उत्सव का अर्थशास्त्र व अर्थशास्त्र के उत्सव / जयप्रकाश चौकसे

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उत्सव का अर्थशास्त्र व अर्थशास्त्र के उत्सव
प्रकाशन तिथि :09 अक्तूबर 2015


उत्सव के दिनों में फिल्म व्यवसाय में अौसत से अधिक आय होती है तथा कुछ उत्सव ऐसे भी हैं, जब आय औसत से कम हो जाती है। नवरात्री के प्रारंभ से दिवाली तक के समय में केवल दशहरे के दिन सिनेमाघरों की आय सामान्य से अधिक होती है अन्यथा व्यवसाय इस माह कम ही रहता है। शहर, गांव और कस्बों में भी नवरात्रि के समय सारी रात डांडिया चलता है और सिनेमाघरों से भीड़ नदारद हो जाती है। विगत कुछ वर्षों में गणपति उत्सव से अधिक धूमधाम से नवरात्रि मनाई जाती है। हमारे देश की विराट आर्थिक खाई ने उत्सवों को भी बांट दिया है। श्री गणेश उत्सव अब गरीबों और मध्यम वर्ग का रह गया है तथा नवरात्रि उच्च मध्यम वर्ग और अमीरों का उत्सव इस मायने में बन गया है कि अनेक शहरों में अमीरजादे उत्सव के पूर्व ही नौ दिन के गरबे के लिए नौ ड्रेस बनवा लेते हैं। गणेश उत्सव के लिए ऐसा कुछ नहीं होता। यहां गणेश एवं मां दुर्गा के बीच किसी प्रतिद्वंद्विता की बात नहीं हो रही है। केवल इन उत्सवों को मनाने वालों का मोटा-सा वर्गीकरण करने का प्रयास मात्र किया जा रहा है।

गरबे के लिए गीत गाने वाले सितारों का समय महीनों पहले आरक्षित किया जाता है। गुजरात के अनेक गुणवान नवरात्रि पर अमेरिका में बसे धनाढ्य गुजराती संघों द्वारा वहां गाने का अनुबंध कर लेते हैं। नवरात्रि मनाने के लिए गठित समितियां अपने बजट के अनुरूप कार्यक्रम की तैयारी करती है। समय के साथ बदलते आर्थिक समीकरण सभी क्षेत्रों में निर्णायक सिद्ध होते हैं। लोकमान्य तिलक ने सार्वजनिक गणेशोत्सव की परम्परा प्रारंभ की थी और त्योहार के बहाने राष्ट्र-प्रेम की अलख जगाई जाती थी परंतु अब सार्वजनिक गणेश मंडल उत्सव के समय एकत्रित धन का हिसाब करते हैं और चढ़ावे में आई राशि का संबंध जाने कैसे देवता की सिद्धि से जुड़ गया है। बरसों से सबसे अधिक धन लालबाग के गणपति पर चढ़ाया जाता है। ईश्वर तो सब जगह समान है, चाहे उनका उत्सव कहीं भी मनाया जाए परंतु चढ़ावे जैसी बातों से देवता की आशीर्वाद क्षमता का आकलन कैसे स्वीकार किया जा सकता है। इनसान ही अपने देवता के महत्व का आकलन घटाते-बढ़ाते हैं। उत्सवों को लेकर कुछ पूर्वग्रह भी बन गए हैं। अनेक व्यापारी श्राद्ध पक्ष में महत्वपूर्ण सौदे नहीं करते। गौरतलब यह है कि श्राद्ध अपने दिवंगत बुजुर्गों को स्मरण करने का समय है, तो यह अशुभ कैसे हो सकता है। इस तरह की मान्यताओं का प्रभाव गरीब मजदूर वर्ग पर पड़ता है। श्राद्ध पक्ष में नए भवन का काम प्रारंभ नहीं करने से कितने मजदूर फांकाकशी करते हैं। आए दिन की हड़तालें और उपद्रवी जुलूस इत्यादि के कारण कितने दिहाड़ी मजदूरों के घर चूल्हा नहीं जलता। इसका ही अन्य पक्ष यह है कि दिवाली पूर्व के माह में घरों में रंगाई-पुताई होती है, नया फर्नीचर आता है और इन सब में अनेक मजदूरों को काम मिलता है। दिवाली के बाद मनोरंजन व्यवसाय में बढ़त भी इसी कारण होती है कि मजदूर वर्ग के पास अतिरिक्त धन होता है। कुछ संस्थाएं वेतन के साथ बोनस भी देती है और इस तरह मध्यम वर्ग के पास भी पैसा होता है।

चुनाव में सारे दल खूब धन खर्च करते हैं और लोगों को मजदूरी कमाने का अवसर होता है। चुनाव भी आर्थिक फुगावे को जन्म देते हैं। सत्तारूढ़ दल कुछ ऐसे पॉवर लीवर दबाता है कि शेयर बाजार में भी तेजी आ जाती है। बाजार की तेजी या मंदी हमेशा स्वाभाविक नहीं होती, इसकी भी 'इंजीनियरिंग' होती है। दरअसल, आम आदमी कितना मासूम और मजबूर है कि वह जानता ही नहीं कि शतरंज का मोहरा मात्र है या कहीं कि व्यवस्था की विराट मशीन का नट-बोल्ट मात्र है परंतु यह भी सच है कि कभी मोहरे किसी हाथ द्वारा उठाए जाने के बदले स्वयं चल पड़ते हैं और एक मामूली बोल्ट के निकल जाने से पूरी मशीन ठप पड़ जाती है। दरअसल, मोहरों और नट-बोल्ट को उनकी अहमियत से गाफिल रखा जाता है और इस काम के लिए बहुत से सामाजिक आविष्कार किए गए हैं। उत्सवों का एक लाभ यह है कि आम आदमी को खुशी चुराने के अधिक अवसर मिल जाते हैं। हम सदियों से उत्सवप्रेमी लोग हैं और हुक्मरान उत्सव रचने में कोई कसर नहीं छोड़ते। वे जानते हैं कि इस अनंत तमाशबीन को कैसे भरमाए रखना है। शैलेंद्र के लिखे 'काला बाजार' के भजन की कुछ पंक्तियां याद आ रही हैं : 'तेे चरणों की धूल मिल जाए तो श्याम तर जाऊं... तेरे दिल ने ही जाल फैलाए, कैसे-कैसे नाग लहराए अब किधर जाऊं...'