ईश्वर / ख़लील जिब्रान / बलराम अग्रवाल
आदिकाल में, जब पहली बार कुछ बोलने को मेरे होंठ कँपकँपाए, मैं पवित्र पर्वत पर चढ़ गया और ईश्वर से बोला, "मैं तेरा गुलाम हूँ मालिक! तेरी अनकही इच्छा मेरे लिए कानून है। जब तक जियूँगा, मैं तेरे आदेश का पालन करूँगा।"
ईश्वर ने कोई जवाब नहीं दिया और एक ताकतवर तूफान की तरह चला गया।
हजार साल बाद मैं पुन: पवित्र पर्वत पर चढ़ा और पुन: ईश्वर से बोला - "मैं तेरी संतान हूँ, हे जगत-निर्माता! तूने स्वयं अपनी मिट्टी से मुझे बनाया है। मेरा सब-कुछ तेरा है।"
ईश्वर ने कोई उत्तर नहीं दिया। पलक झपकने के भी हजारवें हिस्से में ही वह अन्तर्धान हो गया।
उसके हजार साल बाद मैं फिर पवित्र पर्वत पर चढ़ा और ईश्वर से बोला - "मैं तेरा पुत्र हूँ, हे पिता! कृपापूर्ण प्रेम के साथ तूने मुझे पैदा किया है। प्रेम और पूजा के जरिए ही मैं तेरी दुनिया में बना रहूँगा।"
ईश्वर ने कोई जवाब न दिया। दू… ऽ… र, पारदर्शी परदे के रूप में पहाड़ियों पर पड़े कोहरे-सा, वह गायब हो गया।
आगामी हजार साल बाद मैं पुन: उस पावन पहाड़ पर चढ़ा और जोरों से बोला, "हे ईश्वर! हे मेरे जीवन-लक्ष्य और मेरी मंजिल!! तू मेरा बीता हुआ कल है और मैं तेरा आनेवाला कल। मैं ज़मीन में तेरी जड़ हूँ और तू आकाश में मेरा फूल। सवेरे-सवेरे सूरज की ओर मुँह करके हम दोनों ही उगते हैं।"
यह सुन ईश्वर मुझपर झुका और अनहद मीठेपन के साथ मेरे कानों में फुसफुसाया। फिर, जैसे समंदर किनारों की ओर से भीतर जाती लहरों के रूप में खुद को लपेटता है, वैसे ही अपने-आप में उसने मुझे लपेट लिया।
और जब मैं पहाड़ से उतरकर घाटियों और मैदानों में आया, ईश्वर को वहाँ मौज़ूद पाया।