उत्सवों के सामाजिक राजनीतिक प्रभाव / जयप्रकाश चौकसे
प्रकाशन तिथि : 22 अक्तूबर 2012
इस समय पूरे देश में दुर्गोत्सव धूमधाम से मनाया जा रहा है और बंगाल में तो इसका महत्व दीपावली से भी अधिक है। भारत के अनेक छोटे शहरों और कस्बों में भी अब नवरात्र पर कार्यक्रम होते हैं तथा गणपति उत्सव से अधिक लोकप्रिय नवरात्र हो चुका है। अगर महाराष्ट्र में गणपति उत्सव अत्यधिक महत्वपूर्ण है तो गुजरात में मां दुर्गा का पर्व अधिक धूम से मनाया जाता है। कुछ महानगरों में युवा महीनों पूर्व अपने लिए नौ पोशाकें बनाते हैं और प्रतीकात्मक रूप से नवरात्र शाइनिंग इंडिया का त्योहार बन चुका है तो गणपति उत्सव साधनहीन संघर्षरत भारत का। सिनेमा में दोनों ही त्योहारों का प्रयोग कथा के प्रवाह का हिस्सा बनाया जाता है। 'सरस्वतीचंद्र' के सफल प्रदर्शन के बाद डांडिया नृत्य गीत अनेक फिल्मों में प्रस्तुत किए गए हैं। क्षेत्रीय लोकनृत्य व गीत बॉक्स ऑफिस के परिणाम पर आधारित होते हैं, इसीलिए भांगड़ा डांडिया से ज्यादा फिल्म में प्रस्तुत किया जाता है। फणीश्वरनाथ रेणु की 'तीसरी कसम' पर शैलेंद्र द्वारा इसी नाम से रचित फिल्म के गीतों के मुखड़े भी मूलकथा से लिए गए हैं, परंतु महुआ पटवारिन का गीत नहीं लिया गया, क्योंकि वह इस कदर आंचलिक है कि अखिल भारतीय लोकप्रियता संदिग्ध आंकी गई।
सारे धार्मिक त्योहारों के कारण बाजार में उछाल आता है और अर्थनीति पर असर पड़ता है। आर्थिक मंदी के दौर में पश्चिमी देशों में क्रिसमस पर बाजारों की सज्जा और बिक्री में अंतर आ जाता है। दरअसल सारे उत्सवों के सामाजिक प्रभाव का गहन शास्त्रीय अध्ययन सामूहिक अवचेतन की अंधेरी कंदरा में प्रकाश डाल सकता है। दुकान में खरीदार के प्रवेश से लेकर बिल भुगतान तक उसके चेहरे पर कई भाव आते-जाते हैं, उनका सीसीटीवी कैमरों पर रिकॉर्ड फुटेज से अध्ययन किया जा सकता है और पश्चिम में किया भी गया है। त्योहारों के समय मिठाई की बढ़ी हुई मांग के कारण मावे में मिलावट के प्रसंगों के उजागर होने के कारण चॉकलेट की बिक्री बढ़ी है और इस पर आधारित विज्ञापन फिल्मों की एक पूरी शृंखला भी प्रदर्शित हुई है। हमने अपनी बेईमानी से अपने त्योहारों में विदेशी चॉकलेट को लोकप्रिय बना दिया है। दरअसल त्योहार के कारण डॉक्टरी के व्यवसाय में भी बढ़ोतरी होती है। पेट के रोगी बढ़ जाते हैं और पेट के कारण ही अनेक शहरों में शल्य चिकित्सा के क्षेत्र में व्यवसाय बढ़ जाता है। भारत उत्सवप्रेमी देश है, क्योंकि अन्याय और असमानता आधारित देश में आम आदमी प्रसन्न होने के बहाने खोज लेता है। उत्सव की लहर उसे आर्थिक नैराश्य से मुक्ति का आभास देती है। कई बार इलाज के स्वांग से भी रोग का उपचार हो जाता है। मेडिकल विज्ञान का तथ्य है प्लासेबो, अर्थात खाली कैप्सूल में शकर मात्र भरने से भी रोगी ठीक हो जाता है। मन चंगा तो कठौती में गंगा। राष्ट्र में दुखट घटनाओं के साथ ही उत्सव के कारण सामाजिक परिवर्तन का भी वैज्ञानिक अध्ययन आवश्यक है। एक तरफ आम आदमी डांडिया खेल रहा है, तो उधर केजरीवाल और दिग्विजय सिंह भी राजनीतिक डांडिया खेल रहे हैं। इस खेल को प्रारंभ करने वाली अरुणा रॉय को अब अनदेखा करने वाले अरविंद केजरीवाल द्वारा इस्तेमाल करके उपेक्षित कर दिए अन्ना हजारे के पास अब समर्थकों का सैकड़ा भी नहीं रहा। दिग्विजय सिंह पुराने खिलाड़ी हैं, परंतु अरविंद के मुखौटों के पार नहीं जा पाएंगे, क्योंकि जो व्यक्ति ईमानदारी के भरम के पीछे खड़ा है, उस कवच को भेदना संभव नहीं है। दिग्विजय सिंह लाख सही बोलें, परंतु विश्वास तो अरविंद का किया जाता है। ऐसा वातावरण अरविंद ने बना लिया है। आम आदमी धार्मिक और राजनीतिक डांडिया देख रहा है। अभी उसके भांगड़े का समय नहीं हुआ है।