उठना / पद्मजा शर्मा
एक दिन एक अनजान ग्रामीण घर आया। बहुत सारा सामान चौक में उतारा। लम्बी सांस ली। मैंने पूछा-'कौन हो भाई? क्यों आए हो? और ये सामान?'
उसने गौर से मुझे देखते हुए पूछा-'आप कलावती जी हैं?'
मैने कहा-'हाँ।'
उसने कहा-'मैंने आपकी एक कविता' बीज'पढ़ी। मुझे अच्छी लगी तो आपसे मिलने आ गया। मैं अरसे से आपको पढ़ता रहा हूँ।'
मैंने पूछा-'आप भी लिखते हैं?'
वह बोला-'नहीं, ज़िन्दगी ने कभी इतना समय दिया ही नहीं। मेरी किराणे की छोटी-सी दुकान है गाँव में। अगर पिता के पास पैसा होता तो मैं भी आज आपकी तरह खूब सारा पढ़ता-लिखता। मेरी किताबें आतीं। पर जब इच्छा थी, मन था तो दो जून की दाल रोटी तक का जुगाड़ ही नहीं हो पाता था। पढ़ाई बीच में ही छोड़ देनी पड़ी। अब भी हालात कुछ ज़्यादा सुधरे नहीं हैं। मुंह अंधेरे दुकान पर चला जाता हूँ।'
फिर उसने झिझकते हुए कहा-'गाँव के लिए अभी निकल जाता, मगर हाथ थोड़ा तंग है। या तो बस का किराया दे पाऊंगा या फिर माँ की दवा ले जा पाऊंगा। मैं आपके पास विश्वास और आस के साथ आया हूँ।'
इस अनजान साहित्य प्रेमी को मैंने बस का किराया और उसकी माँ की दवा के लिए पैसे तो दिए ही साथ में कविता की एक किताब भी दी। यह सोचकर कि शायद उसके अच्छे दिन आ जाएँ और उसके भीतर सोया रचनाकार कभी जग जाए.