उत्तरआधुनिक दौर में जाति और धर्म / विनोद शाही
जब हम यह दावा करते हैं कि हमारा समय उत्तर-आधुनिक है, तब दरअसल हम यह कह रहे होते हैं कि सभ्यता के विकास के मौजूदा चरण पर हमारे मूल्य और रिश्ते, आधुनिकता की सीमाओं के पार झांकने लगे हैं। भारत में अनेक चिंतकों की राय है कि हम अभी तक तो ठीक से ‘आधुनिक’ भी नहीं हैं, इसलिए हमारी उत्तर आधुनिक होने-दिखने की बात आरोपित तथा निरी लफ्फाजी भर है। हालांकि ऐसी सरलीकृत धारणा से सहमत होना कठिन है, फिर भी बहुतों को बड़े ‘अनैतिहासिक’ रूप में लगता है कि उत्तर आधुनिकता, आधुनिकता के और आगे, अगले चरण के रूप में, विकास करने का नतीजा होता है। यह बात अनैतिहासिक इसलिए है, क्योंकि वह भारत के नजरिए से देखी और समझी नहीं गई है। भारत में आधुनिकता का एक रूप तेरहवीं शती की निर्गुण-सूफी संस्कृति की मार्फ़त विकास पाता है और उस रूप में वह यूरोप के तेरहवीं सदी के ‘रेनेसां’ के समानांतर मौजूद है। फिर हमारे यहां अठारहवीं शती में ‘आधुनिकता’ का ‘आयातित एवं औपनिवेशिक’ रूप आता है, जिसे भारत आधा-अधूरा ही स्वीकार कर पाता है और इसीलिए भारत में उन्नींसवीं सदी से ही उस तरह की आधुनिकता का सांस्कृतिक प्रतिरोध होने लगता है— जो हमारे यहां अपनी तरह की ‘उत्तर आधुनिक चेतना’ के तभी से मौजूद होने का सबूत है। बीसवीं सदी की, शुरुआती दौर की हिन्द स्वराज जैसी कृतियों में आधुनिकता की सर्वतोमुखी आलोचना ही नहीं, भत्र्सना तक होने के प्रमाण सामने हैं, जो अपनी तरह की ‘उत्तर आधुनिकता’ की गैर-मौजूदगी में मुमकिन नहीं था। हालांकि तब तक पश्चिम (योरोप) उस ‘आलोचनात्मक-यथार्थवादी’ नजरिए को परंपरावादी कह कर नकार देने की कोशिश ही कर रहा था, परन्तु ‘स्वतंत्र-चित्त और आत्म-निर्भर आर्थिकता वाले स्वराज’ की धारणा अब प्रकट हो रहे यूरोप अमरीकी उत्तर आधुनिक चिंतन के ‘निज की स्वतंत्रता’ और ‘आत्म-निर्भर छोटी जनकीय ईकाइयों से स्थापित बहुलता’ की धारणाओं की शक्ल लेकर सामने आ रही है - तो अब हम ‘इतिहास’ के सरलीकृत पैमानों को जायज कैसे ठहरा सकते हैं? हम कैसे कह सकते हैं कि योरोप और अमेरीका तो अब कहीं जाकर-यानी कि बीसवीं सदी के छठवें दशक के आस-पास उत्तर आधुनिकता को ‘इतिहास की विवशता’ के रूप में अपनाने की ओर नहीं आए हैं? कि योरोप-अमेरिका को शेष दुनिया से, भारत या तीसरी दुनिया से, कुछ लेने-सीखने की कोई जरूरत नहीं है? क्या यह हमारी सदियों पुरानी गुलाम मानसिकता की मौजूदगी का सबूत नहीं है कि हम यह कहें कि पहले योरोप व अमेरिका उत्तर आधुनिक होंगे, तब कहीं जाकर पीछे-पीछे भारत की या बाकी दुनिया की बारी आएगी। और वे पहले ‘ठीक से आधुनिक’ होंगे और फिर कहीं जाकर उत्तर-आधुनिक होना सीखेंगे।
इसके उलट हकीकत यह है कि इतिहास के मौजूदा दौर में उच्च तकनीकी उत्तर आध्ुानिक वित्तीय पूंजीवाद के द्वारा योरोप व अमेरिका की बजाए,भारत व बाकी की तीसरी दुनिया का उत्तर आधुनिकीकरण पहले होने जा रहा है और उसे भूमंडलीकरण के रूप में बाकी दुनिया में लागू करने वाला योरोप व अमेरिका, अपने वर्चस्ववाद की वजह से, युद्धग्रस्त आर्थिकता और मंदी का मुकाबला करने में ताकत गंवाता हुआ, इस रूपांतर की विधायक संभावनाओं से चूक जाने वाला है।
उत्तर आधुनिकता अपने साथ जिस बहुलता धर्मिता को लाती है, उसे वैश्विक आतंकवाद से लड़ने की प्रक्रिया में मुब्तिला होने की वजह से अमेरिका को अपने यहां लागू करने में अड़चन आने वाली है। वहां दूसरी नस्लों, प्रवासियों व दूसरे मजहबों के प्रति पहले ही संशय की मानसिकता बुरी तरह गहराती जाती हैं।
और पूँजी की आवारगी, मनुष्य जाति के लिए अचल संपत्ति व परंपरागत उत्थान रूपों-पद्धतियों से जिस तरह की आजादी व चुनाव की विविधता के ‘नए मूल्य व रिश्ते’ लाने का वायदा करती है, वही खुद योरोप व अमेरिका के लिए सबसे बड़ा सिरदर्द बनती जाती है। यह आवारगी बड़ी आसानी से आतंकवादी संगठनों को बनाए-चलाए रखने के तंत्र को भी मजूबत बनाती है। ऐसे में पूंजी की आवाजाही’ पर प्रतिबंध लगाने की विवशता से खुद योरोप व अमेरिका घिर गया मालूम पड़ता है। और ‘स्थानीय’ (लोकल) रूप में आत्मनिर्भर आर्थिक इकाइयों के चलते, अब किसी भी मुल्क को काबू में करना पहले से ज्यादा मुश्किल होने वाला है। इराक और अफगानिस्तान से अमेरिका की वापसी के बावजूद, आवारा पूंजी का मूल्यों व रिश्तों के नवगठन का दावा, एक पाखंड से घिरा रहने वाला है।
और इसलिए उत्तर आधुनिकता के पास अगर मूल्यों व रिश्तों के नवगठन के आधार के रूप में कुछ विधायक है, तो वह भारत जैसे देशों में पैदा हुई आधुनिकता की तीखी आलोचना की तेजस्वी जमीन में ही मुमकिन है - परंतु वह नवसाम्राज्यवाद के एजेंडे के विरोध में जाने वाली जमीन है, जो निजी या छोटी स्थानीय अस्मिताओं वाली दुनिया की बजाए, स्व या आत्म की कुदरती जमीन को पकड़ने का रास्ता दिखाती है।
‘आत्मा’ या ‘स्व’ की कुदरती जमीन तलाशने की बात को भारत में ‘प्रतिरोध के हथियार’ की तरह विकसित किया गया। इसकी वजह यह थी कि हमारे यहां आधुनिकता और उसके साथ आया औद्योगिक पूंजीवाद, साम्राज्यवादी सरोकारों की पूर्ति के लिए समर्पित थे। भारत के कुदरती संसाधनों के दोहन के लिए रास्ता साफ करना जरूरी था, जिसे साम्राज्यवादी शासकों ने भारत को जाति और मजहब के आधार पर विभाजित करके हासिल किया। इस अंतर्विभाजन और फूट के लिए जरूरी था। जनतांत्रिक आजादी, इसीलिए हमारे यहां जातियों और मजहबों की फूट और अंतर्कलह से पैदा हुई राजनीति का पर्याय हो गई। परंतु आधुनिक होने की जो दूसरी कसौटी थी कि राजनीति को धर्मनिरपेक्ष होना चाहिए, वह इस कूटनीतिक साजिश के विरोध में पड़ती थी। इसलिए आधुनिक होने के नाम पर यह भी सिखाया गया कि जाति और मजहब, ‘निजी’ शख्सियत के हिस्से हैं, जिन्हें ‘सार्वजनिक’ जिंदगी से परे रखा जाना चाहिए। यह आधुनिकता में मौजूद दोहरेपन के पाखंड को छिपाने के नाटक से जुड़ी बात थी। खुद योरोप भी इसका कुछ हद तक शिकार था। हिटलर का फासीवाद और नस्लवाद, आर्य और अनार्य के बीच, गोरे और काले के बीच विभाजन की सियासत का खेल था। नस्ल-जाति और मजहब के जो सामंतीय रूप थे, उन्हें इसके दोहरे चेहरे वाली आधुनिकता ने उभारकर इस्तेमाल भी किया और उसे सार्वजनिक के विरोध में निजी चेतना का विकास बना कर ऐसी वस्तु भी बनाया, जिससे छुटकारा पाना जरूरी था। और यही भारत की साम्राज्य विरोधी संघर्ष की मौलिकता व महानता प्रकट होती है।
भारत के पास भक्तिकाल से आया हुआ एक ऐसा ‘आत्म’ या ‘स्व’ भी था, जो जाति और मजहब दोनों की हदों के पार था। और जिसे मनुष्य केवल एक सहज और कुदरती जीवन-शैली के जरिए हासिल कर सकता था। जाहिर है कि हमारी यह चेतना आधुनिकता के दोहरेपन की आलोचना के लिए ही हमें जमीन नहीं देती थी, अपितु वह आधुनिकता के पार जाकर, एक उत्तर आधुनिक सोच तक पहुंचने की भूमिका भी बनाती थी। हिंद स्वराज लिखते हुए महात्मा गांधी इसी चेतना का इस्तेमाल करते नजर आते हैं। परंतु इस स्व या आत्म की सियासत हमारे यहां बहुत दूर तक नहीं जा सकी। इसकी वजह थी - भारत में मौजूद गुलामी के हालात और यों भी यह काम अपने-आप में ही इतना विराट था कि न हम उसे भक्तिकाल के दौरान मंजिल तक पहुँचा पाए, जब यह गुलामी नहीं थी और न अंग्रेजों के भारत से चले जाने के बाद, जब हमने अधूरी आजादी के साथ जीने को राजी होकर इस काम को लगातार मुल्तवी करते हुए ‘एड-हॉक’ किस्म का व्यवहार अपना लिया -क्योंकि वह ज्यादा सुविधाजनक मालूम पड़ता था। जाति और मजहब के पार जाने का भारत में मतलब है, एक महान इंकलाब का घटित होना। जाति व्यवस्था टूटती है तो भारत की सामंतीय व्यवस्था आमूल चूल तबाह हो जाती है और हमारे लिए एक नई रूपांतरित व्यवस्था को खोजना जरूरी हो जाता है। और मजहबी चेतना बिखरती है तो उससे पहले हमें कोई उससे बड़ी विकल्प-चेतना का विकास करना जरूरी होता है, जहाँ खड़े होकर हम मजहब को अलविदा कह सकते हैं। और ये दोनों, भारत में आए आधुनिकता, उत्तर आधुनिकता वाले हमें गुलाम बनाने को उत्सुक व्यवस्था-रूपों की मदद से कैसे घटित हो सकते थे? विकल्प चेतना के रूप में आया औपनिवेशिक विज्ञान, हमारे यहां हिंसा और कुदरती संसाधनों के दोहन के हालात लेकर आया, जिसकी मदद से मजहबों को विदा करना नामुमकिन था और वैकल्पिक व्यवस्था के तौर पर जिस तरह का प्रजातंत्र और जिस तरह का आधा-अधूरा समाजवाद हमारे यहां आया, उनकी तुलना में तो जातिवादी कोटि के व्यवस्थागत समझौते भी ज्यादा मानवीय मालूम पड़ते थे।
गरीब आधुनिकता के तहत जमींदार और खेतीहर, दोनों एक-दूसरे पर आश्रित रहे हैं और समझौता होने की वजह से सेवाओं का शोषण होने के बावजूद अमानवीय भुखमरी वाली स्थिति को भारत का सवर्ण भी कभी स्वीकार नहीं कर पाया है। बेशक औद्योगिक पूंजीवाद ने इन रिश्तों में सेंध लगाई है, परन्तु न्यायपूर्ण वितरण, समानतामूलक व्यवस्था आदि के बड़े आदर्शों को सिद्ध करने वाली आर्थिक जमीन और उसके उत्पादनमूलक रिश्तों की व्यवस्था का कोई वैकल्पिक नक्शा किसी के पास नहीं है - न प्रजातंत्र की दुहाई देने वालों के पास और न समाजवादी इंकलाब की जरूरत का दावा पेश करने वालों के पास। कुदरती संसाधनों के दोहन पर फलते-फूलते उत्पादन तंत्र से जन्म लेने वाले बाजार और उपभोक्तावादी मूल्यों व रिश्तों का कौन सा विकल्प-मॉडल कहीं भी किसी के पास नजर आता है? आजादी के बाद से भारत भी उसी तरह के विकल्प की अंधी गली का मुसाफिर बना हुआ है। तब आत्म की प्रतिरोधी चेतना के अग्र-विकास में किसकी दिलचस्पी हो सकती है?
भारत में नौवी से बारहवीं सदी के बीच सामंतीय साम्राज्य वाली व्यवस्था का बिखरना शुरू हो गया था - नतीजतन नाथों-सिद्धों से लेकर संतों और सूफियों तक ऐसी सोच प्रकट होनी आरंभ हो गई थी कि हमें सामंतीय रिश्तों को बनाए रखने वाली जाति और मजहब की व्यवस्थाओं से छुटकारा पाना होगा। परन्तु फिर मुगल साम्राज्य के स्थापित हो जाने के बाद इस चिंतनधारा का विकास रुक गया। भक्तिवादी सगुण धारा ने तथा सूफियों में मौजूद किस्सेकारों ने उसी गिरती-ढहती जाति-मजहब की व्यवस्था को फिर से सहारा देकर खड़ा कर लिया था। परन्तु अठारहवीं सदी में सामंतीय निजाम फिर से बिखर गया, तो जाति-मजहब के पार ले जा सकने वाले नवजागरण के लिए एक भूमिका बनी। परंतु अंग्रेजी साम्राज्यवाद में पैर जमा लेने से जाति-मजहब का औपनिवेशिक आधुनिकता के द्वारा अलग तरह का इस्तेमाल शुरू हो गया। जैसा बताया जा चुका है, इस दौर में जाति मजहब का राजनैतिकीरण भी हुआ और निजीकरण भी। फिर आत्म-चेतना के प्रतिरोधी रूप की मदद से इस का मुकाबला करने की कोशिश हुई, जो आजादी मिलने के बाद इसलिए स्थगित हो गई, क्योंकि हम धीरे-धीरे एक नई गुलामी की शरण में जाने लगे। हमने रूसी समाजवाद और पश्चिमी मॉडल वाली उत्तर आधुनिक चेतना की मदद से ऐसी राष्ट्रीयताओं और बहुलताधर्मी अस्मिताओं को नए अंतर्विभाजनों में बांट दिया - जिनकी जमीन, जाति और मजहब की असल जमीन के टुकड़े-टुकड़े हो जाने से निकलती थी। जाति-मजहब की मूलभूमि का जो अंतर्विभाजन आधुनिकता-वादियों के द्वारा हुआ, उसने इसके टुकड़ों को राष्ट्रवादी चेतना प्रदान की और नतीजा यह निकला कि भारत मजहबी राष्ट्रवाद के द्वारा दो टुकड़ों में विभाजित हो गया। गनीमत यही थी कि तब हमारे अछूतिस्तान और सिक्खिस्तान वाले टुकड़े नहीं हुए। फिर रूसी समाजवाद के मॉडल के असर में भारत की राज्यों का राष्ट्रीयताओं के आधार पर जो पुनर्गठन हुआ, उसमें भी जातियों-मजहबों के कौमीयतों वाली अस्मिता से जुड़े नए टुकड़े हुए। मराठी दलित, पंजाबी सिख, गुजराती हिंदू या कश्मीरी मुसलमान के रूप में जाति-मजहबों के राष्ट्रीयकरणों वाले अंतर्विभाजन हमारी उत्तर आधुनिकता की भूमिका व भावी स्वरूप को तय करने वाले घटक हैं।
तो, जिसे हमारे विद्वान-चिंतक एकमात्र उत्तर आधुनिकता की तरह पहचानते हैं, वह पश्चिम से आयात हो रही नई गुलामी की मानसिकता के अलावा और कुछ नहीं भूमंडलीकरण के जरिए खुलते बाजारवाद की आवारा पूंजी, अब बहुराष्ट्रीय कंपनियों के जरिए जो जमीन खोज रही है-वह बहुत से मुल्कों की ‘स्थानीय बहुलता’ के दोहन की जरूरतों व सरोकारों के साथ आगे बढ़ रही है। स्थानीय इकाईयों को आत्मनिर्भर बनाने की आड़ में यह ‘बहुलतावादी अस्मिताओं’ को बढ़ावा दे रही है। भारत में इसके असर से अब जातियां व मजहब इसी अस्मिता-बहुल ढांचे के ‘डिजाइन’ के मुताबिक टूटने-बिखरने लगे हैं। दलितों में बाल्मीकि, रैदासी, कबीरपंथी, आदिधर्मी, आम्बेडकरवादी, जनजातीय, मूलनिवासी-वादी, सीमांतीय या वनवासीय जैसे टुकड़े हो रहे हैं तो वैश्यों में जैनों, अग्रवालों, गुप्तों, सूदों, पासियों, महाजनों आदि की असंख्य बिरादरियां प्रकट हो रही हैं। जिनका मकसद बहुराष्ट्रीय स्थानीयताओं से मिलने वाले मुनाफों में अपनी हिस्सेदारी को बढ़ाना है। ऐसे ही ब्राह्मणों के बहुत से संगठन सत्ता में हिस्सेदारी बढ़ाने के लिए अपनी हजारहा मूल-भूमियों में लौट रहे हैं। फिर आरक्षण का फायदा पाने की चाहत वालों की जातिगत-अस्मिताएं संगठित हो रही हैं और जो सरकारें बनाने-गिराने की हद तक ताकतवर हो रही हैं। इस लिहाज से बिश्नोई या जाट ही नहीं, गरीबी के आधार पर कुछ ब्राह्मण जातियों का संगठनगत उभार दिखाई दे रहा है। फिर मजहब के आधार पर अल्पमत में होने का फायदा उठाने के लिए अलग तरह के आरक्षण-संरक्षण की मांगें भी इसी प्रक्रिया के तहत जोर पकड़ रही है।
भूंमडलीकरण के तहत बहुतराष्ट्रीय अस्मिता बोधक बहुलता-वाद एक तरह से सामंतीय दौर की जाति-मजहब की संरचनाओं का कचरा है। मुक्त बाजार वाली नई आर्थिकता को, जाति-मजहब वाली संगठित ताकत रास नहीं आती। उसका विकास अब स्थानीय-संसाधनों का दोहन करने से ही हो सकता है, जिसमें स्थानीय अस्मिताएं उसकी मदद कर सकती हैं। हालांकि इस आर्थिकता के नवसाम्राज्यवादी एजेंडे के खिलाफ मध्य एशिया के ‘मुस्लिम भाईचारे’ के रूप में, सामंतीय दौर की ‘उम्मा’ वाली संरचना अभी खासी मजबूत है। पर उसे अपनी ताकत दिखाने के लिए आतंकवाद की मदद लेनी पड़ती है, जिससे उसका हमारे दौर में अप्रासंगिक होना व पतनशीलता में गर्वâ होना उभर आता है। जाहिर है कि अब जाति-मजहब की परंपरागत संरचना व व्यवस्था को बनाये रक्खा नहीं जा सकेगा। तो, एक ही उम्मीद बचती है कि जाति-मजहब के कचरे का पुनर्शोधन कर एक नई जनचेतना के नवगठन की कोई तदबीर सामने आए। यहां आत्म-चेतना की कुदरती जमीन में वापसी हमारे काम की हो सकती है। जन के सामूहिक सांझे चित्र की नई सांस्कृतिक चेतना का इंकलाब, हमारी भावी मुक्ति का आधारस्रोत हो सकता है।