उड़ानों के सारांश / वंदना शुक्ला
जब से डॉक्टरों ने एस के के जीने की हद तकरीबन तय कर दी थी... “इस वक़्त से , चौबीस घंटे,चौबीस दिन या... कुछ और दिन “तब से उनके भीतर कई तरह की आवाजें उठने लगीं थीं ! कभी सिसकने जैसी, कभी सुबकने, कभी ठहाके, कभी मंत्रोच्चार तो कभी असंख्य घंटियों के स्वर... .कहीं ये आत्मा की आवाज़ तो नहीं जो अपना डेरा समेट रही थी या आत्मा के देह के घर से निकलने की अंतिम चीख?जैसे बेटी जाती हैं अपनी देहरी छोड़कर दूसरी दुनियां में?
एस के अवस्थी यानी कि सुदामा किशन अवस्थी ने ऑंखें झप झपाकर गर्दन घुमाई! नीम बेहोशी की हालत में तो ‘सब जग एक समान’पर होश में आने पर आई सी यू का यही कमरा “यातना शिविर”’ से कम नहीं लगता उन्हें !रात तो और भी खौफनाक... !.पूरे यूनिट के सन्नाटे के बीच धुंधली रोशनी में टहलती मौत की आहट,ना जाने किसके पास खट से रुक जाये,और फक्क से किसी की जिंदगी का लट्टू बुझ जाये और उसके सामने लगे मॉनीटर पर लहराती हुई नदी सी धडकनें अनायास, एक सीधी सिलेटी रेखा में जाकर डूब जाएँ ! यायावरी और फोटोग्राफी के शौक़ीन एस के की ऑंखें हमेशा खूबसूरत प्राकृतिक दृश्यों से भरी रहीं कभी गोवा का समुद्र तट, कभी नैनीताल की झील पर बोटिंग का लुत्फ़, कभी मुंबई में खंडाला,कहीं हरे भरे लहलहाते खेत की मेड और आकाश में पक्षियों की मदमस्त टोलियाँ... हजारों चित्र आँखों के कैमरों में खिंचे रहे !
शासकीय महाविद्ध्यालय में अंग्रेजी के प्रोफ़ेसर डॉक्टर एस के अवस्थी प्रकृति प्रेमी, शांत और प्रायः खुश मिजाज़ इंसान जाने जाते रहे !इसके अतिरिक्त शौकिया चित्रकारी का लुत्फ़ उठाना उनके जीवन जीने की प्रमुख शैली में से एक था, जिसकी जड़ बचपन और गांव के बीच में कहीं रही होगी !गांव में पैदा हुए ! हरे भरे खेतों के बीच खेलते कूदते बचपन बीता संभवतः प्रकृति प्रेम का पाठ वहीँ से सीखा उन्होंने !गांव में कोई अच्छा कॉलेज ना होना ही सबसे महत्वपूर्ण वजह थी उनके सपरिवार कानपुर में आ बसने की ! उसके बाद कॉलेज की पढ़ाई से लेकर नौकरी तक अब यहीं रह रहे हैं !यहाँ शहर में सर्व सुविधाओं और सम्मानजनक स्थिति में सपरिवार रहने के बावजूद वो गांव की आत्मीयता और प्रकृतिं की स्वछंदता को कभी नहीं भुला पाए !तमाम कर्तव्यों,उत्तरदायित्वों के निर्वहन के बीच भी वो समय और अवसर निकाल लेते यायावरी का !कॉलेज की हर छुट्टियों में अपना “ताम झाम “लेकर किसी पर्यटन स्थल पर चले जाते, कभी अकेले कभी पत्नी मालती के साथ !घंटों किसी नदी के किनारे,किसी चट्टान या कहीं पहाड पर बैठे प्राकृतिक द्रशों को आँखों में भरते रहते स्केच और लेंडस्केप बनाते,संस्मरण लिखते और जब बहुत भावाकुल हो जाते तो पत्नी से कहते, “मालू,प्रकृति से खूबसूरत दुनियां की कोई चीज़ हो ही नहीं सकती !... देखो कितनी शांत और हँसती खिलती हुई? पेड़ पत्तों तितली पशु पक्षियों,सूर्य उदय सूर्यास्त, मौसमों के रंग देखो सब अलग... .पतझड़, बारिश,शरद,ग्रीष्म सबके रंग अलग छटा लिए हुए... .है कहीं इतना व्यवस्थित चक्र और रंगों की विविधता मनुष्य निर्मित किसी चीज़ में?
पर पिछले कुछ दिनों से होश-बेहोशी के दरम्यान वो ऐसा दौर था जब उनकी आँखें सिर्फ काले सफ़ेद द्रश्य ही देख पा रही थीं, ऐसा उन्हें प्रतीत हो रहा था !उल्टी सीधी रेखाएं, आड़े- टेढ़े तिकोन, वृत्त, जलते बुझते लट्टू की तरह कौंधते, चुंधियाई आँखों की वही आड़ी तिरछी आकृतियाँ दृश्यों में तब्दील होती जाती, जैसे हाथ में कोई चिकित्सीय औजार लिए निकट आती सफेद झक्क कपड़ों में लिपटी वो काली साउथ इण्डियन नर्स अनायास आँखों में धुंधली होती जाती और फिर एक गहरे शून्य में कहीं खो जाती !लेकिन पिछले लगभग चौबीस घंटे के बाद ये समय आया था जब एस के यूनिट में होने वाली गतिविधियों को ठीक से महसूस कर पा रहे थे !और तभी सबसे पहले उन्होंने अपने बगल के बेड नंबर आठ के उस मरीज़ को देखा था, जो कल ही यहाँ बेहोश अवस्था में लाया गया था !पर रात होते होते उसे होश आ गया था! उसे नर्सों ने कुछ खिलाया भी था !उसकी उम्र चालीस एक साल की रही होगी ! पूरे होश में दौनों ही ना होने के बावजूद इतने जाग्रत थे कि एक दूसरे को देखकर हौले से मुस्कुरा सकें !उनके सन्नाटों के आसपास कुछ मौन शब्द उग आये थे जैसे।... लेकिन आज फिर “आठ नंबर”की तबीयत बिगड गई थी और इस वक़्त वो नर्सों और डॉक्टरों से घिरा हुआ था !एस के को महसूस हुआ कि सभी के चेहरों पर वो हडबडाहट थी जो परसों, बेड नंबर पांच के मरीज़ के मरने से पहले आ गई थी ! एस के ने वहां से मुह फेर ऑंखें बंद कर लीं !
उन्हें याद आया कि बचपन में मरने से कितना डरते थे वो!अजीब सा तो अब भी लगता है उन्हें, जब किसी की मौत की खबर सुन लेते हैं !एक घुटन सी होती है तब उन्हें ऐसा प्रतीत होता है जैसे इस ब्रम्हांड के खोल में उन्हें किसी ने जबरन बाँध रखा हो,और मरने वाला मुक्त हो गया हो इस खोल से !
एस के ने करवट बदली अचानक उन्हें लगा कि उनका गला सूख रहा है ! पर नर्सें डॉक्टर्स तो बेड नंबर आठ के उस मरते हुए आदमी को मौत के मुहं से खींच लाने की जुगत में लगे थे जिसे मौत अपने ज़बडों में दबोच वहां से भागने की फिराक में थी ! उन्होंने इधर उधर देखा !अन्य मरीज़, निस्पृह भाव से कोई सो रहा था किसी को नर्स खाना खिला रही थी,कोई दर्द से कराह रहा था और कुछ आस पडौस के बेड वाले मरीज़ मित्र- शत्रु के प्रपंच से दूर विरक्त-भाव से ऑंखें मूंदे पड़े थे तटस्थ, इस निष्ठुर दुनियां और देह से त्रस्त अपनी बारी की प्रार्थना सी करते!
प्यास से एस के का गला तड़कने लगा था पर किसी की निगाह उन तक नहीं पहुँच रही थी और ना ही कान... क्यूँ कि उनके गले से “पानी”की मरियल आवाज़ उनके खुद के कानों तक भी नहीं आ रही थी, ऐसा लगा उन्हें !उन्हें लग रहा था कि वो किसी रेगिस्तानी टीले के ऊपर खड़े हैं सामने कुछ आकृतियाँ दिख रही हैं वो चीख रहें हैं पूरे दम से, एक बेदम आवाज़ के साथ, पर आकृतियों के ना तो आँखें हैं ना कान, पर हो सकता है उनके पास अपनी कोई नदी भी हो !पपडाए होठों पर जीभ फेरते हुए उन्हें सहसा याद आई गांव की वो छत जहाँ फुफेरे चचेरे भाई सब एक साथ छत पर तारे देखते हुए तारों की कहानियाँ कहते सोया करते थे !वहीं बगल में लोहे की तिपाई के ऊपर पानी से भरा मिटटी का घड़ा रखा रहता था, कि जब बच्चों को प्यास लगे पानी पी लें, पर एस के पड़े रहते आँखें खोले और उनकी प्यास भटकती रहती घड़े के इर्द-गिर्द... वो किसी प्यासे’ के उठने की बाट जोहते रहते जो अभी उठकर घड़े में से ड्बुए से पानी भरेगा, और जैसे ही मुहं से लगायेगा, वो “भैया मुझे भी दे दो पानी “...कहकर आँखें मीढ़ते हुए उठ बैठेंगे और पानी पीकर परम संतुष्टि के भाव से लेट जायेंगे !इस भरोसे और साहस के साथ कि अमुक “भैया”जाग रहे है, उन्हें नींद आ जाती ! ये आलस नहीं था, दरअसल बगल के पंजाबी की छत पर लगा वो बिजली का खम्भा जिस के नीचे पंजाबी का बाप मरने के बाद रोज आकर बैठ जाता था और खम्भे से टिका खैनी हथेलियों पे घिस फांकता रहता या बीडी पीता रहता... ये एक पौराणिक कहनी थी जिसे सुनकर एस के के पिता कैलाश नारायण अवस्थी भी डरते डरते ही बड़े हुए थे !
“अब पी सकते हो तुम पानी दक्षिण भारतीय काली नर्स ने उनसे कहा... .”पानी चाहिए”दोहराते हुए उन्हें लगा जैसे शरीर के मरने से पहले उनकी आवाज़ मरने लगी है, तो क्या उनकी आत्मा आवाज़ के रस्ते निकल रही थी शरीर से धीरे धीरे?उनकी पिंजर देह एक बारको काँप गई!उन्हें याद आई दादी की वो बात उन्होंने बताया था कि... “.जब आदमी मरता है तो आत्मा रस्ता ढूंढती है निकलने का कभी मुहं कभी आँखों के रस्ते! उन्हें याद है, उन्हीं दादी की आत्मा पक्का आँखों में से निकली थी क्यूँ कि उनकी ऑंखें बंद किये बिना उड़ गई थी वो ना जाने कहाँ? दादी ने ही बूढ़े राक्षस की जान तोते में रखे होने की बात भी बताई थी ! अचानक उन्हें लगने लगा कि शरीर पर काले काले धब्बों में चींटियों के हुजूम उन्हें घसीटे ले जा रहे हैं और वो प्रतिरोध भी नहीं कर पा रहे !
नर्स बेड के पायताने लगी घिर्री को घुमा रही थी तो पलंग झूले सा ऊपर उठने लगा उसके संग संग एस के का सिर वाला ऊपरी हिस्सा भी उठ गया नर्स ने पानी का कप एस के के मुहं से लगा दिया... जितना पानी पिया वो तो पता नहीं चला पर जितना गिरा होठों के सिरों से होते हुए गले को भिगाता कमीज़ तक एस के को उसका गीलापन भीतर तक भिगो गया जब नर्स ने उन्हें बच्चों की तरह प्यार से डाँटते हुए “गिरा दिया ना कपड़ों पे पानी”कहा और अपने कंधे पर टंगे सफ़ेद छोटे टॉवेल से उनके गीले होठ पोंछने लगी !अम्मा सहसा खड़ी हो गईं पलंग के पास आकर मसालों की गंध से गंधाते पल्लू से उनका मुहं पोंछते हुए बोलीं “अरे लाला, इतेक बड़े है गए पांच बरस के, पर पानी पीनो ना आयों तोये अबये लौं लारी लगानी पडेहे “...अम्मा झिडकी दे रहीं थीं... !बालक बस हँस रहा था अम्मा की झिडकी पर और अम्मा को तो निहाल हो जाने का बहाना चाहिए फकत !एस के के पपडाए होठों पर हलकी सी मुस्कराहट की लकीर खिंच गई अब अम्मा के पास ही तो जाने वाले है वो?सहसा उन्हें अजीब अलौकिक सी अनुभूति होने लगी अम्मा से मिलने की खुशी मालती भी तो मिलेगी वहीँ... पर दुनियां,बब्बन, घर, नाती पोतों को छोड़कर कैसे जा सकते हैं वो विशेषतः बब्बन को सबसे छोटा बेटा... सबसे लाडला !
अभी तो रिटायरमेंट में भी ठीक तीन महीने बचे थे... कितनी योजनाएं बनाकर भविष्य के बक्से में रख ली थीं उन्होंने आंत के केंसर का पता लगने के पहले !कार्यकाल के तीन महीने समाप्त होते ही उन्होंने अपना और बब्बन का गोवा का रिजर्वेशन करा लिया था उन्हें गोवा बहुत पसंद है इस बार बब्बन को भी ले जाने से बहुत उत्साहित थे वो! अच्छी भली किसी सुपरफास्ट ट्रेन की रफ़्तार से चलती ज़िंदगी में अचानक इस बीमारी ने ब्रेक दबा दिया था जैसे,और दौडती हुई ट्रेन जोरदार झटके के साथ जहां की तहां रुक गई थी !चारों ओर जंगल ही जंगल वीरान... और कुछ नहीं... बस वो और बब्बन !
दीवार घड़ी पर निगाह पडी... रात के सवा बारह बजे थे !सामने की बड़ी मेज़ के पास दो नर्सें फाइलों में सिर घुसाये हुए बैठी थीं !वो उनींदी थीं और बार बार जम्हाई ले रही थीं ! कुछ नर्सें किसी मरीज़ का ब्लड प्रेशर,बुखार आदि चेक कर रही थीं !डॉक्टरों नर्सों की हलकी सी पदचाप के अलावा यहाँ डरावनी शांति बिखरी हुई थी !एस के को लग रहा था कि वो आज अध् होश में नहीं बल्कि पूरी तरह सचेत हैं, और इस दमघोंट वातावरण के बीच भी खुशी में लिपटी आशा की एक महीन सी रेखा उनके होठों पर तैर गई थी !काश दो साल वाली डॉक्टर मनीष की बात सच हो जाये...दो साल का किस्सा ये है कि एक दिन एस के को यूँ ही खुश देख राउंड लेने आये डॉक्टर मनीष ने कहा था”गुड...इसी तरह हँसते रहो देखो पॉजिटिव सोचोगे तो दो साल या उससे ज्यादा भी जी सकते हो नथिंग इज इम्पोसिबल...... !”तब एस के को भी लगा था कि... तब तक तो दुनियां जीत लेंगे वो..! दो घंटे जीने की आशा वाले आदमी को यदि दो साल मिल जाएँ तो?... . !पर तभी उनके सामने बब्बन की याद चिंता बनकर आ खड़ी हुई!वो विचलित हो उठे !बब्बन, जो बगल वाले हौल में “आई सी यू “ में भरती मरीजों के रिश्तेदारों के साथ सो रहा होगा... . नहीं शायद जाग रहा होगा... . या शायद उन रिश्तेदारों के साथ उनके मरने की प्रतीक्षा कर रहा होगा !.चिंता की कई नोकें निकल आई थीं जैसे।
..बब्बन सबसे छोटा बीस बरस का है दोनो बेटों और बेटी से छोटा और सबसे संवेदन शील! दौनों बेटे तो अपने परिवारों के साथ विदेश में है लड़की कलकत्ते में !आकर देख भी गए हैं बाप को, सिर पर हाथ फेरकर “पापा किसी बात की फ़िक्र मत करना जितने पैसे की ज़रूरत हो बताना “ दो एक हफ्ते रहकर अपने अपने कर्तव्य निभा वापस अपने अपने घर चले गए हैं .किसी को नौकरी से छुट्टी नहीं थी किसी के बच्चों के एग्जाम्स थे !सही तो है... कोई रहे भी तो कितना?”काम ही खतम “हो गया होता तो सब ‘निपटा निपटू’ के निश्चिन्त हो चले जाते पर कितना इंतज़ार करे भला कोई मौत का... .मौत की कोई डेड लाईन होती है क्या?
एस के की आँखों के आगे अँधेरा सा छाने लगा... बब्बन के बारे में जब भी सोचते हैं वो ऐसा ही अँधेरा घिर जाता है आँखों में !पत्नी मालती तो तीन बरस पहले “सबकी जिम्मेदारी एस के के सिर छोड़कर चली गई गैर जिम्मेदारों की तरह दुनियां से... . .वो और बब्बन ही तो रह गए अकेले डेड अरब के इस देश में एक दूसरे का आसरा !
ऑंखें ज्यूँ ज्यूँ मिंच रही थीं उनका शरीर वैसे वैसे ऊपर उठ रहा था... . नहीं ऊपर नहीं शायद पलंग पर बैठ गया था पैर लटकाकर... अब वो उतर रहा था धीरे धीरे बिस्तर से! नर्सें डॉक्टर अपनी अपनी डियूटी में व्यस्त थे !नंगे पैर ही वो आहिस्ता आहिस्ता पैर के बल देह घसीटते हुए बगल के कमरे की ओर जा रहे थे...उनकी जीर्नकाय देह जैसे धरती पर लहराती खुद ब खुद चली जा रही थी !जतन-हीन...!ठीक वैसे ही जैसे आज से बीस दिन पहले फिफ्टी फिफ्टी परसेंट जीने मरने की उम्मीद के साथ किये गए ऑपरेशन के वक़्त एस के की नज़रें ऑपरेशन थियेटर में स्ट्रेचर पर जाते वक़्त उदास रुआंसे कोने में खड़े बब्बन पर ठहर गई थीं जो उन्हें ऑपरेशन थियेटर में घुसते हुए बाहर खड़ा निरीह असहाय नज़रों से देख रहा था !अचानक एस के की आँखें लौटते हुए बब्बन की पीठ में चिप की तरह धंस गई थीं और वो स्पष्ट देख और सुन पा रहे थे उस डॉक्टर को जो बब्बन को दसवीं मंजिल के उस प्राईवेट रूम में जाने की हिदायत दे रहा था और ना जाने के संकट भी गिना रहा था !” यू कांट सिट हेअर बॉय,यू विल हेव टू गो टू यौर प्राईवेट रूम... .ऑन टेंथ फ्लोर...ऑपरेशन के दौरान कोई इमरजेंसी होती है तो हम कौल कर देंगे नर्सेज रूम में... तब तुम आ जाना... !”बब्बन के साथ एस के की ऑंखें भी लिफ्ट से दसवें फ्लोर पर आ गई थीं !बब्बन पहले से रिज़र्व्ड प्राईवेट रूम में ना जाकर नर्सों के कमरे की बाहर वाली काली पुती बेंच पर निढाल सा बैठ गया !उसे नहीं मालूम कि कैसे उसकी ना जाने कितने दिनों की जगार वाली आँखों में झपकी लग गई थी,गहरा सुकून मिला उसे अरसे बाद !पर नींद जल्दी ही उचट गई !बावजूद खुद को फ्रेश महसूस करने के उसे आश्चर्य हो रहा था कि इतने दिन की जगार के बाद आज एन ऑपरेशन के वक़्त उसकी झपकी कैसे लग गई?...
वह बैठा था ठीक सामने हंसती मुस्कुराती चुहल करती नर्सों के कमरे के आगे !उसने घड़ी देखी और अंदाज़ लगाया, ऑपरेशन को पांच घंटे पूरे होने वाले थे !यही अवधि तो दी थी डॉक्टरों ने ऑपरेशन पूरे हो जाने की, लेकिन जब समय पांच घंटे की पूर्व घोषित अवधि से आगे सरकने लगा तो बब्बन की धडकनें बढ़ने लगीं !इस बीच दो बार वो नर्सों से “कोई मेसेज आने”की बात पूछ आया था, उनमे से एक नर्स ने बातचीत की लड़ टूट जाने पर खीजते हुए से उत्तर दिया था “अरे बाबा ऑपरेशन थियेटर से कोई कौल आयेगा तो बताएगी ना काहे को हलाकान होता है रे...”.और फिर बातचीत में मशगूल हो गई थीं !वो अपनी तमाम दुश्चिंताओं, आशंकाओं को विवशता की पोटली में समेट फिर बैठ गया था उस बेंच पर !अब “इमरजेंसी “की घंटी की प्रतीक्षा करने के अलावा उसके पास कोई उपाय नहीं बचा था .!अतिरिक्त के दो घंटे, “बाद” के इंतजामों की उधेड़ बुन में बीते थे उसके ! सब जानते थे, कि ऑपरेशन मरते मरीज़ को आखिरी दम तक बचाने की एक कोशिश भर था.कामियाब या नाकामियाब, सब किस्मत की पोटली में बंद... .ज़िंदगी और मौत की छिया- छाई चल रही थी कभी मौत जीवन के आगे कभी जीवन आगे मौत पीछे... परिणाम तो सब जानते थे...पर ऑपरेशन सक्सेज्फुल होते ही मौत काली बिल्ली की तरह कोने में फिर घात लगाकर बैठ गई थी...दो कदम पीछे जाकर !हालाकि अस्पताल से छुट्टी नहीं मिली थी एस के को उस ऑपरेशन के बाद, लेकिन इतने दिन आई सी यू के “मृत्यु शिविर”में रहने के बाद प्राईवेट वॉर्ड में शिफ्ट होना उनके लिए ख्वाब से कम ना था अपने “घर” वापस लौट आने की नाउम्मीदी के बाद वापस लौट आने जैसा! बाप बेटे ने कितने दिनों बाद एक दूसरे को मुस्कुराते हुए देखा था !बिना कुछ कहे दौनों मुस्कुराते रहे थे एक दूसरे को देखकर!बेटे को सीने से लगाने का मन होने लगा था एस के का! पिछले एक महीने में अचानक कितना बड़ा हो गया था बब्बन?दोनो के चेहरों पर एक अप्रत्याशित जीत की निःशब्द खुशी खिल गई थी !लेकिन खुशी ज्यादा दिन नहीं टिकी हमेशा की तरह बस बहलाकर तब चली गई जब दुबारा एस के की तबीयत बिगड गई और फिर से उन्हें आई सी यू में भरती करना पड़ा ! डॉक्टर सुबह शाम राउंड पर आते, “हौसला रखो... जिंदगी उम्मीद का नाम ही है”कंधे पर हाथ रख रटे रटाये शब्दों का एक फीका सा नाउम्मीद हौसला देकर अपनी डयूटी का एक हिस्सा पूरा करते !
फिर बब्बन की याद उन्हें कचोटने लगी याद जो अब चिंता बनकर सताने लगती थी चाहे जब...! वैसे भी बस दिन में एक या दो बार बब्बन का चेहरा देख पाते वो,वो भी सिर्फ दो तीन मिनिट के लिए, इससे ज्यादा आई सी यू में रुकने की किसी भी विजिटर को अनुमति नहीं थी !व्यक्ति के अंतिम कुछ इने गिने पलों में उनके अपनों से मिलने की ये समय सीमा उन्हें बहुत खलती ! आज सुबह बब्बन आया क्यूँ नहीं?कहीं बीमार तो नहीं? आँखों के आगे फिर अँधेरे घिरने लगे !
उन्हें लगा कि कॉरिडोर में वो अपने पैरों पर नहीं चल रहे बल्कि हवा में उड़ रहे हैं ! कुछ भी हो कम से कम व्हील चेयर की परतंत्रता से मुक्ति तो मिली यही सोच कर वो खुश थे !अब वो बगल के कमरे के सामने खड़े थे अपने खुद के पैरों पर... कितने दिन बाद याद नहीं !जिसके ऊपर बड़े बड़े अक्षरों में “आई सी यू विजिटर्स रूम”लिखा हुआ था !वे उसके अध् बंद दरवाज़े के सामने जाकर रुक गए !कमरे में हलकी पीली रौशनी फैली हुई थी उसी रोशनी के नीचे एक लाईन में बिछी दस बेंचों जिन पर गद्देदार हरी रेग्जीन बिछी थी पर आई सी यू में भरती मरीजों का एक एक रिश्तेदार कोई लेटा, कोई बैठा कोई आपस में बातें कर रहा था !पूरे कमरे में एक चीखती हुई उदासी पसरी थी पीले बल्ब की बीमार रौशनी में कुछ आकृतियाँ सुस्त सी इधर उधर घूम रही थीं पीली मटमैली दीवार पर टंगी पुरानी घडी के पेंडुलम की खट खट जैसे मौत के साथ कदमताल कर रही थी !ना जाने कितनी मौन चीखों की गवाह... ! पर एस के की निगाहें उनमे बब्बन को खोज रही थीं !वो दरवाज़े पर खड़े हो धुंधलाई रोशनी और डूबती निगाहों से हर बेंच का मुआयना कर रहे थे अचानक उनकी नज़र अंतिम से दूसरी बेंच पर पडी जिस पर बड़े आकार में बेड नंबर 9 लिखा हुआ था..एस के को याद आया आई सी यू में उनका बेड नंबर भी तो नौ ही है ! उसी बेड नंबर नौ के ठीक .नीचे वाली बेंच पर रोशनी का एक चौकोर टुकड़ा पसरा था जिसके बीच में एक धुंधली सी दुबली पतली आकृति ठुड्डी पे हाथ रखकर सिमटी हुई सी बैठी हुई थी !एस के धीरे धीरे घिसटते हुए बेड नंबर नौ तक पहुँच गए ! वो बब्बन ही था !वो बब्बन की बगल में बैठ गए, इतने निकट कि उसकी उदासी और चिंता की सांसें एस के के जिस्म में उतरने लगीं !कमरे में धुंधली सी रोशनी थी उस पीले लट्टू की जो बब्बन के सामने वाली बड़ी दीवार पर उदास विरक्त- सा जल रहा था !जिसके ऊपर एक हरी बत्ती भी लगी थी जो अनायास सायरन में तब्दील हो जाती... जब भी माईक से भयानक सी आवाज़ तैरती “बेड नंबर फलां फलां के रिलेटिव प्लीज़ आई सी यू में आयें...इमरजेंसी कॉलिंग... .”उसके साथ ही वो हरी बत्ती बहराई सी जलने बुझने लगती और उस बेड नंबर का संबंधी बदहवास सा दौड़ता आई सी यू की तरफ !..
.कुछ देर एस के उदास और पनीली आँखों से बब्बन के मुरझाये दुबले चेहरे को देखते रहे ! !कहना चाहते थे कि आदमी की जिंदगी तो आनी जानी ही हैं बेटा... आज नहीं तो कल सभी को प्रस्थान करना ही है इस झूठे संसार से, इसलिए दुखी मत हो..बब्बन बिलकुल अकेला रह गया है उसे जीवन का कोई अनुभव भी नहीं इसलिए .पूछना चाहते थे एस के बेटे से कि पी एफ लोन का कितना पैसा खत्म हो गया कितना बचा है?पिछले कुछ दिनों से वो दौनों ही तो घर का हिसाब किताब रखते थे, पर बब्बन अभी भी कच्चा और लापरवाह था हिसाब किताब में इस बात पर कभी कभी नाराज़ भी होते एस के, ! ये भी पूछना चाहते थे बेटे से, कि तुमने आगे की कुछ व्यवस्थाएं सोची हैं क्या?तुम्हारी नई नई नौकरी मेरी बीमारी की बलि तो नहीं चढ गई?पर...... . !तभी हरी लाईट के साथ सायरन चीखने लगा “बेड नंबर नौ के रिश्तेदार के लिए इमरजेंसी कॉलिंग... प्लीज़ कम इमीजियेटली इन द आई सी यू... . .बब्बन की दुबली पतली काया में अचानक भूचाल आ गया... .वो बदहवास दौड़ता हुआ वहां से चला गया !वहां उपस्थित अन्य लोगों के अंदेशों को चीरता हुआ !एस के अब भी वहां बैठे थे निस्पृह तटस्थ निरीह और हारे हुए !...