उठ जाग मोसाफिर भोर भयो / देवशंकर नवीन
शिवशंकर श्रीनिवास की कहानियों का अवगाहन आधी मिथिला के नागरिक ने भी किया होता, तो अब तक मिथिला से श्रम और प्रतिभा का पलायन बन्द हो गया होता। पूरा मैथिल समाज स्वार्थपरता से बाहर आकर सामुदायिक हित में लीन हो गया होता। मिथिला के लोग, ‘कृषि-कर्म’ और ‘पशुपालन-वृत्ति’ जैसे सामुदायिक उद्यम को सम्मानित दृष्टि से देखने लगे होते। मैथिल नौजवान के चिन्तन से भविष्य के प्रति निराशा और नकारात्मकता मिट गई होती। उन्नत आत्म-बल के नौजवानों से भरी मिथिला सचमुच शस्य-श्यामला बनकर लहलहा रही होती। मातृभाषा मैथिली तथा मिथिला की संस्कृति के नाम पर मैथिलगण जहाँ-तहाँ उटपटांग आचरण नहीं कर रहे होते।...पर ऐसा नहीं हुआ, नहीं हो रहा है। मैथिलों को मातृभाषा के प्रति वैसा भी कोई अनुराग नहीं है, कि वे मैथिली भाषा के साहित्य पढ़ें। उनके अध्यवसाय की सूची में मातृभाषा का साहित्य नहीं है। मातृभाषा के माध्यम से मैथिल आज भी अपनी पहचान सुनिश्चित नहीं कर सके हैं।
विदित है कि बिहार के अड़तीस जिलों में से उत्तरी भाग के उन्नीस जिलों की आबादी मैथिलीभाषी क्षेत्र है। कुछ भूगोलशास्त्री पश्चिमी चम्पारण (बेतिया) को भी मैथिलीभाषी क्षेत्र मानते हैं। तदनुसार बेतिया की जनसंख्या जोड़ने पर मैथिलीभाषियों का संख्या-बल पाँच करोड़ से अधिक होता है। दुनिया भर के 223 देशों में से 104 देशों की संख्या-बल इससे कम है। भारत के छत्तीस राज्यों और केन्द्र शासित राज्यों में से मात्र दस ही राज्यों की जनसंख्या मैथिलीभाषियों के संख्या-बल से अधिक है। एन.सी.आर. दिल्ली की जनसंख्या मैथिलीभाषियों की एक तिहाई है। तथापि मैथिली पुस्तकों की पचास स्तरीय पुस्तकें भी मैथिल-जन अनुराग से नहीं पढ़ते। यह उनकी भाषाई परांग्मुखता का द्योतक है। ऐसी उलहना किसी को मान्य नहीं होगी कि मैथिली पुस्तकों में उन्हें वैसा सुख नहीं मिलता, जैसा अन्य भाषा में मिलता है। कारण, मैथिली में कुल छह ही चर्चित प्रकाशक हैं, जिनके द्वारा प्रतिवर्ष प्रकाशित लगभग दो-ढाई सौ पुस्तकों में से पचास पुस्तकें ऐसी अवश्य होती हैं, जिसे पढ़ने से पाठकों का चित्त-विरेचन भली-भाँति हो सकता है। अन्य भाषा-साहित्य का सम्मान भी अवश्य होना चाहिए, पर मातृभाषा के गरिमा-बोध के साथ ही। भाषा, केवल सम्प्रेषण का साधन मात्र नहीं होती। वह, मनुष्य की राष्ट्रीयता की पहचान और मनुष्य के सोच-विचार का आधार भी होती है। मनुष्य जो कुछ सोचता है, किसी न किसी भाषा में सोचता है। इस सोच-विचार का काम वह जिस भाषा में करता है, वही उसकी प्रथम भाषा होती है।
विदित है कि भारत की समग्र राष्ट्रीयता कोई इकहरी राष्ट्रीयता नहीं है; यह प्रान्तीय स्तर की भिन्न-भिन्न भाषिक-सांस्कृतिक राष्ट्रीयता के समन्वयन से समृद्ध हुआ है। भौगोलिक भिन्नता और विस्तार के कारण यहाँ यह भिन्नता होनी ही थी; किन्तु अनेकता के बावजूद एकता की विलक्षण राष्ट्रीय पहचान इस देश की विशेषता है। इस देश में 1652 मातृभाषा का प्रचलन है, किन्तु भारतीय संविधान द्वारा अभी तक मात्र बाइस ही भाषाओं को राजभाषा की मान्यता दी गई है। मैथिली उन्हीं बाइस भाषाओं में से एक है। मैथिली को राजभाषा की मान्यता तो सन् 2003 में ही मिल गई, किन्तु मैथिलों को मातृभाषा की समझ आज तक भी नहीं हो पाई है। उनके लिए भाषा अभी भी उपयोगी साधन मात्र है। कुछ उद्योगियों ने तो इसे आत्म-स्थापन, राजनीतिक हित-साधन और धनार्जन का उपस्कर बना लिया है। मिथिलांचल में बाजार-व्यवस्था की भाषा तो मैथिली नहीं ही है, साधन-सम्पन्न अधिकांश मैथिल परिवारों की पारिवारिक भाषा भी अब मैथिली नहीं रह गई है।
जॉर्ज अब्राहम ग्रियर्सन (सन् 1851-1941) ने--मैथिली, मगही, भोजपुरी--बिहार की तीन भाषाई राष्ट्रीयता मानी। जिसमें भोजपुरीभाषियों को उन्होंने उद्यमी, और मैथिलीभाषियों को डरपोक एवं गृह-व्यसनी माना। भोजपुरीभाषी सचमुच स्वभाव से उद्यमी होते हैं। धनार्जन के लिए परदेश या विदेश (मॉरीशस आदि), जहाँ भी गए, वहाँ अपनी भाषिक राष्ट्रीयता साथ लिए गए; पर मैथिल? किसी भी स्थिति में निवास छोड़ने को राजी नहीं; तनिक खिसके भी, तो मोरंग, वाराहक्षेत्र, ढाका, कलकत्ता, कामरूप-कामख्या से आगे नहीं बढ़े, और जहाँ गए अपना सारा कुछ खोकर ही रहे। इस समस्त परदेशी वातावरण में मैथिलों को कभी भाषा-सम्बन्धी असुविधा नहीं हुई। इन क्षेत्रों के भाषा-विधान में उन्हें किसी न किसी रूप में मैथिली का ध्वनि-बोध होता रहा। मातृभाषा के निकटतर भाषा-भाषी क्षेत्र में रहकर इन्हें मातृभाषा सम्बन्धी असुविधा नहीं हुई। परिणामस्वरूप मातृभाषा के महत्त्व के लिए चिन्तित न होना इनका सहज आचरण ही था।
शिवशंकर श्रीनिवास ऐसे ही उदासीन लोगों की मातृभाषा के विशिष्ट कहानीकार हैं। इनकी गिनती मैथिली साहित्य के वैसे गिने-चुने कहानीकारों में होती है, जो सदैव निष्कलुष नागरिक को आधुनिकता की आँधी में उड़ जाने के जोखिम से सावधान करते रहे हैं। सातत्यमूलक गुणकारी परम्परा से विमुख होने के अनिष्टकारी परिणाम की चेतावनी देते रहे हैं। सामुदायिक चेतना को उन्नत करते रहे हैं, जन-जन में मनुष्यता का गुणसूत्र ढूँढने को प्रवृत्त रहे हैं। साहित्य-सृजन को उन्होंने कभी आत्म-स्थापन अथवा आत्म-प्रचार का माध्यम नहीं बनाया। मैथिली के सुबुद्ध पाठकों को ऐसे किस्सागो के सहयात्री होने का गुमान है।...
कहानियाँ तो बहुत लोग लिखते हैं, सब के सब किस्सागो नहीं होते। शिवशंकर श्रीनिवास किस्सागो हैं। दर्शन-शास्त्रीय प्रसंगों को भी वे किस्से की तरह सुना सकते हैं, लिख सकते हैं।...उनकी कहानी-कला सदैव वाचिक आचरण से निर्देशित रहती है। इसीलिए प्रायः घटनाविहीन प्रसंगों पर भी लिखी उनकी कहानियाँ मनोरम और उद्बोधक होती हैं। उदाहरण का प्रयोजन हो, तो उनकी अनेक कहानियों में से ‘अपन बुत्ता’, ‘पिजराक सुग्गा’, ‘चिन्ता’ जैसी कुछ कहानियों पर नजर डाली जा सकती है। भारतीय समाज में किस्सा, वैसे भी वाचिक परम्परा की वस्तु शुरू से रही है। मिथिलांचल में तो विशेष रूप से! शिवशंकर श्रीनिवास, बीसवीं शताब्दी के आठवें दशक में तैयार हुई मैथिली कहानीकारों की सुसम्पन्न पीढ़ी के विशिष्ट रचनाकार हैं। इस पीढ़ी के समक्ष दायित्वों का विकराल ढेर लगा था। समकालीन सामुदायिक जीवन के क्रूर यथार्थ और राष्ट्रीय-अन्तर्राष्ट्रीय पराभव से परांग्मुख मैथिली साहित्य के स्थगन भरे रचाव को किरण-यात्री और ललित-राजकमल-मायानन्द की पीढ़ी ने जितना गतिशील बनाया; गुंजन-प्रभास-जीवकान्त की पीढ़ी ने उसकी त्वरा को और पुष्ट किया। आठवें दशक के कहानीकारों के समक्ष एक ओर इस पूर्ववर्ती ध्वजवाहकों के ऊँचे कृतिकर्मों को और ऊँचा करने का कर्तव्यबोध था; तो दूसरी ओर समकाल की चुनौतियों से जनसामान्य को चेतावनी देने का दायित्वबोध; तीसरी ओर परवर्ती पीढ़ी के लिए मार्ग प्रशस्त करने का दायित्व सुनिश्चित करने का ऋणबोध। इसके लिए देश-दुनिया के साहित्यिक-सांस्कृतिक आबोहवा, आर्थिक-राजनीतिक-सामाजिक हलचल और समकालीनता का बोध अनिवार्य था; अतएव इस पीढ़ी के अधिकांश कहानीकार अपनी क्षेत्रीय अस्मिता और भाषिक अनुराग के साथ-साथ देश-दुनियाँ की गति-अधोगति के प्रति अत्यधिक सजग रहे।
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यह पीढ़ी अध्यवसाय और चिन्तन-मनन द्वारा विभाजन की त्रासदी (सन् 1947), भारत-चीन राजनयिक सम्बन्ध (सन् 1950), पारस्परिक सम्प्रभुत्ता और प्रादेशिक अखण्डता के सम्मानार्थ चीन-भारत सम्बन्ध (सन् 1954), भारत पर धोखेबाज चीन का आक्रमण (सन् 1962), जवाहरलाल नेहरू के मोहभंग और मृत्यु (सन् 1964), भारत-पाकिस्तान सीमा-संघर्ष (सन् 1965), लाल बहादुर शास्त्री का रहस्यमय निधन (सन् 1966), भारत-पाकिस्तान का ताशकन्द समझौता (सन् 1966), थोड़े ही दिनों बाद फिर भारत-पाकिस्तान युद्ध (सन् 1971), अकाल में दाने-दाने को तरसते लोग (सन् 1957, 1966), नक्सलबाड़ी आन्दोलन (सन् 1967) का मर्म-भेद...सारा का सारा जान चुकी थी। आपातकाल (सन् 1975), चुनाव-पर्व में निरंकुश कांग्रेसी सत्ता का पराभव (सन् 1977), मध्यावधि चुनाव (सन् 1980); राजनीति का अपराधीकरण और अपराध का राजनीतिकरण, इन्दिरा गाँधी की हत्या (सन् 1984); बेहिसाब बाढ़ के प्रकोप से मजदूर-किसान की दुर्दशा; अधिकारियों की क्रूरता और अकर्मण्यता; लिबरेशन टाइगर्स ऑफ तमिल ईलम के आत्मघाती हमलावर द्वारा चुनाव अभियान में श्रीपेरम्बदूर (तमिलनाडु) में राजीव गाँधी की हत्या (सन् 1991); उसी वर्ष घनघोर आर्थिक संकट से जूझते भारत देश को उदारीकरण-निजीकरण-वैश्वीकरण (एल.पी.जी) की नीति द्वारा उबारने के प्रयास में प्रमुख सुधारवादी अर्थशास्त्री और वित्त-मन्त्री मनमोहन सिंह का सुबुद्ध उद्यम; बाबरी-मस्जिद का ध्वंस (सन् 1992), दीर्घकाल तक सामाजिक-राजनीतिक विवाद और राजनीतिक रैली का हिंसक आचरण; भारत-पाकिस्तान शिमला समझौता (सन् 1972) के बावजूद करगिल युद्ध (सन् 1999); सुविधापरक राजनीतिक अभिक्रिया की ओर साहित्यिक सामन्त की लोलुपता, छुटभैये चमचों की चालबाजी...सारी स्थितियों को यह पीढ़ी गौर से देखती-भोगती आ रही थी। पूर्ववर्ती पीढ़ी की त्वरा को देखते हुए इस पीढ़ी ने स्वयं अपना दायित्व सभी दिशाओं में बढ़ा लिया था। कारण, पर्याप्त सजगता के बावजूद, पूर्ववर्ती पीढ़ी से कुछ-कुछ बिन्दु छूट गए थे। वस्तुतः इस पीढ़ी के पूर्ववर्तियों ने अपने भाषिक गौरव और साहित्यिक विरासत को अपने पूर्ववतिर्यों की जड़ता से मुक्त कराने के लिए इतना संघर्ष किया, कि कुछ बिन्दु का छूट जाना सहज सम्भाव्य था।
आठवें दशक की शुरुआत से ही विश्वविद्यालयीय शिक्षा का अध्यापकीय मानस अपने अज्ञान-दुर्ग का बन्द कर चुका था। मिथिला के युवा अध्येता किसी भी तरह मातृभाषा और मैथिली-साहित्य में अपना भविष्य नहीं ढूँढ पा रहे थे। नई पीढ़ी में उसे ढूँढ पाने की दृष्टि अध्यापकगण नहीं भर पा रहे थे। कृषि-कर्म की निस्सहाय स्थिति और रोजगारविहीन अराजक शैक्षिक वातावरण से ग्रामीण श्रमिक और शिक्षित नौजवान में निरर्थकताबोध भर गया था। फलस्वरूप शहरोन्मुख पलायन बेहिसाब बढ़ गया था। इसके साथ ही अनेक अनुषंगी विकृति समाज में फैलने लगा था। श्रम-मूल्य, सम्बन्ध-मूल्य, नीति-मूल्य का पराभव कुछ ऐेसे होने लगा कि आर्थिकता के अलावा सब कुछ निर्मूल्य हो गया। समाज में संवेदनाहीन नई संस्कृति का वर्चस्व हो गया। मूल्यविहीन बाजार के वातावरण से समाज-व्यवहार संचालित होने लगा था। इस पीढ़ी के सिर ऐसी ही दारुण स्थितियों को अपनी रचनाओं में निरूपित करते हुए, समाज को सचेत करने और परवर्ती पीढ़ी को दिशा-संकेत देने का दायित्व चढ़ा रहा। शिवशंकर श्रीनिवास इसी पीढ़ी के सम्मानित, व्यवस्थित, नैष्ठिक, प्रतिबद्ध और जिम्मेदार रचनाकार हैं।
मैथिली के कहानी-लेखन में उनका सबल पदार्पण इसी पीढ़ी में हुआ। आज मैथिली कहानीकार की इस समृद्ध पीढ़ी में उनका नाम आदर से लिया जाता है, तो इसका कारण उनकी एकनिष्ठ प्रतिबद्ध सृजन-दृष्टि ही है। अपने लेखन और आचरण--दोनों में उन्होंने विज्ञान-प्रौद्योगिकी एवं आधुनिकता का सम्मान किया, पर आधुनिकता के प्रति अमंगलकारी सम्मोहन की कभी सराहना नहीं की। मंगलमय मनुष्यता के लिए उपादेय परम्परा की प्रशंसा की, जबकि रूढ़िग्रस्त परम्परा का तिरस्कार अपना कर्तव्य समझा।
उनका लेखनारम्भ तो हुआ सन् 1966 के आसपास, पर उनकी पहली कहानी ‘इजोत’ शीर्षक से सन् 1973 में ‘मैथिली दर्शन’ पत्रिका में प्रकाशित हुई। अब तक उनकी लिखी लगभग एक सौ कहानियों में से कई कहानियाँ असंकलित और अप्रकाशित भी हैं। ‘त्रिकोण’ (1986) शीर्षक से प्रकाशित सहयोगी संकलन में उनकी पाँच कहानियाँ प्रकाशित हुईं। इस संकलन के त्रयी कहानीकार हैं--अशोक, शिवशंकर श्रीनिवास और शैलेन्द्र आनन्द। उर्वशी प्रकाशन, पटना से प्रकाशित इन तीनों कहानीकारों की पाँच-पाँच कहानियों के इस संकलन को पाठकों का पर्याप्त सम्मान मिला। इसके बाद प्रकाशित उनकी प्रमुख कृतियाँ हैं--कहानी-संग्रह--‘अदहन’ (1991, भाषा प्रकाशन, पटना), ‘गामक लोक’ (2005, सुशील स्मृति प्रकाशन, लोहना), ‘गुण-कथा’ (2014), ‘माटि’ (2021, नवारम्भ प्रकाशन, पटना); आलोचना--‘बदलैत स्वर’ (2008), ‘मैथिली उपन्यासक आलोचना’ (सन 2021), ‘विश्लेषण’ (2022)।
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शिवशंकर श्रीनिवास ने सन् 1973 में जब सघन सक्रियता से कहानी-लेखन शुरू किया, भारतीय स्वाधीनता की रजत-जयन्ती मनाई जा चुकी थी। छब्बीस वर्षीय स्वाधीन भारत के परिवेश में जीवन-यापन करते जनसमुदाय को ऐसा कुछ भी नहीं दिख रहा था, जिस कारण वह अपनी स्वाधीनता पर गर्व करता। लोकतन्त्री सरकार से शासित देश और सामन्ती समाज-व्यवस्था के चंगुल में फड़फड़ाते जनसामान्य को जैसी स्वाधीनता दिख रही थी, उसका कोई अर्थ उस समय के किसी भी शब्दकोश में नहीं मिलता था। शासकीय शिकंजा, धार्मिक पाखण्ड, सामाजिक दबाव, आर्थिक जर्जरता, चिकित्सकीय अराजकता, शैक्षिक पराभव, राजनीतिक उत्पीड़न, साम्प्रदायिक द्वेष, जातीय भेद-भाव, पदक्रम का वर्चस्व, भूख का ताण्डव और क्रूर शोषण की आवाँ में समस्त नागरिक छटपटा रहा था। पूर्ववर्ती रचनाकार भारतीय परिदृश्य और मैथिल समाज की चिन्ता को अपनी तरह रेखांकित कर चुके थे। भारतीय राजनीति के परिदृश्य की कुछ घटनाओं ने समाज में जैसी स्थिति उत्पन्न कर दी थी, उसके क्रूर चित्र पूर्ववर्ती कहानियों में आ चुके थे। कांचीनाथ झा किरण से पूर्व की कथाधारा से प्रेरणा लेने की कोई जरूरत इस पीढ़ी के ऊर्जस्वित कहानीकारों को नहीं हुई। हाँ, किरण, राजकमल, गुंजन, प्रभास के सृजन-सरोकार निश्चय ही इस पीढ़ी लिए उपादेय हुए। अनुकरण के लिए नहीं, प्रेरणा के लिए; स्थानीय प्रसंगों की विडम्बनाओं, सामुदायिक जीवन की जटिलताओं, राष्ट्रीय समस्यादि के प्रति उस पीढ़ी की चिन्ता को आगे बढ़ाने के लिए। इस पीढ़ी के कहानीकार निरन्तर अपने अभिगृहीत दायित्व को विस्तार देते रहे। इससे मैथिली कथा-धारा की भावी दिशाएँ भी प्रशस्त हुईं।
नौंवे दशक में सक्रिय हुए कुछ और कहानीकारों के योगदान से आठवें दशक में निर्मित शिवशंकर श्रीनिवास की यह पीढ़ी और मैथिली कथा-धारा सम्पुष्ट हुई। शिवशंकर श्रीनिवास की कहानी-कला तो सुपुष्ट सृजन-दृष्टि का परिचय दे ही रही थी। लगभग साढ़े पाँच दशक की एकनिष्ठ कथा-साधना के बाद, आज आलोचकों को उनकी कथा-प्रविधि पर गम्भीरता से विचार करने का प्रयोजन हुआ है, तो इसका मूल कारण उनकी कथा-दृष्टि ही है।
कुटिल-बुद्धि समालोचकों और मनोरंजन-प्रेमी पाठकों को उनकी कहानियों में ऐसा कुछ भी नहीं मिलेगा, जिससे वे अपने मनोरंजक-भाव और भावुकता को गुदगुदाएँ या मनोविकारों का शमन करें। कारण यह नहीं, कि कहानीकार शिवशंकर श्रीनिवास को अपने सामान्य पाठकों की चिन्ता नहीं रहती है; खूब रहती है। पर उनके कहानी-लेखन का उद्देश्य आत्म-विलास अथवा तात्कालिकता नहीं होती है। शाश्वत-मूल्य मात्र के लिए कथा-लेखन को वे अपना कर्तव्य मानते हैं। गाँव में रहते हैं, ग्राम्य-वातावरण में नागरिक-जीवन की इच्छा-अभिलाषा, सुख-सुविधा, दुख-दुविधा को गौर से देखते रहते हैं। जीवन-संघर्ष की दुख-दुविधा से उबरने के लिए विवेकी नागरिक के नैतिक उद्यम और लिप्सा-पूर्ति लिए बाहुबलियों की जघन्यता के एक से एक उपक्रमों के प्रत्यक्षदर्शी रहे हैं। ग्राम्य वातावरण में अस्तित्व-रक्षा और अस्मिता-निर्माण की जैविक क्रिया इतनी जटिल होती है, कि वार्तिक रचने में बड़े-बड़े भाष्यकार और दार्शनिक दिग्भ्रान्त हो जाएँ। जिन गाँवों में देश की आत्मा के निवास की घोषणा कभी मोहनदास करमचन्द गाँधी ने की थी; अब गाँव वैसा नहीं रह गया। शहरुआ वातावरण की सारी कुटिलताएँ कुछ ज्यादा ही घनत्व के साथ अब गाँवों में क्रियाशील रहती हैं। आज जो कोई ग्राम्य समाज के गहन ज्ञान रखते हैं, वे ये सारी बातें भली-भाँति जानते होंगे। पर शिवशंकर श्रीनिवास को इसकी समझ बनाने में कभी कोई भ्रम नहीं हुआ। कारण, इस समग्र क्रिया का अनुशीलन और अभिग्रहण, उन्होंने किसी आचार्य-प्रतिपादित सिद्धान्त से नहीं किया। क्रिया की पूर्णता में सहायक समस्त कारकों की लिप्सा और विवशता को सूक्ष्मता से विश्लेषित कर किया।
भाषा-विश्लेषक बेहतर तय करेंगे कि मैथिली भाषा के क्रियापदों की बहुस्तरीयता का मूल कारण वस्तुतः मैथिलों के जीवन-व्यवहार की बहुस्तरीयता है; जहाँ मनुष्य सोचता है कुछ और, बोलता है कुछ और, करता है कुछ और। कुछ अपवादों के क्षण को छोड़कर, मैथिलों का निर्णय सर्वदा स्वार्थ में ही उलझा रहता है। माँ, मातृभूमि और मातृभाषा को विद्वत्समाज समान महत्त्व देते रहे हैं; पर मैथिल परिवेश में अब माँ के प्रति प्रदर्शित अनुराग भी किसी नाटकीय आचरण का हिस्सा हो गया है! स्वभावतः मातृभूमि और मातृभाषा के प्रति कोई सघन अनुराग मैथिल परिवेश में नहीं है। रहता, तो छह करोड़ से अधिक संख्या-बल के बावजूद इस भूखण्ड में भाषिक चेतना लुप्त होती नहीं दिखती। अपने सांस्कृतिक-मूल्य के विपर्यय के प्रति न्यूनांश मैथिलों को भी कोई चिन्ता नहीं है। अराजक अत्याधुनिकता के अन्धानुकरण में उन्हें भले अपना पतन न दिखे, संस्कृतिक मूल्य-रक्षा में उन्हें अनावश्यक रूढ़ि दिख जाती है।
चूँकि शिवशंकर श्रीनिवास का कहानी-लेखन समाज-परिष्करण और नागरिक-चेतना निर्माण के अतिरिक्त दायित्व से संचालित होता है; उनकी कहानियों का रचाव इस बहुस्तरीय मिजाज से विरत नहीं हो पाता है। वे न तो दर्शन-शास्त्री हैं, न मनोविज्ञानी; पर शोध-प्रविधि का व्यवहार कहता है कि जीवन-संचालन की जटिलता सुलझाने के उद्योग में अपनी मेधा के बल हर व्यक्ति, दर्शन और मनोविज्ञान पढ़े बिना ही थोड़ा-थोड़ा दार्शनिक और मनोविज्ञानी हो जाता है। मिथिला तो वैसे भी दर्शन और मनोविज्ञान का केन्द्र प्रारम्भिक काल से ही रही है। प्रमाणस्वरूप — ‘सिनुरहार’, ‘चिन्ता’, ‘गाछ-पात’, ‘पिजराक सुग्गा’...आदि कुछ कहानियों में चरित-निरूपण का उनका कौशल देखा जा सकता है।
‘सिनुरहार’ कहानी में अकेली कल्याणी की माँ की दुविधा या ‘चिन्ता’ कहानी में मेंही की दुविधा या ‘गाछ-पात’ कहानी में बूढ़ी स्त्री की दुविधा देखकर स्पष्ट होता है कि जीवन के यथार्थ और सिद्धान्त के यथार्थ में कितना भेद होता है। इसीलिए विहंगम दृष्टि से शिवशंकर श्रीनिवास की कहानियाँ पढ़ने पर कहानियों के मर्म से अपरिचित रह जाना पड़ेगा। उनकी कहानियाँ पढ़ने के लिए, कहानियों के मूल-तत्त्व ग्रहण करने के लिए सजग पाठकीय दृष्टि अनिवार्य है; देश-दुनियाँ और मनुष्यता-सामाजिकता के प्रति सूक्ष्म सावधानी अपरिहार्य है। वैसे तो आज की सारी ही सशक्त कहानियों के पाठ के लिए सुबोध और सचेत पाठकीय मानसिकता रखना तो अनिवार्य है ही।
विश्व-साहित्य की किसी भी भाषा की कहानियों की तरह मैथिली कहानी-लेखन में भी कहानियों के वस्तु-फलक बहुत पहले ही टूट गए थे। मैथिली कहानियाँ प्राचीन परिपाटी की घिसी-पिटी प्रक्रिया से बाहर आकर, राजा-रानी की कहानियों और घटना-प्रधान, चरित्र-प्रधान कहानियों का मोह त्याग कर शैली-प्रधान कहानियों में राजकमल की पीढ़ी में ही प्रविष्ट हो गया था। अपनी रचना-प्रक्रिया के बल आज की मैथिली कहानियाँ देश-दुनिया की साहित्यिक रचना के समानान्तर अपना परिचय देना शुरू कर चुकी है। आठवें-नौवें दशक में तैयार हुए मैथिली कहानीकारों की चिन्ता में अपनी शंका और अपने समकालीन समाज की चिन्ता के अलावा भविष्य के मार्ग प्रशस्त करने की चिन्ता भी समाविष्ट है। पूर्ववर्ती रचनाकारों द्वारा उठाई गई महत्त्वपूर्ण चिन्ता को रेखांकित करने का दबाव भी इस पीढ़ी के कहानीकारों पर था। स्पष्टतः इस पीढ़ी के कहानीकार अपने समाज के नागरिक-जीवन की विडम्बना को रेखांकित करते आगन्तुक समय में लिखी जानेवाली कहानियों की एक शृंखला तैयार करने की प्रविधि निर्मित कर रहे थे। शिवशंकर श्रीनिवास ऐसे कहानीकारों में अग्रणी हैं, कि उन्होंने न केवल अपने समकालीन समाज की जीवन-दशा को विलक्षण दृष्टि से आरेखित किया, बल्कि समकालीन समाज के जीवन-संघर्ष का मर्म समझने की चेष्टा की; परवर्ती पीढ़ी के लिए एक कठिन मानदण्ड खड़ा किया।
उनकी विशिष्ट कहानी ‘अपन बुत्ता’ बेरोजगारी के संकटों से जूझते एक सभ्य, सुशिक्षित, स्वावलम्बी, स्वाभिमानी नायक की कहानी है, जिसमें कोई कहानी नहीं है। बेरोजगार नायक की कुण्ठा, सन्त्रास और जिजीविषा यहाँ अवश्य दिखती है; पर नायक कहीं टूटता नहीं दिखता है। लाख प्रतिकूल परिस्थितियों में भी उनकी किसी कहानी का नायक किसी भी परिस्थिति में टूटा-हारा नहीं दिखता है। वस्तुतः अपने नायक के जीवन-संघर्ष के विज्ञापन से कहानीकार अपने समाज को संघर्षशील मनुष्य की विजय दिखाने के आग्रही हैं। इस कहानी के नायक को भी सदैव अपने बूते पर, अपनी कार्य-शैली पर अटूट आस्था है।
वस्तुतः यह मानसिक उद्वेग की कहानी है। प्रथम पुरुष में लिखी इस कहानी के वाचक बेरोजगार रहकर भी, अपने मित्र सुरेश की असंगत सफलता देखकर भी, स्वयं को विफल नहीं मानता है। इस कहानी में आपातकाल की चर्चा है। आपातकाल के बाद भारत में जिस तरह अपराध के राजनीतिकरण और राजनीति के अपराधीकरण का उदग्र रूप से विकास हुआ, उसी का गम्भीर रेखांकन यहाँ दिखता है। इसी क्रम में कथावाचक के मित्र सुरेश, जो अध्यवसाय के दिनों में नितान्त मेधा-शून्य था, राजनीतिक संरक्षण पाकर गण्यमान्य हो गया। कथावाचक की पत्नी उसे उस मित्र के सहयोग से नौकरी प्राप्त करने को प्रेरित करती हैं। किन्तु वाचक को अपनी योग्यता पर भरोसा है, पत्नी के लाख आग्रहों के बावजूद, राजनीतिक मदद से उन्होंने नौकरी पाने की इच्छा नहीं की। उनकी दृढ़ मान्यता थी कि नैतिकता का लोप नहीं हो सकता। चारो ओर समाज में नैतिकता के लोप की स्थिति दिखती थी, पर कथावाचक की आस्था थी कि नैतिकता का लोप नहीं हो सकता। नैतिकता घट सकती है, उसका क्षरण हो सकता है, किन्तु नैतिकता के बिना मनुष्य कदापि नहीं रह सकता। उसकी राय में अभी मनुष्य सुसुप्त है। एक दिन अवश्य जगेगा। मनुष्य को मनुष्य जगाएगा। मनुष्य अपने मनुष्य के लिए जगेगा।... दिग्भ्रान्त, स्वार्थ में अन्धा और परिस्थितिवश पराजित नायक को मनुष्यता की क्षमता पर ऐसी आस्था उज्ज्वल भविष्य की आशा देती है।
यह कहानी संसाधनविहीन गाँव में शिक्षित बेरोजगारों के प्रति ग्रामीण समुदाय की उदासीन दृष्टि पर व्यंग्यात्मक प्रहार करती है। गाँव में चाय-पान की दुकानों की बढ़ती संख्या को कहानीकार गाँव के लोगों की रोजी-रोटी के साधन के रूप में नहीं देखते, आपदा को अवसर बना लेने जैसी पतित-दृष्टि से वे घृणा करते हैं। वे देखते हैं कि इन दुकानों की बाढ़ ने गाँव के लोगों को व्यसनी बना दिया है। उसके जीवन-यापन का खर्च बढ़ा दिया है। यह आचरण लोगों को ज्ञान-विमुख कर रहा है। चाय-पान की दुकानों पर भीड़ जुटी रहती है, जबकि बगल के पुस्तकालय से रातोंरात पुस्तकें चुराकर रद्दी के भाव लोग बेच आते हैं। पुस्तकालय खण्डहर बन गया है। गाँव श्रीविहीन हो रहा है। चाय-पान की दुकान पर निरर्थक विषय पर बहस होती है। सार्थक और सृजनात्मक बातें कोई नहीं करता। कथावाचक को चिन्ता है कि लोगों की खुराक बढ़ रही है, सिर पर कर्ज बढ़ रहा है; बाल-बच्चों की पढ़ाई-लिखाई चौपट हुई जा रही है; आमदनी का स्रोत मात्र खेती है, जो संसाधन के अभाव में नष्ट हुई जा रही है। लगे हाथ सूचित हो कि गाँव और कृषि-जीवन की बदहाली की चिन्ता शिवशंकर श्रीनिवास की अनेक कहानियों में गम्भीरता से आरेखित हुई है। सूत्र-निर्माण की अनुमति हो, और कहानी-लेखन को सामाजिक रूप से उपादेय बनाने की सदीच्छा हो, तो शिवशंकर श्रीनिवास की कहानियाँ सोन्मुखता की ओर तेज़ी से बढ़ते समाज पर नियन्त्रण रखने की लगाम है।
भरण-पोषण के लिए इस कहानी के वाचक ने एक भैंस पाल रखी है, पारिवारिक व्यवस्था उसी के बल चलती है। पर उनके इस आचरण को समाज के लोग हेय दृष्टि से देखते हैं। निन्दा करते हैं। ग्रामीण समाज का ऐसा घृणित सोच-विचार, श्रमशीलों और कामगारों के लिए ऐसी विकृत मानसिकता पर इस कहानी में घनघोर व्यंग्य दिखता है। कथावाचक की पत्नी अत्यन्त सुघर और सुगढ़ स्त्री हैं, जिन्हें परिवार की चिन्ता है, पति की मानसिक शान्ति और आत्मविकास की चिन्ता सदैव सताती है। इसलिए वे अपने पति को सलाह देती हैं, कि संसार बदल रहा है, आप भी बदलिए। पर कथावाचक नहीं बदले।... ऐसा क्या है कि वे नहीं बदले? इस बदलने का अर्थ क्या है?... पत्नी बार-बार आग्रह करती है कि वे राजनीतिक रूप से सबल हो गए अपने मित्र सुरेश के सहयोग से कोई नौकरी पा लें, पर विवेकशील समाज के प्रतिनिधि और इस कहनी के वाचक स्वयं को नहीं बदलना चाहते हैं, कारण उन्हें अपने बूते पर आस्था है। उनके मन में कृषि-कर्म की चिन्ता है। ग्रामीण समाज की एकजुटता पर आस्था है और सरकारी नीति के विधान पर शंका है। कहानी के अन्तिम अंश में सरकारी योजना को निरस्त करते जाति-धर्म से निर्लिप्त सहकारी उद्यम को सलाह भी दी गई है।
आत्मबल केन्द्रित इस कहानी का शीर्षक ही कहानी के मर्म को उजागर करता है, जिसमें मनोरंजन के तत्त्व भले कुछ न हो, किन्तु पाठक को रोक रखने के पर्याप्त गुण हैं। मनोरंजन करना कभी भी किसी साहित्य का उद्देश्य नहीं रहा है। वह तो पाठक को रोक रखने का एक छोटा-सा तत्त्व है, जिसके बूते भावक रचना से जुड़े रहते हैं। साहित्य का उद्देश्य इसी रास्ते पूरा होता है। मनोरंजन के लोभ में रचना से जुड़ा पाठक, अवगाहन के बाद उद्वेलित होता है, जो उसे आत्मपरिचय की स्थिति में लाता है, उसकी चेतना उद्बुद्ध होती है। ‘अपन बुत्ता’ अत्यन्त महत्त्वपूर्ण कहानी है, इसमें जनशक्ति पर भरोसा दिखाया गया है। गाँव के श्रमिक समाज एकजुट होकर बाँध बान्ह लेता है। आश्वस्त हो जाता है कि इस बार भली-भाँति तराई होगी और अच्छी उपज होगी। उपज की कल्पना के उत्साह से पूरा समाज प्रसन्न है, गाँव का उत्साह देखकर उनकी पत्नी भी उत्साहित होती है। कथावाचक घोषणा करते हैं कि सारे किसान एकजुट होकर काम करें, तो किसी को नौकरी-चाकरी करने बाहर जाने का प्रयोजन नहीं होगा। गाँव से बेहतर जगह कहाँ है? शिवशंकर श्रीनिवास की यह कहानी वस्तुतः कृषि-कर्म के प्रति आस्था की कहानी है।
आज जब पूरे समाज में भ्रान्ति फैली हुई है कि गाँव-गाँव में सड़क हो जाना समाज-विकास का लक्षण है, यहाँ क्रियाधर्मी रचनाकार का चिन्तित होना उचित है, कि सड़क-निर्माण गाँव के विकास का लक्षण नहीं है। वह गाँव से श्रम-संसाधन को खदेरकर ले जाने का, पूँजीपतियों और बहुराष्ट्रीय कम्पनियों द्वारा किसान के उपजाए अन्न गाँव से बाहर ले जाने का और अपने उत्पाद घर-घर बेच लेने का साधन है। गाँव के विकास का असली लक्षण है--गाँव में कर्म-निष्ठा का प्रसार, अध्यवसाय की प्रवृत्ति जगाना, जाति-धर्म से मुक्त मनुष्यवादी सहकार फैलाना, मानव-प्रेम से भरी एकजुटता, कृषि-कर्म में सहकारिता...। विकास का असली चेहरा कृषि का विकास है। सामुदायिक सहयोग मात्र से ही किसी समाज का कृषि समृद्ध हो सकता है। इस कहानी के माध्यम से शिवशंकर श्रीनिवास ने एक विराट सन्देश प्रतिपादित किया है, जो आज के समाज से लुप्त हुआ जा रहा है। वस्तुतः प्रेम का विकास ही मानवीयता का विकास है!
उनकी अत्यन्त लाक्षणिक और व्यंजनापरक कहानी ‘सिनुरहार’ में कथावस्तु तो इतनी-सी है कि परदेस में नौकरी और जीवन-यापन करते रामभद्र झा अपने छोटे पुत्र के उपनयन-संस्कार कराने सपरिवार गाँव आए हैं। साथ में बेटी-दामाद भी आए हैं। बेटी कल्याणी अल्पायु में विधवा हो गई थी, माता-पिता की सद्भावना के कारण सुयोग्य ब’र से उनका पुनर्विवाह हुआ। यह जानकर, गाँव के लोग कोने-अँतरे में कानाफूसी करने लगे। उपनयन संस्कार के विधि-विधान चल रहे हैं, मगर फिजूल के अन्धविश्वास के कारण रामभद्र की समाजभीरु पत्नी कल्याणी को विधि-विधान से अलग रखना चाहती हैं।
शिवशंकर श्रीनिवास न तो स्त्री-विमर्श के अतिवाद के पक्षधर हैं, न रूढ़ मान्यताओं के पोषक। जिस सामाजिक परिस्थिति के कारण स्त्री-जीवन की दुर्दशा बढ़ती चली जा रही है, उसके प्रति वे सदैव चिन्तित रहे हैं। उनकी लगभग कहानियों में स्त्री-जीवन की दारुण पीड़ा उजागर हुई है। अपनी माटी-पानी के सरोकार, पारम्परिक सम्बन्ध के निर्वाह और सामाजिकता से जुड़ी सभी वस्तुओं के प्रति चिन्ता उनकी कहानियों में रक्षित है। उनकी कथा-दृष्टि सदैव मनुष्य-विरोधी दुष्कृति पर कुपित रहती है।
बेटे के उपनयन-संस्कार में पुनर्विवाहित बेटी की सहभागिता से सम्भावित व्यवधान के प्रति रामभद्र की पत्नी की आशंका पूरी कहानी में मण्ड़रा रही है। विलक्षण कौशल से सृजित इस कहानी में कहानीकार की विलक्षण कथा-दृष्टि का परिचय मिलता है, कि एक ओर सामाजिक यथार्थ का परिचय देते हैं, तो दूसरी ओर मानवीय व्यवहार का परीक्षण करते हुए, स्थापित सिद्धान्त के सूत्र और प्रमाण को निरुपाय साबित करते हैं। और तभी यह प्रमाणित होता है कि सामुदायिक व्यवस्था में जीवन-यापन के सूत्र का कोई एक सिद्धान्त नहीं हो सकता। स्थान-काल-पात्र की पर्यवस्थिति के अनुसार उसमें विचलन आना स्वभाभाविक है। मनुष्य कोई रासायनिक पदार्थ नहीं है, इसलिए वह सिद्धान्त मात्र से नहीं चलेगा, परिस्थितिवश बदलता रहेगा।
कल्याणी की माँ के मानसिक द्वन्द्व को आरेखित करने में उन्होंने इतने कौशल लगाए हैं, कि बड़े-बड़े मनोविज्ञानी विफल हो जा सकते हैं। ये स्त्री प्रगतिशील हैं कि रूढ़िवादी, तय करना कठिन हो जाता है। प्रगतिशील इतना कि विधवा बेटी के विवाह कराने में तनिक भी इत-उत में नहीं पड़ीं; सन्तान-मोह ऐसी कि बेटे के उपनयन में बेटी-दामाद को साथ लिए गाँव आईं; समाजभीरु ऐसी कि बेटी के खिलखिलाकर हँसने पर डाँट लगा बैठीं। ऐसे मत हँसो! धर्मभीरु इतनी कि शुभ-कार्य में विधवा की सहभागिता वर्जित, इसलिए उपनयन के विधान में कल्याणी उपस्थित नहीं रहेंगी; स्वीकार-भाव इतना कि कल्याणी की चचेरी बहन कल्याणी को विधि-विधान में ले आईं, तो माँ मुदित हो गईं...सचमुच, मनुष्य का मनोजगत कितना द्वन्द्व सहता है!... और बलिहारी कहानीकार को कि यथार्थवाद की प्रचलित परिभाषा की सीमा तोड़कर एमिल जोला के प्रकृतवाद और सात्र्रा के अस्तित्ववाद को सूक्ष्मता से स्पष्ट कर दिया।
यहाँ तनिक यथार्थवाद और प्रकृतवाद के गुणसूत्रों पर विचार करना उचित प्रतीत होता है। प्रकृतवाद वस्तुतः यथार्थवाद का ही विस्तृत आयाम अतियथार्थवाद है; जहाँ सामूहिकता और समग्रता के स्थान पर सामुदायिक जीवन जीते एक-एक नागरिक के क्षणिक मनोवेग, दुख-दुविधा, सुख-सुविधा, इच्छा-अभिलाषा का संज्ञान लिया जाता है। समग्र संज्ञान में वैयक्तिक जीवन की दशा कई बार दब जाती है। ‘सर्व मंगल मांगल्ये’ की धारणा में यह बात यद्यपि भारत और खास कर मिथिला में शुरुआत से था, किन्तु आधुनिक साहित्यिक धारा में यह बात छिप गई थी। ललित-राजकमल-मायानन्द की पीढ़ी से पूर्व के मैथिली साहित्य में इस बात का संज्ञान किरण और यात्री के अलावा कहीं दिखाई नहीं देता था।
साहित्यिक आन्दोलन के रूप में उन्नीसवीं शताब्दी के अन्तिम चरण में यह धारणा सर्वप्रथम फ्रांस में प्रसिद्ध प्रकृतवादी फ्रेंच उपन्यासकार, पत्रकार एमिल जोला (सन् 1840- 1902) के माध्यम से आया। सन् 1880 में अपने एक आलेख ‘दी एक्सपेरिमेण्टल नॉवेल’ में उन्होंने जो यथार्थवादी शैली प्रस्तावित की, उसे ही प्रकृतवाद कहा गया। तदनुसार रचना में क्रूर जीवन-यथार्थ का अंकन अनिवार्य माना गया। इस धारणा के अनुसार साहित्य एवं कला की दृष्टि से कोई भी सत्य वर्जित और गर्हित नहीं रहा। एक असंगठित साहित्यिक प्रवृत्ति के रूप में फ्रांसीसी साहित्य-चिन्तन में प्रचलित इस प्रकृतवाद को बीसवीं शताब्दी के प्राथमिक चरण आते-आते भारतीय साहित्य में भी पर्याप्त प्रतिष्ठा मिलने लगी। स्वातन्त्र्योत्तरकालीन भारतीय समुदाय में तो खूब ही मिली। रचना में जीवन के क्रूर-कठोर यथार्थ को निर्ममता से अनावृत करने का यथेष्ट प्रयास भारतीय साहित्य में होने लगा। पात्र-प्रसंग-पर्यावरण की विश्वसनीयता, सहजता एवं जीवन के जैविक प्रयोजन पर इस धारणा में बल दिया जाने लगा। समाज की लघुत्तम इकाई, अर्थात् प्रत्येक मनुष्य के निजी जीवन की छोटी-छोटी अनुभूतियों का संज्ञान लिया जाने लगा। तथ्यतः संसार की श्रेष्ठतम रचना मनुष्य है। जिसकी जन्मजात वृत्ति जिजीविषा है, इसलिए हरेक प्राणी जीने के लिए संघर्ष करता है, परिस्थिति को अनुकूल बनाकर स्वयं को सुरक्षित करता है। इस प्रक्रिया में वह जीवन के क्रूर यथार्थ से मुठभेड़ करते हुए अपने लिए कई परिस्थितियों का निर्माण भी करता है। ऐसी स्थिति में किरण-यात्री और ललित-राजकमल-मायानन्द की पीढ़ी के रचनाकारों ने यथास्थिति के सम्पोषक बन गए मैथिल समाज की पिछड़ी मानसिकता को बदलना शुरू कर दिया था। यथार्थ से मुँह छुपानेवाले पाठकों के समक्ष नई क्षमता से खड़े होने की प्रविधि ढूँढ ली थी। समकालीन सामाजिक प्रवृत्ति की व्याधि उजागर करना अपना प्राथमिक दायित्व मान चुके थे।
कृति-प्रसंग की पूर्णता के लिए पात्र-प्रसंग का युक्तियुक्त वर्णन रचनाकार का कर्तव्य होता है, एक सीमा तक विवशता भी। कहानी में सृजित चरित्र का विस्तार, प्रामाणिकता, घटना-प्रसंग की विश्वसनीयता और अनेक आनुषंगिक सूचना के लिए नगर, प्रकृति, पारम्परिकता, रीति-रिवाज, चौपाल-संवाद, लोक-परलोक, इतिहास-दर्शन, राजनीति, जाति-धर्म- सम्प्रदाय, वर्चस्व-पराभव, शोषण-विद्रोह, युद्ध-क्रान्ति, यथास्थिति, मनोवेग, उमंग-उत्साह, प्रेम-घृणा, ईष्र्या-अनुराग, अतीतावलोकन, स्मृति-खण्ड, भविष्य-चिन्तन...आदि का वर्णन अनिवार्य होता है। किसी श्रेष्ठ रचना में यह वर्णन निष्प्रयोजनीय नहीं होता। क्योंकि साहित्य में चित्रित जीवन-सत्य ही पर्याप्त नहीं होता है, उसका सत्य लगना भी अनिवार्य होता है। अविश्वसनीय यथार्थ साहित्य को निष्प्रभ और निर्मूल्य करता है। रस-सिद्ध भावक को इस तथ्य की गहन समझ रहती है, रहना भी चाहिए।
इस कहानी में कहानीकार ने कल्याणी की माँ के जीवन की अत्यन्त छोटी-छोटी अनुभूतियों का संज्ञान लिया है। विचारणीय है कि जीवन की ऐसी दुर्वह दुविधा मिटाई जाए या इस पर मिट्टी डालकर इस व्यूह से निकलने का उपाय ढूँढा जाए। जिस सामाजिक वातावरण में वे बेटे का उपनयन कराने आई थीं, उसी समुदाय के आतंक में जी रही थीं। इस पराभव की स्थिति में मनुष्य यथासाध्य समस्या से बच निकलने का रास्ता ढूँढता है; आवश्यकतानुसार मुठभेड़ भी करता है; अस्तित्व-रक्षा की इस दुविधाग्रस्त परिस्थिति में मनुष्य कब ईश्वरवादी हो जाता है, कब अनीश्वरवादी... समझना कठिन है। इसलिए अस्तित्ववाद की इन दोनों धाराओं — ईश्वरवादी और अनीश्वरवादी... पर गौर करना प्रयोजनीय है !
नए युग के लेखन में अस्तित्ववाद का प्रतिपादन प्रसिद्ध डैनिश चिन्तक सोरेन किर्केगार्द (सन् 1813-1855) ने सन् 1843 में किया; किन्तु उन्होंने अस्तित्ववाद शब्द का प्रयोग नहीं किया। साहित्य-चर्चा में अस्तित्ववाद की ख्याति प्रसिद्ध फ्रांसीसी विचारक ज्याँ पाल सात्र्रा (सन् 1905-1980) के सत्प्रयास से हुआ। इसके अधीन किसी स्थापित शक्ति से मोहभंग होने पर मनुष्य अस्तित्ववाद की ओर उन्मुख होता है। ‘सिनुरहार’ कहानी में कल्याणी और कल्याणी के माता-पिता की मनोदशा में इस दोनों का दर्शन होता है। कहानी की बुनावट में समस्त अनिष्ट की सम्भावना कल्याणी के पुनर्विवाह से बनती दिखती है। किन्तु रोचक प्रसंग यह है कि इस सम्पूर्ण प्रकरण में रामभद्र कभी किसी भी बात के लिए समाज-व्यवहार से उतने भयभीत नहीं हैं, जितना उनकी पत्नी। बेटी के पुनर्विवाह के प्रति और बेटी को बेटी की ही तरह स्वीकार करने के प्रति रामभद्र को कभी कोई दुविधा नहीं हुई; जबकि रामभद्र की पत्नी को पग-पग पर चिन्ता सताती रहती है, कि अन्तर्जातीय पुनर्विवाह के मामले को लेकर पता नहीं, कब गाँव के लोग कन्नी काट जाए; उपनयन के विधि-विधानों में कोई वितण्डा न उपस्थित हो जाए। सुहागन स्त्री की विचित्र परिभाषा रामभद्र की पत्नी के मन में बसी हुई है। पुनर्विवाहित हो जाने के बावजूद वे कल्याणी को सुहागन मानने के लिए तैयार नहीं हैं। किन्तु अपने विरहाकुल पद में जिस तरह महाकवि विद्यापति अन्त आते-आते समस्त विरह-दशा को मिटाकर संयोगमय और सुखमय वातावरण ला देते हैं; ठीक उसी तरह ‘सिनुरहार’ कहानी में शिवशंकर श्रीनिवास ने अन्त आते-आते सारी प्रतिकूल परिस्थितियों को निपटा कर सुखमय वातावरण निर्मित कर दिया है। इससे भी रोचक प्रसंग यह है कि इस सुखद वातावरण के निर्माण की अग्रणी कल्याणी की चचेरी बहन ललिता हैं; एक नवयुवती; अर्थात् नवांकुर की प्रतीक।...जिस कल्याणी को अपने सहोदर भाई के उपनयन संस्कार के विधि-विधानों से अलग रखा जा रहा था, उसी कल्याणी को ललिता ने बाँह पकड़कर आह्लादपूर्वक विधि-विधानों में शामिल कराया। अन्ततः कल्याणी की माँ का हृदय भी परिवर्तित हुआ और प्रमुदित मुस्कान के साथ एक मुदित वातावरण में कहानी का अन्त हुआ। ग्रामीण नागरिक की निरर्थक और निकृष्ट चिन्ता को कहानी में सूक्ष्मता से रेखांकित किया गया है; जिसमें किसी की रुचि किसी सार्थक प्रसंग की चिन्ता में नहीं है; उपनयन संस्कार की सफलता में नहीं है; अधिकांश लोग यह सूँघने में लीन हैं कि अकाल में विधवा हुई युवती कल्याणी का विवाह किस जाति के पुरुष से हुई? वर कौन-सी नौकरी करते हैं, कितने कमाते हैं, हँसमुख हैं या खड़ूस?...सब के सब उन चिन्ताओं में लिप्त हैं, जिनका कोई सम्बन्ध उनके निजी जीवन या कि सामाजिक आचार से दूर-दूर तक नहीं है।
जीवन की सहजता के विरोधी समाज के असली स्वरूप को नग्न करने करनेवाले दार्शनिक कहानीकार शिवशंकर श्रीनिवास की इस अत्यन्त प्रभावी कहानी में रामभद्र की पत्नी की परिवार-सुलभ चिन्ता है। किन्तु समाज के आतंक का विचित्र प्रश्न है। रामभद्र के सम्पूर्ण परिवार पर जिस समाज का आतंक सदैव मँड़राता रहता है, रामभद्र उसी समाज में पुनः आकर अपने बेटे का उपनयन क्यों करना चाहते हैं? ऐसे दुर्मुख समाज के आतंक में जीने की विवशता आज भी लोगों को सम्मोहित करती है।
मनोरथ और भय का द्वन्द्व इस कहानी में विचित्र तरह से दर्शाया गया है। नई पीढ़ी का जीवन-दर्शन ऐसा है कि रामभद्र अपनी बेटी के मनोभाव की चिन्ता में परेशान हैं; रामभद्र की पत्नी सामाजिक आचार-व्यवहार-अनुशासन के आतंक से परेशान हैं; किन्तु नई पीढ़ी के प्रतिनिधि कल्याणी बेफिक्र हैं। वे निश्चिन्त हैं, एकदम सहज। उनके पति भी उसी तरह सहज। कल्याणी खिलखिला रही हैं। बेटी की हँसी के ऊँचे स्वर से माँ परेशान हैं। यह नई-पुरानी पीढ़ियों का भेद है। गाँव आने के बाद कल्याणी को अपनी प्रगतिकामी माँ का दूसरा ही रूप दिखता है। गाँव और शहर के इस अतार्किक भेद को, दूसरों की पारिवारिक व्यवस्था में जबर्दश्ती नाक डुबाने के ग्रामीण आचरण को और अपनी माँ की इस निरर्थक समाजभीरुता को कल्याणी चाहकर भी नहीं समझ पाती हैं; वे नहीं समझ पाएँगी। स्त्री-जीवन की परिस्थिति को शिवशंकर श्रीनिवास ने इस कहानी में विलक्षण ढंग से प्रस्तुत किया है।
सन् 1942 में प्रकाशित अपनी पुस्तक ‘शृंखला की कड़ियाँ’ में स्त्री मनोविज्ञान और जीवन-क्रिया पर महादेवी वर्मा ने सूक्ष्मता से विचार किया है। उनके अनुसार पवित्र गृहस्थी की नींव पुरुष की शक्ति के बूते नहीं स्त्री की बुद्धि के बूते रखी जाती है। उनका मानना सही है कि ‘पुरुष और गृह’ किसी स्त्री का जीवन होता है, जबकि ‘स्त्री और गृह’ पुरुषों के जीवन की कोई एक आवश्यकता। समाज और परिवार के लिए क्षमता से अधिक योगदान और त्याग करती, स्वविहीन होती स्त्री, सचमुच पालतू तोता होती जा रही हैं; पिजरे का तोता। अवसर आने पर भी वह विहग नहीं होना चाहती। ‘पिजराक सुग्गा’ शीर्षक शिवशंकर श्रीनिवास की कहानी महादेवी वर्मा की इसी धारणा की व्याख्या करती है। प्रतीकार्थ में यह कहानी एक ओर स्त्री-जाति के शौर्यशाली पराक्रम का स्वरूप खड़ा करती है, तो दूसरी ओर जीवन सम्बन्धी उनकी पराश्रयी सुखलीनता स्पष्ट करती है। इस कहानी में वाचक, अपनी विधवा माँ के जीवन-संग्राम की कहानी कहते हैं; जो परिवार के नीड़-निर्माण में सम्पूर्ण जीवन अर्पित कर देती हैं। वे उस परिवार के ‘मुख्य स्तम्भ’ हैं; किन्तु जिस बेटे को पाल-पोसकर दुनियाँ देखने की दृष्टि दी है; अब उसी बेटे को अपना अभिभावक मान बैठी हैं। वाचक को यह बात किसी भी तरह पच नहीं पाती है। माँ को अपनी माँ के श्राद्ध में मैके जाना है। इसके लिए कथावाचक के मामा अनुनय करते हैं कि कुछ दिन पहले ही जाने दो! वाचक क्षुब्ध हैं कि जिस माँ से पूछकर मैं स्वयं कहीं जाने-आने का निर्णय करता हूँ, उस माँ को मैं कैसे आदेश दूँ कि वे कब जाएँ, कब न जाएँ? वाचक की दृष्टि में पिता की मृत्यु के बाद तो माँ ने ही उनके पिता की भी भूमिका निबाही! माँ से ही जीवन भर दिशा-संकेत पाया। वह माँ कब अपने मैके जाएँगी, इसका निर्णय मैं कैसे करूँ?... अपने द्वन्द्व की परीक्षा के लिए वाचक माँ का मन टोहने दालान से आँगन आए, तो सुना कि उनकी माँ, बहन और पत्नी इसी विषय पर चर्चा कर रही थीं। जब वाचक की बहन ने कहा कि ‘कल चली जाओ!’, तो माँ ने कहा, ‘ऐसा बबुआ कहे तब न!’... वाचक का दिग्भ्रान्त होना स्वाभाविक था।
सामाजिक व्यवहार और पारिवारिक वातावरण की विचित्र उलझनों से भरी यह कहानी एक अर्थ में रांगेय राघव की कहानी ‘गदल’ का स्मरण कराती है। कथा-नायिका गदल भी ऐसी ही पराक्रमी और पारिवारिक हैं। कैसी भी प्रतिकूल परिस्थिति में मान-मर्यादा-स्वाभिमान और परिवार की रक्षा के लिए तैनात रहती हैं। किन्तु एक पुरुष के अभिभावकत्व में रहने के अनुराग से भरी हुई। ‘पिजराक सुग्गा’ कहानी के वाचक की माँ अपने बेटे के अभिभावकत्व में अन्तिम समय का जीवन बिताना चाहती हैं। वाचक देखते हैं कि उनके घर की तीन स्त्रियाँ — पत्नी, बड़ी बहन और जन्मदात्री माँ — तीनों, नारी होने के कारण ही पुरुष के अधीन रहकर, पुरुषों से खुद को बचा रखने में सहमत हैं। हठात् उन्हें पिंजरे में बन्द अन्धे तोते के साथ खेलते अपने चाचा की सुनाई कहानी याद आई। उनके लाल काका पिंजरे का द्वार खोलकर तोते को बाहर जाने के लिए प्रेरित करते थे, पर तोता बाहर जाने के बजाय पिजरे की दीवार से सट जाता था। यह क्रिया देखकर लाल काका को कौतुक होता था। वे जानते थे कि यह अन्धा पक्षी गगनबिहारी नहीं हो सकता। फिर भी खेलते रहते थे...।
कथावाचक को अपने चाचा की सुनाई कहानी पर क्रोध आता था। अब आकर उन्हें समझ में आया। नारी स्वातन्त्रय की मिथ्या धूम मचानेवाले पुरुषों के लिए लालकाका ने उस आचरण को स्मरण किया करते थे। किन्तु स्त्री जाति स्वयं को पिंजरे में क्यों बन्द रखना चाहती हैं? उनकी माँ इस पिंजरे से क्यों नहीं निकल सकीं? पुरुषों के बनाए पिंजरे तो उनके समक्ष कभी प्रकट नहीं हुए। सम्पूर्ण परिवार के लिए सदैव वे स्वयं अभिभाविका रहीं! आज उन्हें अभिभावक का प्रयोजन क्यों हुआ? कथावाचक रोने लगते हैं। उनकी आँखों में आँसू देख, माँ तत्काल आलिंगन करते कहती हैं — अधीर मत हो बेटे, तुम्हारे पिता न चले गए, मैं तो हूँ !... माँ का यह संरक्षक रूप फिर से देखकर वाचक अपराधबोध से मुक्ति का अनुभव करते हैं।...सचमुच सामाजिक यथार्थ की यह जटिलता अगोचर है। समाज में तो लोग ऐसी क्रिया सतत देखते ही रहते हैं, पर कहानी के रूप में इसे उपस्थित देखकर इसका मर्म ढूँढने की सहज व्यग्रता सबको होगी।
रोज़गार के फेरे में गाँव के श्रमिकों और प्रतिभाओं के पलायन से न केवल गाँव खाली हुआ, किसानी की अवहेलना हुई; बल्कि आर्थिकता के इस घनघोर दबाव से मानवीय सम्बन्ध और परिवार के अनुराग पर भी घातक असर पड़ा। सम्बन्ध-मूल्य की संवेदना नष्ट हुई। शिवशंकर श्रीनिवास इस जोखिम को सूक्ष्मता से आरेखित करते रहे। ‘गाछ-पात’ शीर्षक कहानी में इस मूल्यगत ह्रास पर उन्होंने गम्भीरता से विचार किया है। इस समस्त आचरण को विलक्षण कौशल से रेखांकित किया है।
धनार्जन के लोभ में गाँव छोड़ शहर जानेवाले लोग अपनी जड़ से तो विच्छिन्न होते ही हैं, अन्धानुकरण के फेर में प्रयासपूर्वक अपने सांस्कृतिक मूल्य को भी ताख पर राख देते हैं। मूल्यबोध से ऐसी परांग्मुखता के कारण वे मूलोच्छिन्न हो जाते हैं। अपनी माटी के आबोहवा से उन्हें कोई भी संवेदना नहीं रह जाती है। इसी चसक में परवर्ती काल में गाँव और ग्राम्य-आचरण उनके लिए निरर्थक, निष्प्रयोजनीय हो जाते हैं। यहाँ ‘माटी’ शब्द की प्रयुक्ति हिन्दी के शब्द ‘मिट्टी’ जैसी नहीं हुई है। मैथिली में माटी (माटि) अपने विराट अर्थबोध के साथ प्रयुक्त होती है, जिसमें माटी अपने पर्यावरण, रीति-रिवाज, संरचना, गढ़न...सब कुछ के साथ आता है। सौभाग्यवश इस शीर्षक से शिवशंकर श्रीनिवास की एक कहानी भी है, जिसके पाठ-विश्लेषण से ‘माटि’ का असली तत्त्वबोध सम्भव है।
‘गाछ-पात’ कहानी गाँव के ‘डीह’ (बसावट की जमीन) पर शेष जीवन बिताती एक वृद्ध माँ की इसी संवेदना की कहानी है। बेटा बोकारो में इंजीनियर है, बहू वहीं उच्च विद्यालय में शिक्षिका। पोता-पोती से भरा-पूरा परिवार है, किन्तु गाँव में अकेले दिवंगत पति की लगाई बगीची के गाछ-पात के साथ बतियाती हुई आनन्दित रहती हैं। पति जीवित थे, तो पौधे, बेल-लताएँ लगाते रहते थे, किन्तु फल तोड़ने वही जाती थीं। पति को केवल लगाने भर से मतलब रहता था। यहाँ ‘कर्ता’ और ‘सम्प्रदान’ के भेद स्पष्ट करने में, असली स्त्री-विमर्श का संकेत देते हुई कहानीकार की विलक्षण चतुराई व्याख्येय है।
विवरण से भरी इस सम्पूर्ण कहानी में विवरण कहीं निरर्थक नहीं प्रतीत होता। इस विवरण को एमिल जोला के प्रकृतवाद से जोड़कर देखना उपादेय लगता है और तब स्पष्ट होता है कि शिवशंकर श्रीनिवास के विवरण का जादू समस्त कहानी में कैसे उच्चासन चढ़ बैठता है।
खण्ड-खण्ड जीवन के क्षण-पल की अनुभूति का रेखांकन इनकी कहानी में आकर विशिष्ट हो गया है।... बूढ़ी स्त्री के बेटे-बहू ने इस बार उन्हें साथ ले जाने की जिद ठान दी; किन्तु बूढ़ी द्वन्द्व में हैं — बेटा-बहू, पोता-पोती के साथ जाएँ या बगीची में दिवंगत पति के लगाए गाछ-पात के साथ मुदित रहें! सम्बन्ध-मूल्य के एक-एक तन्तु को कहानीकार ने इतनी सूक्ष्मता से आरेखित किया है कि बूढ़ी के जीवन का रेशा-रेशा उजागर हो गया है। प्रतीकार्थ में प्रतीत होता है कि सचमुच उपवन के माली से गाछ-वृक्ष का सान्निध्य छीनना बड़ा अपराध है। माँ-बाप अपने परिवार के माली होते हैं। गाछ-पात माली को छोड़कर जा सकता है, सूख भी सकता है, पर माली गाछ-पात को छोड़कर नहीं जा सकता! कहानी के अन्तिम अंश में बेटे के साथ बूढ़ी का जाना तय हुआ पर जब बूढ़ी को बगीची के गाछ-पात का स्मरण आया, और वे गाछ-पात से अनुमति लेने बगीची में गईं, तो मन्द-मन्द हवा बह रही थी, गाछ-पात प्रसन्नता से झूम रहा था। पर बूढ़ी को लगा जैसे सारे गाछ-पात उदास हो रहे हैं। बूढ़ी ने पादपों से कहा — अब तो मैं जा रही हूँ। तुमलोगों को कौन देखेगा?...और इतना कहते ही बूढ़ी विह्नल हो गईं। आँखें नम हो गईं। मन में आया कि बेटे को कलेजे से लगा लें।...ध्यातव्य है कि ये सारे प्रकरण अपने रूपकार्थ प्रकट कर रहे हैं। वे बोलीं — बबुआ, अब मुझे यहीं रहने दो! इन्हीं गाछ-पात के बीच ! इन्हीं सब की सेवा में। मैं कहीं नहीं जाऊँगी अब। मन यहीं टँगा रहेगा। फिर जाने से क्या लाभ?...प्रतीकार्थ के आश्रय में लिखी यह विलक्षण कहानी है।
‘चिन्ता’ शीर्षक कहानी वस्तुतः शिवशंकर श्रीनिवास ही नहीं, पूरे देश के ग्राम्य परिवेश के लिए सजग समाज की चिन्ता की कहानी है। कृषि-कर्म के सूक्ष्म विवरण से भरी इस कहानी में कहानीकार पाठकों के मन में एक ओर कृषि-कर्म के पुरोधाओं की तरह वशीकरण जैसा अनुराग उत्पन्न करते हैं, तो दूसरी ओर उनमें देश-दुनियाँ की अवगति की अभिलाषा भी भरते हैं। इस कहानी का बहुस्तरीय मर्म, इसके संवाद में जगमग करते रहते हैं। यह कहानी पल-प्रतिपल अपने नायक मेंही के चारो ओर मँड़राती रहती है। थोड़ा आगे बढ़ने पर मेंही के नायकत्व को श्रेष्ठ कृषक जैसा पुष्ट करने के लिए अन्य पात्र भी जुटते हैं।
कृषि-कर्म से जुड़े सारे प्रसंग के ज्ञाता मेंही यहाँ कोई ऋषि की तरह प्रस्तुत हुए हैं। मेंही कृषि-कर्म के पुरोधा हैं, किन्तु निरक्षर नहीं। थोड़ा-बहुत पढ़े-लिखे भी हैं। समाज के बात-विचार में सदैव अग्रसर रहते हैं। अखबार पढ़ने में खूब मन लगता है। चर्चा थी कि अखबार पढ़कर वे सारी बातें याद भी रखते हैं। सन्ध्या समय प्रतिदिन मास्टर साहेब के यहाँ जाकर अखबार पढ़ते हैं। लेखक ने अपने नायक का ऐसा चरित्र सोद्देश्य गढ़ा है। उनका इशारा है कि कृषि-कर्म का पुरोधा होना भर पर्याप्त नहीं है। परिवेश के हाल-समाचार के प्रति सावधान रहना भी जरूरी है। देश-दुनिया से परिचित रहना भी आज के किसानों के लिए अनिवार्य है। इसलिए मेंही आद्रा नक्षत्र की भरपूर बारिश से प्रसन्न हैं। किन्तु श्रम और कौशल की समस्त कला से सम्पन्न रहने पर भी संसाधन के अभाव में उनकी कृषि लाचार है। थोड़े ही दिन पूर्व उनका बैल मर गया। अब बैल के बिना तो रोपाई होगी नहीं! इसलिए वे पराश्रयी हैं, कोई बैल दें तो रोपाई होगी! ऐसे ही विकट समय में उनका बेटा गाँव छोड़कर शहर जाने की जिद पर अड़ गया। लाख विरोध के बावजूद वे बेटे का निर्णय नहीं बदल सके। गाँव से श्रमिकों का पलायन उनकी अनेक कहानियों में आया है।
पलायन के प्रति नई पीढ़ी का आकर्षण और पुरानी पीढ़ी का क्रोध इस कहानी में मुखर हुआ है। आधुनिकता के कारण समाज में फैली विकृति और अन्धानुकरण के कारण नासमझी से उत्पन्न दिशाहीनता पर शिवशंकर श्रीनिवास की कुपित दृष्टि जहाँ-तहाँ दिखती रहती है; और उनकी यह धारणा व्यंग्यात्मक स्वर में प्रकट होती है। किन्तु इसलिए यह मानना सही नहीं होगा कि उन्हें आधुनिकता के प्रति कोई कुण्ठा है। आधुनिकता की आँधी तो दुरुस्त हो भी सकती है, पर उस कारण सम्बन्धों के अनुराग-सूत्र टूट जाए, तो सचमुच विकृति है।
इस बात को उन्होंने अत्यन्त मार्मिक ढंग से इस कहानी में एक आनुषंगिक प्रसंग से रेखांकित किया है। मेंही के एक वृद्ध मित्र अपने बेटे-पोते पर इसलिए व्यथित नहीं हैं कि उनके बड़े पोते ने परदेस में विवाह कर लिया। वे दुखी हैं कि इन अहमकों ने उन्हें पौत्रवधू का मुँह तक नहीं देखने दिया, बहू को कभी अपने डीह पर नहीं लाया। बहू को देखकर उनकी आँखें तृप्त होतीं। मेंही के मित्र की मान्यता है कि नई दुल्हन के पैर डीह पर पड़े, तो स्वर्गलोक से पूर्वजों के आशीर्वाद मिलते हैं। पर इस डीह पर वंश की बहू के नहीं आने से उनके पितरों की आत्मा नहीं जुड़ाई।...आज के अतिक्रान्तिकारियों को यह अन्धविश्वास लग जा सकता है; लगे; पर जीवन तो शास्त्र से नहीं, व्यवहार और अनुराग से चलता है! मेंही के मित्र की यह मामूली-सी अभिलाषा पूर्ण करने में नई पीढ़ी को कोई असुविधा नहीं होनी चाहिए थी। यह अनुराग की बात थी! आधुनिकता बेशक आए, लोग खूब प्रगति करे, मनोनुकूल काम करे, किन्तु पुरानी पीढ़ी की ऐसी छोटी-छोटी अभिलाषाओं की रक्षा से यदि सम्बन्धजन्य अनुराग बचा रहे, तो इसे बचाकर रखने का यत्न नई पीढ़ी को अवश्य करना चाहिए।
आधुनिकता की होड़ में अब सम्बन्ध-मूल्य ऐसा तहस-नहस हुआ जा रहा है, कि पिता आब जन्मदाता नहीं रह गए हैं, कुटुम्ब हो गए हैं। जिनकी सन्तानें अब अपने जीवन-प्रसंगों की सूचना मात्र देना पसन्द करते हैं। उनके सलाह-विचार अब सन्तानों के लिए अनिवार्य नहीं रह गए हैं। आज के समाज में ऐसा होता आ रहा है, शीघ्र ही इसका विस्तार भी होगा। शिवशंकर श्रीनिवास ने अपने रचनात्मक-सूत्र में इस बात का पुरजोर संज्ञान लिया है।
छोटे-छोटे प्रसंगों, क्षणिक मनोवेग और प्रासंगिक कहानियों के समन्वयन से निर्मित यह कहानी मन्द-मन्द पसरती रहती है। इसी क्रम में मेंही को जानकारी मिलती है कि उनका अपना ही बेटा कमाने के लिए गाँव छोड़ दिल्ली चला गया। जबकि मेंही की धारणा है कि इसी तरह गाँव से श्रमिकों का पलायन होता रहा तो खेती समाप्त हो जाएगी। फिर मनुष्य कैसे जीएगा? खेतों के प्रति ममता उमरते ही उन्हें धरती की उर्वरता याद आई। धरती के प्रति यह अद्भुत अनुराग स्वावलम्बन का संकेत है, इस सृष्टि में मात्र खेतिहर ही स्वाबलम्बी माने जा सकते हैं। इसी स्वाबलम्बन के अनुराग में मेंही सपना देखने लगे। सपने में पृथ्वी से भेंट और संवाद हुआ। धरती और धरतीपुत्र के संवाद का यह सपना विलक्षण दृश्य उपस्थित करता है, जहाँ खेती-बारी के नष्ट हो जाने के सम्भावित संकेत हैं।...इसी क्रम में वे बुदबुदाने लगे--हाँ, आ गया! जो अपनी माँ का उदास मुँह देखकर लौट सकता है, वह पृथ्वी को भी उदास नहीं छोड़ सकता। साथ में रोपाई करती पत्नी ने चैंककर पूछा--क्या बुदबुदा रहे हैं? ...तो मेंही अप्रतिभ हुए बगैर बोले--बबुआ आ गया! पत्नी ने पूछा--कहाँ आया है?...तो मेंही ने कहा--नहीं आया है तो आएगा...! और इतना कहकर मेंही मगन-मन धान रोपने लगे। मेंही का यह आत्मविश्वास धरती और मानवता की पारस्परिक आस्था का प्रतीक है।
यहाँ नोबेल पुरस्कार (सन् 1954) से सम्मानित प्रसिद्ध अमेरिकी रचनाकार, अर्नेस्ट मिलर हेमिंग्वे (सन् 1899-1961) के सुविख्यात उपन्यास ‘ओल्ड मैन एण्ड द सी’ (सन् 1952) के नायक सैण्टियागो (पृ. 93) की बहुचर्चित उक्ति का स्मरण आना स्वाभाविक है — ‘मनुष्य टूट जाएगा, पर हारेगा नहीं (ए मैन कैन बी डिस्ट्रवायड बट नॉट डिफिटेड)।’ सैण्टियागो जीवन भर यातना सहता रहा, पूरे उपन्यास में बार-बार की हताशा ने नायक को नाउम्मीद नहीं की, उनका आत्मबल और पराक्रम हार मानने के लिए कतई राजी नहीं था। सर्वत्र अदम्य उत्साह और ऊर्जा से भरा रहा। उल्लेख सुसंगत होगा कि हेमिंग्वे स्वयं दुर्दान्त साहस के स्वामी थे। अपने रचे पात्र के जीवन में तो सारे श्रेष्ठ रचनाकार अपनी ही वैचरिकता के साथ जीते रहे हैं। हेमिंग्वे की उसी साहसिक जीवन-शैली और सार्वजनिक छवि ने परवर्ती पीढ़ी के हृदय में उन्हें पूजनीय स्थान दिलाई।
मेंही भी ‘चिन्ता’ शीर्षक कहानी में सैण्टियागो जैसी मानसिक यातना सहते हैं, किन्तु पराजित नहीं होते हैं। अपनी आस्था पर डटे रहते हैं। उनकी जाग्रतावस्था के सपने और घोषणा में परदेस चले गए बेटे के पुनरागमन की आस्था भरी हुई है। यह आस्था कृषि संरक्षण की चिन्ता में एक महावाणी जैसा प्रसंग है। माँ का उदास मुँह देखकर परदेश गया बेटा शीघ ही लौट आएगा, यह सम्बन्ध-मूल्य की रक्षा के पक्ष में आस्था की वाणी है। शिवशंकर श्रीनिवास घनघोर निराशा के क्षण में भी आस्था के रचनाकार हैं। ‘चिड़ै नहि मनुक्ख थिक’ शीर्षक इनकी कहानी जीवन-संचालन और व्यवस्था-नियन्त्रण के अनेक चिन्तनानुशासन के गुरुतर दायित्व से भरी एक श्रेष्ठ कहानी है। आकार में नहीं, प्रभाव में। वैसे इस कहानी का आकार बहुत छोटा भी नहीं है। पर प्रभाव की तुलना में आकार उतना बड़ा भी नहीं है। वामदेव जैसे नैष्ठिक श्रमिक की प्रशंसा से शुरू हुई यह कहानी, इन्द्रनाथ ठाकुर के एक चाटुकार कुबेर झा की तीखी बात सुनकर वामदेव की उपहासपूर्ण उक्ति ‘आप चिड़ई और मनुष्य में अन्तर नहीं समझते हैं, तो मैं क्या करूँ?’ से समाप्त होती है। बीच-बीच में और-और पात्रों के योग इस कहानी को मिलते हैं। थोड़ी देर की उपस्थिति के बावजूद वामदेव, अपने विलक्षण चरित्र के कारण पूरी कहानी में चर्चित रहते हैं। वामदेव अपने गाँव के एक कर्मनिष्ठ, मेहनती, ईमानदार, उचितवक्ता, मानवीय, मुँहफट, ग्राम्य-प्रेमी और अकड़ू व्यक्ति हैं। उन्हें किसी का डर-भय नहीं होता। अपने आत्मबल से जीवन-यापन करनेवाले व्यक्ति को कभी किसी का भय कहाँ हुआ है!
वामदेव की समग्र चिन्ता अपने गाँव के विकास और कृषि-संस्कृति के पारम्परिक धरोहर के उत्थान की ओर लगा रहता है। किन्तु यह कहानी तीन स्तर पर विकसित होती है। एक ओर वामदेव के नैष्ठिक मेहनत की प्रशंसा गाँव का हर व्यक्ति करता है; पर उसकी अकड़ से हर कोई किंचित व्यथित रहता है। दूसरी ओर इन्द्रनाथ ठाकुर एक समय में गरीबी के कारण अपने पिता के दूध बेचने के काम में सहयोग करते थे। किन्तु किशोरावस्था में ही हरिदेव की पिटाइ के भय से गाँव छोड़ भाग गए थे; इकट्ठे अपनी हैसियत बनाकर ही गाँव वापस आए। गाँव से भागे इन्द्रनाथ ने हरियाणा जाकर एक फार्म हाउस खरीदा। उन्नत कृषि के विकास में लग गए। मूलोच्छिन्न होने की कोई भी ग्लानि उन्हें व्यथित नहीं करती। गाँव के अनेक लोगों की मदद भी की है। इस बार गाँव आए हैं, खेती-बारी के लिए किसी निपुण श्रमिक की ताक में। गाँव से किसान ले जाकर वहाँ के कृषि-कर्म को उन्नत करना चाहते हैं। जैसे अंग्रेज लोग भारत से कारीगर ले जाकर इंग्लैण्ड में सामान तैयार करते थे, तथापि भारत को पछिलग्गू समझते थे। इसीलिए इन्द्रनाथ को एक निपुण व्यक्ति का प्रयोजन है।
ऐसे समय में गाँव के अनेक चाटुकार वामदेव जैसे श्रमिक की प्रशंसा कर इन्द्रनाथ जैसे सुखी-सम्पन्न व्यक्ति का कृपा-पात्र बनना चाहते हैं, विभिन्न तरह से प्रशंसा करते हुए उनकी लिप्सापूर्ति करते हैं और उनकी भावनाओं को गुदगुदाते हैं। कामयाब कामगार वामदेव के हुनर की प्रशंसा सुनकर इन्द्रनाथ को प्रतीत होता है कि यह व्यक्ति मेरे काम का हो सकता है। यहाँ अर्थ-विस्तार से कहानीकार की चतुराई प्रकट होती है कि यह समय कर्म-निष्ठा और ज्ञान-कौशल की प्रशंसा का समय नहीं है; कामगार और नैष्ठिक व्यक्ति को उपभोक्ता-सामग्री बनाने के उद्योग का समय है। इन्द्रनाथ इसी उद्योग में तल्लीन हैं। इन्द्रनाथ के चाटुकार उनकी लिप्सा को दाद(चर्मरोग) की तरह खुजला रहा है। कहानीकार ने इस धृष्टता और दुष्टता को कौशल से रेखांकित किया है।
इन्द्रनाथ की चाटुकारिता में बैठे और क्रियाशील लोग जब वामदेव की प्रशंसा में क्या-कहाँ बोलते हैं, तो वे उसकी अत्यधिक खुराक की बात भी करते हैं। इसी बीच इन्द्रनाथ के पिता अपनी माला-जाप रोककर बाहर आते हैं और अपनी बात रखने लगते हैं। गाँव के बुजुर्गों में सही कहने और अनुभूत सत्य कहने की गजब आदत होती है। कहानी के इस अंश में कहानीकार ने स्पष्ट किया है कि वृद्धों को आत्मज्ञान का अहंकार और अनुभव सुनाने की बड़ी लालसा सवार रहती है। विवरण में इस बात का स्पष्ट संकेत कहानी में गम्भीरता से हुआ है। कुबेर झा, वामदेव को इन्द्रनाथ के साथ हरियाणा जाकर उनकी खेती-बारी सँभालने की लालच देते हुए उन्हें सहमत करने को तत्पर होते हैं। वामदेव उन लोगों की हँसी उड़ाते हुए कस्तूरी काका की उक्ति कहते हैं — पहले चिड़ई को जहाँ-जहाँ सुविधा मिलती थी, उड़ जाता था। मनुष्य की तरह चिड़ई का घर नहीं होता। वह न तो सूखा या बाढ़ से लड़ सकता है, न घनघोर ठण्ड को बर्दाश्त कर सकता है, इसलिए अनुकूल स्थिति ढूँढता हुआ उड़ता रहता है। अब तो अपने यहाँ मनुष्य ही उड़ रहा है, फिर कहीं अन्यत्र से चिड़ई क्या आएगा? ...जब लोगों ने कहा कि क्या बेसिर-पैर की बात करते हो, तो वामदेव ने उठकर अपना गमछा झाड़ा और चल पड़ा।
वामदेव का यह स्वभाव एक कामगार के आत्मविश्वास का प्रतीक है। लोगों ने उन्हें रोका, तो बोले कि लखनदइ का बाँध टूट गया है, गाँव के लोगों का उसे बाँधने का विचार हुआ है। मैं भी कुदाल लेकर वहीं जाऊँगा। लोगों ने प्रतिप्रश्न किया कि तुम्हारा तो यहाँ कोई जमीन ही नहीं है!... वामदेव ने कहा — मेरी जमीन नहीं है, पर वह भी मेरे ही गाँव का खेत है न!...
आत्मबोध से भरे वामदेव का ऐसा जवाब ‘सार्थक जीवन’ और ‘सफल जीवन’ का भेद स्पष्ट करता है। ‘सफल जीवन’ का सम्बन्ध हरदम ‘व्यष्टि’ से होता है जबकि ‘सार्थक जीवन’ का सम्बन्ध हरदम ‘समष्टि’ से, समाज से, सामाजिक सरोकार से।
‘गुण-कथा’ शीर्षक कहानी तीन पीढ़ी के पारस्परिक व्यवहार के ताने-बाने से बुनी गई है। समाज-सेविका अंजनी देवी अपने बहू-बेटे के साथ जिस घर में रहती हैं, वहाँ नजदीक में ही एक मजदूर-कॉलोनी है, जिसमें वे मजदूर के बीच रहकर अपना जीवन सार्थक करना चाहती हैं। किन्तु अंजनी देवी के बहू-बेटे के वर्चस्व को इससे ठेस लगती है? अंजनी देवी का पोता विदेश में पढ़ता है। तीन पीढ़ी के इस त्रिकोण में सम्बन्ध का ऐसा वृत्त और वृत्तान्त इस कहानी में बनता है कि एक दार्शनिक शृंखला तैयार हो जाती है। मजदूरों के साथ समय बिताना और उन्हें उत्थान की ओर प्रेरित करना, अंजनी देवी के लिए जीवन है; उन जैसी समाज-सेविका का पोता होने के गौरव के साथ विदेशी पत्रिका में लेख छपाकर श्रेष्ठ कहाना एक व्यापार; किन्तु अंजनी देवी के बहू-बेटे के लिए उनका वर्चस्व खण्डित करने का उद्यम। यह कहानी फिर से सफल जीवन और सार्थक जीवन के मर्म को सूक्ष्मता से रेखांकित करती है। शिवशंकर श्रीनिवास की कहानियाँ पढ़ना एक रोचक काम है। उनके मुँह से सुनना विरेचक और आह्लादक; किन्तु पाठ-विश्लेषण करते समय उनकी कहानी का अनुशीलन श्रमसाध्य काम है; श्रमसाध्य है, इसलिए फलदायी भी। किन्तु किसी एक निबन्ध में उनकी लिखी सैकड़ा भर कहानियों पर विचार करना तो सम्भव नहीं है! इतनी मूल्य-बोधित (वैल्यू-लोडेड) कहानियों के अवगाहन के समय रत्ती भर भी चूक हुई तो कोई बड़ा-सा संकेत अलक्षित रह जाने का खतरा हरदम बना रहता है। शेष कहानियों पर विचार होना बाकी है। फिर कभी...