उजास / संजीव ठाकुर

Gadya Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

बाहर घुप्प अँधेरा था और भीतर भीषण गर्मी–किसी कस्बे या छोटे शहर में बिजली नहीं होने पर जैसा होता है और यह अक्सर होता है। ... वह चित लेटा था। कह नहीं सकता, मच्छरों की आवाज़ उसे कितनी बकवास लगी थी और उनके धावों ने शरीर को कितना कष्ट पहुँचाया था? उसकी आँखों के आगे बिजली का पंखा था जिस पर ढेर सारा मैल जमा था। पंखे की तिल्लियाँ उसे बहुत थकी जान पड़ी थीं–जाने कितनी सदियों से ये रुकी पड़ी हैं? ...

पंखे की उन निर्जीव तिल्लियों के रुकने-थकने की बात पता नहीं उसके मन में क्यों आ रही थी? जबकि उसकी अपनी ही ज़िंदगी रुकी और थकी पड़ी है–न जाने कितनी सदियों से? अब तो यौवन का उत्साह ठंडा पड़ गया है, सब कुछ कर डालने की उत्तेजना ख़त्म! और रोज़ वही ज़िंदगी: मोटे-मोटे लेजर, नोटों के बंडल और वैष्णव होटल की रोटियाँ, चने का तड़का! क्या इसी ज़िंदगी को पाने के लिए उसने अपनी ज़िंदगी के बेहतरीन छब्बीस साल जाया कर दिए? क्या उसने कभी सोचा था कि इस अनजान जगह–जिसे ठीक से कस्बा भी नहीं कहा जा सकता, के किसी कमरे में उसका दफ्तर होगा, जिसके कोने वाले काउंटर पर उसका नाम क्लर्क-कम-कैशियर (हिन्दी में कहें तो ' लिपिक-सह-रोकड़िया) की पदवी के साथ लिखा रहेगा और अभी रात के आठ बजकर सत्ताइस मिनट पर इस कमरे के अँधेरे में मच्छरों के डंक बर्दाश्त करेगा? ...

नहीं! कभी नहीं सोचा था उसने। वह तो विमान चलाकर आकाश की ऊँचाई मापना चाहता था। आज भी आकाश में उड़ रहे विमानों को देखकर उसे लगता है कि उसका कोई टुकड़ा विमान के साथ ही आकाश में उड़ रहा है! ...

सैनिक स्कूल में प्रवेश पाने वाली प्रतियोगिता परीक्षा में वह पास कर गया था। उसका नाम सैनिक स्कूल तिलैया में लिखवा दिया गया था। छठी कक्षा के उस बारह वर्षीय बालक को सुबह उठकर पी. टी. ग्राउंड में जाकर दौड़ने, पी. टी. करने और गलती करने पर इंस्ट्रक्टर का दंड झेलने में ख़ासी परेशानी होती थी। उस पर सीनियर लड़कों के द्वारा सताया जाना! उसका मन भाग जाने को करता था। वह रो-रो कर माँ को पत्र लिखा करता था–"यहाँ नहीं पढ्ना है मुझे!" माँ-पिताजी आकर समझाते थे–"याद है बेटा! बचपन में कोई तुमसे पूछता था कि बड़े होकर तुम क्या बनोगे, तो तुम क्या कहते थे? तुम कहते थे," मैं हवाई जहाज़ का ड्राइवर बनूँगा। "... हम तुम्हें समझाते थे," बेटे! ड्राइवर नहीं पायलट! पायलट बनना है तुम्हें! "तुम ड्राइवर बनने की ज़िद पर अड़े रहते थे। सामने वाले हार जाते थे। अब तुम्हीं बताओ कि गाँव के स्कूल में पढ़कर तुम पायलट बन सकोगे? वहाँ से पढ़कर तो तुम ड्राइवर ही बन सकते हो-वह भी ट्रेन का, बस का! हवाई जहाज़ का नहीं! ...देखो, यह कितना अच्छा स्कूल है? कितनी अच्छी पढ़ाई होती है? यहाँ पढ़ लोगे तो तुम एन. डी. ए. में चले जाओगे, एअर फोर्स जॉइन कर लोगे। फिर पायलट बनने का तुम्हारा सपना भी पूरा हो सकता है।"

पिताजी ग़लत साबित हो गए, माँ ग़लत साबित हो गईं। सही साबित हो गया वह ज्योतिष जिसने एक बार उसका हाथ देखकर कहा था–"तुम क्लर्क बनोगे!" उस समय उस ज्योतिष को मन ही मन उसने बेवकूफ कहा था। अब तो उसे ज्योतिष-शास्त्र पर विश्वास-सा होने लगा है!

स्कूल में धीरे-धीरे उसका मन लगने लगा था। पढ़ाई के अलावा खेल-कूद में भी वह अच्छा करने लगा था। एक बार खेलते वक़्त क्रिकेट का बॉल उसकी जाँघ में लग गया था जो दर्द करने लगा था। थोड़े दिनों में वह दर्द ठीक भी हो गया था लेकिन जब वह दसवीं की परीक्षा देकर घर आया तब उसकी जाँघ का दर्द फिर से शुरू हो गया। पिताजी ने डॉक्टर को दिखाया। डॉक्टर ने ऑपरेशन बताया। डॉक्टर ने जब लोकल एनेस्थीसिया देकर ऑपरेशन करना शुरू किया तब पता चला कि घाव बहुत अंदर तक है–हड्डी में घुस गया है। किसी तरह ऑपरेशन निबटाया गया। उसके सगे-सम्बंधियों को इलाज़ से संतोष नहीं हो रहा था इसलिए उसे दिल्ली ले जाया गया, जहाँ दो बार ऑपरेशन और लगभग दो महीने अस्पताल में भर्ती रहने के बाद वह ठीक हो पाया था। जाँघ में गहराई लिए घाव का नौ इंच निशान बन गया था और भीतर हड्डी में एक जगह स्क्रैच पड़ा रह गया था। डॉक्टर ने कहा था कि वह निशान भविष्य में ख़तरा पैदा कर सकता है। डॉक्टर ने उसे उछलने-कूदने की मनाही कर दी थी। यानी कि एन. डी. ए. में जाने के उसके सपने पर पूर्ण विराम लग गया था। उस समय भी उसे अपने चारों ओर भयानक अँधेरा महसूस हुआ था–एक विराट शून्य!

पिताजी ने और अन्य शुभेच्छुओं ने उसे निराशा से उबारने की कोशिश की थी। इंजीनियरिंग के गुण बतलाए थे। लेकिन उसकी तनिक भी इच्छा इंजीनियर बनने की नहीं थी, वह इंजीनियरिंग एंट्रेन्स परीक्षा में पास नहीं हो पाया था। इस बीच उसे 'भारतीय प्रशासनिक सेवा' आकर्षित करने लगा था। चूँकि इसकी तैयारी के लिए सबसे अच्छी जगह दिल्ली है, बारहवीं के बाद वह दिल्ली चला गया था। वहीं बी. ए. में नाम लिखवाया था। शुरू में दिल्ली की चकाचौंध ने उसे भरमा दिया था। कॉलेज से मिलने वाले साढ़े बारह रुपए का बस पास और मनोरंजन के इतने साधन! क्लास में तितलियों का झुंड! कभी पिकनिक, कभी सिनेमा! कमला नगर का 'कॉर्नर शॉप'–चीज पैटीज, मिल्क शेक, कोल्ड ड्रिंक! ...लेकिन फर्स्ट ईयर की परीक्षा में जब वह मुश्किल से पास हुआ तब उसके होश ठिकाने आ गए। उसे अपना उद्देश्य याद आ गया। उसने उस पगडंडी को छोड़ दिया जो उल्टी दिशा को जाती थी। विपरीत-लिंगी के मोह-पाश की जकड़न से मुक्त होने की कोशिश करता वह ज़्यादा से ज़्यादा समय पढ़ाई में लगाने लगा। सेकेंड ईयर में उसके अच्छे अंक आए। फर्स्ट ईयर के पेपर रिपीट कर उसमें भी अच्छे अंक ले आए और फाइनल ईयर में तो उसने विश्वविद्यालय में स्थान भी पाया–तीसरा ही सही! उसका खोया हुआ आत्मविश्वास लौट आया। वह कुछ करने को तैयार होने लगा। जो सपना लेकर दिल्ली आया था उसे पूरा करने की कोशिश में लग गया। उसे लगा कि एम. ए. करने से कोई फायदा नहीं, इससे ध्यान बेकार बंटा रहेगा, उसने एम. ए. ज्वाइन नहीं किया। वह पूरी तरह आई. ए. एस. की तैयारी में लग गया। दिल्ली की अपनी जो मार है, उसे भी साथ-साथ सहता रहा। मकान मालिकों की ज़्यादतियाँ सहता रहा, मकान बदलता रहा। ढाबे में खाना खाता रहा। कुछ दिनों तक तो एक नौकर भी रहा था लेकिन ग्रुप के अन्य लड़कों के अलग हो जाने से यह व्यवस्था भंग हो गई थी। वहाँ अक्सर ऐसा ही होता था। चार-पाँच लड़कों का ग्रुप बनता था, कुछ दिनों के बाद खट-पट शुरू हो जाती थी। किसी को रेडियो बजाने की आदत, किसी को लाइट में सोने की दिक्कत! किसी को खाने में यह पसंद तो किसी को वह नापसंद! इन झमेलों से बचने के लिए वह अकेले ही रहने लगा। हालाँकि अकेले रहने में कमरा काफ़ी महँगा पड़ा था। उसे पूरा करने के लिए उसने एक ट्यूशन पकड़ लिया था। खाने की समस्या फिर भी थी। लेकिन खाने की चिंता किसे थी? वहाँ तो वह पढ़ने को गया था। बस पढ़ना, पढ़ना और पढ़ना! रात भर जगकर पढ़ना। बीच में चाय, आमलेट बनाकर खा-पी लेना और पढ़ते-पढ़ते कई दिन हो जाने पर बत्रा, अल्पना, अम्बा या आकाश में जाकर घटिया से घटिया मूवी देख लेना! ...

दोस्तों को विश्वास था कि वह पहली बार में ही आई. ए. एस. हो जाएगा–आख़िर दो साल लगातार मेहनत की है उसने! आशा के अनुरूप वह पहली ही बार पी. टी. क्वालिफाय कर गया। मेंस में लेकिन छंट गया। दूसरी बार मेंस कर गया, इंटरव्यू में बाहर और तीसरी बार भी यही हुआ! अब उसके सामने एक बड़ा प्रश्न-चिह्न था। आई. ए. एस. की परीक्षा में असफल हो जाने के बाद ऐसा ही विराट प्रश्न-चिह्न विद्यार्थियों के सामने उपस्थित हो जाता है। आई. ए. एस. के स्वप्न में वे छोटी-मोटी नौकरियों के स्वप्न नहीं मिलाया करते हैं। परिणामतः वे ख़ुद को हारा हुआ महसूस करते हैं। कुछ तो स्टेट सिविल सर्विसेज की परीक्षाओं में भिड़ जाते हैं, कुछ लॉं करने लग जाते हैं। कुछ कहीं से मैनेजमेंट या कंप्यूटर का कोर्स कर किसी नौकरी का जुगाड़ करने लगते हैं। आख़िर वे करें भी तो क्या?

इसे संयोग कह लीजिए या समय पर उसका चेत जाना कि अपने मित्रो से छुपकर उसने बैंक के क्लर्क-ग्रेड का फॉर्म भर दिया था। आई. ए. एस. का ख़ाब देखने वाला क्लर्की के लिए कोशिश नहीं कर सकता। लेकिन उसे जीवन की सच्चाई का ज्ञान हो गया था। इधर-उधर भटकने, कोचिंग इंस्टीट्यूट खोलने या किसी बिजनेस में जाने से बेहतर उसे यही लगा कि एक स्थायी नौकरी हो। उसे ज़्यादा तैयारी नहीं करनी पड़ी और सफलता मिल गई। दोस्त उसका मज़ाक उड़ाते थे, घर वाले बहुत मना करते थे। वे कहते थे, "बिहार पब्लिक सर्विस कमीशन की तैयारी करो। उसके लिए तो बहुत उम्र पड़ी है?" लेकिन वह नहीं माना था। उस पर किसी भी नौकरी का भूत सवार था, उसने नौकरी ज्वाइन कर ली। उसकी पोस्टिंग यहाँ हो गई–छोटा नागपुर पठार पर–राँची से करीब एक सौ अस्सी किलो मीटर दूर–जिसका नाम महुआडाँड़ है–जिसे मुश्किल से कस्बा कहा जा सकता है–जहाँ बिजली का कोई ठिकाना नहीं रहता, पानी के लिए चश्मा और दो-चार चापाकाल हैं। बीमार पड़ने पर डॉक्टर की सुविधा नहीं है क्योंकि डॉक्टर ख़ुद बीमारी का बहाना कर आधे समय राँची में रहते हैं। खाना खाने के लिए एकमात्र वैष्णव होटल ...!

'अरे! होटल तो साढ़े नौ तक बंद हो जाएगा!' अचानक उसे खयाल आया और वह तैयार होकर निकल गया। होटल में कम ही लोग थे। उसने रोटी और तड़का का ऑडर दिया और टेबुल पर बैठ गया। होटल को रौशन करने के लिए एक पेट्रोमेक्स जल रहा था जो करीब-करीब बुझने की तैयारी में था। उसके चारों ओर हजारों कीट-पतंगे मँडरा रहे थे। कुछ तो गंधी-कीट भी। उनसे बचते-बचाते उसने खाना खाया। लाइट अभी भी नहीं आई थी। उसने पुलिया तक घूम आने का मन बनाया। वह अक्सर इस पुलिया तक आता है–पुलिया पर बैठकर अपना मन बहलाया करता है। पुलिया पर पहुँच कर उसने देखा कि आकाश में धुँधला-सा चाँद निकल आया है। 'थोड़ी देर में यह रोशनी भी देने लगेगा' , उसके मन में आया और वह पुलिया पर बैठकर मींड़ और गमक लेती नदी का संगीत सुनने लगा। सुबह-सुबह वह इसी पहाड़ी नदी पर नहाने आता है। इसके शीतल जल से नहाकर उसका तनाव थोड़ी देर के लिए दूर हो जाता है। कभी-कभी वह घुटने तक गहरी इस नदी में दूर तक पैदल चलता जाता है। उसे बहुत मज़ा आता है। आज पुलिया पर बैठे-बैठे उसे खयाल आता है कि इतना नैसर्गिक आनंद उसे आई. ए. एस. बनने पर नसीब हो पाता? यह जो मंद-मंद बहती हुई हवा है और दूर से आती हुई मांदल की मदमाती आवाज़... यहाँ न आने पर उसे नसीब हो पाता? अभावों के बावजूद मुक्त-मन से जीते आदिवासियों को देख पाता? और वह साँवली लेकिन तीखे नाक-नक्श वाली आदिवासी कस्टमर–जो उसी के काउंटर पर आती है और उसके मन में उजास भर जाती है–कहीं और मिल पाती? ...

उसने देखा कि चाँद अपनी चाँदनी बिखेरने लगा है। उस चाँदनी में अँगड़ाई लेती हुई नदी का सौंदर्य देखकर वह दंग रह गया। इस सौंदर्य को देखकर उसके मन में आया कि उसे इस सौंदर्य के लिए जीना चाहिए। वह नदी में उतर गया और अंजलि में जल लेकर उसने अपने-आप से कहा–'मुझे इस जल के लिए जीना चाहिए!'

रात के दस बजने वाले थे। इस इलाके में जंगली भालू, तेंदुआ, लकड़बग्घा वगैरह भी आते रहते हैं। उसने लौटने का निश्चय किया। लौटते हुए उसके मन में कौंधा–'मैं तो आई. ए. एस. बनकर भी देश की, समाज की, गरीबों की, वंचितों की सेवा करना चाहता था? यह काम क्या अभी नहीं कर सकता? कहीं ऐसा तो नहीं कि कुदरत ने मुझे इसीलिए इस इलाके में भेजा है?' ...

'क्यों नहीं?' वह निश्चय करने लगा–'मैं इन गरीब आदिवासियों के लिए जीऊँगा। इनके बीच ही रहूँगा। मैं इनके बीच पसरे अँधेरों को दूर करूँगा। मैं इनकी बस्तियों में एक-एक चाँद टाँकने का काम करूँगा!'