उज्ज्वल नैतिकता के समर्थक : गंगेश गुंजन / देवशंकर नवीन
फरवरी 1967 में राजकमल चौधरी की अध्यक्षता में सुपौल में ‘मैथिली नव कविता’ के एक प्रतिनिधि संकलन, रामकृष्ण झा ‘किसुन के सम्पादन में तैयार होने का प्रस्ताव पारित हुआ। संकलन तैयार भी हुआ, पर प्रकाशित हुआ सन् 1971 में, अर्थात् राजकमल और किसुन — दोनों के अवसान के बाद। ‘मैथिलीक नव कविता’ शीर्षक यह पुस्तक हिन्दी के सप्तक (तार, दूसरा, तीसरा) संकलनों की तरह मान्यता-दात्री ग्रन्थ माना गया। इसका अभिप्राय कोई यह न लगाएँ कि मैथिली में नए दृष्टिकोण की कविता सन् 1971 के बाद लिखी जाने लगी। ध्यातव्य हो कि सन् 1941 में वैश्विक साहित्य को टक्कर देती वैद्यनाथ मिश्र यात्री की नए भाव-बोध की कविता ‘आन्हर जिनगी’ और ‘कविक स्वप्न’ लिखी जी चुकी थी (‘मिथिला मोद’ पत्रिका में सन् 1941 में प्रकाशित), जो सन् 1949 में प्रकाशित उनके संकलन ‘चित्रा’ में संकलित हुआ। नवम्बर, 1957 से अप्रैल 1958 के बीच राजकमल चौधरी द्वारा रचित उदग्र तरंग की कविताएँ सन् 1959 में ‘स्वरगन्धा’ में संकलित हुईं। रामकृष्ण झा किसुन का ‘आत्मनेपद’ (1963), सोमदेव की ‘कालध्वनि’ (1965), मायानन्द मिश्र का ‘दिशान्तर’ (1966), कीर्तिनारायण मिश्र का ‘सीमान्त’ (1967) प्रकाशित हुआ। सन् 1960 बितते-बितते राजकमल चौधरी ‘स्वरगन्धा’ के परिवेश से बाहर आकर ‘मनुष्य के अन्तरंग, उसके आत्मदमन, उसके आत्म-शृंगार’ को प्रमुखता देने लगे। अर्थात् मैथिली की रचनाशीलता निरन्तर विकासशील था। पर बीसवीं शताब्दी के अन्त तक मैथिली की प्रकाशन-व्यवस्था पंगु थी; सो अभी भी है। पर मुद्रण की सुविधा और लोगों की कमाई बढ़ जाने से अब लेखक होना आसान हो गया है। इस पंगुता के कारण ढेरो रचनाएँ दस-दस, बीस-बीस वर्ष बाद प्रकाशित / संकलित होती थी। ऐसी लाचार प्रकाशन-व्यवस्था की उन्नत लाचारी के बल मैथिली साहित्य की किसी भी कृति की ऐतिहासिकता प्रमाणित करना कठिन था, किसी भी रचना की समकालीनता तय करना कठिन था। बहरहाल...
‘मैथिलीक नव कविता’ शीर्षक इस पुस्तक में जिन सोलह कवियों की रचनाएँ संकलित हुईं, उनमें से एक प्रमुख कवि हैं गंगेश गुंजन (15.07.1942 को मधुबनी जिलाक पिलखबाड़ गाँव में जन्म, मूल नाम गंगेश्वर झा)। कवि के रूप में यह उनकी उल्लेख्य भूमिका का प्रमाण है, कि उनकी गिनती मैथिली के वैसे सोलह प्रमुख कवियों में हुई, जिनकी कविता मैथिली में नए भाव-बोध की कविताओं का प्रस्थान-बिन्दु मानी गई। गंगेश गुंजन बहुविधावादी रचनाकार हैं। उन्होंने गीत, गजल, कविता, कथा, उपन्यास, नाटक, एकांकी, नुक्कड़ नाटक, कुछ लेख आदि...सब लिखा, पर उससे क्या? मैथिली के किसी गिरोह के सदस्य तो कभी नहीं हुए; समालोचना माफिया के कुटुम्ब नहीं हुए, उन्हें साध सकने की अवगति नहीं हुई; नीति-धर्म ताख पर राखकर इन लोगों के गोरख-धन्धों में साथ देने की अवगति नहीं हुई, किसी को अवांछित लाभ दिला सकने की क्षमता नहीं जुटाई!...अर्थात्, गिरोहबाजों के लिए किसी भी तरह उपयोगी नहीं हुए। बस, ‘कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन’ की नीयत से लिखते रहे। लिहाजा साहित्यिक अनुशीलन में इनकी अपेक्षित चर्चा नहीं दिखी। कैसे दिखती? केवल लिखते रहने से मैथिली में कोई थोड़े प्रतिष्ठित होते हैं?
गंगेश गुंजन की लेखकीय-यात्रा लगभग साढ़े छह दशक पूर्व शुरू हुई, अर्थात् गत शताब्दी के सातवें-आठवें दशक से। उस दौर की महत्त्वपूर्ण हिन्दी पत्र-पत्रिकाओं में उनकी हिन्दी रचनाएँ खूब प्रकाशित-प्रशंसित हुईं। उसी अवधि में लिखी उनकी हिन्दी कहानियों का पहला संग्रह ‘भोर’ शीर्षक से सन् 2017 में प्रकाशित हुआ। इस नए प्रकाशन ने कथाकार को ‘अव्यक्त संकोच से दबा महासुख’ दिया। इस संकोच का एक मात्र कारण सम्भवतः यह हो कि लगभग चार-साढ़े चार दशक पूर्व शुरू हुए हिन्दी-लेखन की निरन्तरता और हिन्दी भाषा-साहित्य में शिक्षित-दीक्षित होने के बावजूद, अब तक उनका कोई कथा-संग्रह हिन्दी में नहीं आ सका। वस्तुतः मातृभाषा-मोह ने इनको मैथिली की ओर इस तरह सम्मोहित किया, कि यहीं रम गए। उल्लेख सुसंगत हो कि उनका लेखनारम्भ हिन्दी में ही कहानी-लेखन से हुआ।
मैथिली में इनकी पहली रचना ‘अन्हार इजोत’ शीर्षक कथा सन् 1961 में प्रकाशित हुई। फिर इसी शीर्षक से उनका पहला कथा-संग्रह भी प्रकाशित हुआ। स्पष्ट है, कि अभ्यास उससे कुछ पूर्व से ही करते होंगे। चार विधाओं--कहानी, कविता, उपन्यास, नाटक; और दो भाषाओं — मैथिली और हिन्दी में निरन्त रचनारत गंगेश गुंजन की दर्जनाधिक पुस्तकें प्रकाशित हैं। अवसर पाकर कभी-कभी आलोचनात्मक टिप्पणियाँ भी कीं; पर व्यवस्थित आलोचना में उन्होंने कभी अपनी गति नहीं बनाई। मैथिली में तीन कथा-संग्रह — अन्हार-इजोत’ (1964), ‘उचितवक्ता’ (1991), ‘सिन्दूरक दाम’ (2011); एक नुक्कड़ नाटक — ‘बुधिबधिया’ (1982); एक दीर्घ कविता--‘हम: एक टा मिथ्या परिचय’ (1968), एक उपन्यास--‘पहिल लोक’ (1981); तीन कविता-संग्रह — ‘लोक सुनू’ (1980), ‘दुःखक दुपहरिया’ (1999), ‘अन्हारमे डमरू’ (2002); दो नाटक — ‘आइ भोर’ और ‘नबका सिलेबस’ प्रकाशित हैं। इसके अलावा ब्रज किशोर वर्मा मणिपद्म के उपन्यास ‘नैका बनिजारा’ का हिन्दी अनुवाद, सम्पादित कृति ‘मिथिलांचल की लोक कथाएँ’, गत शताब्दी के अन्तिम दशक में ‘शब्द तैयार हैं’ शीर्षक से हिन्दी में कविता-संग्रह भी प्रकाशित हुए। ‘उचितवक्ता’ कथा-संग्रह के लिए उन्हें सन् 1994 में साहित्य अकादेमी सम्मान दिया गया। सन् 2014 में विद्यापति सम्मान और सन् 2017 में प्रबोध सम्मान सहित अनेक विशिष्ट सम्मान से भी विभूषित हुए। पर गंगेश गुंजन का महत्त्व जानने के लिए उनकी पुस्तकों की संख्या नहीं, उसके गुणवत्ता जानना महत्त्वपूर्ण है।
गंगेश गुंजन ने लिखा कि ‘जाते समय कुछ नहीं कर गए पिता मेरे नाम, न घर, न खेत-खलिहान। कह गए: बाट चलते समय सतत् चलना बाम, इस बात का रखना ध्यान।’ अर्थात् विरासत में भी जिन्हें बाट चलते समय ‘बाएँ’ चलने का उपदेश मिला हो; वह अपनी मान्यता में दृढ़, रचनाशीलता में जनसरोकारी और स्वभाव से मुलायम हों, यह सहज सम्भाव्य है। उल्लेखनीय है कि आचारगत स्थिति में लोग विधान-विरुद्ध आचरण करनेवालों को अथवा राजनीतिक स्थिति में व्यवस्था-विरोधियों को ‘बामपन्थी’ कहते हैं, पर इसका सही अर्थ होगा ऐसा विचार, जो जीवन की सहजता अवरुद्ध करनेवाली रूढ़ियों का प्रतिपक्ष खड़ा करे; सहज सदाचार का मर्म जाने। गंगेश गुंजन ऐसा निरन्तर करते और समझते आ रहे हैं! लिहाजा आज हमलोग जिस बेसुध परिवेश में जी रहे हैं, इनके जैसे प्रतिबद्ध रचनाकारों के बहुविध आयामों पर निर्णय करना श्रमसाध्य तो होगा ही।
यात्री और राजकमल के पश्चात् मैथिली में जिस पीढ़ी ने अपने सक्रिय योगदान से साहित्यिक गतिशीलता को प्रखर बनाया, गंगेश गुंजन उस पीढ़ी के अत्यन्त महत्त्वपूर्ण और अनिवार्य नाम हैं। हिन्दी में जब नए भाव-बोध की कविताएँ लिखी जानी शुरू हुई, वहाँ दो जातियों की कविताओं का विकास हुआ, एक जाति थी अज्ञेय की कविता की और दूसरी जाति थी मुक्तिबोध की कविता की। मैथिली में सन् 1949 (‘चित्रा’ के प्रकाशन) और सन् 1959 (‘स्वरगन्धा’ के प्रकाशन) के पश्चात् ऐसा कोई जाति-निर्णय नहीं हुआ। यद्यपि दो जाति अवश्य बन गई थी — एक जाति थी — यात्री-राजकमल की कविताओं की; जो अपने रचनात्मक उद्देश्य को प्रखरता देते हुए परवर्ती पीढ़ी को दिशा संकेत दे रहे थे, उसके संघर्ष को समर्थन दे रहे थे; और दूसरी जाति थी — सुमन-अमर की कविताओं की; जो कीर्तन, भजन, रति शृंगार के विषयों पर तुकबन्दी कर मंचों पर तालियाँ लूट रहे थे। ऐसी कविताओं को देश-दुनिया, लोक-वेद से कोई मतलब नहीं था। स्वभावतः सुमन-अमर को अनुयायी नहीं मिले। पर यात्री-राजकमल की कविताओं की चिनगारी अगली पीढ़ी में भली-भाँति प्रज्वलित और प्रस्फुटित हुई। गंगेश गुंजन इसी पीढ़ी के कवि हैं, कथाकार हैं, उपन्यासकार हैं, नाटककार हैं; इन्हें हिन्दी साहित्य का ओर-छोर भी देखा है, जिनकी गद्य-पद्य दोनो विधाओं की रचनामे, एक साथ अज्ञेय का कलावाद और मुक्तिबोध का वस्तुवाद — दोनो उपस्थित हैं।
वैसे रचनाओं के विवेचन के लिए व्यक्तित्व का विवेचन आवश्यक नहीं होता, पर जानकारी रहे, और व्यक्तित्व के आलोक में रचनाओं की चर्चा भी हो सके, तो अनुचित नहीं। गंगेश गुंजन सतत, औरों को महत्त्व और सम्मान देने के लिए तत्पर रहे हैं, अपनी हानि करके भी दूसरों को प्रतिष्ठा देने में रुचिशील रहे हैं। पर किसी दुष्कर्म, किसी अनिष्ट, किसी अन्याय को सहने की क्षमता इनमें कभी नहीं रही। रोचक है कि इन दो प्रवृत्तियों में से कोई इन्हें त्याज्य नहीं। इस प्रवृत्ति का असर इनकी रचना पर भी पड़ा है। आग उगलना, पर उस आग से किसी अन्य का अनिष्ट न हो, ऐसा भी ध्यान रखना — इनकी रचनात्मकता की खास प्रवृत्ति रही है। यह स्थिति प्रायः अत्यन्त मानवतावादी रहने के कारण मैथिली साहित्य के लोगों को रास नहीं आई। गंगेश गुंजन ने बीसवीं शताब्दी के सातवें दशक में अपना महत्त्व तो साबित कर लिया, पर यथास्थितिवादी पीढ़ी के वर्चस्व और सम्बन्धवादी खेमा के षड्यन्त्र के कारण अचर्चित रहे।
‘हम एकटा मिथ्या परिचय’ के माध्यम से मैथिली में दीर्घ कविता और ‘बुधिबधिया’ के माध्यम से नुक्कड़ नाटक की सम्भावना सर्वप्रथम इन्हीं के यहाँ सम्भव हुआ। यह नाटक मैथिली का पहला और अब तक का एकलौता नुक्कड़ नाटक है, जो अपने वस्तु और संरचना — दोनो के लिए अनूठा है। अनैतिकता के शिकार हुए वंचित और असहाय समुदाय के राग-अनुराग पर गंगेश गुंजन की जीवन-दृष्टि सदैव सावधान रहती है। विधा के रूप में ‘नवगीत’ की परम्परा हिन्दी में व्यवस्थित रूप से विकसित हुआ; केदारनाथ सिंह जैसे महत्त्वपूर्ण कवि ने भी इस विधा में योगदान किया। मैथिली में भी इस परम्परा का विरल सूत्र भुवनेश्वर सिंह भुवन होते हुए मायानन्द मिश्र, गंगेश गुंजन, रवीन्द्रनाथ ठाकुर और आगे बुद्धिनाथ मिश्र तक निभा। इस दिशा में भी उनका पर्याप्त योगदान है। सन् 1999 में प्रकाशित ‘दुखक दुपहरिया’ इनके कुछ गीत-गजलों का संकलन है, जिसके अधिकांश, अनेक दशक से डायरी के पृष्ठों में दबे रहे होंगे। इस संकलन के गीत मैथिली में नवगीत परम्परा के अनुपम उदाहरण हैं !
मातृभाषा मैथिली में गंगेश गुंजन का लेखन तो सन् 1961 से ही शुरू हुआ, तब से निरन्तर लिखते रहे। गत शताब्दी के सातवें दशक में हिन्दी में भी अबाध गति से कहानी-कवितादि लिखने में पर्याप्त सक्रिय रहे, उस समय की श्रेष्ठ पत्र-पत्रिकादि में निरन्तर प्रकाशित भी होते रहे। सम्भवतः मातृभाषा के प्रति उत्कट अनुराग के कारण परवर्ती काल में उनका मैथिली-लेखन तीव्र और हिन्दी-प्रकाशन सुस्त-सा हो गया। वृत्ति के लिए आरम्भ से ही ये आकाशवाणी से सम्बद्ध रहे। सरकारी सेवा का आदि-अन्त आकाशवाणी से ही किया। रचना में ध्वनि के महत्त्व पर सावधान रहने की इनकी प्रवृत्ति सम्भवतः वृत्तिगत चर्या का फल हो ! भाषा साहित्य के समुचित ज्ञान जिनको है, वे जानते हैं कि साहित्य-सृजन में ध्वनि का महत्त्व बहुत अधिक होता है।
‘उचितवक्ता’ कथा-संग्रह के लिए इन्हें वर्ष 1994क साहित्य अकादेमी पुरस्कार दिया तो गया, पर तथ्य यही है कि रचना का महत्त्व साबित करने की औकात अभी तक किसी भी पुरस्कार में नहीं हुआ है। साहित्य अकादेमी के स्वनामधन्य अध्यक्ष यू.आ.अनन्तमूत्र्ति ने एक बार अपने अध्यक्षीय वक्तव्य में अकादेमी पुरस्कार का महत्त्व साबित करते हुए और किंचित कचोट व्यक्त करते हुए कहा था कि मुझे ज्ञानपीठ पुरस्कार तो मिल गया, अकादेमी पुरस्कार नहीं मिला। उनका यह उद्गार अकादेमी पुरस्कार की गरिमा के कारण व्यक्त हुआ था। अकादेमी पुरस्कार की पुरानी गरिमा जो कुछ भी रही हो, पर दशक भर से जिस कोटि का चारित्रिक पतन अकादेमी के सुकर्ताओं में देखा जा रहा है, आत्मोत्थान और आत्मस्थापन के लिए जिस कोटि के चारित्रिक पतन उन लोगों के हुए हैं; उससे जुगुप्सा उत्पन्न होती है। अकादेमी की समग्र गरिमा को इन लोगों ने घोलकर पी लिया है।
किन्तु यह इधर की बात है, पहले ऐसा नहीं था, यद्यपि मैथिली भाषा के लिए साहित्य अकादेमी में सब दिन ऐसी ही स्थिति रही। साहित्य अकादेमी में मैथिली साहित्य सेवा के लिए पुरस्कार शुरू हुआ सन् 1966 से। पहला पुरस्कार यशोधर झा को दिया गया। तब से आज तक के उनसठ वर्षों में तीन वर्ष (सन् 1967, 1971, 1974) में पुरस्कार नहीं दिया गया। शेष छप्पन लोगों को जो पुरस्कार दिया गया, इनमे से अठारह कृतियों के अलावा शेष सारी कृतियों को परिवेश से विलुप्त कर दिया जाना चाहिए, ताकि सुनिश्चित हो सके कि दुर्योगवश इसे पढ़कर किसी का समय नष्ट न हो। इन अड़तीस पुस्तकों के प्रकाशन के लिए दुरुपयोग हुए पर्यावरण-विरोधी सामग्री, कागज के एवज में इस रचनाकारों को भारत सरकार की ओर से दण्ड-विधान तय होना चाहिए। उस योजना के संयोजक, संस्तोता और निर्णायक समिति के सदस्य को आजीवन कारावास होना चाहिए। ये लोग देशद्रोही हैं, जिन्होंने पाठक समुदाय का बहुमूल्य समय नष्ट किया है और एक सर्वाधिक गरिमामयी भाषा का अपमान किया है। किन्तु, ऐसा नहीं होगा! ऐसा आगे भी होता रहेगा। मैथिली में प्रबन्धन से ही पुरस्कार दिया जाता है। कारण, मैथिली में गिरोहबाज़ी को रोकना अब प्रायः असम्भव है।
जटिल जीवन की युगीन पद्धति से उपजी कुटिलता, त्रासदी और विडम्बना को व्यक्त करने में सुलझे हुए कथा-शिल्पी गंगेश गुंजन के गद्य में भी एक लयात्मकता और पद्य में भी एक कथात्मकता अनुगुम्फित रहती है। विदित है कि रचनाकार किसी विधा विशेष का गुलाम नहीं होता। रचनात्मकता के लिए तो रचनाकार का जनसरोकार वरेण्य होता है। रचना में वे अपने जनसम्बन्ध किस स्तर तक प्रमाणित कर पा रहे हैं, जीवनानुभूति की अभिव्यक्ति के लिए लेखक जिस विधा का चयन कर रहे हैं, उसमें उनके रचनात्मक घनत्व ने साथ दिया कि नहीं, यह महत्त्वपूर्ण होता है।
वैसे तो आज सम्पूर्ण साहित्य ही व्यवस्था का विरोध करता है और श्रमिक वर्ग का पक्ष लेता है। आज का साहित्य यदि ईमानदार है, तो इसका कारण यही है। इसमें व्यवस्था के विरुद्ध खड़े गुंजन लम्बी लकीर मिटाकर छोटी करने के फेरे में कभी नहीं रहे, छोटी लकीर को लम्बी करने की गुंजाइश बनाते रहे। इनका साहित्य मेहनती वर्ग की दुहाई देता है, उसके अस्तित्व का अनुसन्धान करता है और उसके अस्मिता-निर्माण की नींव पुख्ता करता है। इनके सारे पात्र अपनी शक्ति की समीक्षा करते हैं। व्यवस्था की यान्त्रिकता में ताल ठोकते मगरमच्छों से गुंजन के पात्र कहीं डरते नहीं। एकान्त में बैठकर घड़ियाली आँसू भी नहीं बहाते, यहाँ तक कि सीमान पर खड़े कुत्तों की मानिन्द भौंकते भी नहीं, वे निश्चिन्त हुए-से अपनी जीवन-प्रक्रिया में लगे रहते हैं। उन्हें अपनी शक्ति और अपनी कार्य-पद्धति पर पूर्ण आस्था रहती है।...
अभिप्राय यह नहीं कि गुंजन के पात्र को क्रोधाग्नि नहीं है; है, पर उसके लिए वे सबसे पहले अपने आलस्य से संघर्ष करते हैं। ऐसा कहते हुए, यहाँ कबीर याद आ जाएँ, तो बुरा क्या है? जीवन-पर्यन्त कबीर ने इस रक्तभोजी समुदाय का तिरस्कार किया और अपने युद्ध में, अपने सन्धान में, अपनी मान्यता के साथ अग्रसर रहे। विषय के स्तर पर गुंजन का साहित्य यदि एक ओर कबीर का स्मरण दिलाता है, तो भाषा शिल्प के स्तर पर अज्ञेय का।
इनकी कृतियो में, चाहे वह पद्य हो अथवा गद्य अथवा नाटक, हर लगह गहन जीवन-दृष्टि परिलक्षित है। बारह कहानियों के संकलन ‘उचितवक्ता’ में इस शीर्षक की एक भी कहानी नहीं है, पर इस नाम की सार्थकता उन सभी कहानियों और रचनाकार की तीक्ष्ण दृष्टि में है, कि वे बेतहाशा भागते मनुष्य के पतन, राजनीतिक लोलुपता और संक्रमण के कीड़े की तरह पनपती हैवानी के पीछे आकर्षित लोगों को गम्भीरता से देखते-गुनते हैं। ‘संगी’ कहानी, जिसका केन्द्रीय सरोकार प्रेम से है, मनुष्य की आदिम प्रवृत्ति और समकालीन विवशता का संश्लिष्ट सूत्र ढूँढ़ता है और ‘अपन समांग’ कहानी युगीन आँधी-तूफान में सुखे पत्ते की तरह फड़फड़ाते मानवीय सम्बन्ध की खण्डित अस्मिता को पहचानती है। यह महत्त्वपूर्ण बात है कि गुंजन अपनी रचनात्मकता के लिए और किसी चीज से अधिक आवश्यक ‘मनुष्य’ को मानते हैं। ‘मनुष्य, जो आज भी कुछ ढूँढ़ रहा है, उस मनुष्य का परिचय मैं स्वयं ढूँढ़ रहा हूँ...।’ इनका पूरा लेखन इसी मनुष्य और इसी मनुष्य का परिचय ढूँढ़ रहा है। ‘हम एकटा मिथ्या परिचय’ वही ढूँढ़ रहा है, ‘अपन समांग’ वही ढूँढ़ रहा है, ‘मनुक्ख आ गोबर’ वही ढूँढ़ रहा है, ‘मुर्दा मुर्दाक भाग्य’ भी वही ढूँढ़ रहा है। अन्य रचनाएँ भी वही ढूँढ़ रही हैं।
वैसे तो प्रकाश, यथार्थ, प्रसन्नतादि जैसे हर्षातुर उपादान जनसामान्य के जीवन तक से विलुप्त हो गया है; फिर रचना में कोई रचनाकार, ऐसे प्रसंग कहाँ से जबरदस्ती लाएँ? द्रोह-दंगा-भेदभाव से भरे अमानवीय परिवेश में चारो ओर के राजनीतिक फरेब, प्रशासनिक आतंक, वर्चस्ववादी उत्पीड़न का ताण्डव फैला था; बेकारी-बेगारी-अर्थाभाव के मारे सामुदायिक जीवन में प्रसन्नता की खुहरी तक मिलना मुश्किल था! गंगेश गुंजन की कविता में अन्धकार, मिथ्या, परिचय, स्वप्न, दमघोंटू वातावरण, पीड़ा, गूंगे-बहरे लोग, प्रतीक्षारत लोग, अपमान, निराशा, ताप, धूप आदि शब्दों के व्यवहार अधिक जगह यूँ ही नहीं होता है। आतंक और उत्पीड़न से भरे दमघोंटू परिवेश में रचना के लिए ऐसे बिम्ब, प्रतीक और प्रयुक्ति सम्भव होता है। कारण, रचना का विषय परिवेश में ही बिखड़े स्थिति-चित्र और सन्दर्भ-सूत्र से उठाया जाता है; काव्य-चरित्र के स्वरूप भी उसी परिवेश में गढ़े जाते हैं। उसी परिवेश का भोक्ता बनकर रचनाकार अपनी दृष्टि तीक्ष्ण करता है, उसी परिवेश में अपना व्यक्तित्व भी गढ़ता है। गुंजन के साहित्य में प्रयुक्ति के बाद, कोई शब्द, मात्र शब्द ही नहीं रह जाता, वह घटना बन जाता है, अपनी शक्ति का वैराट्य उपस्थित करता है, विस्तार से अपनी जगह बनाता है, इसलिए रचनात्मक उद्देश्य सन्दर्भित व्याख्या मात्र से ही स्पष्ट होता है। यहाँ प्रयुक्त शब्द अपने साथ सुदीर्घ दृष्टान्त रखने लगता है। इनकी रचना का अवगाहन करते हुए उन दृष्टान्तों से परिचित होना आवश्यक होता है, अन्यथा अर्थोत्कर्ष तक पहुँचना कठिन हो जाता है। ऐसा होता तो है लोगों की असावधानी से, पर हड़बड़ी में कुछ लोग सहजतापूर्वक, रचनाकार पर, अर्थोत्कर्ष की जटिलता आरोपित कर देते हैं। गंगेश गुंजन की रचनाओं से अपननपा करते हुए उन दृष्टान्तों और सन्दर्भों से परिचित होना आवश्यक है, अन्यथा हड़बड़ी में मैथिली के पाठकों को निर्णय देने में देर नहीं लगती, कि गंगेश गुंजन की रचना में अर्थोत्कर्ष जटिल है। असल में गंगेश गुंजन का अनुभव-संसार एक नए क्षितिज पर बना है। स्पष्ट है कि कुछ पुरातनवादी लोगों को यह संसार प्रेषित नहीं हुआ हो। इस सम्प्रेषण-विमुख स्थिति का दायित्व वे लोग अपने अज्ञान को कैसे देंगे? इसलिए कह देना आसान हो जाता है कि गुंजन की रचनाओं का सम्प्रेषण बाधित है।
व्यक्तित्व से अत्यन्त सहज, सरल दिखते गंगेश गुंजन एक ओर अपने व्यवहार में कई स्तरों पर अपने पारम्परिक धरोहर के रक्षक प्रतीत होते हैं, तो दूसरी ओर मानवीय संवेदना के सन्दर्भ में सर्वथा किसी नई जमीन पर नई परम्परा की बुनियाद रखते प्रतीत होते हैं। नवारम्भ के आग्रही ये इस अर्थ में दिखते हैं, कि इनके काव्य-पुरुष हर जगह अपनी जर्जर रूढ़ियों को त्यागकर अपने जीवन के सुखमय राह के लिए नए संसार की खोज कर लेते हैं और नई राह पकड़ लेते हैं। यही काम ‘आइ भोर’ के नायक भी करते हैं, ‘पहिल लोक’ के नायक भी और एक सीमा तक ‘अपन समांग’ और ‘बुधिबधिया’ के नायक भी। गुंजन-साहित्य इसी नई जमीन की ताक में नई ज्योति ढूँढने के लिए व्यग्र है।
सन् 2017 में ‘भोर’ शीर्षक से प्रकाशित गंगेश गुंजन के पहले हिन्दी कथा-संग्रह में कुल तेरह कहानियाँ — सवारी, सीमाएँ टूटती हैं, जड़ें, ब्राह्मणी, ग्यारहवीं चिन्ता, प्रतीक्षालय, अगली बाजी, भोर, लालटेन, पिता के बाद, चौखट के साँप, रिश्ते-रिश्ते, अपने अपने खतरे संगृहीत हैं। इन कहानियों की नागरिक-परिस्थितियाँ गत शताब्दी के आपातकाल और उसके तत्काल बाद के कुछेक वर्षों की भारतीय राजनीतिक पद्धति के फलाफल से उत्पन्न हुई हैं; इसलिए राजनीति इनके करण-कारण अवश्य हैं, अपने विवरण में किसी सुधी-जन को ये कहानियाँ राजनीतिक लग सकती हैं, पर तथ्यतः अपने स्वभाव में ये राजनीतिक नहीं हैं। इनके पात्र एवं परिवेश मूलतः ग्रामीण हैं; जो समस्त पाखण्ड एवं विसंगतियों को झेलने को विवश हैं। पिता के बाद (सन् 1971) कहानी के अलावा शेष सभी सन् 1977-84 के बीच, अर्थात चार दशक पूर्व लिखी गईं। उक्त दौर के समय और समाज को कहानीकार ने जिस परिप्रेक्ष्य में देखा-समझा और रेखांकित किया है, उसका गम्भीर अनुशीलन होना चाहिए; क्योंकि समय और समाज से निरपेक्ष न तो कोई सही रचना होती, न ही उसका मूल्यांकन। हर जिम्मेदार लेखक अपने लेखन में समाज का स्वनियोजित पहरेदार होता है; डॉ० गंगेश गुंजन ने यह पहरेदारी अपनी स्वानुभूति से स्वीकारी, और उस दायित्व का अपने तई भरपूर निर्वाह किया।
सुधी पाठकों को इनमें से कुछेक कहानियों का स्वाद मैथिली में पहले भी मिला होगा; पर ध्यान रहे कि गंगेश गुंजन की एक ही शीर्षक और एक ही विषय-वस्तु की कहानी जब दो भाषाओं में आती है, तो वह सिर्फ अनुवाद नहीं होती, अलग कहानी होती है। उनकी कहानियों का समाज अनिवार्यतः वंचित, प्रवंचित नागरिकों का समाज होता है, जो सदैव जीवन के बुनियादी संसाधन जुटाने में खुद को और अपने श्रम को खर्च करता रहता है। मौका पाकर उनका रचनाकार कभी साधन-सम्पन्न समाज में प्रवेश करता भी है, तो उसका उद्देश्य उस भव्य-दिव्य के बीच ‘जनशक्ति’ का मूल्यांकन करना रहता है, समृद्ध परिवार की चकाचैंध का महिमा-मण्डन कतई नहीं। उनके पात्र सामान्यतया बड़े संघर्षशील, प्रगतिकामी, धैर्यशाली और मजबूत होते हैं, वे मनुष्यता की चरम सीमा तक धैर्य-धारण किए रहते हैं, प्रयोजन पड़ने पर अपने अधिकार के लिए तनकर खड़े होने में कभी पीछे नहीं हटते। अधिकार-रक्षण के लिए हंगामा खड़ा करना उनके पात्रों का काम्य कभी नहीं होता, किन्तु वह परिस्थितियों का दासानुदास भी नहीं होता।
उनकी रचनात्मकता के इस वैशिष्ट्य की तुलना उनके व्यक्तित्व से कर लेना गैरमुनासिब भी नहीं होगा। व्यक्तित्व-विवेचन यद्यपि साहित्यालोचन का उपस्कर नहीं होता, किन्तु तथ्य है कि रचनाकार के प्रवृत्तिमूलक प्रभाव से रचना का बचा रहना मुश्किल होता है। अत्यन्त मानवतावादी होने की वजह से गंगेश गुंजन सदैव अपना नुकसान सहकर भी दूसरों को सम्मान देने में आगे दिखते रहे हैं; उनके इस स्वभावमूलक वैशिष्ट्य का प्रभाव उनकी रचनाओं में भी दिखता है। इसलिए, जुलूसवादी प्रवृत्ति के पाठकों को गाहे-ब-गाहे उनके नायकों की ध्वनि दुर्बल भी दिख जा सकती है; पर ध्यान रहे कि विरोध करते हुए नैतिकता का विस्मरण एक अलग किस्म की अराजकता होती है, और अनैतिक विरोध, चाहे किसी के पक्ष में हो, किसी प्रतिबद्ध रचनाकार का उद्देश्य नहीं होता। अनाचार का विरोध गंगेश गुंजन का सहज स्वभाव अवश्य है, किन्तु रचना में अमंगल और अभद्र व्यवस्था का विरोध करते हुए अनिष्टकारी विष-वमन कभी उनका उद्देश्य नहीं रहा। उल्लेख सुसंगत होगा कि उनके गद्य एवं पद्य — दोनो रचनाओं में, एक साथ अज्ञेय का कलावाद और मुक्तिबोध का वस्तुवाद उपस्थित दिखता है।
आकाशवाणी से वृत्तिगत सम्बद्धता के कारण, या फिर मूल स्वभाव के कारण, उनकी रचनाओं में ध्वनि के महत्त्व पर भरपूर बल रहता है। इसी कारण उनके गद्य में भी लयात्मकता और पद्य में भी कथात्मकता अनुगुम्फित रहती है। शब्द, पद, वाक्य, प्रसंग--हर बात में ध्वनि और ध्वन्यार्थ महत्त्वपूर्ण हो उठता है। ‘भोर’ संग्रह की — ‘भोर’, ‘सवारी’, ‘सीमाएँ टूटती हैं’, ‘जड़ें’, ‘ब्राह्मणी’ जैसी कई कहानियाँ घटना और विवरण से अधिक ध्वन्यार्थ में अपनी बात सम्प्रेषित करती हैं। इसलिए उनकी रचनाओं के शीर्षक बड़े अर्थवान होते हैं, उनके शीर्षकों को महज एक संज्ञा नहीं समझना चाहिए। पूरी की पूरी कहानी शीर्षक में समाई रहती है।
‘सवारी’ कहानी के अन्त में ‘मंगनू को लग रहा था जैसे कि आज वह खुद ही कोई बीपीपी बस बन गया है।’ कथानायक का यह आत्मबोध पाठकों को चैंका देता है। पूरी कहानी में उस संघर्षशील बालक ने, ‘दुख ही जिसकी जीवन-कथा रही’, खुद किसी विद्यालय जाकर दुनियाबी ज्ञान हासिल नहीं किया; पर दुःख और कथाकार के रचनात्मक कौशल ने उसे ऐसा माँजा, इतना ज्ञानी बनाया कि दहो-दिशाओं से आए यात्रियों को वह उनकी यात्रा का सही ज्ञान देने लगा। पथिकों को राह भटकाने के धन्धे में तल्लीन अध्यापकों, उपदेशिकों, या ‘बाबाओं’ के जनपद में, यदि एक निरक्षर असहाय बालक ने यात्रियों को सही राह बताने का काम सँभाल लिया है, तो सुधी नागरिकों को अपनी निश्चेष्टा पर गौर करना चाहिए। बस-अड्डे की भीड़ और कोलाहल में दिग्भ्रान्त हो गए यात्रियों को मंगनू माइक्रोफोन पर चीख-चीखकर राह बताता है, उसके द्वारा प्रसारित ज्ञान का अनुसरण करते हुए यात्री अपने गन्तव्य तक पहुँच जाते हैं; किन्तु मंगनू का जीवन वहीं ठहरा हुआ है। ‘सवारी’ शब्द का कोशीय अर्थ तो ‘वाहन’ है, किन्तु नगरसेवा वाले वाहनों (रेल, बस, टैक्सी, रिक्शा) के संचालक-वर्ग इस शब्द का इस्तेमाल ‘सवार’ और ‘सवारी’ दोनो अर्थों में करते हैं।
अपनी पूरी दिनचर्या में अपरिचित सवारों को ‘सवारी’ पकड़ाते-पकड़ाते कहानी के समाप्ति-स्थल पर मंगनू को आत्मबोध हुआ कि वह खुद एक ‘सवारी’ हो गया है; जो अपनी जान पर पूरे परिवार को ढोए जा रहा है। वह शिक्षित नहीं है, किन्तु ज्ञानी हो गया है। ‘ज्ञान’ और ‘शिक्षा’ में यही फर्क है कि सभी शिक्षित, ज्ञानी नहीं होते। अधिकांश शिक्षित लोग सूचनाओं का बोझ ढोते रहते हैं। अर्जित सूचनाओं को बोध में परिवर्तित करने का उत्साह उनमें नहीं होता। अशिक्षित होकर भी मंगनू ज्ञानी है, और शिक्षा का महत्त्व समझता है। इसीलिए उसने अपने अनुभव को बोध में परिवर्तित कर लिया है। अब तक वह रूखा-सूखा खाकर या भूखा रहकर जो कमाता था, अपनी माँ को दे देता था। उस दिन जब उसने अपने अहंकारी और निठल्ले पिता की नृशंसता देखकर अपनी माँ-बहन के साथ घर छोड़ने का निर्णय लिया; तो पिता के साथ संवाद करते हुए उसे आत्मबोध हुआ। पिता की ध्वस्त होती दबंगई से उसे महात्मा की तरह दिव्य-ज्ञान हो आया। वह बच्चा अपने पिता की जिम्मेदारी था, उसकी माँ-बहन भी उन्हीं की जिम्मेदारी थी; किन्तु उस पिता की नीचता ऐसी थी कि वह खुद उस बच्चे की कमाई पर आश्रित हो गया था।
उस बच्चे का नामकरण ही उसके ‘होने’, ‘न होने’ की क्रिया और निरर्थक सामाजिक मान्यता को परिभाषित कर रहा है। ‘मंगनू’ शब्द का निर्माण ‘मंगनी’ या ‘माँगने’ से हुआ है; जिसका अर्थ ‘मुफ्त का’ होगा, या फिर ‘माँगा हुआ’ होगा। बचपन में ही उससे भीख मँगवाकर गुजर-बसर करने की दुष्क्रिया में उसके पिता का अहंकार और पुंशत्व कैसे बचा रह गया, यह सोचने की बात है। उस अभावग्रस्त परिवार की पूरी संरचना को रूपायित करते हुए और मंगनू का जीवन चरित मापते हुए गंगेश गुंजन ने सामाजिक व्यवस्था की विचित्र पद्धति को ऊँची दार्शनिकता से परखने और उस पर चिन्ता करने की प्रेरणा दी है। इस तरह की घटनाएँ और सामाजिक व्यवस्था सामान्य तौर पर लोगों की नजर में चुभ नहीं पातीं। क्योंकि ऐसी घटनाओं को जनपदीय नागरिक ने जीवन-क्रिया के सामान्य शिष्टाचार के रूप में दाखिल कर लिया है। किन्तु, बड़े रचनाकार की नजर बड़ी पैनी होती है। अपने गहन जनसरोकार के बूते वह उन विडम्बनाओं को भी देख लेता है, जिसे उसका भुक्तभोगी भी अनदेखा कर देता है। ‘सवारी’ कहानी अपनी अन्तिम पंक्ति के साथ इतने सवाल खड़ी करती है कि सहृदय पाठक देर तक उद्वेलित हुए रहते हैं। सही कहा गया है कि उत्तम कोटि की कहानी अपने समाप्ति-स्थल से ही शुरू होती है। दुख की आवा में तपा हुआ मंगनू वाकई तपकर कुन्दन हो गया है; परिपक्व ज्ञानी, इसी कारण उसे समझ आया कि वह वस्तुतः अपने पिता का बच्चा नहीं है, ‘सवारी’ है, उसके ऊपर सवार होकर उसका पिता न केवल अपनी पत्नी और सन्तान के भरण-पोषण से मुक्त हुआ है, बल्कि वह अपने ऐश के संसाधन जुटाने की भी तैयारी कर बैठा है।
अपने समाप्ति-स्थल पर इस संकलन की अन्य कहानियाँ भी मुँहजोर और उचितवक्ता हो गई हैं। वे किसी न किसी परिणति वाक्य अथवा लक्षणा के साथ समाप्त होती हैं।
‘जड़ें’ कहानी के अन्त में ‘शिवनन्दन काका भी अपनी बिरादरी में जाति-द्रोही घोषित कर दिए गए।’ ‘ब्राह्मणी’ कहानी के अन्त में अशिक्षित ब्राह्मण-कन्या रमला को बोध हुआ कि ‘आरच्छन’ के जिस चुने समाचार से वह नई उम्मीद लेकर दौड़ी आई थी वह उसके लिए नहीं थी। जाति आधारित सामाजिक संघर्ष आज प्रखर हो उठा है; किन्तु उन दिनों भी कम नहीं था। यहाँ सामाजिक और प्रशासनिक दुर्नीति में पिस रहे वंचित नागरिक की बुनियादी समस्या पर झन्नाटेदार चोट किया गया है। ‘लालटेन’ कहानी नई-पुरानी पीढ़ी के बीच मूल्यगत समझ और स्वीकार की कहानी है। इस कहानी के अन्त में जब लोग दोनों बूढ़ों को सँभालते हुए धीरे-धीरे लौटने लगे, तो ‘गाँव की पूरी अन्धेरी पगडण्डी पर एक लालटेन की ज्योत फैली हुई थी, जिसके पीछे अनेक डग पड़ रहे थे।’ इस तरह रोशनी और अनुसरण के डग के साथ कहानी एक विशेष संकेत देती है। रोशनी और नई पीढ़ी का यह अनुसरणात्मक रवैया निश्चय ही शुभ संकेत है। तर्कहीन हो जाने के बाद व्यक्ति अक्सर चुप्पी और पराजित हँसी से प्रतिपक्षी को मोहित करने की चेष्टा करता है। ‘चौखट के साँप’ कहानी में दादा, इसी तरह एक बूढ़ी हँसी के साथ चुप होता है, जब पोता अपने व्यावहारिक तर्क से एक प्राचीन रूढ़ि को खण्डित करता है — ‘दिन में किस्सा सुना कर तुम अन्धे’ नहीं हुए; कहानी सुनकर ‘मैं भी बहरा नहीं हुआ’। संकलन की अन्तिम कहानी ‘अपने-अपने खतरे’ के अन्त में नौजवान पीढ़ी का निर्णयात्मक जोश एक अच्छा संकेत देता कि वे किसी नेता को गाँव की सीमा में घुसने नहीं देंगे और यह लहर पड़ोसी गाँव तक भी पहुँचने लगती है।
वर्ग-भेद, वर्ण-भेद, लिंग-भेद, जाति-भेद से मुक्त शिक्षित, सम्पन्न और सभ्य समाज की कामना से भरे रचनाकार गंगेश गुंजन की कहानियों का मुख्य विषय जन-जीवन की युगीन जटिलता, दुनियावी कुटिलता, त्रासदी और विडम्बनाएँ होती हैं। ‘सवारी’ की तरह उनकी अन्य कहानियाँ भी अपने शीर्षकों में बड़े अर्थगर्भित हैं। मिथिला क्षेत्र के किसी पिछड़े और संसाधनविहीन गाँव में विद्यालय न होने और गाँव की सीमा लाँघकर शिक्षार्जन के लिए बेटियों के शहर न जाने की सामाजिक प्रथा को लेकर उनकी कहानी ‘भोर’ शुरू होती है। कथानायक रमानाथ बालबोध है, अपनी बहन की शिक्षा-अशिक्षा एवं अहंकार के कारण सामाजिक वैमनस्य से चिन्तित है, किन्तु कहानी का अन्त आते-आते इस अभिज्ञान के बावजूद कि इतनी जल्दी भोर कैसे हो सकती है, वह विकलता से भोर की प्रतीक्षा में निमग्न हो जाता है--‘कब होगी भोर?’ ‘सीमाएँ टूटती हैं’ कहानी के सीबदास अक्खड़ है, वर्णवादी वर्चस्व एवं अत्याचार का विरोधी है, जबकि उनकी पत्नी गंगापुरवाली परिस्थतिजन्य नीतिपूर्ण निर्णय लेने में सक्षम और समझदार। आर्थिक और शैक्षिक क्षमता से दोनो ही जने एक जर्जर परिवार के नाविक हैं, किन्तु सीबदास जहाँ पुरुषवादी अहंकार से भरा हुआ नायक है, वहीं गंगापुरवाली मातृत्व से परिपूर्ण एक समझदार गृहस्थिन। क्रोध में लिए गए अपने पति के निर्णय को वे चुनौती देकर आगे बढ़ जाती हैं।
जब सीबदास उन्हें काम करने के लिए हवेली जाने से रोकते हैं — ‘मेरी कायम की हुई बात, मेरी ही औरत काटेगी?’ तो गंगापुरवाली उन्हें धिक्कारती हुई कहती हैं — ‘तुम्हारी औरत? तुम कब मरद हुए? कहते लाज नहीं आती?’ क्योंकि उसकी नजर में उस बीमार और अपंग बेटी की परिचर्या उतर आई, जिसकी माँ तो वही थी, पर उसके पिता के बारे में वह आश्वस्त नहीं थी; दृढ़ता से नहीं कह सकती कि उसका पिता कौन है — सीबा, या सुट्टा, या गिरहथ...? उसे नहीं मालूम कि वह बच्ची किस मर्द के बे-काल के अनर्थ का अपंग फल थी। संगठनात्मकता से कमजोर वर्ग को बड़ी शक्ति मिलती है, यह गंगेश गुंजन की वैचारिकता का मूल मन्त्र है, किन्तु संगठन में सुनियोजन न हो, केवल क्रोधाग्नि की ज्वाला हो, मदान्धता हो, दायित्वबोध से परांग्मुखता हो, तो कई बार संगठनात्मकता प्रतिकूल परिणति भी देती है। ‘सीमाएँ टूटती हैं’ कहानी दलित चिन्तन और दलित स्त्री-चिन्तन की दिशा में एक नए विचार को आमन्त्रण देती है। पलायन और नई पीढ़ी में आई नई चेतना को रेखांकित करती कहानी ‘जड़ें’ पुरानी पीढ़ी के छद्म और नीचता को बेरहमी से उजागर करती है। उसी तरह ‘ब्राह्मणी’ दो भिन्न परिवेश के स्त्रियों की अस्तित्वपरक विडम्बना पर सवाल खड़ा करती है; जिसमें एक तरफ जातिपरक निरर्थक मान्यता की आड़ में सरकारी महकमों का खेल अपना ताण्डव दिखा रहा है, तो दूसरी तरफ मान्यता की जकड़न मनुष्य का जीवन हलकान किए जा रहा है। इसी बीच कथाकार यह संकेत देने से नहीं चूकते कि इन जर्जर रूढ़ियों से मुक्ति बहुत जरूरी है; इन रूढ़ियों की जकड़न में फँसे समाज के समक्ष निरुपाय होने के अलावा कोई विकल्प नहीं है। ‘ब्राह्मणी’ कहानी की दो स्त्रियाँ — मंजुला और रमला में यही फर्क है।
‘सीमाएँ टूटती हैं’, ‘जड़ें’, ‘ब्राह्मणी, ‘लालटेन’, ‘पिता के बाद’, ‘चौखट के साँप’ तथा ‘अपने-अपने खतरे’ इस संकलन की ऐसी कहानियाँ हैं, जिनका मुख्य सरोकार स्वातन्त्र्योत्तर भारत के छठे-सातवें-आठवें दशक की राजनीतिक चेतना से है। इसी दौरान भारतीय नागरिक मोहभंग के कारण सचेतन हुए, जन-मन में जागरूकता आई, अधिकार-बोध आया, उपलब्ध परिस्थितियों में राजनीतिक विश्लेषण की नागरिक-दृष्टि साफ हुई। गाँव से शहर तक के नागरिक जीवन में अधिकांश भारतीय जीवन-मूल्य का पतन इसी दौरान हुआ। इसी दौरान वर्ग, धर्म, वर्ण, जाति के भेदभाव से समाज में इतना संघर्ष बढ़ा कि नागरिक सौहार्द तहस-नहस हो गया। प्रतिरोध की उत्तेजना और प्रतिशोध की ज्वाला ने सामुदायिक सद्भाव को लील लिया। भारत के सामंजस्यमूलक सामाजिक सम्बन्धों में अचानक से ऐसे संघर्ष और उग्र प्रतिरोध का वातावरण लाने के एक मात्र जिम्मेदार लोकतान्त्रिाक व्यवस्था के निकम्मे और स्वार्थी कर्णधार थे, जिन्हें अपनी दायित्वहीनता पर शर्म नहीं आ रही थी। शासकीय अमानवीयता और वैधानिक आदर्शविमुखता के कारण लोकतन्त्र की जड़ें हिल गई थीं, राजनीतिक चिन्तन में लोक-हित की भावना सिरे से गायब थी; सामाजिक-विखण्डन का ताण्डव छाया हुआ था। ऐसी विकट परिस्थितियों में ये कहानियाँ नागरिक-चेतना को उद्बुद्ध करती आई थीं, जो कई मायनों में आज भी प्रासंगिक दिखती हैं। प्रदूषित राजनीति और संकुचित दृष्टि के नेतृत्व का असली चेहरा उजागर करती हुई इन कहानियों में आधुनिक भारत के विघटन की दर्दनाक कथा दर्ज है। भारत की राजनीतिक कुटिलताओं से उत्पन्न जिन तबाहियों ने भारत के अत्यन्त पिछड़े भूखण्ड, मिथिला के गाँव की पूरी पीढ़ी को कुण्ठित, भ्रष्ट, आक्रामक, मूल्यहीन, और अनैतिक बना कर रख दिया; इस संकलन की कहानियाँ उन पर गहरे चोट करती हैं।
गौरतलब है कि स्वाधीनता के दो ढाई दशक बाद आम भारतीयों में वर्गान्तरण (डी-क्लास होने) की प्रवृत्ति तेजी से बढ़ी थी। आधुनिक हो जाने के अन्धानुकरण में ऐसे उन्मत्त हो गए थे कि उन्हें अपना पुरातन सब कुछ निरर्थक और भदेस लग रहा था। इस संग्रह की अधिकांश कहानियों में डॉ गंगेश गुंजन ने उस दौर की इस विचित्र, आतुर, किन्तु विशेष लोक-वृत्ति का सावधान संज्ञान लिया है। कभी चरित्र के स्तर पर तो कभी सामाज-बोध के स्तर पर। ‘सीमाएँ टूटती हैं’ और ‘ब्राह्मणी’ की नायिका, ‘चौखट के साँप’ और ‘पिता के बाद’ के नायक और ‘अपने-अपने खतरे’ के विषय-विधान में ऐसे प्रसंगों की तलाश की जा सकती है।
इस संकलन की अन्य कहानियों--ग्यारहवीं चिन्ता, प्रतीक्षालय, अगली बाजी, रिश्ते-रिश्ते आदि में भी कथाकार के ग्राम्य-बोध और आम नागरिकों के जीवन से अनुरागमय सम्बन्धों की झाँकी प्रस्तुत है। तमाम खूबियों के बावजूद इस कृति के प्रकाशक से शोधार्थियों की शिकायत वाजिब है कि इसमें रचनाओं के समय-सन्दर्भ का उल्लेख नहीं है। किसी कहानी के रचना-काल और प्रथम प्रकाशन का संकेत नहीं है; चतुर्थ आवरण-पृष्ठ पर भी किसी कृति के प्रकाशन-वर्ष का उल्लेख नहीं है। यह एक बड़ी कमी है, क्योंकि हर रचना के तात्त्विक अनुशीलन में उसके रचना-काल और प्रथम प्रकाशन का सन्दर्भ बड़े मूल्यवान होते हैं। ये दोनो सूचनाएँ ही अध्येता को आलोचकीय संकेत देती हैं। इन सूचनाओं के अभाव में कहानियों का उचित मूल्यांकन कठिन होगा। यद्यपि कथा-समाज की संरचना और प्रसंगवश उपस्थित वस्तु के मूल्य से अनुमान तो हो जाता है कि इनका लेखन लगभग चार दशक पूर्व हुआ होगा, पर अनुमान के सहारे अनुशीलनकर्ता का समय-बोध और परिवेश-बोध प्रमाणिक नहीं हो सकता। लिहाजा तात्त्विक विवेचन में कठिनाई होगी। फिर भी, ये कहानियाँ अपने कथा-समाज की पुरानी संरचना के साथ जिस वर्ग-भेद, वर्ण-भेद, लिंग-भेद, आडम्बर, अहंकार, अशिक्षा, अभाव, रूढ़ि और सामाजिक-शासकीय पाखण्ड को रेखांकित करती हैं; उससे मानवीय संवेदना का तार-तार हिल जाता है। कथा-समाज के पुरानेपन से कहानियों के रसबोध में कहीं बाधा नहीं आती; क्योंकि इनकी बुनावट स्थान-काल-पात्र-प्रसंग की भौतिकता से अधिक उसके संवेदनात्मक तन्तुओं से हुई है। आशा की जाती है कि अगले संस्करण में प्रकाशक पाठकों की शिकायत दूर करेंगे और कथाकार गंगेश गुंजन की अगली कृति शीघ्र देखने को मिलेगी।
करीब चार दशक बाद उनकी एकासी कविताओं का संग्रह ‘अन्हारमे डमरू’ सन् 2021 में प्रकाशित हुआ। वर्तमान समय और समाज के क्रूर यथार्थ की असली छवि प्रस्तुत करता यह संग्रह नवागत रचनात्मकता के लिए मूल्यवान और प्रेरणास्पद है। गहन अन्धकार से भरे वातावरण में, जीवन-मूल्य से निरपेक्ष, गहन नीन्द में सोए समुदाय के लिए; क्षणिक आवेग और तात्कालिक लाभ की सम्पूर्ति में तल्लीन लोगों के लिए; गुंजन का डमरू बजाना अरुचिकर होगा ही! आलस्य, निश्चेष्टा और नीति-विवेक से विरक्ति जिनकी वृत्ति बन जाए, उनके लिए चेतना के संचार के लिए कोई उद्यम सचमुच अप्रीतिकर होगा! पर जागतिक निश्चेष्टा समाप्त करने के लिए तो कवि-समाज डमरू बजाते ही रहे हैं!... वे तो दुखिया दास कबीर होते हैं! अन्धकार-मुक्ति की कामना से हरदम भरे रहते हैं। आज की पर्यवस्थिति में अन्धकार-मुक्ति के लिए चूँकि ज्योति पर्याप्त नहीं है; बेफिक्र समाज के लिए ज्योति भी अन्धकार जैया ही होता है; कम से कम गंगेश गुंजन ने ऐसा ही देखा; उन्हें अन्धकार में डमरू की डिगडिगी बजाना उपयुक्त लगा। कई दशक पूर्व प्रेमचन्द कह गए कि मनुष्य की संवेदना इतनी भोथरी हो गई है, कि वह सामान्य गुदगुदी से जाग्रत नहीं हो पाता; उसे जगाने के लिए गहरे ख्रोंच की जरूरत होती है। गंगेश गुंजन ने इस खरोंच का उद्योग ‘अन्धकार में डमरू’ बजाकर किया है। इस पुस्तक का आवरण मृदुला सिन्हा की पेण्टिंग से बनाया गया है, जो इसमें संगृहीत कविताओं के लिए गहन अनुशीलन की दृष्टि देता है। यहाँ गहनअन्धकार की तह फाड़कर धवल-उज्ज्वल रंग में एक छिन्न-सिर कामगार का घूँसा उठा हुआ है। आकृति के दोनों हाथ बाँध रखने की पुरजोर कोशिश की गई है; तथापि मुट्ठी उठी हुई है। घटाटोप अन्धकार के विरुद्ध रोशनी दिखाने के आग्रह से यह आवरण इस संग्रह की कविताओं की अर्थ-ध्वनि उजागर करता है।
कवि गंगेश गुंजन ने पिछले सात दशकों से कविताओं के अलावा कहानी, उपन्यास, नाटक, चिन्तन...सभी विधाओं में क्रियाशील रहकर मैथिली साहित्य का कोष समृद्ध किया है। पर काव्यानुराग उनकी भाषा का जैसे जीवन-संगी हो गया है। पाठक गौर करेंगे कि वे अपने गद्य में भी काव्यधर्मी अर्थ-गर्भिता से निर्लिप्त नहीं रह पाते हैं। छठे-सातवें दशक के साहित्य के लिए प्रायः ऐसे बहुअर्थी कौशल उपादेय हो गए थे; उस काल के ढेरो गद्य में ऐसी विलक्षणता तलाशी जा सकती है; राजकमल चौधरी और हीरानन्द सच्चिदानन्द वात्यायन अज्ञेय में तो यह वैशिष्ट्य भरा पड़ा है। अज्ञेय वैसे भी गंगेश गुंजन के प्रिय रचनाकार हैं और उनकी रचनात्मकता पर अज्ञेय का प्रभूत प्रभाव भी है। सामाजिक सरोकार, मानवीयता, जीवन-मूल्य, दायित्व-बोध, काव्य-विवेक के प्रति अनुराग...उनके सम्पूर्ण रचनात्मक उद्यम का अनुषंग है। विषय और कथन-भंगिमा का वैविध्य ही उनके इस संग्रह का विशिष्ट गुण है। काव्य-सृजन और जीवन-संघर्ष के सुदीर्घ अनुभव में उनका सामना अनेक दुर्वह परिस्थितियों से हुआ, पर अपनी सुदृढ़ मान्यता, सुगठित जीवन-दृष्टि से वे टस्स से मस्स नहीं हुए। ग्राम्य-बोध और सांस्कृतिक निजता के प्रति उनका अनुराग सर्वदा वैसे का वैसा बना रहा।
आजीविका के लिए दिल्ली के महानगरीय परिवेश में आने के बाद उनका साक्षात्कार कुछ विचित्र अनुभव-खण्ड से भी हुआ, जहाँ उन्होंने एक से एक उदारता, निष्ठा, सदाशयता और ईमानदारी देखी; छद्म, स्वार्थपरता, क्रूरता, उद्दण्डता और निर्दयता भी कम नहीं देखी। ऐसा भी नहीं था कि इस अनुभव से वे पहले ‘अबोध’ थे, पर तथ्य है कि महानगरीय परिवेश में आने के बाद उनका यह अनुभव दृढ़ हुआ कि आज के समय में उदग्र अधिकार-बोध और अवनत कर्तव्य-बोध के प्रति लोग कुछ अधिक ही ताल ठोक रहे हैं। ऐसे वातावरण ने उनकी कवि-चिन्ता को क्षुब्ध अवश्य किया। आधुनिकता की आँधी में इस तरह उफनता बेचैन विवेक उन्हें कभी नहीं सुहाया। ‘दिल्ली नगर बसमे तामस’ और ‘दिल्लीमे लाल कनैल’ कविता में भावक चाहें तो गंगेश गुंजन की उस मानवता को सहला सकते हैं, जहाँ वे समस्त आफद-बिपद से जीवन-मूल्य और सम्बन्ध-मूल्य को बचाने को व्याकुल दिखते हैं।
इस संग्रह की एकासी कविताओं में विषयगत वैविध्य भरा है। सारी कविताओं का मूल-भाव मूल्य-रक्षा है। बिम्ब-प्रतीक-रूपक निर्मिति की निजता गुंजन की कविताओं में विलक्षण रहती है। इसी वैशिष्ट्य के कारण वे अपने समवर्ती कवियों से भिन्न प्रतीत होते रहते हैं। भाषा की सहजता और प्रयुक्ति का देशजपन इस तरह सम्बद्ध रहता है कि निजता और नवता के बावजूद संवादधर्मिता और सम्प्रेषणीयता कहीं बाधित नहीं होती है।
अपने आचारपरक शालीनता के अनुकूल ही गंगेश गुंजन अपनी कविताओं में भी पर्याप्त शालीन रहते हैं। उखाड़-पछाड़, मार-काट, नारेबाजीवाली भाषा का उपयोग उन्होंने कभी न तो जीवन में किया, न कविता में। अत्यन्त पवित्र, प्रभावी और सम्मोहक कथन-भंगिमा उनकी अभिव्यक्ति का प्राण-तत्त्व है; पर इस कारण किसी को इस भ्रम में नहीं रहना चाहिए कि उनकी कविताएँ कोमल पुष्प-पंखुरी की सेज है। कोमल शब्द से तीक्ष्ण प्रहारक कौशल सिखने के लिए इनकी कविताओं का वेधक प्रहार कभी भी आजमाया जा सकता है। आत्मधिक्कार में भी इनकी कविता चारो ओर रोशनी भर देती है।
संग्रह की पहली ही कविता ‘आब स्वेटर कहाँ बीनै छै स्त्रीगण’ के शीर्षक से किसी को भ्रम हो जा सकता है कि स्त्री के नाम निबद्ध इस प्रथा में स्त्री को कमतर दिखाया गया है, पर ऐसी उद्भावना कविता की अन्तिम पंक्ति में ध्वस्त हो जाती है —
‘ऊन-काँटाक ई उन्मत्त कला
ई कोनो पुरुष प्रथा रहैक कि प्रेमक प्रकाश
सोचै छी।’
...इस सम्पूर्ण कविता का वितान इसी एक पंक्ति के लिए तैयार हुआ है। गंगेश गुंजन की कविता समझने के लिए वस्तुतः इस प्रविधि का बोध रखना सुसंगत हो कि वे कविता लिखते नहीं हैं, ज्यादातर कविता करते हैं अथवा कहते हैं। ढेरो उपादान जुटाकर अपने ध्येय को समर्थन देते हैं। इसी कारण उनकी कई कविताएँ लम्बी हो जाती हैं। कुछ कविता छोटी-सी काया में पूरी हो जाती है। पर ध्यातव्य है कि कोई कविता शब्द-संख्या से नहीं, अपनी प्रभावान्विति से बड़ी होती है। यही कारण है कि उत्तराधिकार, सूर्य, कुसियार, जीवन कहाँ छल, पतखरड़नी ...जैसी कई कविताएँ आकार में बहुत छोटी होकर भी प्रभाव में बहुत बड़ी है। मिथिलांचल में स्त्रीगण द्वारा स्वेटर बुनने की प्रथा को कभी किसी ने औरताना प्रथा मान लिया हों, अथवा ‘औरताना’ विशेषण से इस आचरण को हेय मानने की दुर्भावना मन में पाल लिया हो, उन्हें अनुराग के मर्मस्थल पर आधुनिकता की चोट का अनुमान प्रायः नहीं होगा। गंगेश गुंजन को था। आधुनिकता के दबाव में समाज से इस विस्थापित हस्तकला और भिन्न-भिन्न हस्तकला में अनुगुम्फित जीवन-मूल्य, अनुराग-मोह...आदि किस तरह क्रम से खिसक गई, उसे लोग समझ भी नहीं पाए; गुंजन ने उसी का संज्ञान लेकर अपनी गहन अनुभूति का संकेत दिया है। ‘कुसियार’ कविता इसी विलक्षण दृष्टि का प्रमाण है, जहाँ कवि, माँ के लिए गन्ने का रूपक रचा है।
माँ, वस्तुतः ऋषि दधीचि की तरह सन्तान-हित में अपना सर्वस्व अर्पण कर देने पर भी मुदित रहती है; अगरबत्ती की तरह स्वयं को भस्म करके भी दिग्दिगन्त को सुवासित करती है —
अपन आखरी पोर तक पेड़ल जाइत अछि
कुसियार
पेड़ा-पेड़ा क’ मिशीनमे सिट्ठी भ’ जाइत अछि
रसहीन
तथापि एको रती बचा क’ राखिए लैत अछि
अपन आर्द्रता
रौद आ सूर्यकें देबा लेल खोंइचामे एको रती
आखिर सुखाइत अछि तखने आ
सिट्ठी बनि जाइत अछि
गूड़ बनबा लेल बड़कैत रसक कड़ाह तर
पेनीमे धधकैत आगिक अंशमे पर्यन्त रहैत छैक
मिज्झर सिट्ठीक ओकरो आत्मा
अहीमे जरि क’ समाप्त होइत अछि
स्त्री कुसियारेक पर्याय थिकीह
माइ थिकीह
...विलक्षण रूपक में रचित छोटी काया की यह विराट कविता है। गन्ने के रस द्वारा स्त्री-जीवन के बलिदानी अनुराग को किसी भी भारतीय भाषा में इस तरह शायद ही रेखांकित किया गया हो।
गंगेश गुंजन के इस संग्रह की अधिकांश कविताओं में लुप्तप्राय जीवन-मूल्य और नीति-विवेक पर घनघोर चिन्ता व्यक्त हुई है। ‘छाउर’ शीर्षक कविता में कवि ने, मैथिल जीवन में छाउर (राख) की उपादेयता का उल्लेख अनेक सन्दर्भों से किया है। राख का प्रयोजन हाथ का मैल छुड़ाने से लेकर मछली बनाते, कुत्ते-बिल्लियों की लेंड़ी ढकते, गोंत-गोबर पोछते, दाँत रगड़ते समय...होती आई है। मिथिलांचल के अधिकांश लोग अपने पुराने दिन स्मरण करें, तो उन्हें गंगेश गुंजन की चिन्ता चैंका देगी कि राख अब लुप्त हो रही है। दुर्लभ वन्य-प्राणी की तरह, गाँव के बूढ़े-पुराने लोगों की तरह बारी-बारी से विदा हुई जा रही है राख! गाँव के घूरे समाप्त हुए जा रहे हैं, ठण्ड के समय में घूरे के पास, चूल्हे के पास बैठकर ऊष्मा प्राप्त करने की व्यवस्था समाप्त हुई जा रही है। घूरे से निकली राख गली के कुत्तों तक के लिए सुखदायी होती थी, वह अब इतिहास होने को है। आधुनिकता के प्रवेश, उपभोक्ता संस्कृति के वर्चस्व, वैश्विक बाजार के दबाव ने समाज की जीवन-शैली कुछ इस तरह बदली कि अब ये पुरातन पद्धतियाँ ‘बूढ़े-पुराने लोगों’ की तरह अनुत्पादक, अनुपयोगी, और इसलिए निरर्थक हो गई हैं। आधुनिकता के चटक-मटक के दुष्प्रभाव, पारम्परिकता को क्रमशः कैसे नष्ट करते हैं, इस बात का संकेत इस संग्रह की अनेक कविताओं में मिलता है।
‘लोकतन्त्र’ शीर्षक कविता में लोकतन्त्र की परिभाषा तलाशते हुए कवि गंगेश गुंजन को ‘इनार जकाँ लोकतन्त्र कतहु-कतहु/बाँचल...’ (कुएँ की तरह लोकतन्त्र कहीं-कहीं / बचा) दिखता है। यह विलक्षण रूपक है। ‘लोकतन्त्र’ वस्तुतः अब ‘लोक’ के लिए ‘रहस्य’ और ‘आकाश-कुसुम’ बन गया है; यहाँ कवि ने जिस तरह इसका रूपक जीवनदायी जल-स्रोत से दिया है, वह अर्थ-छवि का वैराट्य उपस्थित करता है। लोकतन्त्र की कामना ‘लोक-जीवन की सुभीता के लिए किया गया था; समाज के प्रत्येक प्राणी के लिए सुख-सौरभ जुटाने की व्यवस्था के रूप में हुआ था; जैसे सभी आँगनों में जीवनदायी जल-स्रोत ‘इनार’ (कुआँ) रहता था। आधुनिक सुसंस्कृत-सुसभ्य समाज को अब इस जल-स्रोत का कोई प्रयोजन नहीं है; कारण उन्हें कुएँ का बोध नहीं है। आधुनिक समाज को इसी तरह लोकतन्त्र का बोध भी नहीं है, बोध अर्जित करने की इच्छा भी नहीं है। इस कविता में कवि इस विकराल विडम्बना से चिन्तित दिखते हैं। उन्हें
‘गामक सबसँ बूढ़ लोक कॉलेज जाइत
विद्यार्थीकें पूछि रहल छथि
लोकतन्त्र की होइ छै बौआ?
कोन बड़का बिदेसमे रहैत छैक?
अपनो गाम दिश अबैत छैक?’...
ई ‘गामक सबसँ बूढ़ लोक’ उस वर्ग के प्रतिनिधि हैं, जिन्होंने आजादी से पूर्व लोकतन्त्र के लिए कोई सपना गढ़ा होगा, अब चलाचली की बेला है; पर ‘कलेज जाइत विद्यार्थी’ उस वर्ग के प्रतिनिधि हैं, जिनके समक्ष पूरा जीवन और पूरा देश है। इस वृद्ध-युवा संवाद की चिन्ता आज के लोगों को कैसे करनी चाहिए, ऐसा उद्योग इस कविता से किया जा सकता है।
मनुष्य के जीवन में भाषा का महत्त्व विशिष्ट होता है। यह वैचारिक सम्प्रेषण का माध्यम भर ही नहीं है, मनुष्य के सोच-विचार का आधार भी होता है। सम्पूर्ण सृष्टि का इतिहास, भूगोल, कला-संस्कृति, रीत-रिवाज, ज्ञान-विज्ञान, उद्योग-व्यापार, सभ्यता-व्यवहार...सबका दायित्व इसी के कन्धे पर लदा रहता है। दुनिया जब सोई रहती है, भाषा तब भी जगी रहती है। ‘भाषा पर बड्ड भार छैक’ शीर्षक कविता में कवि गंगेश गुंजन ने, भाषा की इस गरिमा को सूक्ष्मता से उजागर किया है। माँ के रूपक से चित्रित भाषा का महत्त्व विशिष्ट है। पर इस कविता के सहयोग से एक बार फिर से मैथिल निश्चेष्टा स्पष्ट होती है, कि —
‘असह पीड़ा आ अनिद्रासँ कछमछ करै’ए मनुष्य आ
तकर कोरा भ’ जाग’ पड़ै छैक रातिकें भाषाकें’...
अर्थात्, माँ की तरह जगना पड़ता है; पर मैथिल जन हैं, जिन्हें माँ जैसे महत्-स्थानीय भाषा के लिए किसी भी तरह का अनुराग बचा नहीं है।
संग्रह की अन्य कविताएँ भी विशिष्ट हैं, जिन पर देर तक बातें हो सकती हैं; पर अभी इतना ही।....