ईश्वर की मूर्ति / प्रताप नारायण मिश्र
वास्तव में ईश्वर की मूर्ति प्रेम है, पर वह अनिर्वचनीय, मूकास्वादनवत्, परमानंदमय होने के कारण लिखने वा कहने में नहीं आ सकता, केवल अनुभव का विषय है। अत: उसके वर्णन का अधिकार हमको क्या किसी को भी नहीं है। कह सकते हैं तो इतना ही कह सकते हैं कि हृदय मंदिर को शुद्ध करके उसकी स्थापना के योग्य बनाइए और प्रेम दृष्टि से दर्शन कीजिए तो आप ही विदित हो जाएगा कि वह कैसी सुंदर और मनोहर मूर्ति है। पर यत: यह कार्य सहज एवं शीघ्र प्राप्य नहीं है। इससे हमारे पूर्व पुरुषों ने ध्यान धारण इत्यादि साधन नियत कर रक्खे हैं जिनका अभ्यास करते रहने से उसके दर्शन में सहारा मिलता है। किंतु है यह भी बड़े ही भारी मस्तिष्कमानों का साध्य। साधारण लोगों से इसका होना भी कठिन है। विशेषत: जिन मतवादियों का मन भगवान् के स्मरण में अभ्यस्त नहीं है, वे जब आँखें मूँद के बैठते हैं तब अंधकार के अतिरिक्त कुछ नहीं देख सकते और उस समय यदि घर गृहस्थी आदि का ध्यान न भी करैं तौ भी अपनी श्रेष्ठता और अन्य प्रथावलंबियों की तुच्छता का विचार करते होंगे अथवा अपनी रक्षा वा मनोरथ सिद्धि इत्यादि के मानस से परमात्मा की भी सुध करते हों तो करते हों, नहीं तो केवल मुख से कुछ नियत शब्दों का उच्चारण छोड़ कर ईश्वर का वास्तविक भजन पूजन यदि एक मिनिट भी करते हों तो हमारा जिम्मा। कारण इसका यह है कि मनुष्य का मन होता है चंचल। वह जब तक किसी बहुत ही सुदंर वा भयंकर वस्तु अथवा व्यक्ति वा सुख द़ु:खादि की ओर न चला जाए तब तक एकाग्र कदापि नहीं होता। हाँ, बड़े-बड़े योगी अभ्यास करते-करते उसे स्वेच्छानुवर्ती बना सकते होंगे, पर अपने सहबर्तियों में तो हम किसी का सामर्थ्य नहीं देखते कि संगीत साहित्य सुरा सौंदर्य इत्यादि की सहायता के बिना कोई मन को एक ओर कर सकता हो, विशेषत: ईश्वर की ओर, जिसकी सभी बातें मन बुद्धि चित्त अहंकार से परे हैं। फिर हम क्यों न कहें कि प्रतिमा पूजन के विरोधी ईश्वर का पूजन तो क्या दर्शन भी नहीं कर सकते। विचार कर देखिए तो प्रतिमा पूजन से नास्तिकों के अतिरिक्त बचा कोई भी नहीं है। जो ईश्वर को मानेगा उसका निर्वाह किसी न किसी प्रकार की प्रतिमा के बिना नहीं हो सकता चाहे ध्यानमई प्रतिमा हो चाहे शब्दमई प्रतिमा हो, हैं सब हमारे ही मन और बचन का विकास और उस निराकार निर्विकार के महत्व का अभ्यास मात्र। पर क्या कीजिए ईश्वर को मान कर चुपचाप बैठे रहें अथवा मन में किसी भाँति उसका विचार आने ही न दें तौ भी नहीं बनता। इसीसे आस्तिक मात्र को उसकी प्रतिमा बनानी पड़ती है। जहाँ हमने मन अथवा बचन से कहा - 'हे प्रभु हम पर दया करो,' वहीं हम उस निराकार की छाती के भीतर मन की कल्पना कर चुके। क्योंकि मन न होगा तो दया ठहरेगी कहाँ, और शरीर न होगा तो मन रहेगा कहाँ? जिस समय हम कहते हैं कि 'हे नाथ! हमारी रक्षा करो, हम तुम्हें प्रणाम करते हैं' उस समय उस अप्रतिम के अस्तित्व में हाथ और पाँव की कल्पना करते हैं क्योंकि रक्षा हाथों से की जाती है और प्रणाम चरणों पर किया जाता है। कारण के बिना कार्य का मान लेना तर्कशास्त्र के विरुद्ध है, फिर कौन निराकारवादी ईश्वर के मन:कल्पित हस्तपदादि रचना से बच गया? पाषाण धात्वादि निर्मित मूर्ति के पूजने वालों में और इनमें केवल इतना ही अंतर है कि इनके यहाँ की ईश्वर प्रतिमा केवल मन के भाव से गढ़ी जाती है और उनके यहाँ की रजत कांचनादि से, तथा यह मन और बचन से ईश्वर के हाथ पाँव इत्यादि स्वीकार करते हुए भी देख नहीं सकते तथा सर्वसाधारण के आगे कहते हैं कि हमारा ईश्वर निरवयव है और वह जैसा मानते हैं वैसा सबके सामने कह भी देते हैं कि भाई, हमारा ईश्वर लँगड़ा लूला अंधा बहिरा नहीं है, उसके कर पद नयनादि कमल के समान कोमल और सुंदर हैं। फिर मूर्तिपूजक लोग ईश्वर को कौन सी गाली देते हैं कि उन पर आक्षेप किया जाए? विचार के देखिए तो दूसरे पूजकों के देखे इनमें इतनी विशेषता है कि अन्य लोग केवल उसकी महिमा तथा अपने स्वार्थ साधनादि की प्रार्थना का केवल जबानी जमा खर्च रखते हैं। किंतु यह मन और बचन के अतिरिक्त चंदन पुष्पादि के द्वारा तन और राग भोगादि के द्वारा धन से भी उसकी सेवा करते हैं, अपने शयन भोजनादि में भी उसका स्वामित्व बनाए रहते हैं, बरंच उसकी प्रसन्नता के लिए तीर्थ वृतादि में नाना कष्ट सहते हैं, काम पड़े तो उसके लिए प्राण तक उत्सर्ग कर देने को प्रस्तुत रहते हैं। इनके प्रेम की सच्चाई में औरंगजेब के समय मसीह नामक फारसी कवि ने शाक्षी की भाँति कहा था कि अन्य धर्मियों में बहुत थोड़े लोग हैं, बरंच नहीं हैं, जो ईश्वर के नाम पर धन भी लुटा देते हों, किंतु मूर्तिपूजकों का साहस सराहने योग्य है जो उसकी प्रतिमा पर शिर तक निछावर कर देते हैं। एक ऐसो आर्यद्वेषी यवन सम्राट को यहाँ वाले विदेशी विद्वान की लेखनी से ऐसा बचन निकलना क्या इस बात की पक्की शाक्षी नहीं है कि प्रतिमापूजक ईश्वर के साथ बहुत बड़ा प्रेम संबंध रखते हैं? इन्हीं के समुदाय में ऐसे ज्ञानियों औ प्रेमियों की संख्या अधिक निकलेगी जो संसार के यावत् सजीव निर्जीव पदार्थों को ईश्वर ही की मूर्ति समझते हैं। "मैं सेवक सचराचर रूपरासि भगवंत" - इसका अभिप्राय कुतर्की लोग न समझें तो कोई हानि नहीं है, पर समझने वाले समझ सकते हैं कि जितनी मूर्तियाँ हैं वे सब ईश्वर से व्याप्त हैं और ईश्वर ही सबका एक मात्र स्वामी है। इन दोनों रीतियों से उन्हें ईश्वर की मूर्ति के अतिरिक्त और क्या कहा जा सकता है? और जिस ईश्वर को हम अपना प्रेमपात्र समझते हैं उसके निवासस्थान वा अधिकृत पदार्थ तथा स्मारक चिह्नों की पूजा किए बिना क्योंकर रह सकते हैं? इसके लिए बड़े-बड़े प्रमाण ढूँढ़ना भी मानो उसके सच्चे प्रेम से जी चुराना है। मजनू ने एक बार लैला के पालित कुत्ते को अपना बहुमूल्य दुशाला उढ़ा दिया था और बड़े आदर से आलिंगन किया था। इस कथानक पर केवल वही लोग हँसे तो हँसा करें जिन को मतवाद अधिक प्रिय है किंतु जिन्हें ईश्वर प्यारा है वे ऐसी कथाओं को बड़े आदर से सुनेंगे और मनावेंगे कि भगवान हमें भी ऐसा करे। पर जब तक हम ऐसे अधिकारी नहीं हुए तब तक यदि उन मूर्तियों का आदर करें जिनके देखने से हमें ईश्वर के रूप गुण स्वभावादिक स्मरण होता है, तो क्या बुरा करते हैं? इस पर यदि हमारे विपक्षी साहेब कहें कि - 'ऐसा है तो फिर जूता… हाड़ इत्यादि को क्यों नहीं पूजते?' तो हमारा यह उत्तर कहीं नहीं गया कि पूजा का अर्थ है सत्कार, और सत्कार उसका किया जाता है जिसे देख सुन के चित्त में प्रेम और प्रसन्नता आवै। अत: जिन्हें उक्त पदार्थों से प्रीति हो वे शौक से उन्हें पूजें पर हम तो अभी इस दर्जे को नहीं पहुँचे, हमें तो नीच प्रकृति के मनुष्यों तक से अश्रद्धा है, अस्मात् पाषाणादि मूर्तियों को पूजनीय मानेंगे, जो न कभी किसी से छल कपट करती हैं, न कुछ माँगती हैं, न कटु वाक्य निकालती हैं। बरंच सम्मुखस्था होते ही हमारे प्यारे मुरली मुकुट धनुर्वाण खंगाकुंश त्रिशूलादिधारी हृदयविहारी का स्मरण कराती हैं जिसके साथ ही हमें बीरता निर्भयता रसिकता आदि की शिक्षा प्राप्त होती है और चंदन कपूर्रादि की सुगंध से घ्राणेन्द्रिय तथा मस्तिष्क आमोदित हो जाता है, पंचामृतप्रसादादि से मुख मीठा होता है, नाना भाँति के गीत बाद्यादि से श्रवण पवित्र एवं प्रमुदित होते हैं, श्रृंगार की छटा तथा एक-एक अंग की शोभा से नेत्र कृतार्थ होते हैं, फिर ऐसी तत्क्षण फलदायिनी प्रतिमाओं को हम क्यों न ईश्वर की प्रतिमा मानें जिनके कारण इस गिरी दशा में भी हमारे सैकड़ों नगरों की शोभा और सहस्त्रों देशभाइयों का उपकार होता है। यदि नए मतवालों का ईश्वर इनके पूजन को अपना पूजन न समझे तो हम समझते हैं वह उन लघुबयस्का निरक्षरा सुंदरियों से भी नासमझ है जिन्हें हम दूसरों पर ढालकर अपने मन का स्नेह समझा देते हैं और वे संकेत मात्र से सब बातें समझ जाती हैं। बरंच इतर लोगों की लज्जा से बोलने का अवसर न होने पर भी हमें संतोषदायक उत्तर दे देती है। पर ईश्वर महाराज इतना भी नही समझ सकते कि यह प्रतिमा को पूजता है अथवा हमको? यदि ऐसा है तो हम ऐसे समझ के शत्रु को मानना कैसा ईश्वर ही कहना नहीं चाहते। हमारा ईश्वर तो बिना कहे भी हमारे हृदयगत भाव जान लेता है। तिस पर भी जब हम यह न कह के कि - 'हे पाषाण, हमारी पूजा ग्रहण करो', यों कहते हैं कि - 'हे परमेश्वर, हमारी सेवा स्वीकार करो', तो ईश्वर क्योंकर हमें बुतपरस्त समझेगा? जब कि हमारी मूर्तियाँ ही ऐसी सुडौल शिर से पैर तक ईश्वरीय भाव से पूर्ण होती हैं तो हम क्यों न अपने ईश्वर को उन्हीं के द्वारा रिझावें? इसपर जो लोग में हँसते हैं उन्हें पहिले अपने यहाँ की मूर्तियों को देख के लज्जित होना चाहिए जिनका वर्णन उनके मान्य ग्रंथों में ऐसा अधूरा किया गया है कि एक तो सब अंगों का बोध भी नहीं होता, केवल हाथ पाँव नेत्रादि दो चार अवयव वर्णित हैं, सो भी ऐसे अनगढ़ कि किसी पंच (हास्यजनक समाचारपत्र) में दे दिए जाए तो पाठकों को हँसाते-हँसाते लुटा दें। यहाँ हम बाइबिल और कुरान में लिखे ईश्वर के अंगों का वर्णन नहीं करते, क्योंकि एक तो उनमें केवल दो एक अंगों को छोड़ के औरों का नाम भी नहीं है। दूसरे जहाँ पर लिखा है कि ईश्वर ने आदम को अपने स्वरूप में बनाया, हाँ यदि "अपने" शब्द का अर्थ आदम की ओर न लगा के ईश्वर की ही ओर लगाएँ तो भी कोई हानि नहीं है क्योंकि आदम की सूरत सिर से पैर तक किसी भाँति अपूर्ण व अनमेल न थी। तीसरे हमारे मुहम्मदीय और मसीहा भाई इन दिनों इस विषय में हमसे छेड़ के विवाद नहीं लेते। अत: हमें तो उनसे झगड़ना अनुचित है। पर हमारे दयानंदी हिंदू भाई इस बात का बाना बाँधे फिरते हैं। इससे हमें उनके यहाँ की कूर्तियाँ देखनी हैं। यदि च वे अपने स्वामी जी के चित्र का अनादर नहीं सह सकते जिसका मूल्य छह पैसे और अधिक से अधिक दो रुपया है, तथा सुदरता भी ऐसी नहीं है जैसी हमारे रामकृष्णादि की तसवीरों में होती है, और बस, किंतु हमारी स्वर्ण रजत हीरकादि की देव प्रतिमा पोप लीला है, उनका अनादर कोई बात नहीं, पर स्वामी जी क्या फोटो बड़े खूबसूरत चौकठे में बड़ी इज्जत के साथ रखना चाहिए। यों ही जहाँ वेदों में अक्षरार्थ के द्वारा कोई शंका उठावें तो छुटते ही यह उत्तर होगा कि उस रिचा का गूढ़ार्थ और है अथवा अलंकारिक वर्णन है किंतु पुराणों में जहाँ सहज में समझने योग्य विषय न हों वहाँ गूढ़ार्थ वा अलंकारिक अर्थ कुछ नहीं है, केवल गप्पम्बर्तते। और इस पर तुर्रा यह है कि ऐसी ही समझ पर देशहित और ऐक्य प्रचार का भी दावा है। पर हम पूछते हैं कि हठ का अबलंबन न करके कभी कोई भी देश वा जाति में एका फैला सका है कि आप ही अनोखे बन के आए हैं? हमें श्री स्वामी दयानंद सरस्वती की प्रतिकृति अथवा वेद भगवान से बैर नहीं है, पर साथ ही यह भी जिद्द नहीं है कि इनके सिवा और सब बुद्धिविरुद्ध हैं। नहीं, अपने पूर्वपुरुषों के साधारण चिह्न का भी हमें ममत्व स्वभावत: होना चाहिए यदि हम उनके संतान हैं। फिर प्रतिमा और पुराण तो उनके वर्षों के परिश्रम के फल हैं, उनका उपहास करके हम जगत एवं जगदीश्वर को क्या मुँह दिखावैंगे? और यों तो कुतर्क के लिए सभी राहें खुली हैं। प्रतिमा और पुराण का क्या कहना है, ईश्वर और वेद पर भी आक्षेप हो सकता है। और केवल मुँह के आस्तिकों को उसका उत्तर सूझना कठिन पड़ेगा। न मानिए तो सुन लीजिए, पर उन्हीं कानों से जिनसे आप हमें पुराणों की गुड़बड़ाध्याई सुनाना चाहते हैं। शब्दार्थ और अक्षरार्थ से अलग कोई बात कहिएगा तो हम पुराणों के मंडन में धर धमकेंगे। यह भी स्मरण रखिए कि अलंकार का नाम न लीजिएगा नहीं तो स्वामीजी के भाष्य में केवल चार ही पाँच मिलेंगे, जिनके द्वारा वेद भगवान् की सीधी सादी लेख प्रणाली में बनावट झलकने लगेगी। किंतु हम एक सौ आठ नाम और लक्षण ले बैठेंगे जिनका वेदों में पता भी न लगेगा किंतु पुराणों में अध्याय के अध्याय मिलेंगे। और उस दशा में आप तर्कशास्त्र का अवलंबन करके न बच सकिएगा, केवल काव्यशास्त्र का आश्रय लेना पड़ेगा, जो आपके यहाँ यदि हैं भी तो नहीं के बराबर। पर इन बातों से हमें क्या, बिना जाने हुए विषय में जो कूदेगा वह आप हास्यास्पद होगा। अत: हम अपने प्रस्ताव में क्यों विलंब करें।
हम पर यह दोष लगाया जाता है कि सर्वव्यापी असीम परमात्मा को बित्ता दो बित्ता की मूर्ति में ठहराते हैं। पर वेदों में जहाँ विराट स्वरूप का वर्णन है वहाँ भूमि उसके चरण और सूर्य उसके नेत्र माने गए हैं। असीमता इसमें भी नष्ट हो जाती है क्योंकि पृथ्वी और सूर्य के बीच की दूरी स्कूल के बालक तक जानते हैं, वह असीमता के आगे कुछ भी नहीं है। और सुनिए, नेत्र तो हुए सूर्य, पर नेत्र के आगे ऊपर वाले अंगों (मस्तक, कपाल आदि) का नाम ही नदारद। यदि खगोल विद्या के अनुसार मान लें कि नेत्र के ऊपर वाले अंगों के स्थानापन्न वह ग्रह नक्षत्रादि हैं जो सूर्य के ऊपर हैं तो बड़ा ही मजा हो। सूर्य के ऊपर हैं शनिश्चर, वह ईश्वर की खोपड़ी में जा बैठेंगे! कौन जाने इसी से उनका रंग काला वर्णन किया गया हो और इसीसे मतवादियों के ईश्वर की अक्किल डाँवाँडोल रहती हो! इसके सिवा 'यस्यभूमि: प्रभांतरिक्षमुतोदरम्' तथा 'यस्य सूर्यश्चक्षु:' इत्यादि रिचाओं से भूगोल विद्या के अनुसार और भी बड़े तमाशे की बात निकलती है। अर्थात् सूर्य धरती से लाखों गुण बड़ा है सो तो हुवा नेत्र और धरती हुई चरण जिसका वृत्त केवल पचीस सहस्त्र मील के लगभग है। इस लेखे से ईश्वर का स्वरूप 'राई भरे के बिटिया भांटा की बराबर आँख' का उदाहरण बना जाता है। इसके साथ ही जब यह लिखा देखिएगा कि एक आँख सूर्य है दूसरी चंद्रमा, जो पृथिवी से भी कहीं छोटा है, तो हँसी रोकना मुश्किल पड़ेगा। वाह! एक आँख गल भर की, दूसरी आलपीन की नोक भर की भी नहीं! चरणारविंद ऐसे विचित्र कि एक आँख की अपेक्षा लाखों गुना छोटे और दूसरी आँख से बड़े। तिस पर भी तुर्रा यह कि आँखें भी गोल और पाँव भी गोल। भला ऐसी विचित्र मूर्ति को कौन न कहेगा कि पंच की तसवीर है। आँख की छुटाई बड़ाई का दोष 'सहस्त्रशीर्षा पुरुष:' वाले मंत्र में निकाल डाला गया है। पर वह दोष निकल जाने पर भी ईश्वर को मंगलमय कहते ही डरेगा क्योंकि जब सहस्त्र शिर हुए तो आँखें दो सहस्त्र चाहिए, पर यहाँ वे भी सहस्त्र ही हैं अत: मंगल सवरूप के बदले शुक्र स्वरूप हुए जाते हैं, जो 'नमस्ते' ही भाइयों के मध्य राज्य करने के काम के हैं न कि भक्तों के समुदाय में।
इस प्रकार के कुतर्क वेदों में बहुत जगह निकल सकते हैं जिनकी अपेक्षा ईश्वर का न मानना ही भला है। पर आस्तिकों को उसके माने बिना शांति नहीं होती। इसीसे पुराणों में जहाँ कहीं उसके स्वरूप की कल्पना की गई है वहाँ तदनुरूप यथातथ्य रीति से की गई है पर जिन्हें हार जीत का व्यसन है उन्हें पराए दोष ही ढूँढ़ने में संतोष होता है। पर हमारी दृष्टि में दूसरों को कुछ कहना अपने ही ऊपर दोष लगवाना है। इससे ईश्वर के विषय में केवल इस वाक्य का अनुसरण करना श्रेयस्कर है कि 'अनेकरूपरूपाय विष्णवे प्रभविष्णवे।' इसके अनुसार चौराहे की ईंट, मट्टी का ढेला और हीरा मोती की प्रतिमा सब ईश्वर ही की मूर्ति हैं और उन्हें जो जिस भाव से सच्चे मन के साथ पूजेगा वही अपने मनोरथ को प्राप्त करेगा। क्योंकि ईश्वर किसी रीति विशेष के हाथ बिक नहीं गया न भक्तों की मनसा के अनुकूल रूप धारण में अक्षम है। उसमें किसी शक्ति का अभाव नहीं है। पर इसमें भक्ति होनी चाहिए और यों मौखिकवाद के आगे ईश्वर ही कुछ नहीं है उसकी मूर्ति तो कहाँ से आवेगी। जब आप हमारी मूर्तियों को वैदिक प्रमाणों से पाषाण बनावैंगे तब हम भी कह देंगे कि आप प्रेममय परमात्मा को तो मानते ही नहीं, न उसका प्रेमानंद लाभ करने में यत्नवान होते हैं, केवल शास्त्रार्थ नाधने के लिए 'परमेश्वर' नामक शब्द ठहरा रक्खा है जो परमेश्वर अक्षरों का विकास मात्र है, तथा जिसके विषय में श्री मार्कंडेय पुराण में लिखा है कि 'देवि दैतयेश्वर: शुभस्त्रैलोक्ये परमेश्वर:' पर भइया, हम तो उसकी संहारिणी आदिशक्ति को मानेंगे, आपके लिए आपकी इच्छा रही। यदि इस उत्तर से आपको क्रोध आवे तो अपने निराकार निर्विकार से हमें दंड दिलवाइए और हम अपने साकार दृश्यमान भगवत्स्वरूप से सहायता लेकर उन्हीं के द्वारा कपाल भंजन करके तत्क्षण अपने ईश्वर की महिमा दिखा देंगे। पर यह बातें तो उस समय के लिए है जब झगड़ा खड़ा हो। नहीं तो कल्याण केवल इसमें है कि धर्म के विषय में न आप न हमसे बोलें न हम आपसे। क्योंकि वह हमारा आपका ईश्वर के साथ निज संबंध है और दो जनों के निज संबंध में अनधिकार हस्तक्षेप करना नीचता है। इससे ईश्वर को चाहे जैसे आप मानिए चाहे जैसे हम मानें, पर अन्य सब विषयों में हम आपको और आप हमको सतचित्त से सहोदर मान के साथ दीजिए। उस दशा में यह भी संभव है कि आपका रंग हमें लगाया जाए अथवा हमारा रंग आपको लग जाए और इस रीति से मृत की भी एकता हो जाए, वा न हो तो भी परस्पर का स्नेह सुभीता तो बना ही रहेगा, जो ईश्वर का प्रत्यक्ष स्वरूप है, जिसके द्वारा हम ईश्वर प्राप्ति विषयक भी अनेक विध्नों से बच सकते हैं और प्रेमानुभव का अभ्यास करते-करते स्वयं ईश्वर की मूर्ति को देख सकते हैं।