उड़ान / रूपसिंह चंदेल

Gadya Kosh से
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मैं उसे पहचान नहीं पाया। स्वप्न में भी कल्पना न की थी कि एक दिन वह मेरे समक्ष इस रूप में उपस्थित होगी। मन-मस्तिष्क में उसकी वही पुरानी छवि विद्यमान रही थी इतने दिनों। नितम्बों तक लहराते घने काले बाल थे उसके। बालों को वह कभी न बांधती... खुला रखती, जो उसकी पीठ पर छाये रहते । नपे-तुले, लेकिन तेज़ क़दमों से जब वह चलती तब साड़ी पर अठखेलियाँ करते बाल उसके व्यक्तित्व को और अधिक आकर्षक बनाते। पाँच फुट तीन इंच की लम्बाई, सुता हुआ गोरा-सुघड़ चेहरा, नोकीली नाक, चमकदार तेज़ हिरणी-सी आँखें, ऊँचा ललाट और उस पर बालों का वितान-- कोई भी उसे एक बार देखने के बाद दोबारा देखना चाहता। पहली बार जब मैं मिला, उसे बार-बार देखने की उत्सुकता रोक नहीं पाया था। वह भी इस ओर सचेत रहती और शायद आनंदित भी होती कि उस पर कितने लोगों की नज़रें टिकी हुई हैं।

वह क्लर्क थी और विश्वविद्यालय प्रशासन ने उसे हमारे कार्यालय में नियुक्त किया था। छोटा-सा दफ़्तर-- केवल आठ लोग, जिनमें एक डिप्टी लाइब्रेरियन, एक सेक्शन आफ़ीसर, एक कैशियर, एक क्लर्क और शेष हम चार सहायक थे जो लाइब्रेरी की प्रशासनिक-व्यवस्था देखते थे । डिप्टी लाइब्रेरियन आनन्द मोहन का कमरा हमारे हॉल के साथ था। यह एक छोटा हॉल था, जिसमें सेक्शन ऑफ़िसर सहित हम सात लोग बैठते थे । दीवारों के साथ पाँच अलमारियाँ रखी हुई थीं, जिनके कारण हॉल का बड़ा भाग घिरा हुआ था। इन अलमारियों के पेट में लाइब्रेरी-प्रशासन सम्बन्धी फाइलें समाई हुई थीं । सेक्शन आफ़ीसर पी. स्वामीनाथन की कुर्सी-मेज़ का रुख़ डिप्टी लाइब्रेरियन के कमरे की ओर था अर्थात् दक्षिण दिशा की ओर, जबकि हम शेष छह का रुख़ हॉल के मुख्य-द्वार की ओर था, जो पश्चिम की ओर था। हॉल के बाद एक बड़ी-सी लॉबी थी। लॉबी के दूसरी ओर लाइब्रेरियन प्रो.महेन्द्र प्रकाश का चैम्बर था, जिसका दरवाज़ा ठीक हॉल के दरवाज़े के सामने था। हॉल का दरवाज़ा सदैव खुला रहता था और पर्दा न पड़े होने के कारण प्रो. प्रकाश के कमरे में आने-जाने वाले लोगों की दृष्टि स्वत: हॉल में बैठे लोगों पर पड़ती रहती थी। दरवाज़ा प्रो. प्रकाश के चैम्बर का भी पूरे समय खुला रहता था, लेकिन उस पर एक ऐसा पर्दा डाल दिया गया था जिससे प्रो. प्रकाश तो हॉल की समस्त गतिविधियों का जायजा लेते रहते थे, लेकिन हॉल के लोग पर्दे के उस पार प्रो. प्रकाश की झलक तक नहीं देख पाते थे।


प्रो. प्रकाश ठीक दरवाज़े के सामने बड़ी-सी मेज़ पर बैठते थे और जब भी कोई कर्मचारी या चपरासी पर्दा हटाकर अंदर प्रवेश करता, तभी हॉल के लोगों को प्रो. प्रकाश की आधी-अधूरी छवि या मेज़ का एक कोना या मेज़ के सामने रखे रैक पर सजी पुस्तकों की झलक मिल पाती। स्वामीनाथन ने उसे प्रवेश-द्वार के ठीक सामने की उस मेज़ पर हम सबके आगे बैठा दिया, जिस पर केवल मखीजा बैठता था । मखीजा हेडक्लर्क होकर फिजिक्स विभाग में स्थानांतरित हो गया था।

यह उसका पहला दिन था। मेज पर रखे खटारा रेमिंग्टन टाईपराइटर पर बैठते ही उसने अपनी उंगलियाँ उस पर आजमाई थीं। जब उसने सधे हाथों धीरे-धीरे किट-किट की आवाज़ की तो हम सभी की आँखें उस ओर उठ गई थीं। पतली, लम्बी-सीधी-सुन्दर और कोमल उसकी उंगलियों को मैं देर तक निहारता रहा था, जो एक-एक अक्षर पर यों पड़ रही थीं मानो कोई अनाड़ी शौकिया टाईपराइटर चला रहा हो । तभी लम्बे डग भरता स्वामिनाथन लाइब्रेरियन के कमरे से प्रकट हुआ था। उसे देखते ही उसने कहा था-- सर, इस टाईपराइटर पर काम करना बहुत मुश्किल होगा।

-- वॉट? -हाथ में पकड़ी फ़ाइल को मेज पर रखते हुए स्वामीनाथन बोला ।

-- जी सर।

-- ओ.के.।

क्षण भर तक स्वामीनाथन झुक कर फ़ाइल पर कुछ लिखता रहा, फिर बोला-- हाँ, आपका मुलाकात डिप्टी सर से हो गया?

-- नहीं सर! -वह अपना छोटा-सा पर्स झुलाती उठ खड़ी हुई।

-- ओ.के.। -स्वामीनाथन ने फ़ाइल से कोई पेपर निकाला और 'चलिए' कहता हुआ डिप्टी लाइब्रेरियन आनंद मोहन के कमरे की ओर बढ़ा। वह स्वामीनाथन के पीछे डिप्टी के कमरे में चली गई। वहाँ से कुछ देर बाद निकल कर स्वामीनाथन उसे प्रो. महेन्द्र प्रकाश से मिलवाने ले गया।

आराधना, जी हाँ, उसका नाम आराधना सक्सेना था, के ज्वाइन करने के दूसरे दिन हॉल में हम लोगों के बैठने की व्यवस्था बदल दी गई थी। पहले हमारी मेज़ों की दो कतारें थीं और हम एक-दूसरे के पीछे बैठते थे। हमारे रुख़ हॉल के दरवाज़े की ओर होते थे। लेकिन अब हम पाँच की मेज़ों को आमने-सामने रख दिया गया था। अब हमारे चेहरे एक-दूसरे के आमने-सामने थे। स्वामीनाथन और आराधना की सीटों की व्यवस्था पहले जैसी ही रही थी अर्थात् स्वामीनाथन का रुख़ डिप्टी के दरवाज़े की ओर था, जबकि आराधना का रुख़ हॉल के दरवाज़े की ओर था। सप्ताह बीतते न बीतते दो और बातें घटित हुईं। आराधना की मेज पर नया टाइपराइटर आ गया था, जिसके लिए मखीजा सालों से अपना सिर पीटता रहा था, लेकिन उसे केवल यही कहा जाता रहा था कि अभी बजट नहीं है... इस वर्ष के बजट में ले देगें... इस वर्ष नहीं ले पाये... सप्लीमेंटरी बजट में... और इस प्रकार मखीजा पाँच वर्ष तक खटारा टाइप राइटर पर उंगलियाँ दुखाता चला गया था।

दूसरा परिवर्तन जो देखने में आया वह आश्चर्यजनक था। महेन्द्र प्रकाश के चैम्बर के दरवाज़े का पर्दा अब खुला रहने लगा था। अब हम पर वह सीधे नज़रें रख रहा था। स्वामीनाथन की सीट दरवाज़े की ओट में थी और वह उसकी नज़रों से बचा रहता था। महेन्द्र प्रकाश के पी.ए. का कमरा लॉबी में सीढ़ियों के ठीक सामने और डिप्टी के कमरे के पीछे था । दरअसल वह दस बाई दस का कमरा प्लाई से घेरकर बनाया गया था, जिसमें महेन्द्र प्रकाश से मिलने आने वाले लोगों की प्रतीक्षा के लिए सोफ़ा भी पड़ा हुआ था ।

महेन्द्र प्रकाश के चैम्बर के दरवाज़े से पर्दा हटवा देने के विषय में हम चर्चा करने लगे थे कि उसने हम पर नज़र रखने के लिए ऐसा किया होगा। महेन्द्र प्रकाश यहाँ लाइब्रेरियन बनकर आने से पूर्व सागर विश्वविद्यालय में लाइब्रेरी विभाग में प्रोफ़ेसर था। यहाँ आने के बाद प्रारम्भिक कुछ वर्षों तक हम उसकी शक्ल देखने को भी तरसते थे, बावजूद इसके कि हम सीधे उसके अधीन थे। तब हमारे हॉल का दरवाज़ा भी बंद रहता था और प्रो.प्रकाश के चैम्बर का भी। लेकिन धीरे-धीरे स्थितियाँ बदलती गईं। नये लाइब्रेरियन का भय जाता रहा और हमारे हॉल का दरवाज़ा खुला रहने लगा था, लेकिन महेन्द्र प्रकाश का तब भी बंद रहता था। दरवाज़े पर एक चपरासी तैनात रहता था, जो किसी के अंदर जाते ही लाल-बत्ती जला दिया करता और बाहर निकलते ही हरी कर देता था। लेकिन कभी-कभी कोई अंदर न भी होता तब भी बत्ती लाल होती। तब हम लोग अनुमान लगाते कि प्रोफ़ेसर साहब आराम फ़रमा रहे होगें। चैम्बर की बत्ती लाल हो या हरी पी.ए. को दरवाज़ा नॉक करके ही जाना होता था। हम प्राय: पी.ए. को चैम्बर के दरवाज़े पर नोटबुक थामे खड़ी देखते। वह लगभग चालीस वर्षीया दुबली-पतली चपटे गालों वाली एक सूखी-सी महिला थी, जिसके चेहरे पर हर समय परेशानी झलकती रहती थी।

कुछ वर्षों बाद विश्वविद्यालय प्रशासन ने प्रोफ़ेसर के पास से चपरासी हटा लिया था या स्वयं प्रोफ़ेसर ने हटवा दिया था। उसके कुछ दिनों बाद चैम्बर का दरवाज़ा खुला रहने लगा था, लेकिन उस पर पर्दे अवश्य लटके रहते, जिन्हें सुबह आते ही स्वामीनाथन चुस्त-दुरस्त किया करता था।

अब वे पर्दे दरवाज़े के साथ सिकुडे हुए टंगे रहने लगे थे।

आराधना को मैं पहचान नहीं पाया। उसका सौंदर्य व्यतीत की बात हो चुकी थी। पत्र-विहीन पुराने दरख्त की भांति वह सामने थी। आँखों के नीचे गहरे नीले धब्बे, सूखा-सिकुड़ा चेहरा, पिचका शरीर, धूसर-सीमित छोटे बाल... मैं कैसे पहचान सकता था! कभी विश्वविद्यालय कर्मचारियों में अपने सौदर्य के लिए चर्चित रही कोई युवती बावन वसंत में इतना ढल-गल जाएगी,सोचा भी नहीं जा सकता था। तब वह कैसी-भी बदरंग साड़ी पहनती, (वह सदैव साड़ी में ही दफ्तर आती थी... और नई और महंगी साड़ियाँ ही पहनती थी) उसके बदन पर निखर उठती। लेकिन उस दिन महंगी और सुन्दर साड़ी यों लग रही थी मानो करील के सूखे पेड़ पर उसे लटका दिया गया था।

जब उसने लाइब्रेरी में ज्वाइन किया था, कर्मचारी किसी न किसी बहाने हमारे यहाँ आने लगे थे, युवाओं से लेकर प्रौढ़ तक। कुछ युवा, जो प्राय: विलम्ब से दफ़्तर आते थे, आराधना से पहले आने लगे थे और लाइब्रेरी के गेट पर बेकली से खड़े रहने लगे थे केवल उसकी एक झलक पाने के लिए... दो शब्द बतिया लेने के लिए... कुछ नहीं तो अपने गुडमॉर्निंग का जवाब सुनने के लिए। उनमें एक था गुलशन कुमार। गुलशन प्रोफ़ेशनल असिस्टैण्ट था। उम्र कोई बत्तीस वर्ष। सामान्य कद-काठी। एम.लिब था। पी-एच.डी. के लिए प्रयत्नशील था और यह आशा करता था कि जब भी असिस्टैण्ट-लाइब्रेरियन बनेगा, तभी शादी करेगा। लेकिन प्रशासन पदोन्नति टालता जा रहा था। और अब आराधना को देख उसे अपना संकल्प टूटता दिखाई दे रहा था। वह उसके विषय में अधिक सोचने लगा था गुलशन उन लोगों में शामिल हो गया जो उसकी प्रतीक्षा गेट के पास खड़े होकर करते थे। लेकिन वह दूसरों से हटकर खड़ा होता और आराधना को आता देख उसकी ओर धीरे-धीरे चल पड़ता और निकट पहुँचकर मुस्कराते हुए गुड मार्निंग कर बस-स्टैण्ड की ओर चला जाता, जहाँ पेड़ के नीचे चाय की दुकान जमाए हरेराम की चाय पीकर लौटता। तब तक आराधना की प्रतीक्षा में खड़े दूसरे युवा कर्मचारी जा चुके होते थे।

गुलशन दिन में एक-दो बार हमारे यहाँ किसी न किसी बहाने आने लगा था। आते ही वह स्वामीनाथन को प्रसन्न करने वाले अंदाज में बातें करता, आराधना से मुस्कारा कर हलो करता, फिर हम में से किसी के पास बैठ जाता और पाँच-दस मिनट इधर-उधर की बातें करता रहता। दूसरे लोग आते, लेकिन वे केवल ताक-झांक कर चले जाया करते थे। यह तब की बात थी जब प्रो.महेन्द्र प्रकाश के चैम्बर पर पर्दा पड़ा रहता था।

एक दिन स्वामीनाथन ने हम लोगों से पूछा-- ये गुलशन साहब डेली यहाँ क्या करने आता है?

-- पता नहीं साहब। -हम में से एक बोला ।

-- पता करना माँगता... आख़िर ये एडमिन-सेक्शन है । बड़ा साहब को पता चलेगा तो...। -स्वामीनाथन आगे कुछ कहता उससे पहले हमारा सहयोगी महेश कुमार बोला-- सर, बुरा न मानें तो मैं कुछ कहूँ।

-- बुरा क्या... क्या कहना मांगता? -स्वामीनाथन बोला।

-- सर, आप नहीं... मैडम बुरा न मानें।

-- मैडम... मैडम... ओह!.. । -स्वामीनाथन को समझ आया, वह आराधना की ओर देखने लगा।

-- मुझे क्यों बुरा लगेगा? -आराधना बोली।

-- सुनिये सर! -महेश बोला-- गुलशन साहब मैडम की ही बिरादरी के हैं और अभी तक बैचलर हैं, सर!

-- सो व्वॉट? -आराधना चौंकी-- आपका मतलब...?

-- मैनें कहा था न कि मैडम बुरा मान जाएंगी... मेरा मतलब... । -महेश ने बात सम्भालने की कोशिश की।

-- महेश जी... मैंने बुरा नहीं माना क्योंकि मैं आपकी बात समझी ही नहीं।

-- इसमें समझाना क्या, आराधना जी? जहाँ तक मैंने समझा है वे आपसे शादी का प्रस्ताव करना चाहते हैं, लेकिन...।

-- मुझसे शादी का प्रस्ताव... वह हैं क्या? क्लर्क...।

-- क्लर्क नहीं मैडम... पी.ए. हैं । पी.जे. बन जाएंगे... असिस्टैण्ट लाइब्रेरियन... कभी लाइब्रेरियन भी बन सकते हैं।

-- आज क्या हैं? -आराधना के स्वर में व्यंग्य था-- मैं किसी बाबू से शादी करने के लिए नहीं जन्मी...। फिर क्षण भर चुप रहकर वह बोली-- तो यह बात है!

हॉल में सन्नाटा छा गया था। आराधना बाहर चली गई थी। हमें लगा वह शायद गुलशन से लड़ने गयी होगी। लेकिन वह महेन्द्र प्रकाश के पी.ए. के कमरे में जा बैठी थी। उसके जाने के बाद स्वामीनाथन बोला था-- महेश, गुलशन को बोल दो... इधर आना नहीं मांगता। जो बोलना है बाहर ही बोले... बेटर है, आराधना के माँ-बाप को बोले।

गुलशन से महेश ने कहा या किसी अन्य ने या उसने स्वयं सोचा लेकिन उसने न केवल हमारे यहाँ आना छोड़ दिया, बल्कि आराधना के सामने पड़ना भी छोड़ दिया। उसी ने नहीं, बल्कि दूसरों ने भी अपने को समेट लिया था और पूरे विश्वविद्यालय में यह बात चर्चा का विषय बन गई थी कि आराधना सक्सेना ने गुलशन कुमार को रिजेक्ट कर दिया था। और यह कि उसका ख्वाब किसी ऊँचे पद वाले के साथ ही शादी करने का है।

शादी के लिए ऊँचे पद वाला कोई आराधना को नहीं मिला। लेकिन ऊँचे पद का विचार वह कभी त्याग नहीं पायी। वह एक ग्रंथि के रूप में उसके अंदर जड़ें जमा चुका था। और यह ग्रंथि ही थी जो उसे प्रो.प्रकाश के निकट खींच ले गई थी। प्रो. प्रकाश जब-तब उसे बुलाने लगे थे। हम ने तब अनुमान लगाया था कि शायद उसके कारण ही प्रो.प्रकाश के चैम्बर के दरवाज़े का परदा हटा था, न कि हम पर नज़रें रखने के लिए। आराधना की मेज प्रो.प्रकाश की मेज के ठीक सामने थी और दोनों के चेहरे एक-दूसरे के आमने-सामने। लगभग चार महीने बीतने के बाद आराधना की सीट प्रो. प्रकाश के आदेश पर स्वामीनाथन ने पी.ए. के कमरे में वहाँ पड़े सोफ़े हटवा कर लगवा दी थी। अतिथियों के लिए केवल दो कुर्सियाँ वहाँ डाल दी गई थीं। अब प्रो.प्रकाश के चैम्बर का दरवाज़ा पुन: बंद रहने लगा था और बत्ती लाल-हरी होने का सिलसिला प्रारम्भ हो चुका था । लेकिन अब इस व्यवस्था की ज़िम्मेदारी स्वयं प्रो.प्रकाश ने सम्भाल ली थी । दोनों बत्तियों के स्विच उनकी मेज़ पर स्वामीनाथन ने फ़िट करवा दिये थे । अब प्रो. प्रकाश अपनी पी.ए. के स्थान पर आराधना को ही चैम्बर में बुलाते थे। पी. ए. केवल टेलीफ़ोन सुनती थी या टाईपिंग करती थी। जब भी आराधना प्रो. प्रकाश के चैम्बर में होती, बत्ती लाल रहती थी और आधा घंटा से पहले शायद ही कभी वह हरी होती।

विभाग के कर्मचारियों के कान खड़े हो चुके थे और उनकी नाकें लम्बी होने लगी थीं। एक दिन मैनें एक को गुलशन कुमार से कहते सुना-- बॉस, लगता है आप अभी भी उसकी माला जपे जा रहे हो?

-- मैं समझा नहीं । -गुलशन ने भोलेपन से अनभिज्ञता प्रदर्शित की थी।

-- छोड़ भी, यार, उसे... उसके बारे में अब क्या सोचना...?

-- किसकी बात कर रहा है तू...? -गुलशन वास्तव में ही नहीं समझा पाया था।

-- अरे उसकी जो ऊँची उड़ान भरना चाहती थी... आजकल भर भी रही है। भई, बुड्ढा ले उड़ा उसे... ।

-- कौन बुड्ढा? किसकी बात कर रहे हो?

एक ठहाका गूँजा था। दो कर्मचारी और आ गए थे। एक अन्य ने जोड़ा था-- यार नीरज, तुम उसे बुड्ढा कैसे कहते हो... अभी वह पचास का भी नहीं हुआ।

-- लेकिन हमारे गुलशन भाई का ताऊ तो है ही और ताऊ के ड्राइवर ने मुझे आज बताया कि मैडम सक्सेना कल देर रात तक उसके बंगले पर थीं। प्रोफ़ेसर के घर वाले भोपाल गये हुए हैं। ड्राइवर मैडम को उसके घर छोड़ने गया था।

गुलशन का चेहरा सफ़ेद पड़ गया था।

इस प्रकरण के कुछ दिनों बाद मैं स्टेट बैंक ऑफ इंडिया में पी.ओ. सेलेक्ट होकर मुम्बई चला गया। लम्बा समय गुज़र गया । प्रारम्भिक चार-पाँच वर्षों तक मित्रों से फ़ोन पर कभी-कभी चर्चा हो जाया करती थी। आराधना के समाचार भी मिल जाते थे। प्रो.प्रकाश की सलाह पर ही शायद उसने एक असिस्टैण्ट से विवाह किया था, जो किसी मिनिस्ट्री में था। लेकिन उसका वैवाहिक जीवन चार महीने भी सफलतापूर्वक नहीं चल पाया था। तलाक हुआ। इस दौरान उसके माँ-पिता की मृत्यु हो चुकी थी। एक भाई है, जो अमेरिका जा बसा था। प्रो.प्रकाश ने करोलबाग में उसे विश्वविद्यालय का मकान दिलवा दिया था, लेकिन उस मकान में वह कभी नहीं जाते थे। जब कभी उनका परिवार न होता, वह उसे अपने बंगले में बुला लेते। ऐसी स्थिति में अवकाश के दिनों में वह सुबह से देर रात तक उनके यहाँ रहती। कभी-कभी रात में भी।

गुलशन अभी भी अविवाहित था, क्योंकि वह असिस्टैण्ट लाइब्रेरियन नहीं बन पाया था।

समय तेज़ी से बीतता गया और पचीस वर्ष बीत गये। एक दिन प्रो.प्रकाश कोई ऊँचा पद लेकर लंदन चले गये थे। आराधना की उड़ान टूट चुकी थी। वह उसी धरातल पर आ गिरी थी, जहाँ से उसने उड़ान भरी थी । लेकिन विलम्ब हो चुका था।

उसके पश्चात्... जीवन से उदासीन और हताश वह चिड़चिडी हो गयी... सूखने लगी। इठलाने-खिखिलाने वाली आराधना के चेहरे पर हँसी देखे मित्रों को वर्षों बीत चुके थे।

-- हलो, आपने मुझे पहचाना नहीं? -उसने प्रश्न किया। चौंककर मैने उस पर दृष्टि टिका दी, पहचान फिर भी नहीं पाया।

-- आप नितिन अरोड़ा हैं न!

-- जी-जी... और आप?

-- मैं आराधना सक्सेना... कभी साथ..। -बेहद शिथिल स्वर था उसका।

-- ओह.. आप..? -और आगे के शब्द मेरे गले में ही अटक गये थे। उसकी आँखों की दैन्यता मेरे अंदर उतरती चली गई थी। मैं कुछ कहता इससे पहले ही वह जाने के लिए मुड़ गयी थी और यों चल पड़ी थी मानो कोई जीवित कंकाल घिसटता जा रहा था।