ईस्ट इंडिया कम्पनी (कहानी) / पंकज सुबीर

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वे कुल जमा नौ थे, इसमें अगर दो बच्चों को भी जोड़ दिया जाए तो कुल संख्या ग्यारह हो जाती है। हालांकि वैसे तो रेल का सामान्य श्रेणी का पूरा डब्बा यात्रियों से ठसाठस भरा था, लेकिन उसके हिस्से में वे कुल ग्यारह थे, एक तरफ़ बैठे हुए पाँच और दूसरी तरफ़ चार, एवं साथ में दो बच्चे। इन ग्यारह में उसे अपनी मनपसंद खिड़की के पास की जगह मिल गई थी, एक बार उसे रेल में खिड़की के पास स्थान मिल जाए तो फिर उसे डब्बे के अंदर की दुनिया से कोई सरोकार नहीं रहता, उसका मन बाहर तेजी से दौड़ रहे खेतों खलिहानों, नदी, तालाबों, बिजली टेलिफोन के खंबो और पर्वत मालाओं के साथ दौड़ने लगता है और साथ में ताल मिलाने लगती हैं रेल की पटरियों पर थाप दे रही पहियों की आवाज़ "सटक सटक पटक-पटक पटक-पटक" , "सटक-सटक पटक-पटक पटक-पटक ।"

आज उसे पहले पहल तो खिड़की के पास स्थान नहीं मिला था, लेकिन अचानक ही खिड़की के पास बैठे भद्र महाशय से टीसी की कुछ चर्चा हुई और वे अपना सामान उठाकर टीसी के साथ चले गए, वैसे भी वे तथा उनका लकदक कर रहा सामान दोनों ही सामान्य श्रेणी के डब्बे में कुछ असहज लग रहे थे। कदाचित उच्च श्रेणी में आरक्षण न मिल पाने के कारण वे यहाँ बैठ गए थे, ग़रीब लोगों के भारत से अवसर मिलते ही वे अपने वाले अमीर लोगों के भारत में चले गए, अपने हिस्से की खिड़की एक ग़रीब को देकर। उनके वहाँ से हटते ही उसने बिजली की फुर्ती से खिड़की के पास कब्ज़ा कर लिया, खिड़की के पास बैठते ही उसे लगा कि अब यात्रा कितनी ही लंबी हो जाए कुछ फ़र्क नहीं पड़ने वाला, क्योंकि खिड़कियों के उस पार के एक पूरे संसार के साथ अब वह जुड़ गया है, यात्रा कि यायावरता अब पूरी पकृति के साथ जुड़कर गतिमान होगी।

तो वे कुल जमा ग्यारह थे कुछ घंटों के लिए मजबूरीवश बना एक सर्वथा अपरिचित लोगों का समाज, इस समाज में न कोई किसी के भूत के बारे में जानता है, न भविष्य के, केवल वर्तमान के कुछ घंटो को काटने के लिए ये समाज बना है। खिड़की के पास आसन ज़माने के काफ़ी देर बाद वह डब्बे के अंदर आया, यहाँ आने से मतलब मानसिक रूप से अंदर आना है। बाहर की प्रकृति को छोड़ वह अंदर आया, तब उसे ये दस लोग दिखाई दिये, जो उसके समेत कुल ग्यारह थे और उपर वर्णित समाज की रचना कर रहे थे।

सामने की सीट पर कोने में छोटा परिवार सुखी परिवार विराजमान था, अत्यंत युवा ग्रामीण पति पत्नी और उनकी दो छोटी-छोटी बेटियाँ, ये बेटियाँ इस बात का प्रमाण थीं कि यह परिवार अधिक दिनों तक छोटा परिवार सुखी परिवार नहीं रहेगा। अगर दो बेटे होते तब शायद यह रह लेता, परंतु पति पत्नी की अत्यधिक युवावस्था और दो बेटियाँ, छोटा परिवार सुखी परिवार के भविष्य पर प्रश्नचिन्ह लगा रही थीं। इन चार के बाद सीट पर एक महिला अपनी युवा बेटी को लेकर बैठी थी, लड़की क्योंकि युवा थी, इसलिए ज़ाहिर है खिड़की के समीप बैठी थी उसके ठीक सामने। माँ बेटी दोनों ही खाते पीते घर की होने की बात को अपनी चर्बी के द्वारा सिद्ध करने का पूर्ण प्रयास कर रहीं थीं। यह था उसका विपक्षी दल का बैन्च अर्थात उसके ठीक सामने की सीट पर विराजमान उसके हिस्से का आधा समाज।

अब उसने अपने पक्ष में बैठे लोगों पर नज़र डाली इस अवलोकन के दौरान उसे लगा कि विपक्ष की ओर नज़र डालना बहुत आसान है, आंखें उठाओ और देख लो, लेकिन अपने पक्ष को देखने के लिए बाक़ायदा प्रयास करना पड़ता है, बात वही सप्रयास और अप्रयास वाली है। अपनी बैन्च के लोगों में स्वयं को छोड़कर उसने बाक़ी लोगों को देखा, विपक्ष की ओर जब उसने देखा था तो कहीं कोई भी प्रतिक्रिया नहीं हुई थी, किंतु जब गरदन घुमा कर कुछ झुककर उसने अपने पक्ष में बैठे लोगों को देखा तो उन लोगों में विशेषकर महिलाओं में प्रतिक्रिया उनकी आंखों में साफ़ दिखाई दी, कुछ इस प्रकार की कि देखो कैसे घूर रहा है।

ख़ैर इस देखने दिखाने की प्रक्रिया में जो कुछ नज़र आया वह इस प्रकार था उसके ठीक पास दो महिलाऐं बैठी थीं और उनके पास फिर एक महिला थी और फिर एक पुरुष बैठा था। अब इसे इस प्रकार भी कहा जा सकता है कि तीन महिलाएँ और एक पुरुष बैठा था, लेकिन ऐसा इसलिए नहीं कहा जा रहा क्योंकि दो महिलाऐं एक साथ थीं और तीसरी महिला और चौथा पुरुष एक साथ, जैसा उनके वार्तालाप से पता चल रहा था। उसके ठीक पास की दो महिलाऐं पारंपरिक भारतीय महिलाऐं थीं, जो संभवतः निम्न मध्यम वर्गीय परिवार से सम्बंधित थीं, पारंपरिक इसलिए क्योंकि उनकी बातचीत में पात्र भले ही रह-रह कर बदल रहे थे लेकिन विषय एक ही था "निंदा" और यह निंदा पूरी शिद्दत के साथ और पूरी ईमानदारी के साथ की जा रही थी, हालांकि कभी-कभी यह निंदा निहायत कानाफूसी वाले स्तर पर पहुँच जाती थी, शायद उन महिलाओं का यह मानना था कि भले रेल के डब्बे की दीवारें हों या घर की दीवारें, दीवारें तो दीवारें हैं और उनके कान होते ही हैं।

इन दो महिलाओं के उस तरफ़ जो पुरुष और महिला थे वे वास्तव में दो वृद्ध थे, एक सरदार जी और उनकी पत्नी, सरदार जी पूर्ण पारंपरिक वेशभूषा में थे और ऊपर एक कृपाण भी लटकाए हुए थे। पत्नी उनसे कुछ अधिक वृद्ध थी या फिर बीमार थी, ऐसा इसलिए क्योंकि सरदार जी थोड़ी-थोड़ी देर बाद स्वयं उठकर नीचे फ़र्श पर बैठ जाते थे और उन दो लोगों वाले स्थान पर उनकी पत्नी अधलेटी हो जाती थी। ऐसा रह रहकर हो रहा था।

पूर्ण सिंहावलोकन करने के पश्चात उसने पुनः सामने नज़र डाली तो उसके ठीक सामने बैठी लड़की उससे नज़र मिलते ही बिला वज़ह ही शर्मा गई। कुछ लड़कियों के साथ यही समस्या होती है, एक ठीक ठाक-सा पुरुष जो थोड़ी दूर से देखने पर युवक होने का भ्रम उत्पन्न करता हो, उसकी उपस्थिति मात्र से ही इन्हें कुछ-कुछ होने लगता है। स्थिति यह हो गई कि कुछ ही देर में उसे "कनखियों से देखना" , "दुपट्टा मुंह में दबाना" , "पैर के अंगूठे से ज़मीन कुरेद कर लजाना" जैसी घोर दुर्लभ घटनाओं का प्रत्यक्ष अवलोकन करने का सौभाग्य मिल गया। यद्यपि ट्रेन के उस घोर मरूस्थली फ़र्श पर कुरेदने जैसा कुछ नहीं था, फिर भी महिलाऐं परंपराओं का पालन करने में अधिक विश्वास करती हैं, अब परंपरा पैर के अंगूठे से ज़मीन कुरेदने की है तो कुरेदना है। उधर कोने का छोटा परिवार सुखी परिवार अपने आचरण से स्पष्ट कर रहा था कि अब यह छोटा परिवार यात्रा समाप्त होने के कुछ समय पश्चात ही छोटे परिवार का दायरा तोड़ देगा। यद्यपि दो बच्चियों के कारण दोनों ख़ासे परेशान नज़र आ रहे थे।

तो इस तरह दो-दो के चार समूहों में ग्यारह सदस्यीय दल चर्चारत था और इन सबके बीच एक बिला वज़ह की चर्चा उसके और सामने वाली लड़की के बीच भी हो रही थी, हालांकि यह चर्चा निगाहों से होने वाली चर्चा थी और पूर्णतः एकतरफ़ा थी और इसी एकतरफ़ा चर्चा के कारण वह पुनः ख़िडकी से बाहर निकल गया और एक बार फिर नदी, तालाब, पेड़, पहाड़ों के साथ दौड़ने लगा। अच्छा होता है खिड़की के पास बैठना क्योंकि खिड़की के पास बैठने वाले को यही एक बड़ी सुविधा होती है, अगर डिब्बे या बस के अंदर का माहौल किसी व्यक्ति विशेष अथवा घटना विशेष के कारण रुकने योग्य न हो रहा हो, तो शारीरिक रूप से अंदर उपस्थित रहकर मानसिक रूप से बाहर निकला जा सकता है जो वह अभी कर रहा है।

काफ़ी देर तक वह खिड़की के बाहर दौड़ता रहा तब तक जब तक बाहर अंधेरे ने नदी पर्वत तालाबों को लील नहीं लिया और बाहर दौड़ना उसके लिये पूर्णतः असहज नहीं हो गया। घना अंधकार बाहर फैला और वह अंदर लौट आया, अंदर आकर उसे पहली तसल्ली यह मिली कि उसका मूक साथी अपनी माँ के कंधे पर सिर टिकाए सोने या संभवतः ऊँघने की स्थिति में आ चुका था, बाक़ी सब कुछ पूर्ववत था, हाँ एक लगभग अधेड़ उम्र के स्त्री पुरूष जो केवल इसलिए पति पत्नी कहे जा सकते थे क्योंकि ट्रेन भारत में थी, वे दोनों जहाँ दोनों सीटें ख़त्म होती हैं ठीक उस स्थान पर आकर खड़े हो गए थे। पति पूर्णतः पारंपरिक भारतीय अधेड़ था, जिसके सर के बाल विलुप्त हो गए थे और पेट, तोंद नामक निर्जीव वस्तु में परिवर्तित हो चुका था। पत्नी उससे भी ज़्यादा भारतीय नज़र आ रही थी।

पति की आंखों में कुछ पा लेने के लिए आतुरता नज़र आ रही थी। उसने देखा कोने वाले सरदारजी की पत्नी फ़िलहाल लेटी हुई है और सरदार जी सीट से नीचे बैठे ऊँघने वाली मुद्रा में नज़र आ रहे थे। नवागत खड़े खड़ाए दंपति की निगाहें अधलेटी सरदारनी के द्वारा घेरे गए स्थान पर टिकी हुई थी, अगर सरदारजी पास नहीं बैठे होते तो निश्चत रूप से वे अभी तक सरदारनी को उठा चुके होते। रात काफ़ी हो चुकी थी लेकिन पब्लिक डब्बे में क्या रात और क्या दिन, क्योंकि बैठे-बैठे ऊंघना ही था और वह भी लोहे की सख़्त सीटों पर। उसे केवल एक बात का डर था कि उसके ठीक सामने की ऊँघ टूट न जाए, नहीं तो फिर उसे कुरेदना, लजाना झेलना पड़ेगा, क्योंकि अंधेरे में खिड़की से बाहर भी तो नहीं जा सकता।

सरदारनी अचानक कुछ कराही और उठ कर बैठ गई, सरदाजी को इस बात का पता नहीं चल पाया कि सरदारनी उठ कर बैठ गई है, वे पूर्ववत ऊँघते रहे, सरदारनी को शायद कम दिखता है वह उठकर चुपचाप बैठ गई बस एक बार दुपट्टे को संभाल कर सर ढंक लिया। सरदारनी के उठते ही खड़े पति पत्नी के बीच कुछ ऐसा हुआ जिसे फ़िल्मी भाषा में आंखो ही आंखों में इशारा हो गया कहा जा सकता है। इस बात को केवल उसी ने देखा कि खड़े पति ने भोंहों को ऊपर उचका कर गर्दन को सामने खींच कर सरदारनी के बैठ जाने से बने रिक्त स्थान की और इशारा किया और जवाब में खड़ी पत्नी ने गिरगिट की तरह तीन बार स्वीकृति में सिर हिलाकर पति के हाथों से बैग ले लिया यह पूरा घटनाक्रम उसके लिए दिलचस्प हो गया था, उसे अब डिब्बे के अंदर भी मज़ा आ रहा था।

हाथों में बैग लेकर खड़ी पत्नी कुछ देर तक खड़ी रही, फिर बिल्ली की तरह दबे पांव उस रिक्त स्थान की ओर बढ़ी, दबे पांव बढ़ने का कारण शायद यही था कि सरदारजी की नींद न खुल जाए क्योंकि उस स्थिति में सरदारजी उस स्थान के पहले हक़दार होने के कारण बैठ जाते। लेकिन खड़ी पत्नी का साथ आज क़िस्मत दे रही थी, वह अपना बैग और लगभग बैग-सा ही ठसा ठसाया शरीर लेकर उस रिक्त स्थान पर बैठ गई, अर्थात अब उसे बैठी पत्नी कहा जा सकता था। खड़ी पत्नी के बैठते ही उसकी सीट पर हल्की-सी हलचल हुई, यह हलचल सरदारनी की तरफ़ से नहीं हुई क्योंकि उन्हें तो कुछ सूझ ही नहीं रहा था, यह हलचल उसके ठीक पास बैठी दोनों पारंपरिक महिलाओं की ओर से हुई।

ये दोनों महिलाऐं अभी भी ऊँघ-ऊँघ कर निंदा में लगी हुई थीं रात हो जाने के कारण निंदा के विषय भी नींद या रात से सम्बंधित हो गए थे, मसलन फलानी को नौ बजे से ही नींद आने लगती है या फलानी सुबह के आठ बजे तक सोती रहती है। इन्हीं दोनों महिलाओं का यह निंदा का पारंपरिक कार्य तीसरी महिला अर्थात खड़ी पत्नी के ठीक पास आकर बैठते ही कुछ देर के लिए रुक गया। निंदा कि सबसे बड़ी विशेषता यही है कि प्रेम गली अति सांकरी जामे तीन महिला न समाए, जो कनफुसियाना, फुसफुसियाना दो महिलाओं के बीच मज़ा देता है, वह मज़ा तीन में कहाँ? यही कारण था शायद कि दोनों महिलाओं के बीच का वार्तालाप खड़ी पत्नी के बैठी पत्नी में बदलते ही थम गया और दोनों कनखियों से बैठी पत्नी की ओर देख रही थीं।

इसी बीच सरदार जी की ऊँघ अवस्था समाप्त हो गई, उन्होंने उठकर जैसे ही अपने स्थान पर उक्त महिला को बैठे देखा तो तुरंत बोले "औ भैणजी इत्थे तो मैं बैठा था" महिला ने तुरंत अपने पति की ओर देखा, अधेड़ पति ने तुरंत सरदारजी को जवाब दिया "सरदारजी महिला हैं कब तक खड़ी रहतीं, आप तो अच्छे बैठे ही हो नीचे।" सरदारजी वयोवृद्ध होने के साथ विनम्र भी थे और फिर महिला के बैठने पर आपत्ति कैसे दर्ज कराते। कुछ नहीं बोले मुड़कर सरदारनी से कुछ पूछने लगे, खड़ा पति और बैठी पत्नी दोनों मुस्कुरा रहे थे। उसने विरोध दर्ज कराना चाहा फिर सोचा जाने दो अपना क्या गया जगह तो सरदारजी की गई।

कुछ देर तक उसने खिड़की के बाहर अंधेरे में आंखे फाड़कर देखने का प्रयास किया लेकिन बाहर कुछ सूझ ही नहीं रहा था। वह पुनः अंदर आ गया उसके ठीक सामने अभी भी ऊँघ का माहौल था वह भी ऊँघने लगा। काफ़ी देर तक वह ऊँघता रहा उसकी इस निर्विघ्न ऊँघ के पीछे कई कारण थे जैसे कि उसके ठीक सामने कि निगाह चर्चाओं का ऊँघ जाना, छोटा परिवार सुखी परिवार की पारिवारिक चेष्टाओं का थम जाना और ठीक पास के निंदा पुराण का भी ऊँघ जाना। काफ़ी देर बाद जब उसकी आंखें थोड़ी खुलीं तो उसने देखा कि सारे सहयात्री ऊँघ वाली अवस्था से निंद्रा वाली अवस्था में प्रवेश कर चुके हैं, उसके समेत केवल पांच लोग ही जाग रहे हैं, सरदारजी, सरदारनी, बैठी पत्नी और खड़ा पति। बैठी पत्नी अपने खड़े पति की चिंता में जाग रही थी और सरदारजी, सरदारनी के कारण जाग रहे थे, अर्थात भारतीय दाम्पत्य जीवन का अनूठा उदाहरण दोनों युगल बने हुए थे।

सरदारनी को बैठे रहने में परेशानी हो रही थी शायद इसीलिये वे बार-बार पहलू बदल रही थीं। पहले वह थोड़ी-थोड़ी देर बाद अधलेटी हो जाती थीं लेकिन खड़ी महिला के बैठी होने के बाद अधलेटे होने की जगह समाप्त हो गई थी। पत्नी को परेशान देख सरदारजी ने धीरे से पूछा "की हुआ वीरांवालिए लेटना है?" सरदारनी को कुछ समझ नहीं पड़ा वह चुपचाप बैठी रही। सरदारजी सरदारनी की पीड़ा समझ कर भी चुप रहे। इसी बीच उसने देखा कि बैठी पत्नी और खड़े पति के बीच पुनः कुछ आंखों ही आंखों में इशारा टाइप की चीज़ हुई। जिसके होने के बाद बैठी पत्नी के मुख पर कुछ इंच लंबी मुस्कुराहट फैल गई।

बैठी पत्नी ने आवाज़ में विनम्रता घोलते हुए सरदारजी से पूछा "क्या बात है भाई साहब भाभी जी से बैठते नहीं बन रहा है क्या?" सरदारजी ने सोचा शायद ऐसा सीट खाली करने के उद्देश्य से पूछा जा रहा है, इसलिए तुरंत जवाब दिया "हाँ भैणजी तबीयत खराब है, ज़्यादा देर बैठ नहीं पाती।" बैठी पत्नी ने कहा "अब तो सब सो ही गए हैं मेरे पास एक मोटी दरी है, आप उसे दोनों सीटों के बीच बिछा कर इनको वहाँ लिटा दो, यहाँ इन्हें परेशानी हो रही है।" इतना कहकर वह अपने खड़े पति की ओर मुख़ातिब होते हुए बोली "सुनिये आप ही थोड़ी जगह बनाकर ये दरी बिछा दीजिये, भाईसाहब बिचारे अकेले हैं" स्वयं ही सलाह देकर उसकी स्वीकृति भी स्वयं देकर उसने बेग से दरी निकालकर पति की ओर बढ़ा दी, पति ने आज्ञाकारी बच्चे की तरह दरी हाथ में ली और दोनों सीटों के बीच रखे सामान को सीटों के नीचे सरकाते हुए दरी को बिछा दिया।

दरी बिछते ही बैठी पत्नी ने तुरंत सरदारजी का बैग लेकर उसे दरी के एक सिरे पर तकिये की तरह रख दिया और सरदारजी से बोली "लीजिए भाईसाहब भाभीजी को यहाँ लिटा दीजीए यहाँ उन्हें आराम मिल जाएगा" सरदारजी ने उठ कर सरदारनी का हाथ पकड़ कर उठा लिया और नीचे बिछी दरी पर लिटाने लगे, इन सब में खड़ा पति भी सहयोग प्रदान कर रहा था। सरदारनी के लेटते ही खड़ा पति भी तुरंत सरदारनी के उठने से रिक्त हुए स्थान पर बैठकर बैठा पति हो गया, सरदारजी ने उसे बैठते हुए देखा लेकिन कुछ न बोले, बोलते भी कैसे, उन लोगों की दरी पर ही तो सरदारनी को लिटाया है। सरदारजी ने सरदारनी के पैरों के पास थोड़ी जगह बनाई और वहीं नीचे बैठ गये, बैठी पत्नी ने सरदारजी से कहा "यहाँ भाभीजी आराम से सुबह तक सो सकेंगी।" उत्तर में सरदारजी ने विनम्रता से केवल सर हिला दिया।

रात काफ़ी बीत चुकी थी ट्रेन पूरी रफ़्तार से भाग रही थी, उसे याद आया बचपन में इतिहास के शिक्षक बार-बार उसे समझाते थे कि किस तरह ईस्ट इंडिया कंपनी भारत में आई, फिर धीरे-धीरे भारत में फैली और अंततः पूरे भारत पर कब्ज़ा कर लिया, तब उसे समझ नहीं आता था कि ऐसा कैसे हो सकता है, इतिहास का वह सबक आज जाकर उसे समझ में आया कि ईस्ट इंडिया कंपनी ने किस तरह भारत पर कब्ज़ा किया होगा। उसने बैठी पत्नी और ताज़ा-ताज़ा बैठे पति की ओर देखा उसे लगा वे दोनों यूनियन जैक में बदल गए हैं वह धीरे से मुस्कुराया और आंखें बंद कर ऊँघने लगा। बाक़ी यात्रियों के साथ अब बैठा पति तथा बैठी पत्नी और सरदारजी एवं सरदारनी भी ऊँघने से निंद्रा कि ओर बढ़ रहे थे क्योंकि अब सभी संतुष्ट हो गए थे। यूनियन जैक सीट पर लहरा रहा था और भारत नीचे दरी पर सो रहा था, वह भी धीरे-धीरे सो गया।