उखड़े हुए / से.रा. यात्री
आधी रात से ऊपर जा चुकी है। ट्रेन संभवतः घने जंगलों से गुजर रही है। बीच-बीच में इंजन का सायरन चीखकर रात्रि की निस्तब्धता को खंडित कर जाता है। सारे डिब्बे की सवारियां सोई पड़ी हैं। यह अनारक्षित कूपा है इसलिए सबको सोने की सुविधापूर्ण जगह तो नसीब नहीं हुई - कुछ हैं कि नीचे फर्श पर ही टेढ़े-मेढ़े होकर बेसुध से पसरे पड़े हैं - कुछ भाग्यवान ऐसे भी हैं जिन्होंने ऊपर असबाब रखने की बर्थ और नीचे बैठने वाली सीटें पूरी-पूरी घेर रखी हैं और हर तरफ से बेखबर होकर सोये पड़े हैं।
कांचों के आच्छादन से ढके बल्बों के आस-पास पता नहीं पतिंगों के पहुंचने का क्या रहस्य है। प्रकट रूप से तो इतने कसे हुए ढक्कनों को पार करने की जुगत नजर नहीं आती। पर जिसे जहां पहुंचना होता है पता नहीं किस संयोग प्रयत्न संयोग से वह वहां पहुंच ही जाता है।
अब मुझको ही लो - अच्छा भला सागर गया था रिसर्च करने का संकल्प लेकर। देश के एक नामी आलोचक मुझे गाइड के रूप में उपलब्ध हो गये थे - शोध का विषय भी मन के अनुकूल मिल गया था और मैं मनोयोग से काम में जुट भी गया था कि तभी न जाने क्या हुआ कि सब कुछ उलट-पुलट हो गया। ...गत वर्ष की उपाधियां बांटने के उद्देश्य से आयोजित यूनिवर्सिटी का दीक्षांत समारोह समाप्ति पर ही था कि तभी किसी ने मेरे कंधे पर बड़े नामालूम ढंग से अपनी हथेली का स्पर्श दिया। वह छुअन किसी सुहृद-सुबंधु की ही हो सकती थी। पर वहां निपट परदेश में ऐसा कौन हो सकता था - यही जानने की उत्सुकता में मैंने गर्दन को हल्का-सा खम देकर देखा तो यह देखकर चकित रह गया कि मेरे पीछे वाली पंक्ति में मेरा सहपाठी मिथन सिंह बैठा मुस्करा रहा था। भावावेश में मैंने उसी क्षण मिथन को जकड़ लेना चाहा पर वहां बोलने-बतलाने की कतई गुंजाइश नहीं थी। जितनी देर तक अंतिम कार्यक्रम चलता रहा मैं मिथन सिंह को लेकर मानसिक रूप से ऊम-चूम होता रहा।
ज्योंही समारोह की समाप्ति की घोषणा हुई मैं उचककर कुर्सी से उठा और हाथ बढ़ाकर मैंने मिथन की हथेली अपनी मुट्ठी में कस ली। हम दोनों अतिशय प्रेम पारावार में डूबते-उतराते और परस्पर गालियां बकते आडोटोरियम से बाहर निकले और अवसर पाते ही गुत्थमगुत्था हो गये।
पता चला कि मिथन पास के ही एक नगर नरसिंहपुर में एक नये-नये खुले महाविद्यालय में अंग्रेजी का अध्यापक था और सागर विश्वविद्यालय की सीनेट का सदस्य भी था। वह सीनेट की मीटिंग में भाग लेने के लिए आया हुआ था और साथ में उसके कालिज का आचार्य भी आया था।
मुझे मिथन से मिलकर एक विचित्र-सी पुलक-भरी प्रसन्नता हुई और मैं उसके साथ हो लिया। वह विश्वविद्यालय के गैस्ट हाऊस में ठहरा था और उसके खाने-पीने की सारी व्यवस्था यूनिवर्सिटी की ओर से ही थी। मुझे कहीं लौटने की जल्दी नहीं थी इसलिए हम दोनों निरंतर साथ रहें रात को साथ-साथ यूनिवर्सिटी के डाइनिंग हाल में खाना खाया और रात को एक बिस्तर पर साथ-साथ सो गये।
अगले रोज मिथन को लौटना था सो वह बोला, 'तू मेरे साथ नरसिंहपुर चला विन्ध्याचल सतपुड़ा के बीच बरमान घाट को पार करके थोड़ी दूर पर यह छोटा-सा शहर बसा हुआ है। तू देखकर खुश हो जाएगा। बरमान घाट पर नावें लगती हैं - तू नर्मदा का चौड़ा पाट देखेगा तो कविता लिखने लगेगा।'
उसे सागर में देखकर मेरा मन बहुत उमड़ आया था और मैं उसके साथ कुछ दिन रहने के लिए बहुत उत्सुक था। मिथन बोला, 'आज दोपहर को साथ-साथ चलते हैं। तू दो-तीन जोड़ी कुरते पाजामे साथ में डाल ले - तेरा मन वहां रम जाएगा।' फिर हंसते हुए बोला, 'इस रूखी-सूखी रिसर्च में धरा ही क्या है - तू हमारे कालिज में नौकरी ही क्यों नहीं कर लेता? अभी एक जगह खाली है - बड़ी आसानी से तेरा अपौइन्टमैंट हो सकता है बशर्ते तू साथ चले।'
मैंने सोचा रिसर्च भी किसी डिग्री कालिज में स्थान पाने के लिए ही की जाती है। मिथन ठीक ही कहता है कि अगर मैं चाहूं तो मेरी नियुक्ति हो सकती है। पर साथ ही मेरा मन यह सोचकर कच्चा पड़ने लगा कि मेरे यों एकाएक रिसर्च को अधबीच में छोड़कर चले जाने पर मेरे गाइड महोदय को बहुत निराशा होगी।
मैंने नरसिंहपुर कालिज में नौकरी करने का ख्याल उड़ा दिया पर मेरे अवचेतन में दो-तीन जोड़ी कपड़े अटके रहे सो मैंने एक छोटी-सी अटैची में दो कुरते दो पायजामे डाल ही लिए। नवंबर का अंतिम सप्ताह चल रहा था इसलिए ठंड से बचने के लिए मैंने एक गर्म लोई कंधे पर डाल ली।
मैं और मिथन सिंह दुनिया जहान की बातें करते हुए बहुत बेखबरी में नर्मदा के घाट तक जा पहुंचे। मैंने नदी का लंबा-चौड़ा विस्तार देखा तो खुशी से पगला गया। जाड़े के मौसम में हहराती नर्मदा और किनारे पर लगी नावें अदभुत लग रही थीं। उधर पश्चिम में डूबते सूर्य की लालिमा की प्रतिच्छाया नदी में पड़कर उसके विस्तार को गुलाबीपन से रंजित कर गई थीं। उस अनोखे काव्यात्मक वातावरण में मैं स्वयं को पूरी तरह विस्मृत कर बैठा। पता नहीं हम कब नर्मदा पार करके उस पार जाकर बस में जा बैठे और रात उतरते-उतरते नरसिंहपुर में जा पहुंचे।
रात के समय तो पता नहीं चल पाया कि हमने शहर में किधर से प्रवेश किया और नरसिंहपुर की स्थिति क्या थी मगर जब मिथन सिंह ने वह बस अध्यापकों के निवास के सामने रुकवाई तो मुझे पता चला कि हम किसी ठिकाने पर आ पहुंचे हैं।
यद्यपि नरसिंहपुर में मैं ठहरने अथवा नौकरी करने के इरादे से नहीं गया था मगर महाविद्यालय के भवन ने मुझे मोह लिया। विद्यार्थियों और शालीन अध्यापकों के बीच पहुंचकर मुझे नरसिंहपुर छोड़कर जाना असंभव लगने लगा। नरसिंहपुर महाविद्यालय का प्रबंधक एक सुदर्शन युवक था। उसने अपने कालिज के लिए हम उम्र और ताजादम अध्यापकों को ही चुना था पर बाद में मुझे पता चला कि इस संस्था की आड़ में उसने शोषण चक्र चला रखा था। वह सरकारी सहायता पाने के बावजूद एक दो अध्यापकों को छोड़कर किसी को वेतन नहीं देता था। चूंकि मैं सागर विश्वविद्यालय का विद्यार्थी था और प्रोवाइसचांसलर मेरे रिसर्च गाइड थे इसलिए वह मुझे बिना किसी हील-हुज्जत के वेतन दे देता था। मिथन सिंह कालेज के संस्थापक का रिश्तेदार था इसलिए झख मारकर उसे भी तनखा दी जाती थी। बाकी अध्यापकों और प्रिंसिपल को तनखा के नाम पर धैर्य रखने का उपदेश ही दिया जाता था।
मुझे लगभग छह माह बाद यानी अगले सत्र के आरंभ में इस तथ्य का पता चला। पता नहीं मिथन सिंह इस सत्र में क्यों नहीं आया था। हो सकता है उसे बुलाया ही न गया हो। जो भी हो जब मुझे अध्यापकों के आर्थिक शोषण का ज्ञान हुआ तो मैंने विद्रोह का झंडा खड़ा कर दिया। विश्वविद्यालय को तार देकर मैंने अध्यापकों को तनखा न मिलने की सूचना भेज दी। मेरे तार का तुरंत प्रभाव हुआ और गड़बड़ी की जांच पड़ताल के लिए एक कमीशन की नियुक्ति हो गई।
जिस दिन कालिज में कमीशन को आना था - वह नहीं पहुंचा तो सारे अध्यापकों को गहरी निराशा हुई लेकिन अगले दिन पता चल गया कि कालिज के मैनेजर ने अपने प्रभाव का इस्तेमाल करके बरमान घाट से नावें हटा ली थीं और कमीशन के सदस्यों को निराश होकर युनीवर्सिटी वापस लौटना पड़ गया था।
अगले पखवाड़े में ही कमीशन के सदस्यों की अवमानना का परिणाम सामने आ गया। नरसिंहपुर महाविद्यालय को सागर विश्वविद्यालय से मान्यता समाप्त हो गई। कालिज का एफिलिएशन रद्द होते ही विद्यार्थियों और अभिभावकों में हड़कंप मच गया। कालिज के प्रबंधक और पूरी प्रबंध समिति की हर तरफ से भर्त्सना होने लगी। विद्यार्थियों का भविष्य अधर में लटक गया और पूरे शहर में घबराहट फैल गई।
विद्यार्थियों और अभिभावकों ने अध्यापकों से कोई मार्ग निकालने की पेशकश की। बहुत सोचने-समझने के बाद मैं कुछ विद्यार्थियों, अभिभावकों और दो अध्यापकों को अपने साथ लेकर सागर विश्वविद्यालय गया तथा उपकुलपति महोदय को ज्ञापन दिया। उनकी संस्तुति प्राप्त करके भोपाल जाकर शिक्षामंत्री से भेंट की।
शिक्षामंत्री से वैधानिक कार्यवाही का आश्वासन लेकर हम सब नरसिंहपुर लौट आये। कालिज के मैनेजर ने भी इस दौरान खूब भाग दौड़ करके यूनीवर्सिटी के निरस्तीकरण के फैसले को समाप्त करवाने के लिए एड़ी-चोटी का जोर लगा दिया। किंतु उसके प्रयासों का कोई लाभ नहीं हुआ - अंततः विद्यार्थियों और अध्यापकों की ही विजय हुई। जिले के डी.सी. को कालिज चलाने का भार सौंप दिया गया। अध्यापकों के वेतन के भुगतान की जिम्मेदारी भी डी.सी. के कंधों पर ही डाल दी गयी।
नरसिंहपुर महाविद्यालय की प्रबंध समिति ने कालिज चलाने के लिए डी.सी. को कालिज का भवन नहीं दिया तो नगरपालिका का पुस्तकालय कालिज के रूप में परिवर्तित कर दिया गया और नरसिंहपुर के नागरिकों ने आर्थिक योगदान देकर सौ-डेढ़-सौ विद्यार्थियों के लिए फर्नीचर की व्यवस्था कर दी।
पुस्तकालय के भवन में जब कालिज चल निकला तो मैंने नरसिंहपुर छोड़ने का फैसला कर लिया। मेरा मन उस शहर और अध्यापन से पूरी तरह उखड़ गया था। अध्यापकों और विद्यार्थियों के साथ-साथ शहर के बहुत से नागरिकों ने भी मुझसे आग्रह किया कि मैं नरसिंहपुर छोड़कर कहीं न जाऊं मगर अब नरसिंहपुर महाविद्यालय में, न मुझको सागर से अपने साथ लाने वाला मिथन सिंह मौजूद था न वह सुंदरभवन कालिज के हाथ में रह गया था - इसलिए मुझे वहां सब कुछ बहुत उतरा हुआ बेगाना-सा लगता था।
अंततः मैंने नरसिंहपुर छोड़ने का फैसला कर लिया - और आज शाम मुझे स्टेशन पर एक लंबी-चौड़ी भीड़ विदा देने आई थी। मेरे गले में न जाने कितने हार डाले गये थे और मेरे विद्यार्थियों और सहयोगियों ने बहुत भारी मन से मुझे गाड़ी पर सवार कराया था। उन्होंने बार-बार आग्रह किया था कि मैं अपना फैसला बदल दूं पर वह समय मेरे मन पर शिलावत भारी हो गया था - और मैंने यह जानते हुए भी कि मेरे सामने भयावह बेरोजगारी मुंह बाये खड़ी थी मैं नरसिंहपुर छोड़कर अनजान और अपरिचित राहों पर चल पड़ा था।
और अब रात आधी से ज्यादा बीत चुकी थी। मैंने नरसिंहपुर से दिल्ली का टिकट खरीदा था पर मैं नहीं जानता था कि मुझे कहां जाना था। दिल्ली में शिव और सोमेश के अलावा मेरा अन्य कोई परिचित नहीं था। यही दो मेरे प्रमुख आधार थे पर दोनों का संघर्ष बहुत बीहड़ था। शिव तो जिस कालिज में पढ़ाता था रात को वहीं सो रहता था। कक्षाएं लगने से पहले और बाद में वह अपना भोजन स्वयं बना लेता था। सोमेश एक संस्थान में लोअर डिवीजन क्लर्क था और एक कठिन लड़ाई लड़ रहा था।
कभी मैं अपने घर खुर्जा जाने की सोचता था पर मुझे यों एकाएक आया देखकर मेरे बड़े भाई न जाने कितने सवाल करते। मैं घर से रिसर्च करने सागर गया था। मेरे इस निर्णय पर किसी ने आपत्ति नहीं की थी। मैं रिसर्च शुरू करते ही उसे पहले चरण में छोड़कर नरसिंहपुर अध्यापकी करने चला गया था इसका भी किसी ने कोई विरोध नहीं किया था और अब मैं न अध्यापकी कर रहा था और न रिसर्च। ऐसी स्थिति में अपनी बेरोजगारी की सूचना देकर मैं अपने परिवारी जनों को दुखी नहीं करना चाहता था।
गहरे मनोमंथन के बाद मैंने तय किया कि अब जो भी हो - मैं दिल्ली ही जाऊंगा और मित्रों की सहायता से कोई काम-धंधा तलाश करूंगा। सोमेश के पास जाने की ही बात मुझे ठीक लगी।
इस संकल्प के बाद मैंने थोड़ी राहत अनुभव की और मेरी बोझिल आंखों पर नींद हावी होने लगी। पता नहीं मैं कब गहरी नींद में डूब गया।