उंगलियों से संचालित मनोरंजन संसार / जयप्रकाश चौकसे

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उंगलियों से संचालित मनोरंजन संसार
प्रकाशन तिथि : 28 सितम्बर 2018


नेटफ्लिक्स और अमेजन पर फिल्में प्रदर्शित करने के लिए फिल्म का सेंसर प्रमाण-पत्र लेना आवश्यक नहीं है। अब सिनेमाघर का परदा मात्र उस एक जगह नहीं है, जहां फिल्म का प्रदर्शन किया जा रहा है। इंटरनेट पर यह सुविधा भी उपलब्ध है कि उपभोक्ता फिल्म के नाम के साथ यह अंकित करें कि वह फिल्म के केवल गीत सुनना पसंद करेगा तो यह भी उपलब्ध हो जाता है। उम्रदराज लोग अपनी जवानी के दिनों में पसंद की गई फिल्म या केवल उसका गीत-संगीत सुनना चाहते हैं तो अपनी उंगलियों की मदद से यादों की गलियारे में तफरीह कर सकते हैं। सैकड़ों न्यूज़ पोर्टल पर आप वह ताजा खबर सुन सकते हैं, जिसे सरकार ने पारम्परिक माध्यमों पर रोक रखा है। यह भी संभव है कि ऋषि कपूर अभिनीत 'राजमा चावल' आप इस नए मध्यम के द्वारा देख सकें। व्यवस्था की ज़िद है कि वह पाबंदियां लगाए और टेक्नोलॉजी सारी पाबंदियों को तोड़ने का काम कर रही हैं। तमाशबीन अब बारहमासी उत्सव मना सकता है। सर्वत्र तमाशा जारी है। नटसम्राट मुतमइन है कि उसका बाल भी बांका नहीं हो सकता और उसे खबर भी नहीं है कि पलीता लग चुका है।

क्या यह संभव है कि अगले आम चुनाव के परिणाम कुछ ऐसे आएं कि पारम्परिक विरोधियों को मिली-जुली सरकार बनानी पड़े? राजनीति में कोई स्थायी दोस्त-दुश्मन नहीं होता। सब सुविधा एवं सत्ता भोगी हैं। इस तरह की खिचड़ी सरकार किस तरह प्रशासन करती है इसे अवाम जानता है। 31 फीसदी मत प्राप्त करने वाला दल सरकार बना लेता है और जुगाड़ व्यवस्था कायम हो जाती है। मनमर्जियों के दौर में सनकीपन पर भी तालियां बजाई जाती हैं। नियंत्रणवाद का विरोध करने वाली 'हाउल' कविता भी इंटरनेट पर आकर्षण का केंद्र बनी हुई है। 'पहल' के ताजा अंक में कुमार अंबुज ने इस पर सारगर्भित लेख लिखा है। कुमार अंबुज लिखते हैं कि 'हाउल' को पूंजीवाद समाज में अमानवीय प्रभावों के खिलाफ एक नाग की तरह भी देखा जाना चाहिए, जो सवाल इस कविता में उठाए गए हैं, एवं प्राथमिकताओं से उपजी चुनाव व अधिकार सहित अन्य पीड़ाएं इसमें व्यक्त हैं जो गुस्सा, असहमति और वर्जनाओं के खिलाफ चीख है, वह न केवल इसके शीर्षक में बल्कि पूरी कविता में विन्यस्त है। कविता की शब्दावली आक्रामक है, नाराज और बेबाक है लेकिन, तकलीफों से प्रसूत हैं। इनकी समवेत उपस्थिति ही इस यातनाभरी चीख यानी 'हाऊल' को और अौचित्यपूर्ण दर्जा देती है। राधिका आप्टे ने 'घाउल' में काम किया है।

5 या 7 करोड़ के बजट में बनने वाली फिल्म के सिनेमाघरों में प्रदर्शन के लिए फिल्मकार को प्रचार के लिए 8 करोड़ का जुगाड़ करना होता था। इस तरह कुल खर्चा इस सितारा विहीन फिल्म के लिए अर्जित करना कठिन होता था। अब फिल्मकार नेटफ्लिक्स या अमेजन पर अपनी फिल्म प्रदर्शित कर सकता है। एक तरह से यह फॉर्मूला मसाला फिल्म के ढांचे से मुक्त होकर कुछ नया करने का मार्ग प्रशस्त करती है। इस माध्यम पर प्रदर्शित एक फिल्म का नाम है 'लव पर स्क्वैयर फुट' स्थान और समय के बंधन से प्रेम मुक्ति देता है परंतु फिल्म का शीर्षक ही यह संकेत देता है कि प्रेम के बदले हुए स्वरूप में एक जमा जोड़ एक अंकगणित शामिल है। प्रेम स्वत: स्फूर्त भावना नहीं होकर अब एक प्रायोजित जज्बा बन चुका है। युवा के मन में भाव उठता है कि अब उसे प्रेम करना चाहिए और वह उपलब्ध को सुंदर मानकर मशीनवत स्वयं को प्रेम में डूबा हुआ महसूस करता है। हम सब चाबी भरे खिलौने होते जा रहे हैं।

फिल्म बनाना एक वर्ग तक सीमित था। अब यह क्षेत्र खुल रहा है। दार्शनिक बर्गसन ने तो इस विधा के आविष्कार के समय ही कहा था कि मनुष्य मस्तिष्क और सीने-कैमरा समान रूप से कार्य करते हैं। मनुष्य की आंख सिने कैमरे की तरह है। आंख से लिए गए चित्र मनुष्य की याद कक्ष में स्थिर चित्रों की तरह एकत्रित होते हैं और एक विचार उन स्थिर चित्रों को चलायमान कर देता है। फिल्म का यह गणतंत्रीकरण उस दौर में हो रहा है जब गणतंत्र को तोड़ने के प्रयास हो रहे हैं। जिन्हें उपरोक्ष रूप से सरकारी मान्यता प्राप्त है। प्रांतीय सरकारें नए सिनेमाघर बनाने के बाबा आदम के जमाने के नियमों को सीने से लगाए बैठी है और टेक्नोलॉजी इसका विरोध करते हुए नए मंचों का निर्माण कर रही है। अगर सिनेमाघर बनाने के नियम सरल हो जाएं तो अवाम को अमेजन और नेटफ्लिक्स का विकल्प दिया जा सकता है। अतः यह सरकार के हित में है परंतु उन्हें गौरव यात्राओं से फुर्सत मिले तो वे कुछ काम भी करें। सोते को जगाया जा सकता है परंतु जागे हुए को जगाना अत्यंत कठिन है। कोई चीख अब उनके कानों तक नहीं पहुंचती। प्रायोजित तालियों के अभ्यस्त कानों तक चीख कैसे पहुंचे। 'यह सब तरफ सन्नाटा क्यों है भाई'।