उत्तराखण्ड में महिलाओं की स्थिति / कविता भट्ट

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भारतीय समाज पुरुष प्रधान है, किन्तु फिर भी व्यक्तिगत सामाजिक राष्ट्रीय तथा अंतर्राष्ट्रीय दयित्त्वो के कुशल निर्वहन में शताब्दियों से आज तक महिलाओं की अग्रणी भूमिका रही है। इस तथ्य को नकारा नहीं जा सकता की उत्तराखंड हिमालय के महिला समाज ने भी प्राचीन समय से ही ऐतिहासिक सोपानों का निर्माण किया। विज्ञान, अतितीव्र आवागमन एवं दूर संचार तथा अभूतपूर्व भौतिक विकास से युक्त वर्तमान युग में जहाँ महिला सशक्तीकरण के उच्चस्तरीय दावे किये जा रहे हों ऐसे में उत्तराखंड के सुदूरवर्ती ग्रामीण क्षेत्रों की महिलाओं ने अपनी दुरूह जीवन शैली के होते हुए भी अपने गौरवपूर्ण इतिहास को स्वयं ही रचा है। आधुनिक भारत में उत्तराखंड राज्य के ग्रामीण परिवेश की महिलाओं स्थिति आज भी जस की तस है। जिनकी सुरक्षा व विकास को लेकर कहीं मंचों से नारे लगाये जाते हैं तो कहीं महिलाओं की स्थिति को सुधारने के लिये संगोष्ठियों का आयोजन होता रहता है। इसके बावजूद पहाड के ग्रामीण इलाकों में महिलाओं की स्थिति आज भी जस की तस बनी हुई है। पहाडों में कृषि व सामाजिक आर्थिकी का प्रतिबिम्ब कहीं जाने वाली ग्रामीण महिलाओं की स्थिति बताने के लिये ये दृश्य ही काफ़ी है, जहाँ हाड़तोड मेहनत कर वे घर परिवार की जिम्मेदारी निभाने की कोशिश करती हैं। वहीं उनकी आर्थिकी अभी भी सुदृढ़ नहीं है, स्वास्थ्य तथा जीवन सुरक्षित नहीं है। वे बड़ी संख्या में घरेलू हिंसा, बलात्कार, यौन अपराध, शारीरिक व मानसिक उत्पीडन, शोषण तथा उपेक्षा की शिकार हैं।

पहाड़ की अर्थव्यवस्था का बड़ा हिस्सा खेती-बाड़ी व पशुपालन से जुड़ा हुआ है व इनसे सम्बंधित अधिकांश कार्य महिलाओं के ही जिम्मे है, इसलिए इस अर्थव्यवस्था में महिलाएँ रीढ़ की हड्डी जैसी हैं। अत्यधिक संघर्षपूर्ण जीवन स्थितियों का निर्वहन करते हुए भी महिलाए समाज में निर्णायक एवं सशक्त भूमिका में रही हैं। यद्यपि महिलाओं के नाम तीलू रौतेली टिंचरी माई, गौरा देवी अथवा बचेंद्री पाल आदि जो भी हों इन्होने सामाजिक दृष्टि से ऐतिहासिक परिवर्तन की ऐसी नींव रखी व क्रांति के ऐसे बिगुल गुंजायमान किए, जिनकी प्रतिध्वनियों से पहाड़ ही नहीं सम्पूर्ण विश्व और मानव समाज गुंजायमान होता रहेगा।

उत्तराखंड में महिलाओं की स्थिति को स्पष्ट करने के लिए कुछ तथ्यों का सपष्टीकरण आवश्यक है। पहला तथ्य यह है कि विज्ञान, संचार एवं अतितीव्र आवागमन के आधुनिक दौर में भी ग्रामीण महिला वर्ग मूलभूत सुविधाओं से वंचित है। दूसरा यह की यह कि महिला यहाँ की अर्थव्यवस्था की रीढ़ होने के होते हुए भी आज भी संस्कारवश उत्पीडित एवं शोषित है। तीसरा तथ्य यह है कि पहाड़ महिला की पीठ पर बंधा एक बच्चा है जिसे वह ढो भी रही है और उसका भरण-पोषण भी कर रही है। चौथा तथ्य यह कि उत्तराखंड के सन्दर्भ में इन्हीं महिलाओं के आंदोलनों ने ऐतिहासिक परिवर्तन किये। पाँचवाँ तथ्य यह है कि पुरुष और महिला एक दूसरे के विरोधी नहीं ,अपितु पूरक हैं, किन्तु पुरुष प्रधान समाज की अनेक विसंगतियों के कारण महिलाओ को अनेक बार विरोध तथा आन्दोलन की राह भी पकडनी होती है जो समाज हित में होती है।

उत्तराखंड के ग्रामीण एवं शहरी क्षेत्रों में महिलाओं की सामजिक तथा आर्थिक स्थिति में पर्याप्त अंतर है। ग्रामीण क्षेत्र की महिलाओं को आज भी 18-18 घंटे विभिन्न प्रकार के कार्यों में ख़र्च करने पड़ते है; किन्तु फिर भी उनकी आर्थिकी मज़बूत नहीं है। आज भी महिलाओं को कन्या भ्रूण ह्त्या, घरेलू हिंसा, बलात्कार, दहेज़ उत्पीडन तथा बिना इच्छा की गर्भपात आदि को झेलना पड़ता है। आंकडे बताते है कि प्रदेश में महिलाओं के साथ होने वाले अपराध में 22 फीसदी बढ़ोतरी हुई है। ताज़ा रिपोर्ट के अनुसार प्रदेश में 374 महिलाओं साथ दुष्कर्म के मामले सामने आए हैं। दुष्कर्म के 80 फीसदी मामलों में आरोपी परिवार के जान पहचान वाले ही लोग होते हैं। ऐसे में बच्चों व महिलाओं को अपनी पहचान के लोगों से ही सबसे अधिक है। उत्तराखंड में 60 महिलाओं को दहेज हत्या जबकि तीन महिलाओं को एसिड अटैक तक झेलना पड़ा है।

एनसीआरबी की रिपोर्ट में प्रदेश में अपराध के ग्राफ को लेकर केई चौंकने वाले खुलासे हुए हैं। आंकडों की मानें तो साल दर साल महिला अपराध में करीब साढ़े तीन सौ अंकों से अधिक का इज़ाफ़ा हो रहा है। यह सब आंकड़े बताते हैं कि वातानुकूलित व आधुनिक सुख सुविधाओं वाले बंद कक्षों में बैठे अधिकारियों व राजनीतिज्ञों द्वारा महिला सशक्तीकरण व उत्थान के लिए बनाई जाने वाली कागजी योजनाओं का परिहास हो रहा है। सबसे चिंताजनक स्थिति महिला स्वास्थ्य को लेकर है उत्तराखंड के ग्रामीण क्षेत्रों की बात तो दूर छोटे शहरों में भी स्त्री रोग विशेषज्ञों की तैनाती नहीं है। प्रसूति, स्वास्थ्य परीक्षण, परिवार कल्याण के संसाधन भी अपेक्षा के अनुरूप नहीं है।

इतना होने के बावजूद भी उत्तराखंड की नारी शक्ति उद्घोष करती है कि हम अपना सम्बल स्वयं हैं। हमें किसी के सहारे की आवश्यकता नहीं। ऐसे में यहाँ की महिलाओं ने समय-समय पर विभिन्न मुद्दों से जुड़े आन्दोलन किए। उत्तराखंड के महिला आन्दोलन मात्र महिलाओं के मुद्दों पर ही नहीं अपितु समाज के प्रत्येक व्यक्ति के कल्याण हेतु कियें गए। इन आंदोलनों के मुद्दे शिक्षा संस्कार मद्यनिषेध अनुशासित समाज स्वच्छ स्वस्थ एवं सुरक्षित पर्यावरण आदि रहे। सांस्कृतिक धरोहरों के शुभ संस्कारों से सुशोभित चिरस्थायी मानव समाज की दूरदर्शी प्रतिस्थापनाओं को लेकर समय-समय पर सर्वाधिक ज्वलंत मुद्दों पर अनेक आंदोलन यहाँ की महिलाओं ने किये। सभी जानते हैं कि उत्तराखंड निर्माण आन्दोलन में भी महिलाओं की ऐतिहैसिक भूमिका रही। इन सभी आन्दोलनों ने महिलाओं के साथ ही समस्त समाज को दिशा देने का कार्य किया। महिलाओं द्वारा किये गए मुख्य आंदोलनों में चिपको, मद्यनिषेध, उत्तराखंड राज्य निर्माण रक्षासूत्र मैती सांस्कृतिक, सर्वशिक्षा, साक्षरता तथा महिला समाख्या जैसे आन्दोलन प्रमुख हैं।

यहाँ की महिला अपनी कठिन दिनचर्या, विषम परिस्थितियों एवं चुनौतियुक्त वातावरण में भी सामाजिक हितों के लिए समर्पित रही। इन आन्दोलनों की अनेक उपलब्धियाँ भी हैं। विसंगति यह है कि जिन आन्दोलन को यहाँ की महिलाओं ने अपने अथक प्रयासों से किया, उनका श्रेय पुरुषों को दे दिया गया। गढ़वाल की गौरा देवी तथा अन्य निस्वार्थ एवं निश्छल महिलाओं के नामों को हाशिये पर रखकर इसका पूरा श्रेय तथाकथित पर्यवारणविदों को दे दिया गया। यह तो बिलकुल वैसी ही बात हुई कि पशुपालन के सारे कार्य और दूध दुहकर मठ्ठा बनाने जैसे कार्य किये महिलाओं ने और मलाई मक्खन और घी खा गए पुरुष प्रधान समाज के प्रतिनिधि।

एक ओर जहाँ उत्तराखंड में शहरी क्षेत्र में महिलाओं की स्थिति कुछ संतोषजनक है; ग्रामीण परिवेश में स्थिति चिंताजनक है। उत्तराखंड के ग्रामीण परिवेश की बालिकाओं में असीम बौध्धिक क्षमता विद्यमान है किन्तु विसंगति यह है कि विद्यालयों के दूर होने तथा मूलभूत सुविधाओ के अभाव में ये बालिकाएँ तकनीकि एवं रोजगार परक शिक्षा से अभी भी वंचित हैं। जिसके परिणामस्वरूप वे रोजगार प्राप्त नहीं कर पाती हैं। उनकी आर्थिकी मज़बूत न होने के कारण वे जिस अनुपात में परिश्रम करती हैं उस अनुपात में उनकी आय नहीं होती और पुरुष उन्हें अभी भी मात्र उपभोग की वस्तु ही समझते हैं। सामाजिक विभेद से उत्तराखंड का महिला वर्ग निम्न आर्थिकी के दंश को झेल रहा है। दिन भर के कमरतोड़ परिश्रम के बाद चन्द पैसे कमाकर किसी प्रकार परिवार का भरण-पोषण भी करती हैं और तब भी पुरुषों द्वारा प्रताड़ित की जाती हैं।

परिणामत: महिलाओं के द्वारा आज भी सरकार के विरोध में मद्यनिषेध हेतु अनेक आन्दोलन किये जा रहे हैं। इसके अतिरिक्त गढ़वाल के कई गाँवो में महिलाओं द्वारा शराब उन्मूलन हेतु स्थानीय आन्दोलन भी चलाये जा रहे हैं। इसके अतिरिक्त गढ़वाल के कई गाँवो में महिलाओं द्वारा शराब उन्मूलन हेतु स्थानीय आन्दोलन भी चलाए जा रहे हैं। इसके अंतर्गत जिस परिवार या व्यक्ति के द्वारा शादी-समारोहों में शराब परोसी जाती है, महिला प्रधान, पंचायत तथा महिला मंगल दल द्वारा उससे जुर्माना वसूला जाता है। इस प्रकार यह नशामुक्ति का आन्दोलन महिलाओं द्वारा निरंतर जारी है।

विसंगति यह है कि महिलाओं ने लाज जीवन परिश्रम और प्रताडनाओं के बदले अलग राज्य का निर्माण करवाया आज का उत्तराखंड उनकी परिकल्पना से बिलकुल विपरीत है। आज भी यहाँ की सरकारें ऐसी कोई नीति नहीं बना पायी जिससे यहाँ की महिलाओं को बोझ से मुक्त किया जा सके। कई-कई किलोमीटर से उतराई-चढ़ाई पर आज भी पहाड़ी महिलाओं को अपना पहाड़-सा ही कठिन जीवन व्यतीत करना पड़ रहा है। पहाड में ग्रामीण महिलाओं की स्थिति आज भी पहाड जैसी है। या यों कहा जाएँ, यहाँ महिलाएँ सुबह जल्द आने की उम्मीद में जंगलों को निकलती तो हैं, मगर चारा-पत्ती व लकडी के । अभाव में देर रात तक घर लौट पाती हैं। उनकी सारी दिनचर्या ही घर की जिम्मेदारी उठाने में ही निकल जाती है। कई बार तो ये भी स्थिति आई है कि बच्चों से जल्दी आने की बात कह माँ जगंल तो गई मगर फिर किसी दुर्घटना का शिकार होकर रह गई। बात चमोली जिले की ही करें, तो यहाँ पिछले एक साल के अंतराल में पाँच महिलाओं की जंगल में घास काटने के दौरान मौत हो चुकी है।

साठ साल से अधिक हो चुकी महिलाओं की पीठ का बोझ आज भी कम नहीं हुआ है। महिलाओं की स्थिति में सुधार उनके लिए एक सपना ही है। आज भी महिलायें सुबह जंगल चले जाती है और जब घास लकड़ी की गठरी बने तभी लौटकर आती हैं और ऐसे में कई दिन तो शाम के अँधेरे होने के बाद ही घर पहुँच पाती हैं। एक विसंगति यह भी है कि पंचायत राज में भी अधिकतर महिलाओं को मात्र मोहर की भाँति ही उपयोग में लाया जाता है। महिलाऐं प्रधान, क्षेत्र पंचायत सदस्या ज़िला पंचायत सदस्या आदि से लेकर विधायक एवं सांसद तक हैं :किन्तु अधिकतर महिलाओं को महिला की मोहर पुरुष के झोले में वाली लोकोक्ति ही कही जाती है।

पर्याप्त सामजिक विभेद तथा उत्पीडन को झेलते हुए भी उत्तराखंड की महिलाओं ने अपने ऐतिहासिक कार्यों से इस राज्य का नाम देश में ही नहीं विश्वस्तर पर गौरवान्वित किया है। ऐसी महिलाओं के नाम विश्वपटल पर स्वर्णिम अक्षरों में विद्यमान हैं। ऐसी ही कुछ महिलाओं के नाम लेना चाहूंगी। भारत की प्रथम महिला एवरेस्ट विजेता पद्मश्री बछेन्द्रीपाल, द्रोणाचार्य पुरस्कारसे सम्मानित होने वाली प्रथम महिला हंसा मनराल, उत्तराखंड की प्रथम आई. ए. एस. महिला ज्योति राव पाण्डेय भारत की प्रथम महिला मेजर जनरल माया टम्टा, नीदरर्लैंड में पाकिस्तान की राजदूत रहीं आइरिन पन्त, प्रसिद्ध पर्वतारोही अर्जुन पुरस्कार नेशनल एडवेन्चर अवार्ड से सम्मानित पदमश्री चंद्रप्रभा ऐतवाल , उत्तराखंड की प्रथम महिला कुलपति प्रो. सुशीला डोभाल, ऐतिहासिक वीर गाथाओं तथा जागर गायकी में वे उत्तराखंड की एकमात्र महिला गायिका हैं पद्मश्री बंसंती बिष्ट, लखनऊ और नजीबाबाद आकाशवाणी केन्द्रों की प्रसिद्ध गायिका कबूतरी देवी, चिपको आन्दोलन की प्रथम सूत्रधार महिला. 1986 में प्रथम वृक्ष मित्र पुरस्कारसे सम्मानित गोरा देवी, उत्तराखंड आन्दोलन के सी.बी.आई. मुकदमे झेलनी वाली एकमात्र महिला सुभाषिनी बड़थ्वाल, उत्तराखंड विधानसभा की प्रथम उपसभापति विजया बड़थ्वाल', सांसद महारानी राज्यलक्ष्मी शाह, प्रसिद्ध लेखिका शिवानी तथा राष्ट्रपति पुरस्कार से सम्मानित माधुरी बड़थ्वाल इत्यादि कुछ ऐसे नाम है जिन्होंने विपरीत परिस्थितियों और पुरुष वर्चस्व युक्त समाज में भी अपनी सफलता से राज्य का नाम गौरवान्वित किया।

लोहे का सिर और बज्र कमर संघर्ष तेरा बलशाली

रुकती न कभी थकती न कभी तू हे पहाड़ की नारी

चंडी-सी चमकती चलती है जीवन संघर्ष है जारी

रुकती न कभी थकती न कभी तू हे पहाड़ की नारी

तू पहाड़ पर चलती है हौसले लिए पहाडी

रुकती न कभी थकती न कभी तू हे पहाड़ की नारी

एक-एक हुनर तो तेरा है सौ-सौ पुरुषों पर भारी

रुकती न कभी थकती न कभी तू हे पहाड़ की नारी

सैनिक की माता, पत्नी, बहिन मैं तुझ पर हूँ बलिहारी।

रुकती न कभी थकती न कभी तू हे पहाड़ की नारी।