उत्तर प्रदेश की खिड़की / विमल चंद्र पांडेय
(प्रिय मित्र सीमा आजाद के लिए)
प्रश्न - मेरे घर की आर्थिक हालत ठीक नहीं है और मेरे पिताजी की नौकरी छूट गई है। वो चाहते हैं कि मैं घर का खर्च चलाने के लिए कुछ काम करूँ लेकिन मैं अपनी पढ़ाई पूरी करना चाहता हूँ। मैं अपनी पढ़ाई के साथ-साथ उनकी मदद भी करना चाहता हूँ और चाहता हूँ कि कोई ऐसा काम कर सकूँ कि पढ़ाई भी हो सके और कुछ कमाई भी, मैं क्या करूँ? - मनोज कनौजिया, वाराणसी
उत्तर - आपका पहला फर्ज है अपने पिताजी की मदद करना लेकिन यह भी सच है कि बिना उचित ज्ञान और डिग्री के कोई अच्छा काम मिलना मुश्किल है। दिक्कत यह भी है कि ऐसा कोई काम कहीं नहीं है जो करके आप पैसे भी कमाएँ और साथ में पढ़ाई भी कर सकें। काम चाहे जैसा भी हो, अगर वह आप पैसे कमाने के लिए कर रहे हैं तो वह आपको पूरी तरह चूस लेता है और किसी लायक नहीं छोड़ता।
प्रश्न - मेरी मेरे माता-पिता से नहीं बनती। वे लोग चाहते हैं कि मैं आर्मी में जाने के लिए रोज सुबह दौड़ने का अभ्यास करूँ जबकि मैं संगीत सीखना चाहता हूँ। मेरा गिटार भी उन लोगों ने तोड़ दिया है। मेरे पिताजी और चाचाजी वगैरह ऐसे लोग हैं जो हर समय पैसे, धंधे और नौकरी की बातें करते रहते हैं, मेरा यहाँ दम घुटता है। मैं क्या करूँ? - राज मल्होत्रा, मुंबई
उत्तर - माता-पिता को समझाना दुनिया का सबसे टेढ़ा काम है। उन्हें समझाने की कोशिश कीजिए कि न तो दौड़ने का अभ्यास करने से आजकल आर्मी में नौकरी मिलती है और न तैरने का अभ्यास करने से नेवी में। आप अपने मन का काम करना जारी रखिए। जाहिल लोगों से निपटने का सबसे अच्छा तरीका है चुपचाप अपना काम करना और उन्हें इग्नोर करना।
प्रश्न - मेरे पति अक्सर टूर पर बाहर रहते हैं। हमारी शादी को अभी सिर्फ दो साल हुए हैं और मुझे रात को उनकी बहुत कमी महसूस होती है। मेरा पड़ोसी कुँआरा है और हमेशा मेरी मदद को तैयार रहता है। मैं आजकल उसकी तरफ आकर्षित महसूस कर रही हूँ। मैं खुद को बहकने से बचाना चाहती हूँ, क्या करूँ? - क ख ग, दिल्ली
उत्तर - आप अपने पति को समझाइए कि वह अपने टूर की संख्या थोड़ी कम करें और आप अकेले में पूजा-पाठ और गायत्री मंत्र का जाप किया करें। अपने आप को सँभालें वरना आपका सुखी परिवार देखते-देखते ही उजड़ जाएगा।
प्रश्न - मेरी उम्र 26 साल है और मेरे दो बच्चे हैं। मेरा मन अब सेक्स में नहीं लगता पर मेरे पति हर रात जिद करते हैं। मेरे स्तनों का आकार भी छोटा है जिसके कारण मेरे पति अक्सर मुझ पर झल्लाते रहते हैं। मैं क्या करूँ? - एक्सवाईजे़ड, अहमदाबाद
उत्तर - पति को प्यार से समझाकर कहिए कि शारीरिक कमी ईश्वर की देन है इसलिए उसके साथ सामंजस्य बनाएँ। रात को बिस्तर पर पति को सहयोग करें, अगर सेक्स में मन नहीं लगता तो कुछ रोमांटिक फिल्में देखें और उपन्यास पढ़ें। इस उम्र में शारीरिक संबंधों से विरक्ति अच्छी नहीं।
प्रश्न... प्रश्न... प्रश्न
उत्तर... उत्तर... उत्तर
चिंता की कोई बात नहीं। इन समस्याओं में से कितनी ठीक हुईं और कितनी नहीं, इसका मुझे कोई हिसाब नहीं रखना पड़ता। जी हाँ, मैं ही इन सवालों के जवाब देता हूँ। मेरा नाम अनहद है, मेरा कद पाँच फीट चार इंच है और महिलाओं की इस घरेलू पत्रिका में यह मेरा दूसरा साल शुरू हो रहा है। मेरी शादी अभी नहीं हुई है और अगर आप मेरे बारे में और जानना चाहेंगे तो आपको मेरे साथ सुबह पाँच बजे उठ कर पानी भरना होगा और मेरे पिताजी का चिल्लाना सुनना होगा। ऐसा नहीं है कि वे सिर्फ मुझ पर चिल्लाते हैं। चिल्लाना दरअसल उनके लिए रोज की सैर की तरह है और वह इस मामले में मेरी माँ और मेरे भाई में कोई फर्क नहीं करते। वह एक चीनी मिल में काम करते हैं, ‘हैं’ क्या थे लेकिन वे अपने लिए ‘थे’ शब्द का प्रयोग नहीं सुनना चाहते। उनका काम सुपरवाइजर का है। मैं सुपरवाइजर का मतलब नहीं जानता था तो यह सोचता था कि मिल पिताजी की है और हम बहुत अमीर हैं। वह बातें भी ऐसे करते थे कि आज उन्होंने दो मजदूरों की आधी तनख्वाह काट ली है, आज उन्होंने एक कामचोर मजदूर को दो दिन के लिए काम से निकाल दिया या आज उनका मिल देर से जाने का मन है और वह देर से ही जाएँगे। जिस दिन वह देर से जाने के लिए कहते और देर से जागते तो माँ कहती कि अंसारी खा जाएगा तुमको। वह माँ को अपनी बाँहों में खींच लेते थे और उनके गालों पर अपने गाल रगड़ने लगते थे। माँ इस तरह शरमाकर उनकी बाँहों से धीरे से छूटने की कोशिश करती कि वह कहीं सच में उन्हें छोड़ न दें। इस समय माँ मेरा नाम लेकर पिताजी से धीरे से कुछ ऐसा कहतीं कि मुझे लगता कि मुझे वहाँ से चले जाना चाहिए। मैं वहाँ से निकलने लगता तो मुझे पिताजी की आवाज सुनाई देती, ‘मैं राजा हूँ वहाँ का, कोई अंसारी पंसारी मेरा कुछ नहीं बिगाड़ सकता।’ मैं समझता कि मेरे पिताजी दुनिया के सबसे ताकतवर आदमी हैं। मुझे बहुत अच्छा लगता। पिताजी वाकई किसी से नहीं डरते थे बस बाबा जब हमारे घर आते तभी मुझे पिताजी का सिर थोड़ा विनम्रता से झुका दिखाई देता। बाबा पिताजी के चाचाजी थे जो बकौल पिताजी पूरे खानदान में सबसे ज्यादा पढ़े लिखे इनसान थे। बाबा पिताजी से बहुत बड़े थे और दुनिया के हर सवाल का जवाब जानते थे। वे हमेशा कहते थे कि हमारा वक्त आनेवाला है और हम दोनों भाई इस बात का मतलब न समझते हुए भी खुश हो जाते थे।
बचपन सबसे तेज उड़नेवाली चिड़िया का नाम है
मैं या उदभ्रांत पिताजी को किसी दिन फैक्ट्री देर से जाने के लिए इसरार करते तो वह हमें गोद में उठाते, हमारे बालों को सहलाते और फिर नीचे उतारकर तेजी से अपनी सायकिल की ओर भागते। जिस दिन पिताजी फैक्ट्री नहीं जाते उस दिन मौसम बहुत अच्छा होता था और लगता था कि बारिश हो जाएगी लेकिन होती नहीं थी। हम चारों लोग कभी-कभी अगले मुहल्ले में पार्क में घूमने जाते और वहाँ बैठकर पिताजी देर तक बताते रहते कि वह जल्दी ही शहर के बाहर आधा बिस्सा जमीन लेंगे और वहाँ हमारा घर बनेगा। फिर वह देर तक जमीन पर घर का नक्शा बनाते और माँ से उसे पास कराने की कोशिश करते। माँ कहती कि चार कमरे होंगे और पिताजी का कहना था कि कमरे तीन ही हों लेकिन बड़े होने चाहिए। वह तीन और चार कमरोंवाले दो नक्शे बना देते और हमसे हमारी राय पूछते। हम दोनों भाई चार कमरे वाले नक्शे को पसंद करते क्योंकि उसमें हमारे लिए अलग-अलग एक-एक कमरा था। माँ खुश हो जाती और पिताजी हार मानकर हँसने लगते। पिताजी कहते कि वह हमें किसी दिन फिल्म दिखाने ले जाएँगे जब कोई फिल्म टैक्स फ्री हो जाएगी। माँ बतातीं कि वह पिताजी के साथ एक बार फिल्म देखने गई थी, उस फिल्म का नाम क्रांति था और उसमें जिंदगी की ना टूटे लड़ी गाना था। पिताजी यह सुनते ही मस्त हो जाते और आज से अपना वादा रहा हम मिलेंगे हर एक मोड़ पर... गाना गाने लगते। उदभ्रांत मुझसे पूछता कि टैक्स फ्री फिल्म कौन सी होती है तो मैं अपने कॉलर पर हाथ रख कर बताता कि जिस फिल्म में बहुत बढ़िया गाने होते हैं उन्हें टैक्स फ्री कहते हैं। हम इंतजार करते कि कोई ऐसी फिल्म रिलीज हो जिसमें खूब सारे अच्छे गाने हों। पिताजी हमें हमेशा सपनों में ले जाते थे और हमें सपनों में इतना मजा आता कि हम वहाँ से बाहर ही नहीं निकल पाते। हम सपने में ही स्कूल चले जाते और हमारे दोस्त हमारी नई कमीजें और मेरी नई सायकिल को देखकर हैरान होते। मेरे दोस्त कहते कि मैं उन्हें अपनी सायकिल पर थोड़ी देर बैठने दूँ लेकिन मैं सिर्फ नीलू को ही अपनी सायकिल पर बैठने देता। नीलू बहुत सुंदर थी। दुनिया की किसी भी भाषा में उसकी आँखों का रंग नहीं बताया जा सकता था और दुनिया का कोई भी कवि उसकी चाल पर कविता नहीं लिख सकता था। मैंने लिखने की कोशिश की थी और नाकाम रहा था। इस कोशिश में मैंने कुछ न कुछ लिखना सीख लिया था। इसी गलत आदत ने मुझे गलत दिशा दे दी और बीए करने के बाद मैंने पिताजी की सलाह मान कर बी.एड. नहीं किया और रात-दिन कागज काले करने लगा। लिखने का भूत मुझे पकड़ चुका था। नीलू मेरे देखते ही देखते दुनिया की सबसे खूबसूरत लड़की हो गई थी, मेरा मुहल्ला दुनिया का सबसे खूबसूरत मुहल्ला और मैं दुनिया का सबसे डरपोक प्रेमी। मैंने उन रुमानी दिनों में हर तरह की कविताएँ पढ़ी जिनमें एक तरफ तो शमशेर और पंत थे तो दूसरी तरफ मुक्तिबोध और धूमिल। हर तरह की कविता मुझे कुछ देकर जाती थी और मैंने भी कविताई करते हुए ढेरों डायरियाँ भर डालीं।
मेरा लिखा कई जगह छप चुका था और मेरा भ्रम टूटने में थोड़ी ही देर बाकी थी कि मुझे लिखने की वजह से भी कोई नौकरी मिल सकती है। पत्रकारिता करने के लिए किसी पढ़ाई की जरूरत होने लगी थी। पत्रकारिता सिखाने के ढेर सारे संस्थान खुल चुके थे और जितने ज्यादा ये संस्थान बढ़ते जा रहे थे पत्रकारिता ही हालत उतनी ही खराब होती जा रही थी। पता नहीं वहाँ क्या पढ़ाया जाता था और क्यों पढ़ाया जाता था। पिताजी की मिल (अब हमें उसे पिताजी की ही मिल कहने की आदत पड़ गई है) के आस-पास की कई मिलें बंद हो चुकी थीं और इस मिल के भी बंद होने के आसार थे। कर्मचारियों को तनख्वाहें कई महीनों से नहीं दी जा रही थीं और पिताजी ने मुझसे सिर्फ इतना कहा था कि मैं घर की सब्जी और राशन का खर्चा सँभाल लूँ, वे उदभ्रांत की पढ़ाई के खर्चे का जुगाड़ कैसे भी करके कर लेंगे।
ये उन दिनों के कुछ आगे की बात है जब मैं और उदभ्रांत जमीन पर एक लकड़ी के टुकड़े से या पत्थर से एक घर का नक्शा बनाते जिसमें चार कमरे होते। बाबा ने उस मकान का नक्शा हमारे बहुत इसरार करने पर एक कागज पर बना कर हमें दे दिया था। हम जमीन पर बने नक्शे में अपने-अपने कमरों में जाकर खेलते। उदभ्रांत अक्सर अपने कमरे से मेहमानोंवाले कमरे में चला जाता और मैं उसे पिताजी के कमरे में खोज रहा होता। एक बार तो ऐसा हुआ कि खेलते-खेलते मैं मेहमानों वाले कमरे में उदभ्रांत को पुकारता हुआ चला गया और वहाँ पिताजी अपने एक मित्र के साथ बातें कर रहे थे और उन्होंने मुझे उछलकूद मचाने के लिए डाँटा। उन्होंने मुझे डाँटते हुए कहा कि घर में इतना बड़ा बरामदा है और तुम दोनों के अलग-अलग कमरे हैं, तुम दोनों को वहीं खेलना चाहिए, घर में आए मेहमानों को परेशान नहीं करना चाहिए। तभी बाबा ने आकर हमारे बड़े से नीले गेट का कुंडा खटकाया और मैंने उदभ्रांत ने कहा कि हमें पिताजी से कहकर अपने घर के गेट पर एक घंटी लगवानी चाहिए जिसका बटन दबाने पर अंदर ‘ओम जय जगदीश हरे’ की आवाज आए। बाबा अक्सर हमारे ही कमरे में बैठते थे और हमें दुनिया भर की बातें बताते थे। वे बाहर की दुनिया को देखने की हमारी आँख थे और हमें इस बात पर बहुत फख्र महसूस होता था कि हम दोनों भाइयों के नाम उनके कहने पर ही रखे गए थे वरना मैं ‘रामप्रवेश सरोज’ होता और मेरा छोटा भाई ‘रामआधार सरोज’। उनसे और लोग कम ही बात करते थे क्योंकि वे जिस तरह की बातें करते थे वे कोई समझ नहीं पाता। समझ तो हम भी नहीं पाते लेकिन हमें उनकी बातें अच्छी लगती थीं। हम जब छोटे थे तो हमारा काफी वक्त उनके साथ बीता था। वह कहते थे कि जल्दी ही वो समय आएगा जब हम सब गाड़ी में पीछे लटकने की बजाय ड्राइविंग सीट पर बैठेंगे। हर जु़ल्म का हिसाब लिया जाएगा और हमारे हक हमें वापस मिलेंगे। हमें उनकी बातें सुनकर बहुत मजा आता। मुझे बाद में भी उतना समझ नहीं आता था लेकिन उदभ्रांत धीरे-धीरे बाबा के इतने करीब हो गया था कि उनसे कई बातों पर खूब बहस करता। पिछले चुनाव के बाद जब बाबा भंग की तरंग में नाचते-गाते पूरे मुहल्ले में मिठाई बाँट रहे थे तो उदभ्रांत का उनसे इसी बात पर झगड़ा हो गया था कि उसने कह दिया था कि वह कुछ ज्यादा ही उम्मीदें पाल रहे हैं। बाबा ने बहस कर ली थी कि संविधान बनने के बरसों बाद हम गु़लामों को आजादी मिली है और उस पर नजर नहीं लगानी चाहिए। बाबा जब बहस में उदभ्रांत से जीत नहीं पाते तो उसे थोड़ा इंतजार करने की नसीहत देते। ये बहसें अचानक नहीं थीं। जब वह छोटा था तो बाबा से हर मुद्दे पर इतने तर्कों के साथ बहस करता कि मैं उसे देखकर मुग्ध हो जाता। मैं उसकी बड़ी-बड़ी बातोंवाली बहसों को देखकर सोचता कि ये जरूर अपनी पढ़ाई में नाम रोशन कर हमारे घर के दिन वापस लाएगा। मुझे पिताजी की बात याद आ जाती कि मुझे घर के कुछ खर्चे सँभालने हैं ताकि उदभ्रांत अपनी पढ़ाई निर्विघ्न पूरी कर सके और हमारी उम्मीदों को पतंग बना सके।
...तो घर के कुछ छोटे खर्चों को सँभालने के लिए मैंने अपनी सारी ऊर्जा झोंक दी थी और कैसी भी एक नौकरी चाहता था।
नीला रंग भगवान का रंग होता है
ऐसे में ‘घर की रौनक’ नाम की उस पत्रिका में नौकरी लग जाना मेरे लिए मेरी जिंदगी में रौनक का लौट आना था। मैं शाम को मिठाई का डिब्बा लेकर नीलू के घर गया था तो वह देर तक हँसती रही थी। आंटी ने कह कि मैं छत पर जाकर नीलू को मिठाई दे आऊँ। नीलू शाम को अक्सर छत पर डूबते सूरज को देखा करती थी। उसे आसमान बहुत पसंद था। उसे डूबते सूरज को देखना बहुत पसंद था। मेरे लिए यह बहुत अच्छी बात थी। मैं भी कभी उगा नहीं। मैं हमेशा से डूबता हुआ सूरज था।
‘किस बात की मिठाई है साहब...?’ वह पाँचवीं क्लास से ही मुझे साहब कहती थी जब मैंने स्कूल के वार्षिकोत्सव में ‘साला मैं तो साहब बन गया’ गाने पर हाथ में पेप्सी की बोतल लेकर डांस किया था।
मैंने उसे सकुचाते हुए बताया कि मेरी नौकरी लग गई है और यह नौकरी ऐसी ही है जैसे किसी नए शहर में पहुँचा कोई आदमी एक सस्ते होटल में कोई कमरा लेकर अपने मन लायक कमरा खोजता है। उसने पत्रिका का नाम पूछा। मैंने नाम छिपाते हुए कहा कि यह महिलाओं की पत्रिका है जिसमें स्वेटर वगैरह के डिजाइनों के साथ अच्छी कहानियाँ और लेख भी छपते हैं। उसके बार-बार पूछने पर मुझे बताना ही पड़ा। उसकी हँसी शुरू हुई तो लगा कि आसमान छत के करीब आ गया। मैं बहुत खुश हुआ कि मेरी नौकरी देश की किसी अच्छी और बड़ी पत्रिका में नहीं लगी। मुझे नौकरी से ज्यादा उसकी हँसी की जरूरत थी। नौकरी की भी मुझे बहुत जरूरत थी। नौकरी देनेवाले ये नहीं जानते थे कि नौकरी की मुझे हवा से भी ज्यादा जरूरत थी और नीलू इस बात से अनजान थी कि उसकी हँसी की मुझे नौकरी से भी ज्यादा जरूरत थी।
प्रश्न - मैं अपने पड़ोस में रहनेवाली लड़की से बचपन से प्यार करता हूँ। हम दोनों दोस्त हैं लेकिन उसे नहीं पता कि मैं उसे प्यार करता हूँ। वह दुनिया की सबसे खूबसूरत हँसी हँसती है। उसकी हँसी सुनने के लिए मैं अक्सर जोकरों जैसी हरकतें करता रहता हूँ और उसकी हँसी को पीता रहता हूँ। मैं चाहता हूँ कि मैं जिंदगी भर उसके लिए जोकरों जैसी हरकतें करता रहूँ और वह हँसती रहे। लेकिन मैं उससे अपने प्यार का इजहार करने में डरता हूँ, कहीं ऐसा न हो कि मैं उसकी दोस्ती भी खो दूँ और जिंदगी उसकी हँसी सुने बिना बितानी पड़े। मैं क्या करूँ?
मैं अक्सर कई सवालों के जवाब नहीं दे पाता। पत्रिका में छापने लायक जवाब तो कतई नहीं। मैं ऐसे पाठकों को व्यक्तिगत रूप से उत्तर देता हूँ और उनसे सहानुभूति जताता हूँ कि मेरे पास हर प्रश्न का कोई न कोई उत्तर जरूर है और मैं उनके लिए दुआ करूँगा। मैं यह भी सोचता हूँ कि जिन सवालों के जवाब मुझे न समझ में आएँ उन्हें लोगों के बीच रख दूँ और कोई ऐसा विकल्प सोचूँ कि अनुत्तरित सवालों को समाज के सामने उत्तर के लिए रखा जा सके। लेकिन मेरी पत्रिका में ऐसी कोई व्यवस्था सोचनी भी मुश्किल है, मैं जब अपनी पत्रिका निकालूँगा तो जरूर एक ऐसा कॉलम शुरू करूँगा।
ऑफिस में मुझे उप-संपादक की कुर्सी पर बिठाया गया था और मैं वहाँ सबसे कम उम्र का कर्मचारी था। पत्रिका के ऑफिस जाकर मुझे पता चला कि जिन लोगों के बाल सफेद होते हैं उनकी हमेशा इज्जत करनी चाहिए क्योंकि वे कभी गलत नहीं होते। कि सबसे ऊँची कुर्सी पर बैठनेवाला आदमी सबसे बुद्धिमान होता है और उससे कभी बहस नहीं की जानी चाहिए। कि नौकरी चाहे किसी पत्रिका में की जाए या किसी किराने की दुकान में, अंतत: दोनों को करने के लिए नौकर ही होना पड़ता है। पत्रिका में लगभग सारे लोग पुराने थे जिनमें संपादकीय विभाग में काम करनेवाले लोगों यानी दीन जी, दादा, गोपीचंद जी, मिस सरीन आदि को मुख्य माना जाता था। मुख्य संपादक कहा जानेवाला आदमी वैसे तो दीन और दादा से कम उम्र का था लेकिन इन दोनों की चमचागिरी उसे बहुत भाती थी और दो लगभग बुजुर्गों से मक्खनबाजी करवाने में उसे खुद में बड़ा-बड़ा सा महसूस होता था।
कुछ ही समय में मैं इस नौकरी से बहुत तंग आ गया। घर के राशन और सब्जी के खर्चवाली बात पिताजी ने मुझसे तब कही थी जब मैं इंटर की पढ़ाई कर रहा था और मेरे लिए नौकरी बहुत दूर की बात थी। इस बात को सात साल हो चुके हैं और अब जाकर पिछले कुछ समय से ही मैं अपना फर्ज पूरा कर पा रहा हूँ और इस बात को लेकर मैं इतना शर्मिंदा हूँ कि इस नौकरी को छोड़कर दूसरी नौकरी खोजने का खतरा नहीं उठा सकता, और ये नौकरी इतना समय कभी नहीं देती कि मैं दूसरी जगह इंटरव्यू देने की सोच भी सकूँ।
पत्रिका ने मुझे वैसे तो सब-एडिटर का ओहदा दिया था लेकिन करना मुझे बहुत कुछ पड़ता था। सबसे बुरा और उबाऊ काम था कवि दीनदयाल तिवारी ‘दीन’ के लिखे लेखों की प्रूफ रीडिंग करना। तिवारी जी ऑफिस में सबसे सीनियर थे और हमेशा आशीर्वाद को आर्शीवाद और परिस्थिति को परिस्थिती लिखते थे। ‘दीन’ उनका उपनाम था जिससे वह कविता लिखकर उसे सुनाने की रणनीतियाँ बनाया करते थे। गो वह मुझसे अपने लेखों की चेकिंग करवाते समय यह कहते थे कि इससे मेरा ज्ञान बढ़ेगा और जो एकाध मिस्प्रिंतिंग हो गई है वह ठीक हो जाएगी। जब मैं उनके लेखों को चेक करता रहता तो वह अपनी बेटी के मेधावीपने और उसके पढ़ाई में पाए पुरस्कारों के बखान करते रहते। बातों-बातों में वह मुझसे मेरी शादी के बारे में पूछने लग जाते और मैं अक्सर ऑफिस के बाहर की दीवारों को घूरने लगता। दीवारें नीली थीं। नीलू अक्सर नीले रंग के कपड़े पहनती थी। नीला मेरा पसंदीदा रंग था।
‘नीला रंग भगवान का रंग होता है।’ वह छोटी थी तो अक्सर कहती। उस समय वह नीली फ्रॉक पहने होती थी। मैं उससे पूछता कि उसे यह कैसे पता तो वह अपनी उँगली ऊपर उठा कर आसमान की ओर दिखाती थी।
‘आसमान नीला होता है और समंदर भी। जो अनंत और सबसे ताकतवर चीजें हैं वह नीली ही हो सकती हैं।’ मैं उस समय भी उसकी फ्रॉक को देखता रहता था। वह बोलती थी तो उसकी आँखें खूब झपका करती थीं और इसके लिए उसकी मम्मी उसे बहुत डाँटती थीं। उनका कहना था कि यह बहुत गंदी आदत है और उसे तुरंत इस आदत को बदल लेना चाहिए।
शुक्र है उसकी यह आदत अब भी थोड़ी बहुत बरकरार है। और मुझसे बात करते हुए उसकी आँखें आज भी उसी तरह मटकती और झपकती हैं। मैं अक्सर उसकी ओर देखता रहता हूँ और उसकी बातें कई बार नहीं सुन पाता। जब वह टोकती है और मैं जैसे नींद से जागता हूँ तो वह कहती है, ‘अच्छा तो साहब का टॉवर चला गया था?’ मैं झेंप जाता हूँ। वह खिलखिलाती हुई पूछती है, ‘अब नेटवर्क में हो? अब पूरी करूँ अपनी बात?’ मैं थोड़ा शरमाकर थोड़ा मुस्कराकर फिर से उसकी बात सुनने लगता हूँ लेकिन दुबारा उसकी आवाज और आँखों में खोने में मुझे ज्यादा वक्त नहीं लगता। उसका कहना है कि मैं ऐसे रहता हूँ कि मेरा कुछ बहुत कीमती खो गया है और किसी भी वक्त मेरा टॉवर जा सकता है। एक बार जब वह पाँचवी क्लास में थी, वह अपनी टीचर के घर से एक खरगोश का बच्चा लाई थी जो पूरी देखभाल के बावजूद सिर्फ चार दिनों में मर गया। नीलू की आँखें रो रोकर भारी हो गई थीं। उसके बाद उसके बहुत रोने पर भी उसकी माँ ने दुबारा कोई जानवर नहीं पाला, खरगोश के बारे में तो बात भी करना उसके लिए मना हो गया। खरगोश सफेद था और उस दिन नीले आसमान का एक छोटा सा हिस्सा सफेद हो गया था। नीलू उसे ही देर तक देखती रही थी। नीले रंग का हमारी जिंदगी में बहुत महत्व था। मेरी और नीलू की पहली मुलाकात मुझे आज भी वैसी की वैसी याद है। मैं तीसरी क्लास में था और नीलू का एडमिशन इसी स्कूल में तीसरी क्लास में हुआ। उसके पिताजी का ट्रांसफर इस शहर में होने के कारण यह परिवार इस शहर में एक किराए के कमरे में आया था जिसे छोड़कर बाद में वो लोग अपने नए खरीदे मकान में कुछ सालों बाद शिफ्ट हुए।
तो नीलू ने स्कूल ड्रेस की नीली फ्रॉक पहनी थी और अपनी मम्मी की उँगली पकड़े स्कूल की तरफ आ रही थी। स्कूल में प्रार्थना शुरू हो चुकी थी। मैं अकेला स्कूल जाता था क्योंकि पिताजी सुबह-सुबह फैक्ट्री चले जाते थे। मुझे उस दिन स्कूल को देर हो गई थी और मैं तेज कदमों से जैसे ही स्कूल के गेट पर पहुँचा था मैंने किसी के रोने की आवाज सुनी। पीछे पलटकर देखा तो नीलू बार्बी डॉल जैसी नीले ड्रेस में रोती हुई स्कूल की तरफ आ रही थी। उसकी मम्मी उसे कई बातें कहकर बहला रही थीं जैसे वह उसके साथ अपना भी नाम तीसरी क्लास में लिखा लेंगी और रोने का गंदा काम केजी के बच्चे करते हैं और तीसरी क्लास के बच्चों को समझदार होना चाहिए। मैं भूल गया कि मुझे देर हो रही है और मेरे कदम गेट पर ही रुक गए। जब नीलू मम्मी का हाथ पकड़े गेट पर पहुँची तो गेट में घुसने से पहले उसकी नजर मुझ पर पड़ी जो उसे एकटक देखे जा रहा था। वह अचानक रुक गई और उसने आगे बढ़ी जा रही अपनी मम्मी को हाथ खींच कर रोका।
‘क्या है नीलू?’ आंटी ने झल्लाहट भरी आवाज में पूछा था।
‘उसका ब्लू देखो, मुझे वैसा ब्लू चाहिए। मैं ये वाली फ्रॉक कल से नहीं पहनूँगी।’ उसने मेरी पैंट की और इशारा कर कहा था और फिर से सुबकने लगी थी। उसकी मम्मी ने उससे वादा किया कि वह उसे मेरेवाले नीले रंग की फ्रॉक कल ही बनवा देंगी।
घर आकर मैंने पहली बार अपनी पैंट को इतने ध्यान से देखा और मुझे उस पर बहुत प्यार आया। मैंने उस दिन मम्मी को अपनी पैंट नहीं धोने दी और पहली बार अपने कपड़े खुद धोए। बाद में पता चला कि जब वह छोटी थी और बोलना भी नहीं सीखा था तब से उसे सिर्फ नीले रंग से ही फुसलाया जा सकता था। उसे गोद में लेकर बाहर घुमाने जानेवाले को नीली कमीज पहननी पड़ती थी और उसके इस स्वभाव के कारण उसका नाम नीलू रखा गया। बाद में घरवालों ने स्कूल में उसका नाम अर्पिता रखा था लेकिन उसने बिना घरवालों को बताए हाईस्कूल के फॉर्म में नीलू भर दिया था। वो कमाल थी।
जब ‘घर की रौनक’ बढ़ानी हो
दीन जी के हिस्से का काम भी मुझे सिर्फ इसलिए करना पड़ता है कि मेरी उम्र सबसे कम है। उनका काम करने के एवज में वह मुझ पर दोहरा अत्याचार करते हुए मुझे अपनी ताजा बनाई हुई कुछ कविताएँ भी सुना डालते हैं। उनकी कविताओं में भूख, भूमंडलीकरण, बाजार और किसान शब्द बार-बार आते हैं और इस बिनाह पर वह मुझसे उम्मीद रखते हैं कि मैं उनकी कविताओं को सरोकारवाली कविताएँ कहूँ। उनकी कविताएँ हमारी ही पत्रिका में छपती हैं जिसके बारे में उनका कहना है कि अगर अपने पास पत्रिका है तो फिर दूसरों को क्यों ओब्लाइज किया जाए। उनके पास अपनी कविताओं पर मिले कुछ प्रशंसा पत्र भी हैं जिनकी प्रतिक्रियास्वरूप अब वह एक कहानी लिखने का मन बना रहे हैं जिसका नाम वह जरूर ‘भूखे किसान’ या ‘भूखा बाजार’ रखेंगे।
मुझसे पहले प्रश्न उत्तरवाला कॉलम संपादक दिनेश क्रांतिकारी खुद देखता था और उत्तरों को बहुत चलताऊ ढंग से निपटाया जाता था। जब उसने मुझे यह जिम्मेदारी दी तो ऑफिस में सब पता नहीं क्यों मंद-मंद मुस्करा रहे थे। मैंने इसे एक बड़ी जिम्मेदारी समझ कर लिया था और लोगों की समस्याएँ पढ़ते हुए मुझे वाकई उनसे सहानुभूति होती थी। जल्दी ही मुझे लगने लगा कि मेरा यह मानसिक उलझनें सुलझाने वाला ‘मैं क्या करूँ’ नाम का कॉलम और लोगों के लिए मजाक का सबब है। मैंने हर प्रश्न का उत्तर देने में अपनी पूरी ईमानदारी बरती है और कई बार ऐसा हुआ है कि प्रश्न का उत्तर न समझ में आने पर मैंने अपने फोन से किसी सेक्सोलॉजिस्ट या किसी मनोवैज्ञानिक से बात की है और उनके मार्गदर्शन से पाठक की समस्या का समाधान करने की कोशिश की है।
लेकिन अब चीजें बहुत हल्की हो गई हैं। दीन जी के साथ चौहान साहब और दासगुप्ता जी यानी डिजाइनर दादा भी मुझसे मजे लेने की फि़राक में रहते हैं। अभी कल ही मैं ऑफिस से निकल रहा था कि दादा ने मुझे अपने पास बुला लिया और बोले, ‘मेरी पत्नी जब भी मायके जाती है, मेरा मन सामने वाली अंजुला बनर्जी की तरफ भागता है। दिन तो कट जाता है मगर रात नहीं कटती। मुझे लगता है वो भी मुझे पसंद करती है। मैं क्या करूँ?’
मुझे झल्लाहट तो बहुत हुई और मन आया कि कह दूँ कि बुड्ढे अपनी उमर देख लेकिन वह बॉस के सबसे करीबी लोगों में माने जाते हैं इसलिए मैंने मन मार कर कहा कि दादा आप भाभीजी को मायके मत जाने दिया करें। मुझे आश्चर्य होता है कि ऐसे लोग अपने घरों में अपने बच्चों के सामने कैसे सहज रहते होंगे। दादा के साथ दीन जी भी हँसने लगे और अपनी नई कविता के लिए एकदम उपयुक्त माहौल देखकर दे मारी।
उनके बिना रात काटना वैसा ही है
जैसे रोटी के बिना पेट भरने की कल्पना
जैसे चाँद के बिना रात और जैसे सचिन के बिना क्रिकेट
वह आएँ तो बहार आए और वह जाएँ तो बहार चली जाए
मगर हम हार नहीं मानेंगे
कहीं और बहार को खोजेंगे
गर उनके आने में देर हुई
तो बाहर किसी और को ...
बाद के शब्द और लाइनें सुनाने लायक नहीं थीं। दादा ने कहा कि कुछ शब्द अश्लील हैं तो उनका कहना था कि जिंदगी में बहुत कुछ अश्लील है और अगर हम जिस भाषा में बात करते हैं उस भाषा में कविता न लिखें तो वह कविता झूठी है। कविता को नई और विद्रोही भाषा की जरूरत है। मैंने यह कहने की सोची की इस भाषा में सिर्फ आप ही बात करते हैं लेकिन कह नहीं पाया। उनके बाल सफे़द थे और उनका अनुभव मुझसे ज्यादा था जिससे दुनिया में यह मानने का प्रचलन था कि उनमें और मुझमें कोई तुलना होगी तो मैं ही हमेशा गलत होऊँगा। सफेद बालों वाले लोग किसी भी बहस में हारने पर अपने सफेद बालों का वास्ता दिया करते थे और यह उम्मीद करते थे कि अब इस अकाट्य तर्क के बाद बहस उनके पक्ष में मुड़कर खत्म हो जानी चाहिए।
मैं जब नीलू के घर पहुँचा तो वहाँ काफी चहल-पहल थी। मुझे देखते ही आंटी ने मुझसे दौड़कर थोड़ी और मिठाई लेकर आने को कहा। उन्होंने कहा कि एक ही तरह की मिठाई आई है और उन्हें काजूवाली बर्फी चाहिए। मैं बर्फी लेकर पहुँचा तो पता चला कुछ मेहमान आए थे और सब उनकी खातिरदारी में लगे थे। मैं मिठाई देकर थोड़ी देर खड़ा रहा कि कोई अपने आप मुझे नीलू का पता बता दे। हॉल में टीवी चालू था और उसे कोई नहीं देख रहा था। उस पर एक विज्ञापन आ रहा था जिसे देख कर मेरे होंठों पर मुस्कराहट आ गई। ‘जब घर की रौनक बढ़ानी हो, दीवारों का जब सजाना हो, नेरोलक नेरोलक...’। मुझे यह भी याद आया कि हमारे घर में चूना होने का काम पिछले तीन दीवालियों से टलता आ रहा है। शायद अगली दीवाली में मैं और उद्भ्रांत अपने हाथ में कमान लेकर चूना पोतने का काम करें और अपने छोटे से कमरे को सफेद रंग में नील डालकर रंग डालें।
आंटी मेरे पास आकर खड़ी हुईं और इस नजर से देखा जैसे मिठाई देकर वापस चले जाना ही मेरा फर्ज था। मैंने नीलू के बारे में पूछा तो उन्होंने छत की ओर इशारा किया और मुझे हिदायत दी कि मैं जल्दी उसे लेकर नीचे आ जाऊँ। मैं छत पर पहुँचा तो नीलू अपना पसंदीदा काम कर रही थी। उसका आसमान देखना ऐसा था कि वह किसी से बात कर रही थी।
‘आओ साहब। कैसे हो?’ उसने सूनी आँखों से पूछा।
‘नीचे भीड़ कैसी है?’ मैंने उसके बराबर बैठते हुए पूछा।
‘कुछ नहीं, माँ के मायके से कुछ लोग आए हैं मुझे देखने...।’ मेरा दिल धक से बैठ गया। मेरे मन में एक पाठक का सवाल कौंध गया, ‘मैं जिस लड़की से प्यार करता हूँ वह मुझे बचपन से जानती है। मुझे वह अपना सबसे अच्छा दोस्त कहती है लेकिन मैं उसे बचपन से चाहता हूँ। मैं उसे इस डर से प्रपोज नहीं करता कि कहीं मैं उसकी दोस्ती खो न दूँ। मैं क्या करूँ?’ मैंने ऐसे कई जवाबों के व्यक्तिगत रूप से देने के बाद कल ही पत्रिका में एक जवाब दिया था। मैंने उसके जवाब में लिखा था कि उसे इतना रिस्क तो लेना ही पडे़गा। लेकिन मैं जानता हूँ किसी को कुछ करने के लिए कह देना और खुद उस पर अमल करना दो अलग-अलग बातें हैं। हम दोनों एक दूसरे के हमेशा से सबसे करीब रहे हैं और अपन सारी बातें एक दूसरे से बाँटते रहे हैं। लेकिन कभी शादी और एक दूसरे के प्रति चाहत का इजहार... कम से कम मेरे हिम्मत से बाहर की चीज है।
‘कौन है लड़का..?’ मेरे गले से मरी सी आवाज निकली। उसने बताया कि उसकी मम्मी की बहन की ननद का लड़का है और इंजीनियर है। मुझे अपने उन सभी पाठकों के पत्र याद आ गए जिनकी प्रेम कहानियों के खलनायक इंजीनियर हैं। कितने इंजीनियर होने लगे हैं आजकल? सब लोग आ गए हैं और वह कल आएगा।
‘मीनू बता रही थी बहुत लंबा है लड़का।’ उसने मेरी ओर देखते हुए कहा। उसकी आँखें बराबर मटक रही थीं और पलकें खूब झपक रही थीं।
‘लंबे लड़कों में ऐसी क्या खास बात होती है?’ मैंने अपने सवाल की बेवकूफी को काफी नजदीक से महसूस किया।
‘होती है ना, वे जब चाहें हाथ बढ़ा कर आसमान से तारे तोड़ सकते हैं।’ उसने फिर से नजरें आसमान की ओर उठा दीं।
‘तारे तोड़ने के लिए तो मैं तुम्हें गोद में उठा लूँ तो भी तोड़े ही जा सकते हैं। आखिर कितनी हाइट चाहिए इसके लिए...।’ मैंने कुछ पल थम कर धीरे से कहा। यह वाक्य मेरे आत्मविश्वास को अधिकतम पर लाकर खींचने का नतीजा था।
‘तो कब उठाओगे साहब जब आसमान के सारे तारे टूट जाएँगे तब...?’ उसने पलकें मटकाईं। मुझे न तो अपने कहे पर विश्वास हुआ था और न उसकी बात पर जो मेरे कानों तक ऐसे पहुँची थी मानों मैं किसी सपने में हूँ और बहुत दूर निकल चुका हूँ। उसकी आवाज रेशम सी हो गई थी और आसमान का रंग काले से नीला हो गया था। मैंने हिम्मत करके उसकी हथेली पर अपनी हथेली रख दी।
‘आसमान का रंग बदल रहा है न?’ मैंने उससे पूछा।
‘हाँ साहब, आसमान का रंग फिर से नीला हो रहा है। पता है नीले रंग की चीजें जीवन देती हैं।’ उसने मेरी हथेली पर अपनी दूसरी हथेली रखते हुए कहा। मेरे सामने बहुत सारे दृश्य चल रहे थे। मेरी नई सायकिल जो कभी खरीदी नहीं गई और उस पर बैठी हुई नीलू। नीलू के फ्रॉक में जड़े ढेर सारे सितारे जो धीरे-धीरे बिखर कर आसमान में उड़ रहे हैं। मैं उन्हें फिर से पकड़कर नीलू की फ्रॉक में टाँक देना चाहता हूँ। मैं जैसे एक सपने में दूसरा सपना देखने लगा हूँ।
‘तुम्हारे पास नीली साड़ी है?’ मैंने अपनी आवाज इतने प्यार से उसे दी कि कहीं टूट न जाए। उसकी आवाज भी शीशे जैसी थी जिस पर ‘हैंडल विद केयर’ लिखा था।
‘बी.एड.वाली है न... लेकिन वह बहुत भारी है साहब। तुम मेरे लिए एक सपनों से भी हल्की साड़ी ले आना।’
‘तुम सिर्फ नीला रंग पहना करो नीलू।’
‘मैं सिर्फ शाम को नीले रंग पहनना चाहती हूँ साहब क्योंकि दिन में तुम आते ही नहीं।’
‘मैं कहीं जाऊँगा ही नहीं कि मुझे वापस आना पड़े। मुझे कहीं जाने में डर लगता है क्योंकि मुझे लौटकर तुम्हारे पास आना होता है।’ मैंनें उसकी हथेलियाँ महसूस कीं। मुझे डर लगा कि उसके घर का कोई छत पर आ न जाय।
‘मुझे कुछ कहना है तुमसे साहब।’ उसने रेशम सी धीमी आवाज में कहा।
‘क्या...?’
‘उसके लिए मुझे अपनी आँखें बंद करनी होंगी। मैं आँखें बंद करती हूँ, तुम मेरी ओर देखते रहना। मेरी आँखों में देखोगे तो तुम्हारा टॉवर चला न जाए इसलिए...।’ उसने मुस्कराकर अपनी आँखें बंद कीं और मैंने उसकी हथेलियाँ थाम लीं। उसका नर्म हाथ थामते हुए मैंने सोचा कि मेरी जिंदगी को उसके हाथ की तरह की कोमल और नर्म होना चाहिए। मैं उसकी हथेलियाँ थामे बैठा रहा और वह कहती रही। नया साल मेरे लिए दुनिया की सबसे बड़ी खुशी लेकर आया था। मैंने मन में सेाचा कि कल ही वह प्यारा सा कार्ड इसे दे दूँगा जो मैं इस साल उसे देने और अपने दिल की बात कहने के लिए लाया था... साथ ही पिछले सालों के भी अनगिनत कार्ड।
‘तुम अगर कभी कोई सायकिल खरीदना तो मुझे उस पर बिठाना और हम दोनों जंगल में खरगोश देखने चलेंगे। जब तुम्हें कुछ लिखने का मन करेगा तो मैं तुम्हारे सामने बैठ जाऊँगी और अपनी आँखें बंद कर लूँगी ताकि तुम मुझे देखते हुए टॉवर में रहकर कुछ ऐसा लिखो कि उसके बाद जीने की कमी भी पड़ जाए तो कोई गम न हो। तुम जब कोई कविता लिखना तो ऐसा लिखना कि उसे छुआ जा सके और उसे छूने पर या तो बहुत जीने का मन करे या फिर दुनिया को छोड़ देने का... तुम हमेशा नीले रंग में लिखना...।’
वह बोलती जा रही थी और मुझे पहली बार पता चला कि मैं उसकी आँखों में ही नहीं खोता था। उसके चेहरे से जो नीली मुकद्दस रोशनी मेरी हथेलियों पर गिर रही थी मैं उसमें भी ऐसा खो गया था कि मुझे उसकी आवाज किसी सपने से आती लग रही थी। अब मुझे कोई डर नहीं था कि उसके घर से कोई छत पर आ जाएगा। उसके घर में कोई नहीं था। मुहल्ले में कोई नहीं था। पूरी दुनिया में कोई नहीं था।
हम एक नीले सपने में थे और आसमान का रंग रात में भी नीला था।
उत्तरप्रदेश
मुझे बैठने के लिए एक क्यूबिकल जैसा कुछ मिला था जिसे तीन बाई तीन का कमरा भी कहा जा सकता था क्योंकि उसकी बाकायदा एक छत थी और एक बड़ी सी खिड़की भी। उसे देख कर लगता था कि इसे बाथरूम बनवाने के लिए बनाया गया होगा और बाद में किसी वास्तुशास्त्री के कहने पर स्टोररूम के रूप में डेवलप कर दिया गया होगा। कमाल यह था कि बाहर से देखने पर यह सिर्फ एक खिड़की दिखाई देती थी और अंदाजा भी नहीं हो पाता था कि इस खिड़की के पीछे एक कमरे जैसी भी चीज है। इसका दरवा़जा पिछली गली में खुलता था और हमेशा बंद रहता था। ऑफि़स में घुसने के बाद खिड़की ही इसमें घुसने का एक जरिया थी और जब मैं उछलकर खिड़की के रास्ते अपने केबिन में दाखिल होता था तो चोर जैसा दिखाई देता था। जब सुबह मैं ऑफिस पहुँचा तो गेट पर ही दीन जी मिले और सिगरेट का धुआँ छोड़ते हुए उन्होंने मेरी चुटकी ली।
‘सर, मेरी उम 56 साल है। मुझे अपने ऑफिस की एक लड़की से इश्क हो गया है जो सिर्फ 22-23 साल की है। मैं उसका दीवाना हो रहा हूँ और उससे अपने दिल की बात कहना चाहता हूँ लेकिन वह मुझे अंकल कहती है। मैं उसे कैसे अपना बनाऊँ?’ मैंने देखा दीन के चेहरे पर शर्म-संकोच के कहीं नामोनिशान तक नहीं थे। क्या इस उम्र के सारे बुड्ढे ऐसे ही होते हैं? क्या घर पर ये अपनी बेटी को भी इसी नजर से देखता होगा? आखिरकार इसने पूरी उम्र किया क्या है जो इसकी उम्र इतनी तेजी से निकल गई है कि इसे अंदाजा भी नहीं हुआ। इसी समय इत्तफाक हुआ कि मिस सरिता सरीन ऑफिस में दाखिल हुईं और दरवाजे पर हमारा अभिनंदन करके अंदर चली गईं।
‘हैलो अनहद, हैलो अंकल।’
दीन जी का मेरा मजाक उड़ाने का पूरा बना-बनाया मूड चौपट हो गया और वह दूसरी ओर देखकर दूसरी सिगरेट जलाने लगे।
मैं अंदर पहुँचा तो एक और आश्चर्य मेरे इंतजार में था। मेरे केबिन कम दड़बे की खिड़की पर पता नहीं कोयले से या किसी मार्कर से मोटे-मोटे हर्फों में लिखा था ‘उत्तर प्रदेश’। मैंने उसे मिटाने का कोई उपक्रम नहीं किया और कूदकर अंदर चला गया। मेरी मेज पर ढेर सारे प्रश्न पडे़ थे जिनके उत्तर मुझे देने थे। उस दिन के बाद से मेरे केबिन को ‘उत्तर प्रदेश’ के नाम से जाना जाने लगा बल्कि कहा जाए तो उस खिड़की का नाम ‘उत्तर प्रदेश’ रख दिया गया था। मुझे सर्कुलेशन और सबक्रिप्शन विभाग से पता चला कि मेरे कॉलम की खूब तारीफें हो रही हैं और इसकी वजह से पत्रिका की बिक्री भी बढ़ रही है लेकिन इस खबर का अपने हक में कैसे उपयोग करना है, मुझे समझ में नहीं आया। हाँ, यह जरूर हुआ कि दीन जी और दादा के अलावा मिस सरीन, गोपीचंद, और एकाध बार तो मेरे संपादक भी (पीने के बाद जोश में आकर) एकाधिक बार मेरे केबिन में आए और अपने-अपने प्रश्नों के उत्तर जानने चाहे। मिस सरीन ने एक बार पूछा - ‘सर मेरी समस्या यह है कि मेरे घरवाले मेरी शादी करना चाहते हैं और मैं अभी शादी नहीं करना चाहती। मुझे अपना कैरियर बनाना है और जीवन में बहुत आगे जाना है। मैं शादी जैसी चीज में विश्वास नहीं करती। मैं क्या करूँ?’ मैं थोड़ी देर तक उनकी मुस्कराहट को पढ़ने की कोशिश करता रहा और जब मुझे लगा कि मजाक में ही सही, वह इस प्रश्न का उत्तर चाहती हैं तो मैंने उन्हें समझाने की कोशिश की कि शादी कोई रुकावट नहीं होती, सारी रुकावटें दिमाग में होती हैं और इन्हें अगर जीत लिया जाए...। मेरी बात खत्म होने से पहले ही दीन जी और दादा दरवाजे पर आकर खड़े हो गए और चिल्ला-चिल्ला कर हँसने लगे। मैं झेंप गया और सरीन अपनी कुर्सी पर चली गईं।
एक रात जब मुझे निकलने में थोड़ी देर हो गई थी और संपादक महोदय के केबिन में तरल-गरल का दौर शुरू हो चुका था कि मेरी खिड़की पर खटखट हुई। मैंने देखा तो मेरे संपादक लड़खड़ाते हुए मेरी खिड़की पर खड़े थे। मैं तुरंत एक फौजी की तरह उठा और मैंने सैल्यूट भर नहीं मारा।
‘यार अनहद, मेरी बीवी अक्सर मुझे बिस्तर पर नाकाम होने के लिए ताने मारती है यार। मैंने कई दवाइयाँ करके देख लीं, मुझे लगता है इसका कोई मनोवैज्ञानिक कारण है, तुम कुछ बता सकते हो?’ मैं अभी कुछ सोच ही रहा था कि मेरे आदरणीय संपादक महोदय ने अपनी पैंट की जिप खोल ली और एक घिनौनी हरकते करते हुए बोले, ‘देखो तो कोई कमी तो नहीं दिख रही ना, शायद कोई मनोवैज्ञानिक कारण होगा...।’ मैंने नजरें चुराते हुए कहा, ‘हो सकता है सर।’ वे पूरी रौ में थे, ‘यार इसको टेस्ट कर लेते हैं, जरा कूद के बाहर आओ और मिस सरीन को फोन करके कहो न कि सर ने बुलाया है जरूरी काम है... आज इसकी टेस्टिंग उस पर ही कर लेते हैं। साला मेरी बूढ़ी बीवी के सामने सर ही नहीं उठाता और सरीन का नाम लेते ही देखो फन उठाए खड़ा है।’ अपनी कही गई इस मनमोहक बात पर उन्हें खुद इतना मजा आया कि वह हँसते-हँसते जमीन पर ही बैठ गए। उस समय दीन जी मेरे लिए तारणहार बन कर आए और दादा के साथ आकर उनको उठाया और सीट पर बिठाया। मैं अगले पाँच मिनटों में अपना काम समेट कर वहाँ से निकल गया।
पिताजी का रूटीन हो गया था कि सुबह नहा-धोकर खा पीकर बंद फैक्ट्री के लिए ऐसे निकलते थे जैसे काम पर ही जा रहे हों। भले ही जाकर फैक्ट्री के बंद फाटक पर धरना ही देना हो, उन्हें देर कतई मंजूर नहीं थी। फैक्ट्री के सभी मजदूर फाटकों पर धरने पर बैठते और शाम तक किसी चमत्कार का इंतजार करते। यह चीनी मिल 90 साल पुरानी थी जिसे नूरी मियाँ की मिल कहा जाता था। मिल के शुरू होने के कुछ दिन बाद नूरी मियाँ का इंतकाल हो गया और इसे कुछ दशकों बाद तत्कालीन सरकार ने नूरी मियाँ के परिवार की रजामंदी से अधिगृहित कर लिया था। अच्छी-खासी चलती मिल को पिछली प्रदेश सरकार ने बीमार मिल बताकर इस पर ताला डाल दिया था। सरकारें हर जगह ताला डाल रही थीं और पता नहीं इतने ताले कहाँ से लाए जाते थे क्योंकि अलीगढ़ में तो तालों का कारोबार कम होता जा रहा था, वहाँ और कारोबार बढ़ने लगे थे। पिताजी और सभी मजदूर पिछले सात साल से इस उम्मीद में धरने पर बैठे थे कि कभी तो मिल चालू होगी और कभी तो वे फिर से अपने पुराने दिनों की झलक पा सकेंगे। लेकिन इस सरकार के फरमान से उनकी रही-सही हिम्मत डोलने लगी थी।
एक दिन धरनेवाली जगह पर अंसारी पहुँच गया और सभी मजदूरों ने उसे घेर लिया। सबने उससे अपने दुखड़े रोने शुरू किए तो वह खुद वहीं धम से बैठ गया और रोने लगा। उसने पिताजी के कंधे पर हाथ रखा और सुबकने लगा। पिताजी सहित सभी मजदूरों ने अपने मालिक का यह रूप पहली बार देखा था। उन्हें नया-नया लगा और वे और करीब खिसक आए। अंसारी ने रोते-रोते टूटे-फूटे शब्दों में जो कुछ बताया वह मजदूरों की समझ में पूरी तरह से नहीं आ सकता था लेकिन पिताजी सुपरवाइजर थे और उन्हें लगता था कि सुपरवाइजर होना दुनिया का सबसे बड़ा जिम्मेदारी का काम है। उनका मानना था कि सुपरवाइजर को सब कुछ पता होना चाहिए। पता नहीं वह अंसारी की बातों के कितने टुकड़े समेट पाए थे और हम तक जो टुकड़े उन्होंने पहुँचाए उनमें कितनी सच्चाई थी और कितना उनका अंदाजा। मैं उनकी किसी भी बात की सत्यता का दावा नहीं पेश कर रहा लेकिन उनकी बातें बताना इसलिए जरूरी है कि उस दिन पिता को पहली बार इतना टूटा हुआ देखा था। अंसारी के टूट जाने ने सभी मजदूरों की उन झूठी उम्मीदों को तोड़ दिया था जिसकी डोर से बँधे वे रोज पिछले सात सालों से बिला नागा मिल की जमीन पर मत्था टेकते थे।
‘अंसारी साहब की मिल 52 बीघे में फैली है और उसकी कीमत एक अरब रुपए से ऊपर है। सरकार ने पिछले सात सालों से उनकी मिल बंद करा दी है और अब बताओ एक उद्योगपति को यह मिल सिर्फ पाँच करोड़ रुपए में बेची जा रही है। दस करोड़ का तो अंसारी साहब पर कर्जा हो गया है। क्या होगा उनका और क्या होगा मजदूरों का... उनके परिवारों का...।’ पिताजी बहुत परेशान थे। वे बहुत भोले थे, उन्हें अपने परिवार से ज्यादा मजदूरों की चिंता थी। वे इस बात को मान ही नहीं सकते थे कि वे भी एक अदने से मजदूर हैं। मैंने सोचा कि अगर किसी अच्छे अखबार में नौकरी मिल जाती तो हमारी बहुत सी समस्याएँ हल हो सकती थीं लेकिन अच्छे अखबार में नौकरी के लिए किसी अच्छे आदमी से परिचय होना जरूरी था और सभी अच्छे आदमी राजनीति में चले गए थे।
उदभ्रांत के लिए देखे गए हमारे सपने भी टूटते दिखाई दे रहे थे। उसने बी.एस सी. करने के बाद हमारी मर्जी के खिलाफ एम.एससी. छोड़कर समाजशास्त्र से एम.ए. करने का विकल्प चुना था और अब जो रास्ते थे मुझसे ही होकर जाते थे। अपना अधिकतर समय वह बाबा के साथ बिताया करता था और बाबा की सोहबत की वजह से उसे अजीब-अजीब किताबें पढ़ने का चस्का लग चुका था। मैंने अपनी कविताई के शुरुआती दिनों में जो किताबें बटोरी थीं उनमें मुक्तिबोध और धूमिल जैसे कवियों की भी किताबें थीं। वह पता नहीं कब मेरी सारी लाइब्रेरी चाट चुका था और आजकल अजीब मोटी-मोटी किताबें पढ़ता था जिनमें से ज्यादातर को पढ़ने की कोशिश करने पर पिताजी को सिर्फ प्रगति प्रकाशन, मास्को ही समझ में आता था। मैंने कभी उसकी किताबें पढ़ने की कोशिश नहीं की थी। अव्वल तो मेरे पास समय नहीं था और दूसरे मैं पिताजी जितना चिंतित भी नहीं था। आखिर घिसटकर ही सही, घर का खर्च जैसे-तैसे चल ही रहा है और फिर जो भी हो, उदभ्रांत का मन आखिर पढ़ाई में ही तो लग रहा है, साइंस न सही आर्ट्स ही सही। एक बार तो उसने मुझे भी कहा कि मैं एम.ए. की पढ़ाई के लिए प्राइवेट ही सही फॉर्म भर दूँ। मैंने मुस्करा कर मना कर दिया और उससे कहा कि मेरे जो सपने हैं उससे ही होकर गुजरते हैं।
नीला रंग बहुत खतरनाक है
हमारे पूरे शहर को नीली झंडियों, नीली झालरों और नीले बैनरों से पाटा जा रहा था। हम जिधर जाते उधर मुस्कराता हुआ नीला रंग दिखाई देता। पोस्टरों में नीले रंग की उपलब्धियाँ गिनायी गई थीं कि नीले रंग की वजह से कितने लोगों की जिंदगियाँ बन गईं, नीले रंग की वजह से कितने घरों के चूल्हे जलते हैं और इस महान नीले रंग ने कितने बेघरों को घर और बेसहारों को सहारा दिया है। इस नीले रंग का जन्मदिन आने वाला था और यह एक बहुत शान का मौका था, हालाँकि कुछ अच्छे लोगों ने कहा कि यह पैसे की बर्बादी और झूठा दिखावा है।
पिताजी के साथ सात साल से बराबर धरने पर बैठने वाले मजदूरों को धरने की आदत पड़ गई थी। उनमें से कुछ जो चतुर थे उन्होंने अपने लिए दूसरी नौकरियाँ खोज ली थीं लेकिन ज्यादातर मजदूर आशावादी थे और उन्हें लगता था कि वे जब किसी सुबह सोकर उठेंगे तो मिल खुल चुकी होगी और उनका पिछले सालों का वेतन जोड़ कर दिया जाएगा। उनके पास एक साथ ढेर सारे पैसे हो जाएँगे और जिंदगी बहुत आराम से चलने लगेगी। उनका सोचना ऐसा ही था जैसा मैं और उदभ्रांत जमीन पर नक्शा बना कर अपने-अपने कमरों की कल्पना करते थे जिसे न बनना था न बना। जिस दौरान पूरा शहर दुल्हन की तरह सजाया जा रहा था, पिताजी और उनके साथ के मजदूरों ने एक योजना बनाई। उनका मानना था कि राज्य का जो सबसे बड़ा हाकिम है उसके पास अपना दुखड़ा लेकर जाएँगे और उनसे सवाल पूछेंगे कि आखिर उनके परिवारवालों की भुखमरी का जिम्मेदार कौन है। हाकिम को हाथी की सवारी बहुत पसंद थी। उसका हाथी बहुत शांत था और कभी किसी पर सूँड़ नहीं उठाता था। हाथी के बारे में कोई भी बात जानने से पहले संक्षेप में उसका यह इतिहास जानना जरूरी है कि उसे लंबे समय तक राजाओं ने अपने पंडित पुरोहितों की मदद से जबरदस्ती पालतू बना कर रखा था और उस पर खूब सितम ढाए थे। बाद में एक ऐतिहासिक आंदोलन के जरिए हाथी को अपने वजूद का एहसास हुआ। उम्मीदें जगीं कि अब इस आंदोलन से जिन्हें पीछे धकेल दिया गया है, उन्हें आगे आने में मदद मिलेगी। सबने हाथी की ओर उम्मीद भरी नजरों से देखा। जब हाथी को अपनी ताकत का एहसास होना शुरू हुआ और इसने अपने लूट लिए गए वजूद को वापस पाने की कोशिशें शुरू की ही थीं कि हाकिम जैसे लोग इस पर सवार होने लगे और अब हाथी की सारी सजावट और हरकतें हाकिम की कोशिशों का नतीजा थीं। हाथी अब अपनी सजावट के बाहर आने के लिए तड़फड़ाता रहता था और हाकिम की कोशिश यही थी कि हाथी अपने फालतू अतीत को सिर्फ तभी याद करे जब उसे लोगों की संवेदनाएँ जगाकर उनसे कहीं मुहर लगवानी हो या कोई बटन दबवाना हो। पिताजी जैसे लोगों की सारी उम्मीदें हाथी से जुड़ी थीं लेकिन हाकिमों की वजह से लगता था कि सब बेमानी होता जा रहा है। हाथी के दो दाँत बाहर थे और वे काफी खूबसूरत थे। वे पत्थर के दाँत थे और किसी जौहरी से पूछा जाता तो वह शर्तिया बताता कि ये इतने महँगे पत्थर थे कि इतने में कई अस्पताल या स्कूल बनवाए जा सकते थे या फिर कई गाँवों को कई दिनों तक खाना खिलाया जा सकता था। अंदर के दाँतों का प्रयोग खाने के लिए किया जाता था और हाथी को खाने में हर वह चीज पसंद थी जो रुपयों से खरीदी जा सकती थी। हाथी को उन चीजों से कोई मतलब नहीं था जो सीधे-सीधे दिखाई नहीं देती थीं जैसे संवेदनाएँ, भावनाएँ, मजबूरियाँ, टूटना और खत्म होना आदि आदि। हाथी बहुत ताकतवर था और उसे यह बात पता थी इसीलिए वह कभी किसी के सामने सूँड़ नहीं उठाता था। वह विनम्र कहलाया जाना पसंद करता था और उसे अपनी अनुशासनप्रिय छवि की बहुत परवाह थी। हाथी की पीठ पर विकास का हौदा रखा रहता था जो हमेशा खाली रहता था लेकिन हाथी उसके बोझ तले खुद को हमेशा दबा हुआ दिखाना पसंद करता था। हाथी कभी-कभी मजाक के मूड में भी रहता था। जब वह अच्छे मूड में होता तो उस दिन महावत को यह चिंता नहीं हुआ करती थी कि हाथी कभी भी उसे नीचे पटक सकता है। हाथी के महावत बदलते रहते थे और महावतों की जान हमेशा पत्ते पर रहती थी क्योंकि वह जानते थे कि हाथी उन्हें सिर्फ अच्छे मूड में ही पीठ पर बिठाता है वरना उनमें से किसी की भी हिम्मत नहीं थी कि वह हाथी की पूँछ भी छू सकें। हाथी को जनता के पैसे से लाया गया था और उसका भोजन और जरूरत की अन्य चीजें भी जनता के धन से आती थीं लेकिन यह बात हाथी को पता नहीं थी। उसे शायद यह बताया गया था कि इस धन पर उसका और सिर्फ उसका ही हक है। वह अपने भविष्य के लिए अच्छी बचत कर रहा था और इसके दौरान वह अपनी ख्याति को लेकर भी बहुत चिंतित रहता था। इसके लिए वह कुछ भी करता रहता था और इस दौरान कई बार मजाकिया मूड में होने पर वह न्याय के लिए बनाई गई संस्थाओं का भी उपहास करने से नहीं चूकता था।
मैंने एक अखबार में चुपके से बात की थी और एक अच्छे अखबार से मुझे आश्वासन भी मिला था। मैं जब नीलू के घर पहुँचा तो आंटी ने मेरी ओर बहुत टेढ़ी नजरों से देखा। मैं चुपचाप थके कदमों से ऊपर पहुँचा तो नीलू आसमान की ओर नहीं देख रही थी। उसकी आँखों में खालीपन था और उसकी शलवार कमीज नीली थी। मैंने आसमान की ओर नहीं देखा। मैं पता नहीं क्यों कुछ सहमा और खाली सा महसूस कर रहा था, बिल्कुल नीलू की आँखों की तरह। वह खामोशी वहाँ मौजूद हवा में घुल रही थी और हवा भी उदास हो रही थी। वह छत पर लगे सेट टॉप बॉक्स की ओर एकटक देखे जा रही थी और मुझे याद आया कि मेरे घर में सेट टॉप बॉक्स नहीं है। मेरे घर में न ही फ्रिज है, न ही वाशिंग मशीन और मैं किराए के घर में रहता हूँ। मैं जानता हूँ इन बातों का इस समय कोई मतलब नहीं है और मुझे तुरंत जाकर नीलू की उदासी का कारण जानने की कोशिश करनी चाहिए लेकिन मेरी हर उदास तुलना तभी होती है जब कोई उदास लम्हा मेरी जिंदगी में आकर इसे और दुश्वार बनाने वाला होता है। मुझे पता नहीं क्यों ये लग रहा है कि जो सवाल मेरे मन में नीलू के घर को देखकर उठ रहे हैं, वे कुछ देर में मेरे सामने आने वाले हैं। नीलू ने मुझे तब तक नहीं देखा जब तक मैं उसके एकदम करीब जाकर खड़ा नहीं हो गया।
‘अरे साहब... कब आए?’ उसकी आवाज में जो टूटन थी वह मैंने पिछले कुछ समय में पिताजी की आवाज में छोड़ कर दुनिया में और किसी की आवाज में नहीं महसूस की थी। उसका साहब कहना मेरे लिए ऐसा था कि मैंने ताजमहल बनाया है और मुझे सबके सामने उसके निर्माता के रूप में पुकारा जा रहा है। मगर उसकी आवाज टूटी और बिखरी हुई थी और उसके टुकड़े इतने नुकीले रूप में बाहर आ रहे थे कि मुझे चुभ रहे थे। एक टुकड़ा तो मेरी आँखों में आकर ऐसा चुभा कि मेरी आँखों में पानी तक आ गया। मेरी धड़कन धीरे-धीरे डूबती जा रही थी और लग रहा था मैं देर तक खड़ा नहीं रह पाऊँगा। उसने मेरी तनख्वाह पूछी और उदास हो गई। मैंने आसमान का रंग देखा और उदास हो गया। चाँद ने हम दोनों के चेहरे देखे और उदास हो गया।
लड़के ने नीलू को देखकर हाँ कह दी थी और दो परिवारों के महान मिलन की तैयारियाँ होने लगी थीं। नीलू ने मेरी तनख्वाह पूछी थी और भरे गले से मुझसे कहा था कि तुम 2010 में 1990 की तनख्वाह पर कब तक काम करते रहोगे और अपनी उँगलियाँ बजाने लगी थी। मैंने उससे कहा कि बजाने से उँगलियों की गाँठें मोटी हो जाती हैं। उसने कहा कि मैं कुछ भी कोशिश नहीं कर रहा हूँ और एक भाग्यवादी इनसान हूँ। मैंने उसे बताया कि एक बड़े अखबार में मेरी नौकरी की बात चल रही है और जल्दी ही मुझे पत्रिका के उन अनपढ़ अधेड़ों से छुटकारा मिल जाएगा। में नीलू के बगल में बैठा था और उसने धीरे से मेरी हथेली थाम ली।
‘यह सच है ना साहब कि हमारे आने से पहले भी दुनिया इसी तरह चल रही थी।’ उसकी आवाज की अजनबियत को पहचानने की कोशिश में मैंने सहमति में उसकी हथेलियाँ दबाईं।
‘और हमारे जाने के बाद भी सब कुछ ऐसा ही चलता रहेगा ना?’ उसने पूछते हुए पहली बार आसमान को देखा। बादल थे या धुएँ की चादर कि आसमान का रंग काला दिखाई दे रहा था और लगता था किसी भी पल कहीं भी भूकंप आ सकता है।
‘हाँ, शायद।’
‘मेरा दिल नहीं मानता साहब।’
‘क्या?’
‘कि हमने अपने आसपास की दुनिया को इतना खूबसूरत बनाया है, अपने हिस्से के आसमान को, जमीन को, हवा को, अपनी छोटी सी दुनिया को और हमारे सब कुछ ऐसे ही छोड़कर चले जाने पर किसी को कोई फर्क ही नहीं पड़ेगा। कितनी स्वार्थी हवा है न हमारे आसपास?’
प्रश्न - मैं एक लड़की से प्यार करता हूँ, वह लड़की भी मुझसे प्यार करती है लेकिन हमारी हैसियत में बहुत फर्क है। मैं बहुत गरीब घर से हूँ और वह अमीर है। मैं उसके बिना नहीं जी सकता लेकिन उसके घरवाले हमारी शादी को कभी राजी नहीं होंगे। मैं क्या करूँ?
उत्तर - आप दोनों भले ही एक दूसरे से प्यार करते हों, शादी एक बहुत बड़ा निर्णय होता है। आपको अपने संसाधन देखने होंगे कि क्या आप शादी के बाद अपनी पत्नी के सारे खर्चे आसानी से उठा सकेंगे। आप उसको दुखी नहीं कर सकते जिससे प्रेम करते हों। आपको अपने परिवार के बारे में भी सोचने की जरूरत है, सिर्फ अपनी खुशी के बारे में सोच कर स्वार्थी नहीं बना जा सकता।
मैं चुप रहा। मेरे पास नीलू से कहने के लिए कुछ नहीं था, कुछ बची हुई मजबूत कविताएँ और एक बची हुई कमजोर उम्र थी मेरे पास जो उसे मैं नहीं देना चाहता था। वह निश्चित रूप से इससे ज्यादा की हकदार थी, बहुत ज्यादा की। मेरी बाँहें बहुत छोटी थीं और तकदीर बहुत खराब, मैं उन्हें जितना भी फैलाऊँ, बहुत कम समेट पाता था।
मैंने पूछा कि क्या शादी की तारीख पक्की कर ली गई है तो उसने कहा कि अगर दुनिया के सारे लोग एक के ऊपर एक खड़े कर दिए जाएँ तो भी चाँद पर नहीं पहुँच सकते। चाँद बहुत दूर है। मैंने उससे उसकी तबीयत के बारे में पूछा और उसने मेरे परिवार के बारे में। हमने चार बातें कीं, तीन बार एक दूसरे की हथेलियाँ सहलाईं, दो बार रोए और एक बार हँसे। उसके थरथराते होंठ मैंने एक बार भी नहीं चूमे, शायद यही वह पाप था जिसके कारण नीचे उतरते ही मेरा बुरा समय शुरू हो गया। मैं चाहता था कि सबकी नजरें बचाकर निकल जाऊँ। अंकल हॉल में अखबार पढ़ रहे थे और आंटी बैठकर स्वेटर बुन रही थीं। दोनों ही ऐसे काम कर रहे थे जो आमतौर पर रात में नहीं किए जाते और मैं समझ गया था कि आज मुझे नीलू की आँखों के साथ उसके होंठ भी चूमने चाहिए थे। उसके होंठों के आमंत्रण और और आँखों के निमंत्रण को मैंने जान-बूझकर नजरअंदाज किया था क्योंकि उस वक्त मैं नीलू को इसके अलावा कोई और नुकसान नहीं पहुँचा सकता था। उसकी उपेक्षा करने का मेरे पास यही तरीका था। मेरे मन में कहीं किसी मतलबी और नीच जानवर ने धीमे से कहा था कि नीलू ने शादी से मना क्यों नहीं किया... गेंद तुम्हारे पाले में क्यों...? क्या तुम्हारी सामाजिक स्थिति उसके लिए भी...?
‘हद्दी यहाँ आना।’ अंकल के बुलाने के अंदाज से ही लग गया कि आवाज उनकी थी लेकिन वह जो बात कहने जा रहे थे उसकी भाषा और रणनीति आंटी की थी। मेरे नाम को अंकल और उन जैसे मुहल्ले के कई लोगों ने खराब कर दिया था और वे कभी मुझे मेरे असली नाम से नहीं पुकारते थे। क्या फायदा ऐसे नाम रखने का कि हम उस पर दावा भी न दिखा पाएँ। मैं तो चुपचाप सुन लेता था लेकिन उदभ्रांत अपना नाम बिगाड़नेवालों से उलझ जाता था।
‘देखो बेटा, नीलू की सगाई तय हो गई है। तुम उसके सबसे करीबी दोस्त हो, उसे समझाओ कि शादी के लिए मना न करे, मन बनाए। अरे शादी कोई कैरियर बनाने में बाधा थोड़े ही है। तुम्हारी बात वह समझेगी, उसे समझाओ। उसे तैयार करने की जिम्मेदारी तुम्हारी है और हाँ बाजार से कुछ चीजें भी लानी होंगी। तुम तो ऑफिस में रहते हो, कल दिन में उद्दी को भेज देना तुम्हारी आंटी की थोड़ी मदद कर देगा... तुम तो जानते ही हो कि मुझे ऑफिस से छुट्टी मिलना कितना...।’ अंकल काफी देर तक बोलते रहे और मैं खड़ा टीवी को देखता रहा। टीवी में बताया जा रहा था कि शहर की सजावट में कितने करोड़ रुपए खर्च हुए हैं और नीला रंग शहर के लिए कितना जरूरी है। अंकल की बातें बहुत चुभ रही थीं इसलिए मैंने टीवी की ओर नजरें कर ली थीं। टीवी पर जो बताया जा रहा था वह भी इतना चुभ रहा था कि मैं उनकी बातें अधूरी छोड़ कर निकल आया।
प्रश्न - मैं एक पिछड़े परिवार से संबंध रखता हूँ। मेरे पिताजी एक जगह चपरासी का काम करते हैं और माँ घरों के बरतन माँजती है। मेरी पढ़ाई का खर्च वे बड़ी मुश्किल से उठा पा रहे हैं लेकिन आजकल मेरा मन पढ़ाई में नहीं लगता। मेरे मुहल्ले के लोग मेरी उपलब्धियों को भी मेरी जाति से जोड़ कर देखते हैं और कुछ भी करने का मेरा उत्साह एकदम खत्म होता जा रहा है। मेरे मुहल्ले के लोग मेरा नाम तक बिगाड़कर बुलाते हैं। मैं सोचता हूँ कोई संगठन ज्वाइन कर लूँ। मेरे सामने ही मेरे पिता की बेइज्जती की जाती है और मैं कुछ नहीं कर पाता, मैं क्या करूँ?
उत्तर - आप चाहें तो किसी संगठन में शामिल हो सकते हैं लेकिन ये आपकी परेशानियों को कम नहीं करेगा। आपके पिताजी का अपमान करनेवाले लोग संख्या में बहुत ज्यादा हैं और किसी संगठन से उनका जवाब देने की आपकी उम्र भी नहीं है। आपके पास एकमात्र हथियार आपकी पढ़ाई है। खूब पढ़िए और किसी अच्छी जगह पर पहुँचिए फिर आपका मजाक उड़ानेवाले लोग ही आपसे दोस्ती करने को बेकरार दिखाई देंगे। अपने गुस्से को पालिए और उसे गलाकर उसे एक नुकीले हथियार के रूप में ढाल दीजिए।
उदभ्रांत ने मुझसे पूछा कि क्या मैं नीलू को पसंद नहीं करता। मैंने कहा कि नीलू मेरी अच्छी दोस्त है तो वह बहुत जोर से हँसा। उसने मुझसे ऐसी भाषा में बात की जैसे पहले कभी नहीं की थी। उसने मुझसे पूछा कि क्या उसका हाथ मुझे अपने हाथ में लेते हुए कभी लगा कि दुनिया को उसके हाथ की तरह गरम और सुंदर होना चाहिए। मैंने उसे बताया कि ऐसा मुझे हर बार लगा है जब मैंने उसका हाथ अपने हाथ में लिया है और फिर उसे समझाया कि नीलू मेरी सिर्फ और सिर्फ और अच्छी दोस्त है और मेरी दिली इच्छा है कि उसकी शादी किसी अच्छे लड़के से हो। उसने कहा कि मुझे फिर से कविताएँ लिखना शुरू कर देना चाहिए क्योंकि अगर मरना ही है तो कविताएँ लिखते हुए मरने से अच्छा काम कोई नहीं हो सकता। मैंने कहा कि दुनिया की सबसे बड़ी सच्चाई पेट है और उसने कहा कि कुछ सोच कर पेट को दिमाग और दिल के नीचे जगह ही गई है। मैंने निराश आवाज में उससे कहा कि इस दुनिया में हमारे जीने के लिए कुछ नहीं है तो उसने कहा कि हमारे पास धार है तलवार भले ही न हो। मैंने उससे पूछा कि क्या उसे कॉलेज जाने के लिए सायकिल चाहिए। उसने कहा कि न तो उसे कॉलेज जाने के लिए सायकिल की जरूरत है और न ही नौकरी पाने के लिए हाथी की। मुझे यह अजीबोगरीब तुलना समझ में बिल्कुल नहीं आई और मुझे भी पिताजी की बात पर विश्वास होने लगा कि उदभ्रांत आजकल कोई नशा करने लगा है। मैंने कहा कि सायकिल से हाथी की क्या तुलना, यह तुलना बेकार है। उसने लॉर्ड एक्टन नाम के अपने किसी टीचर का नाम लेते हुए कुछ बातें कीं और कहा कि मैं भोला हूँ जो सामने दिखाई दे रही चीज पर तात्कालिक फैसला दे रहा हूँ जबकि न तो सायकिल और हाथी में कोई फर्क होता है और न ही दुनिया के किसी भी फूल और शरीर के किसी भी अंग में। मुख्य बात तो वह सड़क होती है जिधर से वह सायकिल या हाथी निकलते हैं। सड़क मजेदार हो तो जितना खतरनाक झूमता हुआ हाथी होता है, सायकिल उससे रत्ती भर कम खतरनारक नहीं। मैंने उससे कहा कि तुम हाथी के बारे में अपमानजनक टिप्पणी कर रहे हो तुम्हें पता नहीं इसका परिणाम क्या हो सकता है, हो सकता है हाथी इधर ही कहीं टहल रहा हो। वह मुस्कराने लगा। उसने बाईं आँख दबाकर बताया कि हाथी आजकल शहर में नहीं है, वह खेतों की तरफ निकल गया है। मैंने आश्चर्य व्यक्त किया, ‘क्यों खेतों की ओर क्यों?’
‘दरअसल हमें एक ऐसी चीज किताबों में पढ़ाई जाती रही है जिसे पढ़ना एकदम अच्छा नहीं लगता। ‘भारत गाँवों का देश है’ या ‘भारत एक कृषिप्रधान देश है’ जैसी पंक्तियाँ पढ़ने से हमारे देश की गरीबी और बदहाली का पता चलता है। खेत और किसान बहुत बेकार की चीजें हैं और ये हमेशा बहुत गंदे भी रहते हैं जिससे सौंदर्यबोध को धक्का लगता है। इसलिए कुछ ऐसे लोगों ने, जिनके पास पैसे की कोई कमी नहीं और जो देश को ऊँची-ऊँची इमारतों और चमचमाते बाजारों से भर कर इसे एकदम चकाचक बना देना चाहते हैं, हाथी से अपने देश की गरीबी दूर करने की प्रार्थना की है। हाथी सजधज कर, अपने दाँतों को हीरे पन्नों से सजाकर और इन दयालु लोगों का दिया हुआ मोतियों जड़ा जाजिम पहनकर खेतों की ओर निकल गया है। वह जिन-जिन खेतों से होकर गुजरेगा, उन खेतों की किस्मत बदल जाएगी। वहाँ खेती जैसा पिछड़ा हुआ काम रोककर बड़ी-बड़ी इमारतें, चमचमाती सड़कें बनाई जाएँगीं। जिस पर से होकर बड़े-बड़े दयालु लोगों की बड़ी-बड़ी गाड़ियाँ गुजरेंगीं।’
मैं समझ गया कि उदभ्रांत का दिमाग, जैसा कि पिताजी पिछले काफी समय से कह रहे थे, ज्यादा किताबें पढ़ने से और खराब संगत में रह कर नशा करने से सनक गया है।
‘तुम आजकल रहते कहाँ हो और रात-रात भर गायब रहते हो... किन लोगों के साथ हो और क्या कर रहे हो पढ़ने लिखने की उम्र में?’ मैंने उसे ताना देकर उसे वापस सामान्य करना चाहा। वह जोर से हँसने लगा और एक कविता पढ़ने लगा जिसमें किसी की आँखों को वह दर्द का समंदर बता रहा था।
मैंने उससे धीरे से कहा कि उसे इस उम्र में कविताएँ नहीं पढ़नी चाहिए, उसने कहा कि इस उम्र में कविताओं का जो नशा है उसके सामने दुनिया को कोई नशा ठहर नहीं सकता। उसने उठते हुए मुझसे कहा कि मुझे नीलू को कोर्ट में ले जाकर शादी कर लेनी चाहिए क्योंकि आसमान तक सीढ़ी लगाने के लिए एक मर्दाना और एक जनाना हाथ की जरूरत होती है।
पिताजी बड़े अरमानों से अपने साथ कुछ पढ़े-लिखे और समझदार माने जानेवाले मजदूरों को लेकर निकले थे और अधिकतर मजदूरों का मानना था कि राज्य के सबसे बड़े हाकिम के पास जाने से उनकी समस्या तुरंत हल हो जाएगी क्योंकि शायद उनको पता ही न हो कि उनके अपने लोग कितनी मुसीबतों में घिरे हैं। वे लोग अपने हाथों में निवेदन करती हुई कुछ तख्तियाँ लिए हुए थे जिसमें चीत्कार करती हुई पंक्तियाँ लिखी थीं जो वहाँ के पढ़े-लिखे मजदूरों ने बनाई थीं और कुछ तिख्तयों पर तो उदभ्रांत ने कुछ कविताएँ भी लिखी थीं। पिताजी लंबे समय के अंतराल के बाद उदभ्रांत के किसी काम पर खुश हुए थे।
वे लोग जब एक गली से होते हुए मुख्य सड़क पर पहुँचे तो वहाँ पहले से एक राजनीतिक पार्टी के कुछ लोग तख्तियाँ लिए हुए नारे लगाते हुए जा रहे थे। उन लोगों ने लाल टोपियाँ पहन रखी थीं और उन लोगों को रिकॉर्ड करते हुए कुछ टीवीवाले लोग भी थे। जिधर वे टीवीवाले लोग अपना कैमरा घुमाते उधर के लोगों में जोश आ जाता और वे चिल्ला-चिल्लाकर नारे लगाने लगते। पिताजी ने उन लोगों से दूरी बनाए रखी। जब वे लोग मुख्य सड़क पर आए तो वहाँ पुलिस की तगड़ी व्यवस्था थी। कई मजदूरों के हाथ-पाँव फूल गए और कई मजदूर जोश में आ गए। पिताजी ने सभी मजदूरों को समझाया कि कोई अशोभनीय बात और हिंसात्मक हरकत उनकी तरफ से नहीं होनी चाहिए लेकिन एकाध मजदूरों का कहना था कि आज वे अपने सवाल पूछ कर जाएँगे और किसी से नहीं दबेंगे। पुलिस का एक बड़ा अफसर पिताजी के पास आया और उसने बड़ी शराफत से पिताजी से पूछा कि उनकी समस्या क्या है। पिताजी ने कहा कि उन्हें कुछ सवाल पूछने हैं। फिर वह अफसर उस पार्टी के प्रमुख के पास गया, उसने भी कहा कि हमें भी कुछ सवाल पूछने हैं। दोनों लोगों से बात करने के बाद अफसर थोड़ा पीछे हटा और भाषण देनेवाली मुद्रा में हाथ उठा कर दोनों तरफ के लोगों को शांति से अपने-अपने ठिकानों पर लौट जाने की सलाह दी। उसका कहना था कि उनके सवालों के जवाब एक-दो दिन में कूरियर से उनके घर भिजवा दिए जाएँगे या फिर किसी अखबार में अगले हफ्ते उनके उत्तर छपवा दिए जाएँगे। दोनों तरफ के लोग खड़े रहे। अफसर ने फिर अपील की कि सभी लोग यहीं से लौट जाएँ और उसे लाठीचार्ज करने पर मजबूर न करें। उसके एक मातहत ने आकर उसके कान में धीरे से कहा कि लाठीचार्ज और गोली चलाने जैसी घटना से उन्हें बचाना चाहिए क्योंकि इससे बहुत पैसे खर्चकर साफ करवाई हुई सड़क पर खू़न के धब्बे लग सकते हैं जो हाथी को कतई पसंद नहीं आएँगे। अफसर मुस्कराया और बोला कि बेवकूफ तू इसीलिए मातहत है और मैं अफसर, अगर ये लोग नहीं भागे तो इन पर ऐसी लाठियाँ बरसाई जाएँगी कि एक बूँद खून भी नहीं गिरेगा और ये कभी उठ नहीं पाएँगे, उसने आगे यह भी जोड़ा कि राजनीतिक पार्टी के इन लोगों पर लाठियाँ बरसाने से उसे अपनी छवि चमकाने का भी मौका मिलेगा और पदोन्नति की संभावनाएँ बढ़ जाएँगीं। पिताजी और उनके साथ के मजदूर वहीं जमीन पर बैठ गए। पिताजी का कहना था कि वे शांतिपूर्ण ढंग से वहाँ तब तक बैठे रहेंगे जब तक उनके सवालों के जवाब नहीं मिल जाते। इधर उस पार्टी के लोग इस बात को लेकर चिंतित थे कि पुलिस लाठी चलाना शुरू क्यों नहीं कर रही है। आखिरकार एक युवा कार्यकर्ता, जो खासतौर पर लाठी खाने अपने एक फोटोग्राफर दोस्त को लेकर आया था, ने चिंताग्रस्त होकर पुलिस टीम की तरफ एक बड़ा पत्थर उछाल दिया। पत्थर एक हवलदार की आँख पर लगा और उसकी आँख फूट गई। उसने एक आँख से पार्टी के लोगों की तरफ देखा और उसे अहसास हुआ कि ‘लाठीचार्ज’ या ‘फायर’ बोल पाने की ताकत रखना कितनी बड़ी बात होती है। तब तक दूसरा पत्थर आया। ये किसी और चिंतित कार्यकर्ता ने फेंका था। पुलिस टीम के ऊपर एक के बाद चार-पाँच पत्थर पड़े तो अफसर को लाठीचार्ज का आदेश देना पड़ा।
भगदड़ मच गई और भागते हुए लोग पिताजी और उनके लोगों के ऊपर गिरने लगे क्योंकि ये लोग बैठे हुए थे। ये जब भी उठने की कोशिश करते, कोई इन्हें धक्का देकर भाग जाता। पुलिस टीम राजनीतिक पार्टी के लोगों को दौड़ाती हुई पिताजी के पास आई और जो मिला उस पर लाठियों के करारे प्रहार करने शुरू कर दिए। सड़क पर वाकई एक बूँद भी खून नहीं गिरा और पूरी सजावट ज्यों की त्यों चमकदार बनी रही। पत्रकारों और कैमरावालों ने हड्डी टूटे हुए लोगों की कुछ तस्वीरें खींचीं और फिर सड़क पर लगी तेज नियॉन लाइटों वाली ग्लोसाइन के चित्र लेने लगे जिसमें जल्दी ही एक खास अवसर पर गरीबों के लिए ढेर सारी योजनाओं की घोषणा किए जाने की घोषणा की गई थी।
पिताजी भी उन तीन गंभीर रूप से घायल लोगों में से थे जिनकी हडि्डयाँ टूटी थीं और उन्हें तब तक चैन नहीं आया जब तक कि डॉक्टर ने यह कहकर उन्हें निश्चिंत नहीं कर दिया कि उनके दो साथियों की तरह उनकी भी दो-तीन हडि्डयाँ टूटी हैं। वह निश्चिंत हुए कि उन्होंने अपने साथियों से धोखा नहीं किया। पिताजी के कई मित्र अस्पताल में उनका हाल-चाल पूछने आए और अंसारी साहब भी आकर उनका पुरसाहाल कर गए। एक दिन एक पुलिस इंस्पेक्टर भी आया और देर तक पिताजी के पास बैठा कुछ लिखता रहा। उसने पिताजी से उनका अगला-पिछला पूरा रिकॉर्ड पूछा, घर-परिवार, बीवी-बच्चे, खान-पान सबके बारे में पूछा और जाते वक्त सलाह दी कि उन्हें सरकार का विरोध करने जैसा देशद्रोहवाला काम नहीं करना चाहिए। पिताजी ने नजरें दूसरी ओर फेर लीं जिस पर उसने कहा कि अगर कुछ गलत हुआ तो जिम्मेदार आप होंगे।
‘उत्तरप्रदेश’ में सवालों के जवाब नहीं दिए जाते
पिताजी बारह दिनों बाद अस्पताल से डिस्चार्ज होकर घर आ गए थे और प्लास्टर लगवा कर पूरी तरह से बेडरेस्ट में थे। किसी सुबह वह बहुत मूड में दिखाई देते और हम दोनों भाइयों को बुलाकर मिल से संबंधित पुरानी कहानियाँ सुनाते। जब माँ खाना बना लेती तो खाना परोसे जाने से पहले माँ को भी अपने पास बुलाते और अपनी शादी के दिनों का कोई किस्सा छेड़ देते जिससे हम हँसने लगते और माँ थोड़ी शरमा जाती। ऐसे ही एक अच्छे दिन उन्होंने अखबार पढ़ते हुए हम लोगों को सुनाते हुए कहा कि अगले हफ्ते एक बहुत अच्छी फिल्म आने वाली है उसे दिखाने ले चलेंगे और उसके टैक्स फ्री होने का इंतजार नहीं करेंगे। माँ ने पूछा कि कैसे मालूम कि फि़ल्म अच्छी है तो उन्होंने कहा कि जिस फिल्म का नाम ही ‘डांस पे चांस’ हो वो तो अच्छी होगी ही। माँ ने कहा कि वे नए अभिनेताओं-अभिनेत्रियों को नहीं पहचानतीं इसलिए उन्हें मजा नहीं आएगा। पिताजी ने कहा कि अगर वे नखरे करेंगी तो वे उन्हें उठा कर ले जाएँगे। ये कहने के बाद पिताजी बेतरह निराश हो गए और अखबार में कोई सरकारी विज्ञापन पढ़ने लगे। जिस दिन वह उदास रहते दिन भर किसी से सीधे मुँह बात नहीं करते। मिल और मजदूरों को लेकर कुछ बड़बड़ाते रहते और चिंता करते रहते। ऐसे ही एक उदास दिन उन्होंने कहा कि उनके न रहने पर भी इस घर पर कोई फर्क नहीं पड़ना चाहिए क्योंकि उनके दो जवान बेटे सब कुछ अच्छे से सँभाल सकते हैं। माँ साड़ी का पल्लू मुँह में डाल कर रोने लगीं तो उन्होंने कहा कि मैंने दो शेर पैदा किए हैं और इनके रहते तुम्हें कोई चिंता करने की जरूरत नहीं है, मेरे दोनों बेटे मेरे जैसे ही बहादुर हैं। ये कहने के बाद वह बुरी तरह अवसाद में चले गए और अखबार में साप्ताहिक राशिफल पढ़ने लगे। मैं अक्सर घर के माहौल से तंग आ जाता था और छुट्टीवाले दिन भी ऑफिस पहुँच जाता था मगर वहाँ और भी ज्यादा घुटन थी।
मैं ऑफिस के लोगों की बद्तमीजियों से बहुत तंग आ गया था। बॉस के आकर उजड्डई करने के बाद मैं अब शिकायत भी किससे करता। मैं जब उस दिन ऑफिस में घुसा तो एक साथ दादा और दीन जी दोनों ने अपनी बद्तमीजियाँ शुरू कर दीं। दीन जी का सवाल बहुत ही घिनौना था तो दादा का सवाल यह था कि उन्होंने अपनी रिश्ते की एक बहन से सेक्स करने की अपनी इच्छा के बारे में मुझसे सलाह माँगी थी। मेरा दिमाग भन्ना गया। वे मेरे बिना पूछे ही बताने लगे कि दुनिया में इस तरह के संबंधों का प्रचलन बहुत तेजी से बढ़ रहा है और लोग अपनी कुंठाएँ बिना झिझक बाहर निकाल रहे हैं। उन्होंने मुझे और दादा को इस तरह के संबंधों पर आश्चर्य व्यक्त करने पर लताड़ा और इस तरह के संबंधों का नाम इनसेस्ट सेक्स बताया और यह भी बताया कि अब यह बहुत तेजी से हर जगह फैल रहा है और सहज स्वीकार्य है। दादा इस पर सहमत नहीं हुए और कहा कि परिवार में ऐसे संबंध उचित नहीं हैं, हाँ आपस में दो परिवार बदल कर ये करें तो चल सकता है। पिताजी के पाँव और कोहनी का फ्रैक्चर मुझे अपने ऑफिस में भी अलग-अलग लोगों के अलग-अलग अंगों में दिखाई दे रहा था। उस दिन मैं लंच करने नहीं गया और दादा मुझे दो बार पूछने के बाद हँसते हुए चले गए। जब सभी लोग लंच करने चले गए तो मैंने दादा की दराज से एक मोटा स्केच पेन निकाला।
वापस आने के बाद मेरी उम्मीदों के विपरीत वे लोग हँसने लगे। मुझे सीरियस लेना उन्हें अपमान की तरह लग रहा होगा, इस बात से मैं वाकिफ था। दादा अंदर बॉस के केबिन में गए और थोड़ी ही देर में मुझे क्रांतिकारी की तरफ से बुलावा आ गया।
‘जी...सर।’ मैं अंदर जाकर चपरासीवाले भाव से खड़ा हो गया।
‘क्या हुआ भई, कोई दिक्कत...?’ उसने हँसते हुए पूछा। उसके एक तरफ दादा और दूसरी तरह ‘दीन’ खड़े थे।
‘जी... कोई खास नहीं।’ मैंने बात को समेटने की कोशिश की।
‘सुना है तुमने अपनी खिड़की पर लिख दिया है कि ‘उत्तर प्रदेश में सवालों के जवाब नहीं दिए जाते’?’ उनकी मुस्कराहट बदस्तूर जारी थी।
‘जी नहीं... मैंने सिर्फ यह लिखा है कि ‘जवाब नहीं दिए जाते’, उत्तर प्रदेश तो पहले से मौजूद था।’
इस पर वे तीनों लोग हँसने लगे। उनकी सामूहिक हँसी मेरा सामूहिक मानसिक बलात्कार कर रही थी पर वे अपनी जगह बिल्कुल सही थे क्योंकि वे मुझे तनख्वाह देते थे और इस लिहाज से मुझे जिंदा रखने के बायस थे।
‘भई उत्तर प्रदेश में मत देना सवालों के जवाब, हम तुम्हें यहाँ बुला लिया करेंगे जब भी हमें उत्तर चाहिए होंगे... क्यों दादा ठीक है न?’ दादा ने भी हँसते हुए सहमति जताई और देखते ही देखते प्रस्ताव 100 प्रतिशत वोटिंग के साथ पारित हो गया।
मैं मन मारकर कूदकर आया और अपनी कुर्सी पर आकर बैठ गया। मेरा मन काम में कतई नहीं लग रहा था। तभी चपरासी ने खिड़की पर आकर सूचना दी कि कोई लड़की मुझसे मिलने आई है। मैंने बिना कुछ सोचे समझे बाहर जाने का विकल्प चुना क्योंकि मुझसे किसी लड़की का मिलने आना इस घिनौने ऑफि़स के लिए एक और मसाला होता। मैं यह सोचता हुआ आया कि किसी कंपनी से कोई विज्ञापनवाली लड़की होगी लेकिन बाहर नीलू मिली।
‘मेरे साथ थोड़ी देर के लिए बाहर चलोगे साहब?’ उसके प्रश्न में आदेश अधिक था सवाल कम। मैंने चपरासी को समझाया कि कोई मेरे बारे में पूछे तो वह कह दे कि खाना खाने गए हैं। पूरे ऑफि़स में चपरासी भग्गू ही मेरा विश्वासी था और ऑफि़स की जोकर पार्टी को कतई नहीं पसंद करता था।
नीलू मुझे लेकर शहर के एक प्रसिद्ध पार्क में पहुँची और वहाँ पहुँचते ही घास पर लेट गई। शहर में पार्क और मूर्तियाँ बहुत थे लेकिन काम और रोटियाँ बहुत कम। उसने लाल रंग की शलवार कमीज पहन रखी थी।
‘आजकल घर नहीं आते साहब तुम?’ उसने मेरी ओर देखते हुए पूछा।
‘तुम्हारी मम्मी ने मना किया है नीलू।’ मैंने न चाहते हुए भी उसे सच बताया।
‘अच्छा... बड़ा कहना मानते हो मेरी मम्मी का।’ वह मुस्कराई तो मैं दूसरी ओर देखने लगा जहाँ एक जोड़ा एक दूसरे के साथ अठखेलियाँ रहा था।
‘वह तुम्हारी भलाई चाहती हैं नीलू।’ मैंने मरे हुए स्वर में कहा।
‘मगर मैं अपनी बुराई चाहती हूँ।’ उसने नटखट आवाज में कहा। ‘मुझे जिंदगी गणित की तरह नहीं जीनी साहब। मुझे जीना है अपने तरीके से जो बाद में अगर गलत साबित हुआ तो देखा जाएगा। उन्होंने मुझसे भी कहा कि प्यार से पेट नहीं भरता और मैं तुम्हें भूल जाऊँ लेकिन आज मुझे लग रहा है कि प्यार से जरूर पेट भरता होगा तो लग रहा है बस्स।’ मैं अपलक उसे देख रहा था। आज वह बहुत बदली सी लग रही थी।
‘लाल में तुम थोड़ी ज्यादा शोख लग रही हो...।’ मैंने उस पर भरपूर नजर डाल कर कहा।
‘तुम्हें क्या लगता है?’ उसने पूछा।
‘किस बारे में...? लाल रंग भी तुम पर जँचता है लेकिन...।’
‘लाल रंग नहीं, प्यार के बारे में? क्या प्यार से पेट भरता होगा?’ उसकी आवाज में सौ चिड़ियों की चहचहाहट थी और आँखों में हजार जुगनुओं की रोशनी।
‘पता नहीं, मुझे नहीं लगता नीलू कि प्यार से...।’ मेरी बात अधूरी रह गई क्योंकि तब तक नीलू उठकर मेरे सीने पर आ चुकी थी और उसका चेहरा मेरे चेहरे के बिल्कुल पास था। उसकी साँसें मेरे चेहरे पर टकराईं और मैं आगे की बात भूल गया।
‘पागल हमने अभी प्यार चखा ही कहाँ है... क्या पता भरता ही हो... दूसरों की बात मानें या खुद करके देखें साहब जी...।’ उसकी साँसें मेरे चेहरे पर गर्म नशे की तरह निकल रही थीं और उसकी आँखों में जो था वो मैंने पहली बार देखा था। मेरे मुँह से निकलने वाला था कि खुद करके तब तक उसे होंठ मेरे होंठों से जुड़ चुके थे। पार्क से किसी भी तरह की आवाजें आनी बंद हो गई थीं और मेरे कान में पता नहीं कैसे ट्रेन के इंजन की सीटी सी बजने लगी थी। नीलू ने अपने सीने को मेरे सीने पर दबाया हुआ था और मेरी साँस मेरे भीतर ही कहीं खो गई थी। जिस ट्रेन की सीटी मेरे कान में बज रही थी मैं उसी की छत पर लेटा हुआ था और हम तेजी से कहीं निकलते जा रहे थे। नीलू ने मेरी बाँह पकड़कर अपनी कमर के इर्द-गिर्द लपेट ली। मैंने पहली बार उसकी देह को इतने पास से महसूस किया। मुझे पहली बार ही अहसास हुआ कि मैं उसके बिना नहीं रह सकता। पहली बार ही मुझे अनुभव हुआ कि अगर मेरे सामने वह किसी और की हुई तो मैं मर जाऊँगा। उसने मेरी एक बाँह अपनी कमर पर लपेटी थी। मैंने दोनों बाँहों से उसे भींच लिया। दूर अठखेलियाँ करता वह जोड़ा हमें गौर से देख रहा था और कह रहा था कि वो देखो वहाँ एक जोड़ा अठखेलियाँ कर रहा है।
थोड़ी देर बाद जब हम नीलू की एक पसंदीदा जगह पर एक नदी के किनारे बैठे थे तो वह मेरी उँगलियाँ बजाने लगी। मुझे बहुत अच्छा लग रहा था।
‘मगर मुझे नए शहर में नौकरी खोजने में कुछ वक्त लग सकता है।’ मेरे मन में अब भी संशय थे और उसके होंठों पर अब भी मुस्कराहट थी।
‘एक बात बताओ साहब, तुम्हें बीवी की कमाई खाने में कोई प्रॉब्लम तो नहीं है।’ उसकी आवाज की शोखी ने मुझे मजबूर कर दिया कि मैं भी सारे संशय उतार फेंकूँ और उसके रंग में रँग जाऊँ। वह जो मुझे नया जन्म दे रही थी, वह जो मुझे जीना सिखा रही थी, वह जो मुझे मेरे सारे आवरणों से अलग कर रही थी।
मैंने उसे झटके से दबोचा और उसी के अंदाज में बोला, ‘बीवी की कमाई खाने में मुझे बहुत खुशी होगी।’ मैंने जब उसके होंठों पर होंठ रखे तो नदी का पानी, जो अपने साथ ढेर सारे नए पत्ते बहाकर ले जा रहा था, थम गया और हमें देखने लगा। नदी के होंठों पर मुस्कराहट थी।
हम यह शहर दो दिन के बाद छोड़ देने वाले थे। मुझे पता नहीं था कि मैं इतना बड़ा बेवकूफ हूँ और उदभ्रांत इतनी कम उम्र में इतना समझदार। मैंने हिचकते हुए उसे योजना बतायी तो उसने मुझे बाँहों में उठा लिया और कहा, ‘तुम जानते नहीं हो भाई कि आज तुमने जिंदगी में पहला सही काम किया है। इसके एवज में जो तुम अपने ऊपर उन जाहिलों को बर्दाश्त करने का अपराध करते हो वह भी माफ हो जाना चाहिए। उसने मुझे पूरी तरह आश्वस्त किया कि वह यहाँ सब कुछ सँभाल लेगा। उसने बताया कि उसे एक प्राइवेट कॉलेज में पढ़ाने का काम मिल रहा है और कुछ खर्चा वह अपनी उन चार-पाँच ट्यूशन्स से निकाल लेगा जिनकी संख्या जल्दी ही और भी बढ़ने का अनुमान है। मैंने बताया कि नीलू वहाँ जाकर किसी कॉलेज में पढ़ाने की नौकरी खोजेगी और मैं किसी अखबार में कोशिश करूँगा। उसने कहा कि उस शहर में उसका एक परिचित दोस्त है जो पेशे से वकील है और सारी औपचारिकताएँ पूरी कर देगा। मैंने बहुत लंबे समय बाद उदभ्रांत से इतनी बातचीत की थी। मैंने उससे कहा कि हम एक दिन अपना घर जरूर बनाएँगे। उसने कहा कि उसे ऐसे सपनों में कोई विश्वास नहीं बचा। मैंने कहा कि सपने देखना ही जीना होता है। उसने कहा कि वह किसानों और उनकी जमीनों के लिए सपने देख रहा है। पहली बार मुझे उसके सेमिनारों और पोस्टर प्रदर्शनियों की कुछ बातें समझ में आईं। उसने कहा कि कल वह मेरे ऑफिस आएगा।
अगली सुबह जब मैं ऑफिस में पहुँचा तो पहुँचते ही ‘दीन’ जी ने एक गंदा सवाल पूछा, ‘मैंने आज तक कभी एक साथ दो महिलाओं के साथ सेक्स नहीं किया। मेरी एक महिला मित्र जिससे मैं सेक्स करता हूँ वह दो महिलाओं के साथ प्रयोग करने को तैयार है लेकिन मेरी पत्नी तैयार नहीं हो रही। मैं अपनी पत्नी पर सारे तरीके आजमा कर देख चुका हूँ। मै क्या करूँ?’ सवाल पूछते हुए वे मेरे काफी करीब तक आ गए थे और अपनेपन से मेरा हाथ पकड़ चुके थे। मैंने उनका हाथ झटकते हुए उन्हें परे धकेला और ऊँची आवाज में चिल्लाया, ‘आप अपनी पत्नी को पहले दो मर्दों का आनंद दिलाइए। एक बार उन्हें यह नुस्खा पसंद आ गया तो वह अपने आप मान जाएँगी। फिर आप लोग एक साथ चार, पाँच, छह जितने चाहे...।’ दीन जी मेरी टोन और आवाज की ऊँचाई से घबरा से गए और चुपचाप जाकर अपनी सीट पर बैठ गए। वे बेसब्री से बार-बार घड़ी की ओर देख रहे थे। दादा के बिना वे अकेले सिपाही की तरह लग रहे थे। मुझे लगा अभी वह थोड़ी देर में क्रांतिकारी के कमरे में जाकर मेरी चुगली करेंगे लेकिन वह चुपचाप बैठे रहे और कभी घड़ी तो कभी अपनी कंप्यूटर स्क्रीन की ओर देखते रहे। मैं जानता था कि उनका सवाल चाहे जैसा भी हो, मैंने उसका जवाब पूरी ईमानदारी के साथ दिया था लेकिन उन्हें जवाब नहीं चाहिए था।
यूपी में है दम क्योंकि जुर्म यहाँ है कम
दादा के आने के बाद भी ‘दीन’ जी की भाव-भंगिमा में कोई परिवर्तन नहीं आया हालाँकि दादा अपने साथ एक खुशी लेकर आए थे। हमारी पत्रिका को नीले रंग का एक विज्ञापन मिला था और साथ ही यह वादा कि यह विज्ञापन अगले साल के मार्च तक हमारी पत्रिका को मिलता रहेगा। दादा ने थोड़ी देर तक दीन से कुछ बातें कीं फिर सिगरेट पीने बाहर निकल गए। क्रांतिकारी जब तक नहीं आया होता था तब तक ये लोग अंदर-बाहर होते रहते थे। दादा और ‘दीन’ जी ने उस दिन शाम तक मुझसे कोई बात नहीं की थी हालाँकि ऑफि़स में मिठाइयाँ लाकर बाँटने का काम भग्गू ने क्रांतिकारी के फोन के बाद कर दिया था।
शाम के करीब साढ़े सात बजे, जब दादा और ‘दीन’ को क्रांतिकारी के कमरे में घुसे एक घंटा हो चुका था, मेरा बुलावा आया। भग्गू ने बताया कि साहब ने बुलाया है और दूसरी खबर उसने यह दी कि कोई हट्टा-कट्टा लड़का मुझसे मिलने आया है। मैंने उदभ्रांत को खिड़की से भीतर बुलवा लिया। वह मुस्कराता हुआ मेरे सामनेवाली कुर्सी पर बैठ गया लेकिन थोड़ी देर बाद ही मुझे अंदर बुलवा लिया गया था। मैं भारी मन से उठा, मैं चाहता था कि आज क्रांतिकारी मुझे न बुलाए और मेरे हाथों बेइज्जत होने से बच जाए।
‘तुमने दीन की बेइज्जती की?’ क्रांतिकारी और उसके दोनों चमचों पर तीसरे पैग की लाली तैर रही थी।
‘नहीं। मैंने इनके सवाल का जवाब दिया है बस्स, आप पूछ लीजिए इनसे।’ मैंने सामान्य रहने की कोशिश की।
‘साले मेरे सवाल का जवाब दिया कि मेरा हाथ उमेठ दिया, अब तक दर्द कर रहा है।’ ‘दीन’ जी चेहरे पर दर्द की पीड़ा लाकर बोले जिसमें से अपमान की परछाईं दिख रही थी। इतने में क्रांतिकारी उठकर मेरे पास आ चुका था।
‘चल तू इतने सवालों के जवाब देता है तो इसका जवाब भी बता। आज तुझे पता चले कि तू अपनी बाप की सगी औलाद नहीं है और तेरा असली बाप मैं हूँ जो तेरी माँ से मुँह काला करके चला गया था। मैं अचानक तेरे सामने आकर खड़ा हो गया हूँ और अब तुझे अपने साथ ले चलना चाहता हूँ तो तू क्या करेगा?’ क्रांतिकारी ने अपने हिसाब से काफी रचनात्मक सवाल पूछा था और अब वह एक इससे भी ज्यादा रचनात्मक उत्तर चाहता था। आज उसके तेवर एकदम बदले हुए थे और आमतौर पर हर बात का मजा लेने का उसका लहजा बदला लेने पर उतारू मालिक सा लग रहा था। भग्गू आकर दरवाजे पर खड़ा हो चुका था और इसी पल उदभ्रांत भीतर घुसा।
‘बोल क्या करेगा साले बता मेरे...।’ क्रांतिकारी की बाकी बात उसके मुँह में ही रह गई क्योंकि उदभ्रांत की लात उसकी जाँघों के बीच लगी थी। ‘मैं आपके साथ नहीं जाऊँगा सर, ऐन वक्त पर जब आप मेरे काम नहीं आए तो अब क्यों आए हैं। बल्कि मैं तो आपको इस गलती की सजा दूँगा...।’ मैंने भी उसके पिछवाड़े पर एक लात मारी और वह मेज के पास गिर गया। दादा और ‘दीन’ के चेहरों से तीन पैग की लाली उतर चुकी थी और वे बाहर जाने का रास्ता खोज रहे थे। उदभ्रांत तब तक क्रांतिकारी को तीन-चार करारे जमा चुका था। उसने उसे मारने के लिए तीसरी बार लात उठाया ही था कि वह हाथ जोड़कर गिड़गिड़ाने लगा। मैंने उदभ्रांत को रोककर क्रांतिकारी की जाँघों के बीच में एक लात और मारी, ‘सर एक और लात मार देता हूँ क्या पता आपकी जाँघों के बीच में जो शिकायत है वह दूर हो जाए हमेशा के लिए...।’ उसकी डकारने की आवाज हलाल होते सूअर जैसी थी।
रात को मैं घर देर से पहुँचा। रास्ते भर मैं और उदभ्रांत हँसते रहे थे और उदभ्रांत ने पहली बार कहा कि अगर कुछ सालों बाद सब ठीक हो गया तो वह एक छोटा सा घर जरूर बनाएगा। सब कुछ ठीक होने का मतलब मैं पूरी तरह नहीं समझा था और इसके बाद हम खामोशी से घर पहुँचे थे।
मौसम बहुत अच्छा था और नीलू के साथ ठंडी हवा में उसका हाथ पकड़ कर कुछ दूर चुपचाप चलने का मन कर रहा था। मैं खुद को भीतर से हीरो जैसा और अद्भुत आत्मविश्वास से भरा हुआ अनुभव कर रहा था। नीलू का इतनी रात बाहर निकलना संभव नहीं था इसलिए मैं अकेला ही घूमने लगा यह सोचता हुआ कि आज के सिर्फ दो दिन बाद मुझे नीलू का हाथ पकड़ कर घूमने के लिए किसी से कोई इजाजत नहीं लेनी पड़ेगी। यह सोचना अपने आप में इतना सुखद था कि घर पहुँचने के बाद भी मैं इसके बारे में ही पता नहीं कब तक सोचता रहा। बहुत देर से सोने के कारण सुबह आँख काफी देर से खुली। वह भी माँ के चिल्लाने और पिताजी के रोने से। मैं झपट कर बिस्तर से उतरा तो सब कुछ लुट चुका था। तीन जीपों में भर कर पुलिस आई थी और उदभ्रांत को पकड़कर ले गई थी। मैं कुछ न समझ पाने की स्थिति में हक्का-बक्का खड़ा था। मैंने हड़बड़ी में उद्भ्रांत के वकील दोस्त को फोन लगाया तो उसने मुझसे कहा कि मैं जल्दी जाकर केस फाइल होने से रोकूँ क्योंकि अगर एक बार केस फाइल हो गया तो उसे बचाने में दिक्कतें हो सकती हैं। मैं समझ नहीं पा रहा था कि आखिर ऐसा कौन सा जुर्म उसने कर दिया कि उसे पकड़ने के लिए पुलिस को तीन जीपें लानी पड़ीं। मैं बदहवासी में पुलिस थाने की ओर भागा। वहाँ जाकर मुझे पता चला कि उसे पुलिस ने नहीं बल्कि एसटीएफ ने पकड़ा है और उससे मिलने के लिए मुझे किसी फलाँ की इजाजत लेनी पड़ेगी। मुझे ही पता है कि उस दस मिनट में मैंने किसके और किस तरह पाँव जोड़े कि मुझे वहाँ ले जाया गया जहाँ उद्भ्रांत को फिलहाल रखा गया था।
‘ये इसका भाई है।’ मुझे ले जानेवाले हवलदार ने बताया। जींस-टीशर्ट पहने एक आदमी कुर्सी पर रोब से पैर फैलाए बैठा था।
‘अच्छा तू ही है अनहद।’ उसकी आवाज में कुछ ऐसा था कि मुझे किसी अनिश्ट की आशंका होने लगी।
‘जी...।’ मैं सूखते हलक से इतना ही कह पाया।
‘इसे भी अंदर डालो, किताब पर इसका भी नाम लिखा है। थोड़ी देर में कोर्ट ले जाना है, तब तक चाय समोसा बोल दो।’ उसका इतना कहना था कि मुझे सलाखों के पीछे पहुँचा दिया गया।
मुझे एक किताब दिखाई गई जिसमें नई कविता के कुछ कवियों की कविताएँ संकलित थीं। मैं कुछ समझ पाता उसके पहले उसमें से धूमिल की कविता ‘नक्सलबाड़ी’ वाला पृष्ठ खोल दिया गया और किताब मेरे सामने कर दी गई।
‘ये तुम्हारी किताब है न?’ सवाल आया।
‘हाँ मगर ये तो कविता है। हिंदी के कोर्स में...।’ मेरा कमजोर सा जवाब गया।
‘जितना पूछा जाए उतना बोलो। तुम्हारे और तुम्हारे भाई में से हिंदी किसका सब्जेक्ट रहा है या है?’ सवाल।
‘किसी का नहीं। मगर मुझे कविताएँ...।’ मेरी बात काट दी गई। ‘तुम्हारा भाई सरकार विरोधी गतिविधियों में लिप्त है। हमारे पास पुख्ता सबूत हैं। बाकी सबूत जुटाए जा रहे हैं। तुम ऐसी कविताएँ पढ़ते हो इसलिए तुम्हें आगाह कर रहा हूँ... सँभल जाओ। तुम्हारी बाप की उमर का हूँ इसलिए प्यार से समझा रहा हूँ वरना और कोई होता तो अब तक तुम्हारी गाँड़ में डंडा...।’
मैं समझ नहीं पाया कि मुझे क्यों छोड़ दिया गया। मैं वाकई उद्भ्रांत के कामों के बारे में अच्छी तरह से नहीं जानता कि वह क्या करता था और वह और उसके साथी रात-रात भर क्या पोस्टर बनाते थे और किन चीजों का विरोध करते थे, लेकिन मैं यह जरूर जानता था कि मेरा भाई एक ऐसी कैद में था जहाँ से निकलने के सारे रास्ते बंद थे। अगले दिन अखबारों ने उसकी बड़ी तस्वीरें लगा कर हेडिंग लगाईं थीं ‘नक्सली गिरफ्तार’, ‘युवा माओवादी को एसटीएफ ने पकड़ा’, ‘नक्सल साहित्य के साथ नक्सली धर दबोचा गया’ आदि आदि।
प्रश्न - मैं एक 28 वर्षीय अच्छे घर का युवक हूँ। मेरी नौकरी पक्की है और मेरा परिवार भी मुझे बहुत मानता है लेकिन पता नहीं क्यों मुझे अक्सर दुनिया से विरक्ति सी होने लगती है। मुझे सब कुछ छोड़ देने का मन करता है, सारे रिश्ते-नाते खोखले लगने लगते हैं और लगता है जैसे सबसे बड़ा सच है कि मैं दुनिया का सबसे कमजोर इनसान हूँ। मैं बहुत परेशान हूँ क्योंकि यह स्थिति बढ़ती जा रही है, मैं क्या करूँ?
उत्तर - छोड़ दो। मत छोड़ो।
इस कदर कायर हूँ कि उत्तर प्रदेश हूँ
मैंने उद्भ्रांत के वकील दोस्त की मदद से एक अच्छा वकील पाया जिसने पहली सुनवाई पर ही कुछ अच्छी दलीलें पेश कीं लेकिन पुलिस ने अपने दमदार सबूतों से उसे पंद्रह दिन के पुलिस रिमांड पर ले ही लिया। अगली सुनवाई की तारीख पर रिमांड की अवधि बढ़ा दी गई। अब यह हर बार होता है। उद्भ्रांत ने मुझसे पहली बार मिलने पर ही कहा था, ‘भाई मुझे जो अच्छा लगता था, मैंने वही किया। जीने का यही तरीका मुझे ठीक लगा लेकिन घर पर बता देना कि मैं कोई गलत काम नहीं करता था।’ मैंने सहमते हुए पुलिस की मौजूदगी में उससे धीरे से पूछा था, ‘क्या तुम वाकई नक्सली हो?’ ‘नहीं, मैं नक्सली नहीं बन पाया हूँ अभी।’ वह मुस्कराने लगा और उसने कहा कि मैं घर और माँ पिताजी का ध्यान दूँ। मैं हमेशा यही सोचता रहता हूँ कि उद्भ्रांत को किसने गिरफ्तार करवाया होगा। इसका जिम्मेदार मैं खुद को मानता हूँ। शायद दिनेश क्रांतिकारी ने उस रात की घटना के बाद मेरे भाई को फँसवा दिया होगा। फिर लगता है कहीं नीलू के पापा ने तो अपने संपर्कों का इस्तेमाल करके उसे नहीं पकड़वा दिया ताकि मुझसे बदला ले सकें।
हाँ, नीलू की शादी की बात तो अधूरी ही छूट गई। जिस दिन उसकी सगाई होने वाली थी, उस दिन अचानक ऐसी घटना हो गई कि पूरा मुहल्ला सन्न रह गया। उसके घर में काम करनेवाली महरी ने बताया कि रोशनदान से सिर्फ पंखे में बँधी रस्सी दिख रही थी और पूरे घर में मातम और हंगामा होने लगा कि नीलू ने आत्महत्या कर ली है। जब पुलिस आई और उसने दरवाजा तोड़ा तो पता चला कि पंखे से एक रस्सी लटक रही है जिसमें एक बड़ी बोरी बँधी है। पुलिस ने बोरी खोली तो उसमें से ढेर सारी नीली शलवार कमीजें और एक भारी नीली साड़ी निकली जिसे पहन कर नीलू बी.एड. की क्लास करने जाती थी। मैंने महरी से टोह लेने की बहुत कोशिशें कीं कि वह नीलू के बारे में कुछ और बताए लेकिन उसे कुछ भी पता नहीं था। मैं उस दिन कई बार सोच कर भी उसके घर नहीं जा पाया क्योंकि उस दिन उद्भ्रांत के केस की तारीख थी। पिताजी कहते हैं कि मैं उन्हें भी सुनवाई में ले चलूँ। वह अब लकड़ी के सहारे चलने लगे हैं और मैंने उन्हें अगली सुनवाई पर अदालत ले जाने का वादा किया है। वह अजीब-अजीब बातें करते हैं। कभी वह अचानक किसी पुरानी टैक्स फ्री फिल्म का गाना गाने लगते हैं तो कभी अचानक अखबार उठाकर कुछ पढ़ते हुए उसके चीथड़े करने लगते हैं। वह या तो एकदम चुप रहते हैं या फिर बहुत बड़बड़-बड़बड़ बोलते रहते हैं। वह केस की हर तारीख पर अदालत जाने की जिद करते हैं और मैं हर बार उन्हें अगली बार पर टालता रहता हूँ। माँ हर तारीख के दिन भगवान को प्रसाद चढ़ाती है और हम लोग जब तक अदालत से लौट नहीं आते, अन्न का एक दाना मुँह में नहीं डालती।
मेरी जिंदगी का मकसद सा हो गया है उद्भ्रांत को आजाद कराना लेकिन देखता हूँ कि मैं तारीख पर जाने के सिवा और कुछ कर ही नहीं पा रहा हूँ। उद्भ्रांत का केस देख रहा उसका दोस्त मुझे हर बार आशा देता है पर मैं धीरे-धीरे जीतने तो क्या जीने की भी उम्मीद खोता जा रहा हूँ। मेरे एक दोस्त ने, जो कल ही दिल्ली से लौटा है, बताया कि उसने राजीव चौक मेट्रो स्टेशन पर बिल्कुल नीलू जैसी एक लड़की को देखा है। मैं उससे पूछता हूँ कि उसने किस रंग के कपड़े पहने थे तो वह ठीक से याद नहीं कर पा रहा है। बाबा की मौत की खबर आई है और मैंने यह कहलवा दिया है कि अगर उस दिन केस की तारीख नहीं रही तो मैं उनकी तेरहवीं में जाने की कोशिश करूँगा।
मुझे अब नीले रंग से बहुत डर लगता है। मेरे घर से नीले रंग की सारी चीजें हटा दी गईं हैं। मैं बाहर निकलते समय हमेशा काला चश्मा डाल कर निकलता हूँ और कभी आसमान की ओर नहीं देखता।
प्रश्न - मुझे आजकल एक सपना बहुत परेशान कर रहा है। इस सपने से जागने के बाद मेरे पूरे शरीर से पसीना निकलता है और मेरी धड़कन बहुत तेज चल रही होती है। मैं देखता हूँ कि मेरा एक बहुत बड़ा और खूबसूरत सा बगीचा है जिसमें दरख्तों की डालें सोने की हैं। उन दरख्तों में से एक पर मुझे उल्लू बैठा दिखाई देता है और मैं अपना बगीचा बरबाद होने के डर से उल्लू पर पत्थर मारने और रोने लगता हूँ। तभी मुझे सभी डालियों से अजीब आवाजें आने लगती हैं और मैं जैसे ही आगे बढ़ता हूँ, पाता हूँ कि हर डाली पर उल्लू बैठे हुए हैं। इसके बाद भयानक खौफ से मेरी नींद खुल जाती है। मैं क्या करूँ?