उछलो यूँ नहीं पत्थर / विकास / सत्यम भारती
'ग़ज़ल' शब्द फारसी भाषा का शब्द है जिसकी उत्पत्ति 'गजाला' शब्द से हुई जिसका अर्थ होता है-हिरण की आँख। हिरण की आँख बहुत ही सुंदर तथा दूरदृष्टिवान होती है वह छोटी-सी आंखों के सहारे ही पूरे जंगल में उछाल भरता है और अपनी नाभि की कस्तूरी की महक से अचंभित होकर भटकता रहता है ठीक उसी प्रकार गजलों का स्वरूप बहुत ही छोटा होता है लेकिन भावों का गूढ़ अर्थ उसमे सन्निहित होता है तथा जीवन में आने वाली वितृष्णा, विद्वेष, मन की स्थिति, सवाल, सरोकार आदि को समाहित कर कस्तूरी रूपी मृगतृष्णा से मुक्त होने की बात करता है। 'उर्दू हिन्दी शब्दकोश' में ग़ज़ल की परिभाषा इस प्रकार दी गई है-प्रेमिका से वार्तालाप ग़ज़ल है। जब अरब का आक्रमण भारत पर हुआ तब कुछ कवि राजाओं की प्रशस्ति में 'कसीदे' लिखा करते थे जहाँ राजाओं के भोग, विलास, मनोरंजन आदि का खास ख्याल रखा जाता
था और कुछ अतिरंजित बातें कही जाती थी। ग़ज़ल का प्रारंभिक रूप कसीदा को माना गया है और शायद इसलिए ग़ज़ल का मतलब भी प्रेमिका से वार्तालाप बताया गया है। ग़ज़ल का मतलब आजकल प्रेमिका से वार्तालाप हो सकता है लेकिन प्रेमिका से ही वार्तालाप नहीं है क्योंकि आधुनिक ग़ज़ल विविध विषयों से सवाल करती है जिनके माध्यम से यह सामाजिक, राजनीतिक, समसामयिक मुद्दों, आदि को भी आत्मसात करने लगी है। अत: ग़ज़ल दो पंक्तियों के शे' रों का वह समूह है जहाँ रदीफ़, काफिया और शब्दों के अंतराल में विविध विषयों एवं भावों को व्यंजित कर लोगों में कौतूहल, जिज्ञासा तथा जागृति पैदा कि जाती है।
गजल 'कहन-शैली' में होती है यह लिखी नहीं कही जाती है। यह दोहे की तरह दो पंक्तियों में बात को कहती है इसका अपना अलग व्याकरण होता हैं। ग़ज़ल का हर शे'र अपने आप में मुकम्मल होता है तथा अलग-अलग विषय वस्तु पर होता है। हिन्दी साहित्य में ग़ज़लों की एक विस्तृत परंपरा रही है जिसमें अमीर खुसरो का नाम पहले आता है-' जे हाल मिसकी मकुन तगाफुल दुराय नैना बनाए बतियाँ 'उसके बाद कबीर का नाम आता है-' हमन है इश्क मस्ताना'फिर गजलों का यह क्षेत्र सूखा हुआ मिलता है बाद में आधुनिक काल में भारतेंदु, जयशंकर प्रसाद, निराला जैसे कवियों ने इस परंपरा को आगे बढ़ाया। हिन्दी गजलों में क्रांति लाने का श्रेय दुष्यंत कुमार को जाता है उनके द्वारा लिखित' साये में धूप ' आगे के ग़ज़लकारों के लिए नवीन मार्ग खोलने का कार्य करती है। वर्तमान समय में हिन्दी साहित्य में अन्य विधाओं की तरह हिन्दी ग़ज़ल भी लोकप्रिय हो रही है-शमशेर, त्रिलोचन, गोपालदास नीरज, रामदरश मिश्र, रवींद्र कालिया, कुंवर बेचैन, अदम गोंडवी जैसे गजलकारों की गजलें आज के युवा खूब पसंद कर रहे हैं।
'उछालो यूं नहीं पत्थर' ग़ज़लकार विकास द्वारा लिखित गजलों का संग्रह है जिसमें कुल 83 गजलों को जगह दी गई है जो गुलदस्ते के उन फूलों के समान हैं जिसमें से एक को निकाल देने से उसकी खूबसूरती बिखर जाएगी, कहने का तात्पर्य है कि सभी ग़ज़ल अच्छी, भावगर्वित, सशक्त, मारक एवं सुदृढ़ हैं। विकास जी की ग़ज़लों की मुख्य विषयवस्तु तीन चीजों के आस पास टिकी है-प्रेम, सामाजिक सरोकार, तथा व्यक्ति-मन। ये तीनों विषय प्राकृतिक रूपक, लोकबिंब, तथा लोक में प्रचलित है जो प्रतीक के सहारे जीवंत हो उठे है। भाषा का चलतापन तथा लोक के उदाहरण व मुहावरों का प्रयोग इनकी गजलों को और भी संंप्रेेेेषणीय बना देती है-
गुलों के जिस्म की खुशबू बिखर न जाए कहीं,
हसीन ख्वाब का पैकर तलाश करता हूँ।
यहाँ सामाजिक सवालों को प्रकृति के प्रतीक एवं लोक के बिंब के सहारे कहा गया हैं जो शिल्प में नवीनता का द्योतक है।
प्रेम शाश्वत है, प्रेम समर्पण है तथा प्रेम का क्षेत्र विस्तृत है। प्रेम की धूरी पर यह सारा जगत टिका है, यह केवल दो मनुष्य के बीच सीमित न होकर ब्रहमांड के हर विषय वस्तु को खुद में समाहित करने की क्षमता रखता है। प्रेम समाज में समरसता तथा परिवार में सद्भाव के लिए भी ज़रूरी है। आचार्य शुक्ल जी ने लिखा भी है कि "श्रद्धा और प्रेम के योग से 'भक्ति' की निष्पत्ति होती है।" अतः प्रेमी लौकिक एवं परलौकिक दोनों है। प्रेम का मूल्य वर्तमान समय में गिरता जा रहा है, प्रेम में समर्पण नहीं अब स्वार्थ चलता है; स्वार्थ और पैसे की आड़ में प्रेम का केवल नाटक होता है गजलकार ने प्रेम के गिरते मूल्यों की तरफ पाठकों का ध्यान खींचा है-
हमें देखकर तो वह आगे बढ़े थे,
उन्हें अब हमारी ज़रूरत नहीं है।
प्रेम जब नहीं हो पाता तब भी मलाल रहता है और जब यह हो जाए तो और भी बवाल होता है। एकतरफा प्यार एवं वियोग के समय में मानवों की मन: स्थिति बिल्कुल पागलों जैसी हो जाती है कुछ युवा तो इस चक्कर में अपनी ज़िन्दगी तक बर्बाद कर लेते हैं। प्रेम की बुनियाद भरोसे की नींव पर टिकी है लेकिन जब भरोसा टूट जाता है तब आदमी खुद को छला हुआ महसूस करने लगता है और सबसे ज़्यादा नफरत भी उसी से करने लगता है, कवि वर्तमान युवाओं की मनोदशा पकड़कर उसे सचेत करता है-
मुस्कुराकर चोट खाकर आ गए,
पत्थरों से दिल लगा कर आ गए,
रोशनी की बात जो करते रहे,
वो मगर दीपक बुझा कर आ गए।
जब कोई रिश्ता या प्रेम आंखों में चुभने लगे तथा उस रिश्ते के होने से मन में हमेशा चुभन, उधेड़बुन, असमंजस और परेशानी होने लगे तो उस रिश्ते को तोड़ देना ही ज़्यादा फायदेमंद होता है लेखक इस तरफ भी इशारा करता है। वैसे ही वर्तमान युग में सैकड़ों उलझनें होते हैं, और फिर मन का यह संताप, अपराधबोध और घुटन इंसान को खोखला बना देेता है इसलिए ज़रूरी है कि समय रहते उसका उपचार कर देना चाहिए-
भरोसा नहीं आपका रह गया है,
सफर के लिए हमसफर देख लेंगे।
हमारे समाज की विडंबना रही है कि यहाँ प्रेम करने वाले को स्वीकृति नहीं दी जाती है या तो उसे बहिष्कृत कर दिया जाता है या फिर उसे मौत के घाट उतार दिया जाता है। प्रेम की अस्वीकृति और उससे उत्पन्न समस्याओं के तरफ लेखक इंगित करता है-
मोहब्बत रोज मरती है तुम्हें मालूम ये होगा,
मगर फिर भी मोहब्बत-सा कहीं लश्कर नहीं देखा।
आधुनिक युग के मानवों की सबसे बड़ी समस्या है-एकाकीपन, घुटन, संताप, कुंठा, वासना, रिश्तों का टूटन, प्रतिस्पर्धा, ईर्ष्या, द्वेष, स्वार्थ आदि और इन समस्याओं को जन्म देने वाले कारण है। विकास जी की गजलें इस युग के यथार्थ से टकराकर उन समस्याओं से निकल जाने की राह बताती है तथा टूटते बिखरते रिश्तों को एकरूपता देने की कोशिश करती है। आज के युवाओं के मन में उत्पन्न निराशा का भाव ही उन्हें तरक्की से रोक रहा है और वह पूरी शक्ति के साथ संघर्ष नहीं कर पा रहे हैं-
दोस्ती दुश्मनी नाम की रह गई,
हाँ मेरी जिंदगानी नाम की रह गई।
'दोस्ती' एक ऐसा शब्द है जो मानवीय सद्भाव, मानवता तथा सहयोग की भावना के लिए जाना जाता है लेकिन वर्तमान युग में दोस्ती का दायरा सिर्फ़ स्वार्थ तक सीमित हो गया है जब ज़रूरत पड़ती है तब याद कर लिया जाता है। दोस्ती के मूल्यों कों निभाने के चक्कर में कभी-कभी भोले लोग गच्चा भी खा जाते हैं गजलकार इस तरफ भी इशारा करते हैं और सोच समझकर दोस्त बनाने की सलाह देते हैं-
कुछ न हासिल हुआ दुश्मनी के सिवा,
क्या नहीं हम किए दोस्ती के लिए।
रिश्तों का टूटन, पीढ़ियों का संघर्ष तथा वैचारिक मतभेद वर्तमान समय की प्रधान समस्या है उस तरफ भी लेखक ध्यान ले जाता है-
दीवार है खड़ी यहाँ रिश्तो के बीच में,
दिल के हर जख्म का उत्तर तलाशिए।
'आत्ममुग्धता' वर्तमान युग के मानवों की प्रधान समस्या है व्यक्ति जब मुग्ध हो जाता है तब उसकी सृजनात्मक क्षमता घट जाती है तथा उसका भावक्षेत्र, चरित्र एवं विचार सब संकुचित हो जाता है लेखक इस "मरीचिका" से व्यक्ति को बचकर छल कपट रहित चरित्र निर्माण करने की सलाह देते हैं-
मानता हूँ चूमती है मंजिलें मेरे कदम,
ये भ्रम मुझको नहीं है मैं खुदा हो जाऊंगा।
इस प्रकार हम देखते हैं कि पुस्तक 'उछालो यूँ नहीं पत्थर' वर्तमान युगीन समस्याओं का वर्णन करती है, सवाल करती है तथा जागृति लाने की बात करता है। विचारों की तपिश और विमर्शों की मांग इस पुस्तक को और भी खास बना दिया है, कवि के शब्द नए युग को व्यक्त करने के लिए बेचैन नजर आतें है। वही साहित्य महान होता है जिसमें समय सापेक्ष समस्याओं का जिक्र हो और समाज की नब्ज को पकड़ने की क्षमता हो। कवि विकास की गजलें नए समय का संज्ञान लेती है तथा अहिंसक प्रतिवाद करती है। शब्दों के अपव्यय से बचने के लिए बिंब और प्रतीक का सहारा लेते हैं जिससे विविध सवालों को आत्मसात करने में उन्हें सहूलियत हुई है।
उनकी गजलों में आइना, परिंदा एवं तिष्णगी शब्दों का प्रयोग बहुत बार मिलता है कवि ने इन तीन प्रतीकों के सहारे मानवीय मन की उधेरबुन को प्रकट किया है तथा सामाजिक सवालों, एजेंडा तथा मुद्दों का भी जिक्र किया है। समाज में चलने वाले अस्पृश्यता, असमानता, आर्थिक भेदभाव और धार्मिक भेदभाव विकास के मार्ग को अवरुद्ध करने का बड़ा कारण है जिसके केंद्र में सत्ता, परंपरागत सोच एवं पूर्वाग्रह है। सत्ता तो अपना स्वार्थ साधने के लिए हमें बहकाती है लेकिन हम भी उतने ही दोषी हैं जो उस बहकावे में आते हैं और किसी के प्रति पूर्वाग्रह बना लेते हैं-
धर्म हिंदू, धर्म मुस्लिम, छोड़िए अब,
लोग सारे जात के मारे हुए हैं।
'सत्ता का पावर' सबसे बड़ा पावर है, सत्ता के इशारे पर ही वर्तमान समय में मौसम भी अपना रुख बदलता है। कुर्सी की चाह, स्वार्थ, चाटुकारिता तथा सिस्टम का भ्रष्ट आचरण वर्तमान युग की प्रमुख राजनीतिक समस्याएँ हैं। मानवता इस हद तक गिर गयी है कि चंद पैसों की लालच में हत्या, दंगा, अपहरण, बलात्कार आदि तो आम बात हो गई है। सत्ता का चेहरा बदल सकता है लेकिन चरित्र नहीं। पैसे कमाने की इच्छा तथा सता का पूंजी के साथ गठजोड़ से कवि आहत है ऐसा करने वाले इंसानों को वह हैवान मानता है-
सियासत तुम करो जितनी तुम्हें दौलत कमानी है,
सियासी आदमी को हम नहीं इंसान लिखते हैं।
सत्ताधीश तो खुद AC में बैठकर तांडव रचता है लेकिन कभी मैदान में नहीं उतरता है वह पर्दे के पीछे से ही आग में घी डालता है लेकिन हर जगह पिसतती निरीह जनता ही है-
भले ही आग से खेला मगर चल कर नहीं देखा,
सियासत की गली में मेघ का छप्पर नहीं देखा।
इसके अतिरिक्त कवि विकास ने अदालतों के गिरते स्तर, नौकरशाही का भ्रष्टाचार, कालाबाजारी, मंहगाई, किसानी समस्या आदि समसामयिक मुद्दे को भी गजलों में समाहित किया है। सिस्टम के गिरते स्तर तथा ईमान का चोला पहनकर बेमानी करनेे वालेे, गरीबों के हिस्से को खा जाने वाले और अधिकारों को फाइलों में दबा कर रखने वाले जिम्मेदार लोगों से भी सवाल करता लेखक नजर आता है-
नहीं ईमान बिकते हैं यहाँ कहा उसने मुझे साहब,
मगर ईमान के कपड़े उतारे रोज जाते हैं ।।
भूख, गरीबी, बेकारी और रोटी की समस्या वर्तमान समय की प्रधान समस्या है आजादी के इतने साल बाद भी हमारे देश में भूख और रोटी की समस्या अभी तक कायम है। गरीबी इस तरह हावी है कि भारत का विकास फुटपाथ और मंदिर मस्जिदों के आगे बैठने वाले भिखारियों की कटोरी से लग जाता है। गजलकार समाज की नब्ज पकड़ने की कोशिश करता है और समस्याओं को उजागर करता है जैसे बाल मजदूरी के लिए वे लिखते हैं-
जिन्हें अठखेलियाँ करनी थी बचपन के घरोंदे में,
मगर रोटी की चाहत में शरारत टूट जाती है।
गरीबी, बेकारी तथा भूख की समस्या-
सितम फिर ढा गई थी तेज बारिश,
सड़क के जब किनारे सो रहे थे।
घरेलू उत्पीड़न, स्त्री समस्या तथा दहेज प्रथा के दुष्प्रभाव को व्यक्त करते हुए लेखक लिखता है-
फिर गरीबी में घर की वह बेटी जली,
बंद कमरे में उठता धुआं देखिए।
धार्मिक आडंबर-
हमारा धर्म है ऐसा हमें भी गर्व है इस पर,
जो मीठा बोल दे कोई उसे भगवान लिखते हैं।
लेखक अपनी गजलों के माध्यम से समाज में जनचेतना लाना चाहता है। (यह वाक्य नीचे वाले वाक्य के साथ जुड़ नहीं रहा, कुछ और लिखो)
देशभक्ति और राष्ट्रभक्तों पर आजकल खूब डिबेट होते हैं, सत्ता के खिलाफ आवाज उठाने वाले देशद्रोही तथा उनकी चाटुकारिता करने वाले देशभक्त कहलाते हैं। देशभक्ति का तंत्र सत्ता द्वारा चालित हो रहा है तथा युवाओं की शक्ति व्यर्थ के डिबेट में क्षीण हो रही है। देश की सेवा करने वाला हर शख्स उतना ही बड़ा देशभक्त है जितना तिरंगा लेकर खुद को देशभक्त कहने वाला। देशभक्ति पर सिर खपाने से अच्छा होता कि हम अपनी शक्ति देश की तरक्की में लगाते तथा देश के हर वस्तु से प्रेम करते जो यहाँ की सुंदरता को बढ़ाता है तथा मुल्क की तरक्की चाहता है, कवि का ध्यान इस तरफ भी गया है-
हमारे मुल्क के जैसी कहीं जन्नत नहीं है,
कभी उस पार मैं देखूं मुझे हसरत नहीं है।
अंततः यह कहा जा सकता है कि ग़ज़ल संग्रह "उछलो यूं नहीं पत्थर" भाव एवं शिल्प दोनों पक्षों में सुदृढ़ है तथा भाषा कि प्रांजलता, लोक बिंब तथा प्राकृतिक प्रतीक इसे जीवंत बनाती है। युगीन यथार्थ तथा सामयिक सवालों से टकराकर लेखक विमर्श तथा जागृति की मांग करता है। अत: कहा जा सकता है कि वैयक्तिक मन की तिश्नगी को आइना दिखलाता है उछालो यूँ नहीं पत्थर।