उत्तरायण और दक्षिणायन / गीताधर्म और मार्क्सीवाद / सहजानन्द सरस्वती
गीता के आठवें अध्यानय के 'यत्र काले त्वनावृत्तिं' आदि 23 से 27 तक के श्लोकों में उत्तरायण और दक्षिणायन या शुक्ल और कृष्ण मार्गों का वर्णन आता है। इसके बारे में तरह-तरह की कल्पनाएँ होती हैं। पुराने टीकाकारों और भाष्यकारों ने तो प्राय: एक ही ढंग से अर्थ किया है। हाँ, शब्दों के अर्थों से किन चीजों का अभिप्राय है इसमें कुछ मतभेद उनमें भी पाया जाता है। उनने इन दोनों मार्गों को देवयान और पितृयान (याण) भी कहा है। यान रास्ते को भी कहते हैं और सवारी या ले चलने वाले को भी। घोड़ा, गाड़ी वगैरह यान कहे जाते हैं। मगर जो पथदर्शक हो वह भी सवारी से कम काम नहीं करता। इसलिए उसे भी यान कहते हैं और वाहक भी। इन मार्गों को अर्चिरादि मार्ग और धूमादि या धूम्रादि मार्ग भी कहा है। पहले में अग्नि से ही शुरू करते हैं। और उसके बाद ही तो ज्योति:, अर्चि: या प्रकाश है। इसीलिए उसे अर्चिरादि कह दिया है। अग्नि ही यद्यपि शुरू में है और उसके बाद ही ज्योति: शब्द और कहीं-कहीं अर्चि: शब्द आता है; मगर अग्न्यादि मार्ग न कह के अर्चिरादि इसलिए कहते हैं कि अग्नि तो दोनों में है। उसके बाद ही रास्ते बदलते हैं। दूसरे में धूम से ही शुरू करने के कारण धूमादि नाम उसका पड़ा। इसी धूम को किसी-किसी ने धूम्र कहा है। धूम्र के मानी हैं। मलिन या अँधरे वाला। इस मार्ग में प्रकाश नहीं होने से ही इसे धूम्रादि कह डाला। कुछ नए टीकाकारों ने यही कह के संतोष कर लिया कि हमें इन श्लोकों का तात्पर्य समझ में नहीं आता। असल में पुराणों की तो बात ही जाने दीजिए। छांदोग्य और बृहदारण्यक उपनिषदों में भी जो इन दोनों मार्गों का वर्णन है उस पर भी उन्हें या तो विश्वास नहीं है, या उसे भी वे एक पहेली ही मान के ऐसा कह देते हैं।
बेशक यह चीज पुरानी है यहाँ तक कि ऋग्वेद (10। 88। 15) में भी इसका जिक्र है। यास्क के निरुक्त (14। 9) में भी यह बात पाई जाती है। महाभारत के शांतिपर्व में तो हई। वेदांत दर्शन के चौथे पाद के दूसरे और तीसरे अधिकरणों में भी यह बात आई है। इस पर वाद-विवाद भी पाया जाता है। कौषीत की उपनिषद के पहले अध्या य के शुरू के 2-3 आदि मंत्रों में भी यह बात आई है। वहाँ बहुत विस्तृत वर्णन है जो अन्य उपनिषदों में नहीं है। बृहदारण्यक उपनिषद के पाँचवें अध्याोय के दसवें ब्राह्मण में थोड़ी-सी और छठे अध्याेय के दूसरे ब्राह्मण के कुल सोलह मंत्रों में यही बात आई है। हालाँकि कौषीत की वाली कुछ ब्योरे की बातें इसमें नहीं लिखी हैं; फिर भी बहुत विस्तृत वर्णन है। छांदोग्योपनिषद के पाँचवें अध्या्य के तीन से लेकर दस तक के आठ खंडों में भी यह वर्णन पूरा-पूरा पाया जाता है। उसके चौथे अध्याोय के 15वें खंड में भी यह बात आई है। जब ऋग्वेद जैसे प्राचीनतम ग्रंथ से लेकर महाभारत तक में यह चीज पाई जाती है तो मानना ही होगा कि उस समय इसका पूरा प्रचार था। इस पर पूरा मनन, विचार और अंवेषण ही उस समय जारी था। इसीलिए इस प्रश्न का महत्त्व भी बहुत ज्यादा था। यदि छांदोग्य आदि उपनिषदों में इस विषय का निरूपण पढ़ें तो पता लगता है कि आरुणि जैसे महान ऋषि को भी इसका पता न था। इसे वहाँ पंचाग्नि-विद्या कहा है। साथ ही छांदोग्योपनिषद में ही नक्षत्र विद्या आदि कितनी ही विद्याएँ (Science) गिनाई हैं, जिनका नाम भी हम नहीं जानते। छांदोग्योपनिषद् के सातवें अध्यादय के पहले और दूसरे खंडों में नारद ने सनत्कुमार से कहा है कि ऋग्वेदादि चारों वेदों, वेदों के वेद, पाँचवें इतिहास-पुराण के सिवाय, अनेक विद्याओं के साथ देवविद्या, ब्रह्मविद्या, भूतविद्या, क्षेत्रविद्या, नक्षत्रविद्या, सर्पविद्या, जनविद्या और देवविद्या जानता हूँ। ये विभिन्न वैज्ञानिक अध्ययन नहीं तो और क्या है? मगर अन्यान्य बातों में पतन के साथ ही इस बात में भी हमारा पतन कुछ ऐसा भयंकर हो गया कि हम ये बातें पीछे चल के कतई भूल गए। आज तो यह हालत है कि इन्हें हम केवल धर्म; बुद्धि से ही मानते हैं, सो भी इसीलिए कि हमारी पोथियों में लिखी हैं। मगर इनके बारे में न तो सोच सकते और न कोई दार्शनिक युक्ति ही दे सकते हैं?
लेकिन यदि थोड़ा भी विचार किया जाए तो पता चलेगा कि इन बातों का उसी कर्मवाद से ताल्लुक है जिसका निरूपण हम बहुत ही विस्तार के साथ पहले कर चुके हैं। जब हमारे पुराने आचार्य, ऋषिमुनि और दार्शनिक पुनर्जन्म को स्वीकार करने लगे तो उनने उसके मूल में इस कर्मवाद को ही माना। सद्गति और दुर्गति या मनुष्य से लेकर कीट-पतंग एवं वृक्षादि की योनियों में जाने और वैसा ही शरीर ग्रहण करने का कारण वह कर्म को ही मानते थे। आज हम यहाँ मनुष्य शरीर में हैं। कुछ दिन बाद मर के हजार कोस पर पशु या किसी और योनि में जाएँगे। सवाल होता है कि वहाँ हमें कौन, क्यों पहुँचायेगा और कैसे? हमने यहाँ बुरा-भला कर्म किया। उसका फल हमें हजारों कोस पर कौन पहुँचाएगा? जब व्यष्टि और समष्टि दोनों ही तरह के कर्मों से हमारे शरीर बनते या बुरी-भली बातें होती हैं, तो यहाँ के गैर के द्वारा किए गए कर्मों से हमारा शरीर कहीं दूर देश में कैसे बनेगा कि हम उस गैर को वहीं उसी शरीर से सताएँगे या आराम देंगे? श्राद्ध, यज्ञयागादि हमारे लिए कोई भी करे और उसका नतीजा हमें भी मिले - क्योंकि एक के कर्म का फल दूसरे को भी मिलता ही है, यह बता चुके हैं - इसकी व्यवस्था कैसे होती है? किसी ने हमारे मरने पर पिंडदान या तर्पण किया और हम बाघ या साँप की योनि में जनम चुके हैं, तो उस श्राद्ध या तर्पण का फल मांस या हवा आदि के रूप में हमें कौन पहुँचाएगा? बाघ को मांस ही चाहिए न? भात या आटे का पिंड तो उसके किसी काम का नहीं। वह तो यहीं रह जाता है भी। साँप को भी तो हवा चाहिए। ऐसी ही बातों पर सोच-विचार करके उनने कर्मवाद की शरण ली। साथ ही सबकी व्यवस्था के लिए एक व्यापक चेतना शक्ति को मानकर उसे ईश्वर नाम दिया। ईश्वर कहते हैं शासन करने वाले को।
इसी कर्मवाद के सिलसिले में यह उत्तरायण और दक्षिणायन वाली बात भी आ गई। हम तो कही चुके हैं कि हरेक पदार्थों से अनंत परमाणु प्रत्येक क्षण में निकलते ही रहते और उनकी जगह दूसरे आते रहते हैं। यह भी बात अच्छी तरह लिखी गई हैं कि ठीक समय पर ये परमाणु निकलते हैं, इनके कोष (Stock) हजारों ढंग के बने होते हैं, नए भी बनते जाते हैं, उनमें से ही दूसरे परमाणुओं के चावल वगैरह में शामिल होते हैं और उनसे जो निकले थे वे या तो पहले से बने परमाणु-कोष में जा मिलते हैं या उनसे नए कोष बनते हैं। यह बात दिन-रात चालू है। हमारी बाहरी आँखें इसे नहीं देखती हैं सही मगर भीतरी आँखें मानने को मजबूर होती हैं। फिर भी यह सारी बातें कैसे हो रही हैं और इनकी क्या व्यवस्था है, हम नहीं जानते। ब्योरे की बातें हमारी शक्ति के बाहर की हैं। नहीं तो फिर ईश्वर की जरूरत ही क्यों हो? तब हमीं ईश्वर नहीं बन जाते? हम भीतर की धुँधली आँखों से इन बातों को मोटा-मोटी देखते हैं। क्योंकि इनके बिना काम चलता नहीं दीखता, अक्ल रुक जाती है, आगे बढ़ पाती नहीं और कुंठित हो जाती है। जो नए परमाणु आते हैं वह ऊपर ही ऊपर गर्द-गुब्बार की तरह नहीं चिपकते। वे तो चावलों के भीतर घुस जाते, उनमें प्रविष्ट हो जाते। उनके यंग-प्रत्यंग बन जाते हैं!
जिस प्रकार ये बातें भौतिक पदार्थों के बारे में उनने इस भौतिक विज्ञान-युग के आने के बहुत पहले मान ली थीं, देख ली थीं, हम यह पहले ही कह भी चुके हैं, ठीक उसी प्रकार कर्म और आत्मा के बारे में भी उनने - उनकी सूक्ष्म आँखों ने - कुछ बातें देखीं, कुछ सिद्धांत स्वीकार किए। आत्मा या आत्मा के साथ ही चलने वाले सूक्ष्म शरीर के आने-जाने के बारे में भी उनने कुछ बातें तय की थीं। गीता ने 'ममैवांशो जीवलोके' आदि (15। 7-11) श्लोकों में जीवात्मा के आने-जाने का जो वर्णन करते हुए कहा है कि वह मन आदि इंद्रियों को साथ ले के जाती है वह उनकी यही कल्पना है। मन आदि इंद्रियों से मतलब वहाँ उस सूक्ष्म शरीर से ही है, जिसमें पूर्वोक्त पाँच कर्मेंद्रिय, पाँच ज्ञानेंद्रिय, पाँच प्राण और मन एवं बुद्धि यही सत्रह पदार्थ पाए जाते हैं - वह शरीर इन्हीं सत्रहों से बना है। मरने के समय वही निकल जाता है स्थूल शरीर से, और जन्म लेने में वही पुनरपि आ घुसता है। उसी के साथ आत्मा का आना-जाना है। खुद तो आ जा सकती नहीं। आईने के साथ जैसे किसी चीज का प्रतिबिंब चलता है वैसे ही सूक्ष्म शरीर के साथ आत्मा का प्रतिबिंब चलता है। आत्मा स्वयं तो सर्वत्र व्यापक है। वह कैसे आएगी? प्राणों का काम है घोड़े की तरह खींचना। उनमें क्रिया जो है। बुद्धि आईना है। उसी में आत्मा का प्रतिबिंब है। वही अँधरे में रास्ता दिखाती है।
यहाँ सवाल यह होता है कि सूक्ष्म शरीर का यह आना-जाना कैसे होता है? यह किस रास्ते से, किस सवारी या पथदर्शक की मदद से ठीक रास्ते पर जाता है और चौराहे पर नहीं भटकता? रास्ते में पड़ाव है या नहीं। पथदर्शक (guide) भी तो अनेक होंगे। क्योंकि एक ही कहाँ तक ले जाएगा? और यदि एक ही जीवात्मा के सूक्ष्म शरीर को ले जाना हो तो यह भी हो। मगर यहाँ तो हजारों हैं, लाखों हैं, अनंत हैं। रोज ही लाखों प्राणी मरते हैं। फलत: रास्ते में भीड़ तो होगी ही। इसीलिए कुछ दूर बाद ही एक पथदर्शक अपनी थाती (charge) को दूसरे के जिम्मे लगा के फौरन लौट आता होगा। फिर दूसरे को ले चलता होगा। इस प्रकार सबकी डयूटी बँटी होगी, बँधी होगी। कितनी दूर से कितनी दूर तक हरेक का चार्ज रहेगा यह भी निश्चित होगा, निश्चित होना ही चाहिए। जैसा यहाँ भौतिक दुनिया में हो रहा है उसी के अनुसार ही उस दुनिया में भी, जिसे आध्यानत्मिक या परलोक की दुनिया कहते हैं, उनने सोच निकाला होगा। दूसरा करते भी क्या? दूसरा तो रास्ता है नहीं, उपाय है नहीं। यही है उत्तरायण और दक्षिणायन मार्ग के मानने की दार्शनिक बुनियाद। यही है उसका मूल सिद्धांत।
मरने के बाद शरीर को तो जलाई देते थे। कम से कम अग्नि संस्कार करते थे। यह भी कहा जाता है कि जलाने या अग्नि संस्कार के ही समय समान नामक प्राण इस शरीर से निकलता है। तब तक चिपका रह जाता है। यह खयाल अत्यंत पुराना है। इसीलिए मृतक का जलाना और अग्नि संस्कार हिंदुओं के यहाँ जरूरी माना गया है। यही कारण है कि जो लोग किसी वजह से मृतक को जला नहीं सकते वह भी अग्नि संस्कार अवश्य करते हैं। जलाने से बिगड़ते-बिगड़ते यह बात हो गई! मगर इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि जलाने के बाद ही जीवात्मा की अंतिम विदाई यहाँ से होती है, ऐसी ही मान्यता थी। यही कारण है कि गीता (8। 24) में अग्नि से ही शुरू किया है - उत्तरायण मार्ग को लिखते हुए अग्नि से ही शुरू किया है। हालाँकि जब इस मार्ग को ज्योतिरादि या अर्चिरादि कहते हैं तब तो अग्नि के बाद जो ज्योति: शब्द आया है उसे ही शुरू में आना चाहिए था। इसीलिए अगले श्लोक में धूम से ही शुरू किया है। मगर अग्नि देने का अभिप्राय यही है कि अग्नि से संबंध तो सभी का होता है। उसके बाद ही दो रास्ते अग्नि को ज्वाला और उसके धूम से शुरू हो जाते हैं। यही वजह है कि अगले श्लोक में अग्नि शब्द की जरूरत न समझी गई। उसका काम तो पहले ही श्लोक से चल जाता है। उस एक ही अग्नि शब्द से और दोनों मार्गों के ज्योतिरादि एवं धूमादि नाम होने से ही लोग यह आसानी से समझ जाएँगे कि अग्नि में जलाने के बाद ही ज्योति और धूम से संबंध होगा, न कि पहले।
'यत्रकाले त्वनावृत्तिं' (8। 23) में काल का उल्लेख है। उससे यह भी पता चलता है कि दोनों मार्गों में काल ही की बात आती है। लेकिन यहाँ तो शुरू में अर्चि और धूम ही आए हैं। उनके बाद अह:, रात्रि, कृष्णपक्ष, शुक्ल, उत्तरायण के छ: महीने और दक्षिणायन के छ: महीने जरूर आए हैं, ये काल या समय के ही वाचक हैं भी। लेकिन आगे के श्लोकों में 'गती' और 'सृती' शब्द मार्ग या रास्ते के ही मानी में आए हैं। इसलिए छांदोग्य, बृहदारण्यक तथा निरुक्त आदि में भी उत्तरायण में आदित्य, चंद्र विद्युत और मानस या अमानव आदि का तथा दक्षिणायन में पितृलोक, आकाश, चंद्रमा आदि का भी जिक्र है इसलिए भी बहुतों का खयाल है कि यहाँ काल या समय की बात न हो के कुछ और ही है। इसके विपरीत महाभारत के भीष्मपर्व (120) और अनुशासनपर्व (167) से पता चलता है कि आहत होने के बाद भीष्म बाण-शैया पर पड़े-पड़े उत्तरायणकाल को देख रहे थे कि जब सूर्य उत्तरायण हो तो शरीर छोड़ें। इसीलिए जब तक दक्षिणायन रहा वह प्राणत्याग न करके लोगों को उपदेश देते रहे। इससे तो काल की ही महत्त्व उत्तरायण और दक्षिणायन मार्गों में प्रतीत होती है। गीता ने शुरू में काल ही नाम इन दोनों को दिया भी है।
इस उलझन को सुलझाने के लिए शंकर ने कहा है कि प्रधानता तो काल की ही है। इसलिए दूसरों के आ जाने पर भी काल ही कहा गया है। क्योंकि जिस वन में ज्यादा आम हों उसे आम्रवन और जहाँ ब्राह्मण ज्यादा हों उसे ब्राह्मणों का गाँव कहते हैं - 'भूयसांतुनिर्देशो यत्रकाले तं कालमित्याम्रवणवत्।' कुछ लोगों ने इससे यह भी अर्थ लगाया है कि जब किसी समय में वैदिक ऋषियों का निवास उत्तर ध्रुव के पास था, जहाँ छ: मास के दिन-रात होते हैं, उसी समय उत्तरायण का समय मृत्यु के लिए प्रशस्त माना गया। वही बात पीछे भी चल पड़ी। इसलिए शंकर आदि ने जो ज्योति:, अह: आदि शब्दों से तत्संबंधी देवताओं को माना है उस पर उनने आक्षेप भी किया है, हालाँकि काल तो शंकर ने साफ ही स्वीकार किया है। हमारे जानते तो शंकर का लिखना सही है। इसकी सुलझन भी हमें थोड़ा विचार करने से मिल जाती है। हमें इस बात के विवाद में नहीं पड़ना है कि उत्तर ध्रुव के पास कभी आर्य लोग या वैदिक ऋषि थे या नहीं। संभव है, वे रहे भी हों! मगर यहाँ वह बात नहीं हैं, हमारा यही खयाल है।
असल में एक बात सोचने की यह है कि प्रत्येक पदार्थ के परिपक्व होने में सबसे बड़ा हाथ काल या समय का ही होता है यह तो मानना ही होगा। कम-बेश समय के चलते ही चीजें पक्व तथा अपक्व होती हैं। यह ठीक है कि युक्ति से हम समय में कमी-बेशी कर दे सकते हैं। मगर समय की अपेक्षा तो फिर भी रहती ही है। काल और दिशा को जो प्राचीन दार्शनिकों ने माना वह इसी जरूरत को पूरा करने के लिए। काल और दिशा में कोई बुनियादी फर्क नहीं है। दोनों एक जैसे ही हैं। और एक दूसरे के सहायक हैं। इसीलिए वस्तुगत्या एक ही हैं। हम देखते हैं कि पदार्थों में परमाणुओं का आना या वहाँ से जाना भी समय की अपेक्षा करता है। कैसा परमाणु कब निकले या आए यह बात भी काल की अपेक्षा रखती है। यहाँ उत्तरायण और दक्षिणायन मार्गों में क्रमश: उपासना या अपरिपक्व ज्ञान तथा कर्म के परिपाक की ही जरूरत है भी; ताकि आगे वे अपना परिणाम या फल दिखला सकें। इसीलिए जो भी परिणाम होने वाला हो उससे पहले एक लंबा या विस्तृत काल होगा ही, फिर वह लंबाई चाहे बहुत ज्यादा हो या अपेक्षाकृत कम हो। ऋषियों ने उसी काल की कल्पना करके उसके विभाग वैसे ही किए जैसे हमने यहाँ कर रखे हैं - जैसे यहाँ पाए जाते हैं। इस विभाग के बाद जब ज्यादा लंबा काल आ गया तो उसे हमारी अपनी तराजू से नाप-जोख और बँटवारा न करके दिव्य या देवताओं की तराजू से ही बँटवारा किया। आखिर हमारी नन्ही तराजू से कब तक बाँटते रहते? यही रहस्य है दैवी या दिव्य वर्ष मानने का जिसमें हमारे छ: महीने का दिन और उतने की ही रात मानी गई। यह तो मामूली दिव्यतराजू हुई। मगर इससे भी लंबी है आखिरी तराजू, जिसे हिरण्यगर्भ या ब्रह्मा की तराजू कहते हैं। इसमें हमारे हजार युगों के दिन-रात माने जाते हैं। यही बात गीता ने इस उत्तरायण-दक्षिणायन-विवेचन के पहले उसी अध्यारय में 'सहस्रयुगपर्यन्तं' (8। 17-19) श्लोकों में लिखी है। उसका भी इसी से ताल्लुक सिद्ध हो जाता है। क्योंकि उसी के बाद उत्तरायण आदि की बात पाई जाती है।
भीष्म की उत्तरायणवाली प्रतीक्षा भी इसी बात को पुष्ट करती है। जब उपासना या कर्म के परिपक्व होने में समय सहायक है तो उत्तरायण काल क्यों न होगा? वह तो थे उपासक। इसलिए उन्हें जाना था उसी मार्ग से। उसमें जो परिपाक होने में देर होती और इस तरह उनका वह उपासना रूप ज्ञान देर से पकता, उसी की आसानी के लिए उनने उत्तरायण की प्रतीक्षा की। यह आमतौर से देखा जाता है कि लोग रात में ही मरते हैं। आम लोग वैसे ही होते हैं। उन्हें ज्ञान से ताल्लुक होता ही नहीं। इसीलिए उनका रास्ता अँधरे का ही होता है। दक्षिणायन कुछ ऐसा ही है भी। वहाँ धूम, रात वगैरह सभी वैसे ही हैं। यह ठीक है कि बड़े-बड़े कर्मी लोगों के बारे में ही दक्षिणायन मार्ग लिखा है। जो ऐसे उपासक, ज्ञानी या कर्मी नहीं हैं उनके बारे में छांदोग्य के 'अथैतयो: पथोर्न' (5। 10। 8) में यह मार्ग नहीं लिखा है। लेकिन इसका इतना ही अर्थ है कि ऐसे लोग स्वर्ग या दिव्यलोक में नहीं जा के बीच से ही अपना दूसरा मार्ग पकड़ लेते हैं। क्योंकि मरने पर आखिर ये भी तो दूसरे शरीर धारण करेंगे ही और उन शरीर में इन्हें पहुँचाने का रास्ता तो वही है। दूसरा तो संभव नहीं। यह ठीक है कि उत्तरायण और दक्षिणायन शुरू में ही अलग होने पर भी संवत्सर में जा के फिर मिल जाते हैं। मगर तीसरे दलवाले जनसाधारण के मार्ग को वहाँ मिलने नहीं दिया जाता। साथ ही दक्षिणायन वाले संवत्सर या साल के छ: महीनों के बाद पितृलोक में सीधे जाते हैं और इस प्रकार ऊपर जा के दो रास्ते साफ हो जाते हैं। जैसा कि छांदोग्य (5। 10। 3) से स्पष्ट है। वैसे ही कर्मी लोगों के रास्ते से भी कुछी दूर जा के जनसाधारण अपना दूसरा रास्ता पकड़ लेते हैं। उत्तरायण वाले ब्रह्मलोक जाते हैं। दक्षिणायन वाले स्वर्ग जाते हैं। शेष लोग दोनों में कहीं न जा के मरते-जीते रहते हैं। यही तो वहाँ साफ लिखा है। स्वर्ग से लौटते हुए चंद्रलोक में आ के आकाश में आते और वायु आदि के जरिए मेघ में प्रविष्ट हो के उन अन्नों में जा पहुँचते हैं जिन्हें उनके भावी माता-पिता खाएँगे। पानी से तो अन्न होता ही है। गीता ने भी यह कही दिया है। इसीलिए वृष्टि के द्वारा अन्न में जाते हैं। यही बात छांदोग्य (5। 10। 5-6) में पाई जाती है। पाँच आहुतियों के रूप में इसी का विस्तार इसी से पहले के 4 से 9 तक के खंडों में किया गया है। मगर साधारण लोग आकाश के बाद चंद्रमा होते स्वर्ग में नहीं जाते; किंतु वहीं से वायु में हो के वृष्टि के क्रम से अन्न में आ जाते हैं। बस, यही फर्क है।
अत: कुछ इस तरह का संबंध इस रात की मौत से मालूम होता है कि वह साधारणत: दक्षिणायन मार्ग और उस अँधरे रास्ते से ही जुटी है - रात्रि की मौत का दक्षिणायन या अर्द्ध दक्षिणायन वाले अँधरे रास्ते से ही संबंध आमतौर से है। इसमें केवल अपवाद ही होता है - हो सकता है। यह बात अस्वाभाविक या आकस्मिक मृत्यु वगैरह में ही पाई जाती है जो दिन में होती है। कम से कम यही खयाल उस समय के दार्शनिकों और विवेकियों का था। इसीलिए भीष्म ने दिन और उत्तरायण की मौत को ही पसंद किया। इसीलिए उत्तरायण की प्रतीक्षा करते रहे। उनने और दूसरे लोगों ने माना कि इस तरह उनके ब्रह्मलोक पहुँचने या उपासना के परिपक्व होने में आसानी होगी। हमारे जानते यही तात्पर्य इस समस्त वृत्तांत और वर्णन का है। इसमें सबका समावेश भी हो जाता है। मार्ग या रास्ता कहने से तो कोई अंतर आता नहीं है। मार्ग तो वह हई। आखिर जमीन का रास्ता तो वहाँ है नहीं। वह तो दिशा तथा समय का ही है। ऊँचे, नीचे, पूर्व, पच्छिम कहीं भी जाना हो उसका काल से संबंध हई और पूर्व आदि दिशा को काल से जुदा मानते भी नहीं यह कही चुके हैं।
उत्तरायण प्रकाशमय है और दक्षिणायन अँधेरा। इसीलिए पथपदर्शकों के नाम भी दोनों में ऐसे ही हैं। मालूम होता है, जैसे चावल के परमाणु निकलने के रास्ते और साधन हैं जिन्हें हम देख न सकने पर भी मानते हैं, नहीं तो व्यवस्था न हो के गड़बड़ी हो जाती; वैसे ही शरीरदाह के बाद उत्तरायण मार्ग में चिताग्नि की ज्योति और दक्षिणायन में उसका धुआँ मृतात्मा की सूक्ष्म देह को ले चलने का श्रीगणेश करते हैं। कम से कम प्राचीनों ने यही कल्पना की थी कि सूक्ष्म शरीर को यही दोनों यहाँ से उठाते और ले चलते हैं। आगे दिन और रात को सौंप देते हैं। वह शुक्ल और कृष्णपक्ष को। यही क्रम चलता है। ज्योति, धूम आदि को देवता तो इसीलिए कहा कि इनमें वह अलौकिक - दिव्य - ताकत है जो हम औरों में नहीं पाते। सूक्ष्म शरीर को ले जाना और पहुँचाना असाधारण या अलौकिक काम तो हई। वैदिक यज्ञयागादि कर्मों का ज्ञान या विवेक से ताल्लुक है नहीं यह तो गीता ने 'यामिमां' (2। 42-46) आदि में कहा ही है और उन्हीं का फल है यह दक्षिणायन। इसीलिए यहाँ प्रकाश नहीं है। जैसे का तैसा फल है। उधर उपासना कहते हैं अपूर्ण ज्ञान की अवस्था को ही। इसलिए उसमें प्रकाश तो हई । यही बात उत्तरायण में भी है। ज्ञान के अपूर्ण होने के कारण ही मृतात्मा की, ब्रह्मलोक में पहुँचने के उपरांत समय पा के ज्ञान पूर्ण होने पर, ब्रह्मा के साथ ही मुक्ति मानी गई है। इसी को क्रम मुक्ति भी कहते हैं। जैसे जनसाधारण के लिए इन दोनों की अपेक्षा जीने-मरने का एक तीसरा ही रास्ता कहा गया है; उसी तरह अद्वैत तत्व के ज्ञानवाले का चौथा है। वह तो कहीं जाता है न आता है। उसके प्राण यहीं विलीन हो जाते और वह यहीं मुक्त हो जाता है।
गीता ने एक ओर तो यह चीज कही है। दूसरी ओर 'त्रैविद्या मां' (9। 20-21) में अस्थाई स्वर्ग सुख का भी वर्णन किया है। उसे भी कर्म-फल ही बताया है। वह यही दक्षिणायन वाली ही चीज है। यों तो ब्रह्मज्ञान और आत्मानंद का गीता में सारा वर्णन ही है। स्थित प्रज्ञ, भक्त और गुणातीत की दशा उसी आत्मज्ञान और ब्रह्मानंद की ही तो है। सवाल होता है कि स्वर्ग और ब्रह्मानंद के अलावे उत्तरायण-दक्षिणायन के पृथक वर्णन की क्या जरूरत थी? इससे व्यावहारिक लाभ है क्या? गीता तो अत्यंत व्यावहारिक (Practical) है। इसीलिए यह प्रश्न होता है।
असल में कर्मों के सिलसिले में कर्मवाद की बात आते-आते यह भी आनी जरूरी थी। इससे साधारण कर्मों की तुच्छता, अपूर्ण ज्ञान की त्रुटि एवं पूर्ण तत्वज्ञान की महत्त्व सिद्ध हो जाती है। स्वर्ग के वर्णन में केवल स्वर्ग की बात और उसकी अस्थिरता आती है। मगर ब्रह्मलोक की तो आती नहीं। एक बात और है। उपनिषदों में दक्षिणायन के वर्णन में कहा गया है कि चंद्रलोक में जा के जीवगण देवताओं के अन्न या भोग्य बन जाते हैं। देवता उन्हें भोगते हैं। देवता का अर्थ है दिव्यशक्तियाँ। वहाँ भी गुलामी ही रहती है। दिव्यशक्तियाँ जीव से ऊपर रहती हैं। फिर वह वहाँ से नीचे गिरता है। इसीलिए उसे यह खयाल स्वभावत: होगा कि हम ऐसा क्यों न करें कि कम से कम ब्रह्मलोक जाएँ, जहाँ कोई देवता हम पर न रहेगा; या आत्मज्ञान ही क्यों न प्राप्त कर लें कि सभी आने-जाने के झमेलों से बचें और खुद देवता बन जाएँ। क्योंकि नौ, दस, ग्यारह अध्यायों में तो सभी देवताओं को परमात्मा का अंश या उसकी विभूति ही कहा है और ज्ञानी स्वयं परमात्मा बन जाता ही है - वह खुद परमात्मा है। बस, इससे अधिक लिखने का यहाँ मौका नहीं है।