ईश्वर हृदयग्राह्य / गीताधर्म और मार्क्सीवाद / सहजानन्द सरस्वती
हमें यहाँ ईश्वर के संबंध की एक खास बात की ओर ध्यान देना है। वह यह है कि गीता के मत से ईश्वर की सत्ता को स्वीकार करने का एक ही परिणाम होता है कि हमारा आचरण प्रशंसनीय और लोकहितकारी हो जाता है। इसीलिए गीता ने ईश्वर की सत्ता की स्वीकृति की तरफ उतना ध्यान नहीं दिया है, जितना हमारे आचरण की ओर। इस संबंध में ज्यादा महत्त्वपूर्ण बात कहने के पहले हम एक बात कहना चाहते हैं। उसकी ओर ध्यान जाना जरूरी है। ईश्वर के बारे में तेरहवें अध्याय में कहा है कि 'वह ज्ञान है, ज्ञेय-ज्ञान का विषय - है, ज्ञान के द्वारा अनुभवनीय है और सबों के हृदय में बसता है' - “ज्ञानं ज्ञेयं ज्ञानगम्यं हृदि सर्वस्य विष्ठितम्” (17)। अठारहवें अध्याय के 61वें श्लोक में तो यह कहने के साथ ही और भी बात कही गई है। वहाँ तो कहते हैं कि 'अर्जुन, ईश्वर तो सभी प्राणियों के हृदय में ही रहता है और अपनी माया (शक्ति) से लोगों को ऐसे ही घुमाता रहता है जैसे यंत्र (चर्खी आदि) पर चढ़े लोगों को यंत्र का चलाने वाला' - “ईश्वर: सर्वभूतानां हृद्देशेऽर्जुन तिष्ठति। भ्रामयन्सर्वभूतानि यंत्ररूढाणि मायया”॥
यहाँ दो बातें विचारणीय हैं। पहली है हृदय में रहने की। यह कहना कि हृदय ईश्वर का घर है, कुछ ठीक नहीं जँचता है। वह जब सर्वत्र है, व्यापक है, तो हृदय में भी रहता ही है, फिर इस कथन के मानी क्या? यदि कहा जाए कि हृदय में विशेष रूप से रहता है, तो भी सवाल होता है कि विशेष रूप से रहने का क्या अर्थ? यह तो कही नहीं सकते कि वहाँ ज्यादा रहता है और बाकी जगह कम। यह भी नहीं कि जैसे यंत्र का चलाने वाला बीच में बैठ के चलाता है तैसे ही ईश्वर भी बीच की जगह - हृदय - में बैठ के सबों को चलाता है। यदि इसका अर्थ यह हो कि हृदय के बल से ही चलाता है तो यह कैसे होगा? जिस यंत्र के बल से चलाते हैं उसका चलानेवाला उससे तो अलग ही रहता है। मोटर या जहाज वगैरह के चलाने और घुमाने-फिरानेवाले यंत्र से अलग ही रह के ड्राइवर वगैरह उन्हें चलाते-घुमाते हैं। हृदय में बैठ के घुमाना कुछ जँचता भी नहीं, यदि इसका मतलब व्यावहारिक घुमाने-फिराने जैसा ही हो।
इसीलिए मानना पड़ता है कि हृदय में रहने का अर्थ है कि वह हृदय-ग्राह्य है। सरस और श्रद्धालु हृदय ही उसे ठीक-ठीक पकड़ सकता है। दिमाग या बुद्धि की शक्ति हई नहीं कि उसे पकड़ सके या अपने कब्जे में कर सके। ईश्वर या ब्रह्म तर्क-दलील से जाना नहीं जा सकता, यह बात छांदोग्योपनिषद् में भी उद्दालक ने अपने पुत्र श्वेतकेतु से कही है। वहाँ कहा है कि अक्ल बघारना और बाल की खाल खींचना छोड़ के श्रद्धा करो ऐ मेरे प्यारे, - 'श्रद्धत्स्व सोम्य' (6। 12। 3)। और यह श्रद्धा हृदय की चीज है। यह पहले ही कहा जा चुका है। इसलिए गीता के मत से ईश्वर हृदयग्राह्य है। फलत: जो सहृदय नहीं वह ईश्वर को जान नहीं सकता।