उपलब्ध हो जाता है। संसार में ही प्रभु उपलब्ध हो जाता है।

इसलिए मैं कहता हूं : धर्म ईश्वर को पाने का नहीं, वरन् नई दृष्टिं, नई चेतना पाने का विज्ञान है। प्रभु तो है ही, हम उसमें ही खड़े हैं, उसमें ही जी रहे हैं। पर आंखें नहीं हैं, इसलिए सूरज दिखाई नहीं देता है। सूरज को नहीं, आंखों को खोजना है।

(सौजन्य से : ओशो इंटरनेशनल फाउंडेशन)