उत्तराखण्ड के शिल्पकार / अशोक कुमार शुक्ला
विशेष पड़ताल / दस्तावेज
यह घोर विडंबना है कि जिस उत्तराखंड में आजादी की लडाई से पहले ही शिल्पकार समाज में जागरूकता की लहर ने शिल्पकार महासभा का गठन करते हुये इस देश के स्वतंत्रता की लडाई में महती भूमिका का निर्वहन किया उसी उत्तराखंड राज्य में आजादी के पैसठ साल बाद भी शिल्पकार समाज अपनी सही स्थिति के आकलन की बाट जोह रहा है। उत्तराखंड में स्वाधीनता संग्राम के दौरान 1913 के कांग्रेस अधिवेशन में उत्तराखंड के ज्यादा प्रतिनिधि सम्मिलित हुये। इसी वर्ष उत्तराखंड के अनुसूचित जातियों के उत्थान के लिये गठित टम्टा सुधारिणी सभा का रूपान्तरण एक व्यापक शिल्पकार महासभा के रूप में हुआ।
स्वतंत्र भारत में उत्तराखंड भूभाग उत्तर प्रदेश राज्य का एक अंचल था संभवतः इसी कारण उत्तर प्रदेश राज्य सरकार के द्वारा जारी 18 सितम्बर 1976 के एक आदेश द्वारा उन्हीं 66 अनुसूचित जातियों के अंतरगत रखा गया था जो संविधान में उल्लिखित थीं तथा उत्तर प्रदेश के शेष भाग में भी प्रचलित थी। उत्तराखण्ड राज्य गठन से पूर्व ही सन 2000 में उत्तराखण्ड के लिए संसोधन सूची भी जारी की गई, इस सूची में आंशिक संशोधन करते हुये 66 जातियों की इस सूची जिसमें ‘रावत’, जो कि 61वें क्रम में थे को पृथक कर दिया गया और शेष बची 65 जातियों की सूची यथावत बनी रही । शेष बची 65 जातियों की इस सूची में ऐक क्रमांक शिल्पकार जाति को भी आवंटित किया गया था। यहां यह उल्लेख करना आवश्यक हो जाता है कि जहां शेष उत्तर प्रदेश में शिल्पकार एक जाति है वहीं उत्तराखण्ड में शिल्पकार नामक कोई पृथक जाति निवास नहीं करती अपितु कर्मकारों के एक समूह को शिल्पकार के नाम से जाना जाता है जैसे
जैसे ताँबे के बर्तन वाले को टम्टा,
लोहे के औजार बनाने वाले को लोहार,
बाँस की टोकरियाँ बनाने वालों को रूडि़या,
मकान बनाने वाले को ओड़,
अनुसूचित जाति के लोगों के पुरोहित को कोई,
लकड़ी का काम करने वाले को बढ़ई,
ब्याह-शादियों में तिमिल पत्रों की व्यवस्था तथा चूल्हा बनाने वाले को पौहरी,
कोल्हू से तेल निकालने वाले को तेली या भूल आदि अनेक उपजातियों के नाम से जाना जाता रहा है।
इस प्रकार उत्तराखण्ड के परिपेक्ष्य में शिल्पकार कोई पृथक जाति न होकर अनेक उपजातियों का समूह है। सभी जातियों, उपजातियों को सूचीबद्ध करना श्रमसाध्य कार्य है।
संक्षेप में यह कहना होगा कि उत्तराखण्ड में निवास करने वाली अनुसूचित जातियों की पहचान हेतु कोई पृथक कार्यवाही नहीं की गयी अपितु शेष उत्तर प्रदेश में लागू अनुसूचित जाति संबंधी अधिसूचना को इस भूभाग पर भी लागू किया गया। गढवाल विश्वविद्यानय के डॉ आर बी पन्त ने उत्तराखण्ड की अनुसूचित जाति के संबंध में अध्ययन करते हुये यहां के निवासी सभी शिल्पकारों को निर्विवाद रूप से अनुसूचित जाति की श्रेणी में मानते हुये एटकिंसन के द्वारा संपादित हिमालयी गजेटियर का उद्धरण इस प्रकार प्रस्तुत किया है
एटकिंसन ने अपने हिमालयी गजेटियर में उल्लेख किया है कि प्रथम जनगणना 1872 के अनुसार तत्कालीन कुमाऊँ एवं गढ़वाल में अनुसूचित जातियों के अन्तर्गत 1,04,936 अर्थात 10 फीसदी आबादी थी। इन्हें चार वर्गों में कार्य के आधार पर बाँटा गया था, जो उनके आपसी स्तर को भी दर्शाता था।
प्रथम श्रेणी के अन्तर्गत बोली, टम्टा, लोहार, ओढ़, आदि थे, जिनकी आबादी लगभग 44,000 थी,
दूसरे वर्ग में लगभग 11,000 के आबादी के अन्तर्गत रूडि़या, छिम्पार, आगरी, पौहरी व भूल आते थे।
तीसरे क्रम में चमार, मोछी, चुकमियाँ, हुड़किया आदि की आबादी 1872 में लगभग 8000 थी।
चौथे और अन्तिम में सबसे निचले स्तर पर संगीतज्ञ, नर्तक, वादक, बाजीगर, दर्जी, ढोली, भाट (वृन्दीजन) आदि को सम्मिलत किया गया।
पौ (1896) ने भी अपने गढ़वाल बन्दोबस्त में पूरे समाज को पाँच भागों में बाँटा है औैर अनूसूचित जाति की आबादी 15.80 फीसदी होने का उल्लेख किया है।
1931 दलित श्रेणी के अन्तर्गत 3,12,620 आबादी थी, जो तत्कालीन आबादी की लगभग 16.97 फीसदी थी। वर्ष 1931 के बाद जातिवार जनगणना नहीं हुई।
लेकिन 2001 में इस वर्ग के अन्तर्गत 15,17,186 लोग थे। यह उत्तराखण्ड की आबादी का 17.87 फीसदी था, इस प्रकार यह स्पष्ठ है कि उत्तराखण्ड श्रेत्र में अनुसूचित जाति की जो आबादी 1872 में 104936 (लगभग एक लाख) थी वह 2001 में बढकर 1517186 (लगभग पन्द्रह लाख) हो गयी है और इस क्षेत्र की समूची आबादी में भी इसकी भागीदारी 10 प्रतिशत से बढकर 17.87 प्रतिशत हो गयी है परन्तु यह समझना परम आवश्यक है कि क्या यह आंकडा सचमुच अनूसूचित वर्ग की वास्तविक भागीदारी को प्रदर्शित कर रहा है अथवा इसमें कुछ ऐसे समूह जुड गये हैं जो वास्तविक रूप में इसके लिये पात्र नहीं थे?
इस अवसर पर मैं वर्ष 1999 में तहसील नरेन्द्रनगर में तहसीलदार के रूप में कार्य करने के दौरान मिले अपने एक अनुभव को अवश्य साझा करना चाहूंगा जब तत्कालीन उत्तर प्रदेश राज्य के समाज कल्याण विभाग द्वारा जारी एक आदेश के आधार पर उत्तर प्रदेश राज्य में सुनार जाति को पिछडे वर्ग के अंर्तगत माने जाने के अनुरूप उत्तराखंड में निवास करने वाले सुनार जाति के व्यक्तियों को भी पिछडी जाति का प्रमाण पत्र जारी किये जाने का प्रक्रम गतिमान था। इस संबंध मे तत्समय सन 1857 के आसपास के प्राचीन राजस्व अभिलेखों को खंगालने पर यह तथ्य प्रकाश में आया था कि उत्तराखंड में सुनार अथवा सोनार का पेशा अपनाने वाली जाति में दो प्रकार के व्यक्ति सम्मिलित थे एक तो वे जो मूल रूप से ठाकुर अथवा राजपूत थे तथा दूसरे वे जो शिल्पकार समाज के थे। जिन ठाकुर अथवा राजपूत जाति के व्यक्तियों द्वारा सोनार कर्म अपनाकर अपना व्यवसाय आरंभ किया था उनके नाम के सम्मुख राजस्व अभिलेख खतौनी में इस श्रेणी काश्तकार के नाम के सम्मुख संक्षिप्त अक्षरों से राजपूत के लिये (रा0) अथवा हरिजन के लिये (डो0) डोम अक्षरों का अंकन था।
इसी प्रकार भारत की पृथम जनगणना 1872 के अनुरूप चिन्हित हरिजन जाति का भी अंकन राजस्व अभिलेखों में था। जाति के संबंध में इतने ठोस साक्ष्य मिलने के बाद प्रकरण शासन को निर्णयार्थ संदर्भित करने का प्रयास किया गया था परन्तु दबावों के चलते तद्समय उत्तराखण्ड निवासी समस्त सोनार व्यवसायियों केा पिछडे वर्ग का प्रमाण पत्र जारी ही करना पडा था।
कदाचित पृथक उत्तराखंड राज्य बनने के बाद भी शिल्पकार समाज की स्थिति कुछ ऐसी ही जान पडती है जैसी अविभाजित उत्तरप्रदेश राज्य में थी।