उत्तराखण्ड के सियासी संकट का शराब एंगल / इन्द्रेश मैखुरी
मुखपृष्ठ » | पत्रिकाओं की सूची » | पत्रिका: युगवाणी » | अंक: मई 2016 |
इन्द्रेश मैखुरी
टी.वी.पर फौग बॉडी स्प्रे का एक विज्ञापन आता है कि क्या चल रहा है? फौग चल रहा है। उत्तराखण्ड में यह विज्ञापन थोड़े बदले रूप में लोगों की जुबान पर था। लोग आपस में मिलते और पूछते-और क्या चल रहा है? सामने वाला जवाब देता-देश में फौग चल रहा है और उत्तराखण्ड में डेनिस। फौग वाले विज्ञापन के उत्तराखण्ड संस्करण में ही यहाँ के राजनीतिक संकट के कारण छुपे हो सकते हैं। यह कयास ही है पर ऐसा कयास लगाने के ठोस तर्क और कारण हैं। उत्तराखण्ड में मार्च महीने में सत्तासीन काँग्रेस के 9 विधायकों द्वारा अपनी पार्टी के विरोध में उतरने के बाद पैदा हुआ सियासी संकट उत्तराखण्ड उच्च न्यायालय नैनीताल से दिल्ली में उच्चतम न्यायालय तक पहँुच चुका है। उत्तराखण्ड के इस सियासी घमासान से जुडे़ तीन पक्ष हैं- सत्ता से बेदखल हुई हरीश रावत के नेतृत्व वाली काँग्रेस, सरकार गिराने के लिए उतरने वाले काँग्रेस के अपने 9 विधायक और उत्तराखण्ड में अब तक मुख्य विपक्षी पार्टी रही भाजपा। यह सियासी घमासान डेढ़ महीने से चल रहा है, पर न तो काँग्रेस और हरीश रावत बता रहे हैं कि उनके विधायक/मंत्री उनसे किस बात पर खफा हुए, न ही बागी हुए विधायक बता रहे हैं कि उनकी हरीश रावत से ऐसी क्या नारजगी थी कि वे अपनी विधानसभा की सदस्यता दाँव पर लगा कर अपनी ही पार्टी के मुख्यमंत्री के खिलाफ उतर पड़े। इस बिंदु पर ही संदेह होता है कि हो न हो कोई ऐसा कारण है, जिसे सार्वजनिक करने की हिम्मत दोनों पक्ष नहीं कर पा रहे हैं। उत्तराखण्ड की राजनीति के बीते सालों की स्थिति पर गौर करें तो कोई आश्चर्य नहीं होना चाहिए यदि यह पता चले कि इस पूरी उठापटक के मूल में शराब कनेक्शन था। शराब का कनेक्शन उत्तराखण्ड की राजनीति से निकलता रहता है। भारतीय जनता पार्टी की सरकार में अल्पसंख्यक आयोग के अध्यक्ष रहे सुखदेव सिंह नामधारी नवम्बर 2012 में शराब कारोबारी पौंटी चढ्ढा की हत्या में जेल गए। मामला शराब कारोबार से ही जुड़ा बताया गया था। काँग्रेस की अंदरूनी उठापटक के बाद विजय बहुगुणा के स्थान पर फरवरी 2014 में हरीश रावत उत्तराखंड के मुख्यमंत्री बनाये गए। हरीश रावत दिल्ली से अपने साथ गुजरात कैडर के आई.ए.एस मोहम्मद शाहिद को लेकर आये। शाहिद, मुख्यमंत्री रावत के सचिव नियुक्त किये गए। जुलाई 2015 में मोहम्मद शाहिद का एक स्टिंग वीडियो सामने आया जिसमें वे कुछ शराब कारोबारियों को धंधे के गुर सिखाते नजर आये, 15 मिनट के इस स्टिंग वीडियो में शाहिद मुख्यमंत्री कार्यालय में नियुक्त लोगों में किस पर भरोसा करना है और किसे पैसा नहीं देना है, जैसी सलाह भी शराब कारोबारियों को देते हुए नजर आये। इस तरह देखें तो शराब और शराब के कारोबार का उत्तराखण्ड की सत्ता से नजदीकी रिश्ता प्रकट होता रहा है। हो भी क्यूँ न, शराब राज्य में बहुत तेजी से फूलता-फलता व्यापार है। उत्तराखण्ड के अर्थ एवं संख्या विभाग द्वारा जारी आंकड़ों पर नजर डालिए- इन आँकड़ों को देखें तो समझ आता है कि राज्य में शराब का कारोबार किस तेज गति से बढ़ रहा है। तीन वर्षों में ही इस कारोबार में लगभग 26 प्रतिशत की वृद्धि दर्ज हुई है। फलते-फूलते शराब कारोबार के बीच, उत्तराखण्ड में पिछले एक-डेढ़ साल से एक खास शराब कम्पनी की धमक खूब सुनाई दे रही थी। ये वही कम्पनी है जिसका जिक्र इस लेख के शुरुआत में फौग बॉडी स्प्रे के साथ किया गया है यानि डेनिस। हरीश रावत के मुख्यमंत्री पद पर आसीन होते ही इस शराब का नाम भी चारों ओर सुनाई देने लगा। धीरे-धीरे शराब के शौकीनों में यह चर्चा भी चल पड़ी कि शराब के सरकारी ठेकों पर डेनिस के अलावा अन्य ब्रांड लुप्तप्राय हो गए हैं। दरअसल हरीश रावत के मुख्यमंत्री बनने के बाद शराब के विपणन का काम उत्तराखण्ड मंडी परिषद को सौंप दिया गया था। ऊपरी तौर पर देखें तो विभिन्न शराब सिंडिकेटों के बजाय सरकारी एजेंसी को शराब कारोबार सौंपना, शराब माफिया के एकाधिकार तोड़ने जैसा कदम नजर आता है लेकिन व्यवहार में इसे एक कम्पनी के वर्चस्व को स्थापित करने के लिए उपयोग में लाया गया। उत्तराखण्ड में शराब के बाजार पर डेनिस के इस अप्रत्याशित कब्जे से बाकी शराब कम्पनियाँ काफी हतप्रभ थी। कन्फेडरेशन ऑफ इंडियन अल्कोहौलिक कम्पनीज ने बाकायादा इसके खिलाफ मुख्य सचिव को शिकायत पत्र सौंपा। यहाँ बात नहीं बनी तो शराब सप्लाई करने वाले उच्च न्यायालय नैनीताल चले गये। उच्च न्यायालय में मैसर्स यूनाइटेड स्पिरिट्स बनाम मंडी परिषद उत्तराखण्ड का मुकदमा चला। इस मामले में अदालत ने 26 नवम्बर 2015 के अपने अंतरिम आदेश में कहा कि दिसम्बर 2014 के बिक्री के आंकड़ों के आधार पर दिसम्बर 2015 के लिए शराब के सप्लायरों को विभिन्न ब्रांडों के आर्डर दिए जाएं। इस अन्तरिम आदेश का अनुपालन न होने पर शराब कम्पनियों ने अदालत की अवमानना का मुकदमा दाखिल किया। शराब कारोबार में वर्चस्व की यह लड़ाई कितनी तीखी थी, इसका अंदाजा रिट संख्या 2932 ऑफ 2015 में उत्तराखण्ड उच्च न्यायालय, नैनीताल के न्यायमूर्ति यू.सी.ध्यानी के फैसले में उल्लिखित तथ्यों से लगाया जा सकता है। न्यायमूर्ति ध्यानी ने याचिकाकर्ताओं द्वारा दाखिल इस तथ्य का अपने फसले में जिक्र किया है कि याचिकाकर्ता द्वारा सप्लाई किये जाने वाले शराब के विभिन्न ब्रांडों की बिक्री 356106 केस (अगस्त-अक्टूबर 2014) से गिरकर अगस्त-अक्टूबर 2015 में 10776 केस हो गयी। ऐसा सिर्फ इसलिए हुआ कि मंडी परिषद ने उक्त सप्लायरों को शराब सप्लाई के आर्डर ही नहीं दिए। इसके चलते एक साल में उक्त सप्लायर की शराब की बिक्री 61 प्रतिशत से 2 प्रतिशत पर आ गयी। शराब के कारोबार में वर्चस्व की यह लड़ाई बेहद तीखी चल रही थी, इसका अंदाजा इस तथ्य से भी लगा सकते हैं कि जहाँ हरीश रावत की सरकार खुलेआम एक ब्रांड (डेनिस) को प्रोमोट करती हुई नजर आ रही थी, वहीं शराब सप्लायर यूनाइटेड स्पिरिट्स अपने पक्ष में कांग्रेस के ही वरिष्ठ नेता और पूर्व केन्द्रीय मंत्री पी.चिदम्बरम को वकील के तौर पर उच्च न्यायालय में ले आए। आम तौर पर शराब वाले छुटभय्या से लेकर बड़े नेताओं तक, विपक्ष से लेकर सरकार को तक शीशे में उतार कर अपना कारोबार चलाते हैं। वे कोई आन्दोलनकारी नहीं हैं कि सरकार से लड़ाई में जाएँ, उनके कारोबार की कई कमजोर नसें सरकार के वैसे ही नियंत्रण में होती हैं, इसलिए वे सत्ता से टकराहट की सोच भी नहीं सकते, लेकिन साथ ही सत्ता को धनबल से नियंत्रित करने का कौशल भी वे रखते हैं। तमाम तथ्य तो यह ही बता रहे हैं कि हरीश रावत पूरी शराब लॉबी के बजाय कम्पनी विशेष पर मेहरबान थे। ऐसे में जो शराब वाले सत्ता की चाबी अपने नियंत्रण में रखने के आदि होते हैं, वे अपना व्यापार डूबते हुए क्या चुपचाप देखते रह सकते थे? सहज बुद्धि तो यही कहती है कि चिठ्ठी, पत्री, अदालत, मुकदमा सब करने के बाद भी व्यवसाय डूबता देख कर, ‘मरो या मारो’ वाली स्थिति में पहँुच शराब कारोबारियाँ ने अपने को डुबाने पर उतारू सरकार को धराशायी करने का इंतजाम कर दिया। जो केन्द्रीय मंत्री रह चुके चिदम्बरम जैसे बड़े काँग्रेस नेता को काँग्रेस की सरकार के विरुद्ध अदालत में अपना वकील बना सकते हैं, उनके लिए उत्तराखण्ड में सत्ता और धन की आकांक्षा वाले किसी भी नेता या गुट को अपने धन-बल से सम्मोहित करना कौन सी बड़ी बात है? यह स्थितियों के तार्किक विश्लेषण से उपजा तर्क है। अगर ऐसा नहीं है तो हरीश रावत स्पष्ट करें कि आखिर वो कौन सी वजहें थी कि उच्च न्यायालय के आदेश के बाद भी उनकी सरकार एक शराब कम्पनी पर ही मेहरबान रही? काँग्रेस से बाहर जाने वालों को भी यह तो साफ करना ही चाहिए कि अपनी विधायकी को संकट में डालने का जोखिम आखिर उन्होंने क्यूँ उठाया? वे त्यागी, तपस्वी लोग नहीं हैं बल्कि उनकी आत्माएँ तो सत्ता और धनबल में ही बसती हैं। सत्ता से किनारे हुए तो दूसरे बल का इंतजाम हुए बगैर उनका जीवन कैसे कटेगा? 80 के दशक में उत्तराखण्ड में नशा नहीं रोजगार दो आन्दोलन चला। आज नशे का कारोबार राज्य की सत्ता का चेहरा बनाने और बिगाड़ने की स्थिति में पहँुच गया है। डेनिस नामक शराब बनाने वाली कम्पनी का नाम है रॉक एंड स्ट्रोम यानि पहाड़ और तूपफान। इस राज्य की राजनीति में तूपफान तो ले ही आये हैं ये।